बुंदेलखंड संस्कृति

हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा

हास्य रासो

परिचय
रासो काव्यों का प्रमुख उद्देश्य है, समर भूमि में चरित्र-नायक के शैर्य का उच्चतम निदर्शन। उनका प्रमुख लक्षण है नायक द्वारा शत्रु को पराजित करने के प्रयासों के साथ युद्ध भूमि में स्वयं सो जाना। परन्तु हास्य रायसे दुखानत न होकर सुखान्त ही होते हैं। वीरता के जोशीले वर्णन सुनते सुनाते हुए बुन्देली रसज्ञों में ऐसा अनूठा जोश उमड़ा कि उन्होंने असम्भव को सम्भव कर दिखाया। रामायण की लोकप्रियता से रीझ कर जिस प्रकार लोगों ने मनोरंजन के लिए कुछ विशेष चौपाइयों की पैरोडी के द्वारा गड़बड़ रामायण की सृष्टि की, उसी प्रकार बुन्देलखण्ड के कुछ थोड़े से रचनाकारो ने ""हास्ये-रासो'' के रुप में एक नवीनता की सृष्टि की। आचार्यो ने वीर रस और हास्य रस के बीच प्रबल विरोध माना है, परन्तु हास्य रासो में दोनों के समन्वय का प्रयत्न किया गया है। उत्साह यदि धमनियों में रक्त का संचार बढ़ा सकता है, तो हास समस्त जीवन का पौष्टिक है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ""हास्य'' जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति कैसे भी चिन्तित अवस्था में क्यों न हो, हास्य का पुट अवश्य ही कुछ समय के लिये उसे अपना दु:ख भुलाकर प्रसन्नता प्रदान करता है। इसी महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिये संस्कृत नाटकों में विदूषक नाम के एक पात्र की योजना की गई है। इसके अतिरिक्त बड़े बड़े महाकाव्यों, नाटकों ,उपन्यासों व चलचित्रों आदि में बीच-बी में हास्य का थोड़ा बहुत विधान उ#ुबे हुए पाठकों व दर्शकों के मन को जाजगी व शक्ति देने के लिए किया गया है। मानसिक थकान के साथ-साथ शारीरिक थकान को भी दूर करने में हास्य रस का अपना महत्वपूर्ण स्थान है।

बुन्देली बोली में लिख गये छोटे बड़ तीन हास्य रासो उपलब्ध हुए हैं। 

यह रासो ग्रन्थ हास्य रस के सुन्दर परिपाक से युक्त किसी सरस कथानक के साथ रचे गये हैं।

इन बुन्देली प्रतीक रचनाओं में बुन्देली कवियों द्वारा ""वीरता'' और ""हास्य'' का अद्भूत समन्वय बड़ी मौलिक सूझ-बूझ के साथ किया गया है। इनके सम्बन्ध में श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव लिखते है-""विरोधों को चुनौती देते हुए बुन्देली कवियों ने पिछले समय में ""छछूंदर रायसो, गाडर रायसो, और घूंस रायसो नामक कृतियों द्वारा मौलिक सूझ-बूझ का परिचय दिया।'' वह वरीता का युग था। सर्वत्र वीरतापूर्ण कार्यों की चर्चा एक आम जन भावना बन गई थी। आधुनिक फैशन की भाँति उस युग में शौर्य वर्णन भी एक आम फैशन की तरह हो गया था।

हास्य रासो ग्रन्थों में जो प्रतीक अपनाये गये हैं और जिस प्रकार के कथानक की सृष्टि की गई है, उससे वीरत्व का उपहास भले होता है, पर प्रबुद्ध वर्ग के लिए वे स्वस्थ मनोरंजन हैं एवं रासो काव्य रचना प्रियता के स्पष्ट प्रमाण भी हैं। उपलब्ध रासो काव्यों पर पृथक-पृथक विवेचन निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा रहा है-

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छछूंदर रायसा

छछूंदर रायसा आकार में बहुत ही छोटा है। इस रचना के लगभग ७-८ छन्द ही उपलब्ध हैं जिनमें इसका कथानक पूर्ण हो गया है। छछूंदर एक घृणा पैदा करने वाला प्राणी है जो एक विशेष प्रकार की दुगर्ंध छोड़ता है। इस व्यंग्य रचना में एक लोकोक्ति ""भई गति सांप छछूंदर केरी।'' को आधार माना गया है। छछूंदर की यह विशेषता है कि यदि सांप उसे निगल ले तो या तो वह अन्धा हो जाता है अथवा मर जाता है, तो दांतों की विशेष बनावट के कारण छछूंदर की बाहर उगल नहीं सकता एवं प्राण हानि के भय से वह उसे निगलना भी नहीं चाहता ऐसी परिस्थिति में फंसे साँप की गति को समान परिस्थितियों में फंसे व्यक्ति की तुलना में प्रतीक माना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस लोकोक्ति को अपने रामचरित मानस में द्विविधा की स्थिति में फंसी कौशिल्या के लिय प्रयुक्त किया है। तुलसी के शब्दों में -

""धरम सनेह उभय मति घेरी। भइ गति साँप छछूंदर केरी।
राखउ सुतहिं करउं अनुरोधू। धरम जाइ अरु बन्धु विरोघू।।''

धर्म और स्नेह के बीच कौशिल्या की बुद्धि घिरी हुई थी और उनकी दशा साँप छछूंदर जैसी हो रही थी। यदि वे हठपूर्वक राम को वन जाने से रोक लेती तो धर्म चला जाता और भाइयों से विरोध होता और यदि वे उन्हें वन जाने के लिए कहती तो इसमें बड़ी हानि थी। यह स्थिति बड़े धर्म संकट की थी। अतः साँप छछूंदर की गति वाली कहावत धर्म संकट की स्थिति के लिए ही उपयुक्त प्रतीत होती है।

""छछूंदर रायसा'' में भी छछूंदर एक ऐसे विजातीय किन्तु शक्ति सम्पन्न सामन्त अथवा सरदार का प्रतीक होता है जो किसी गढ़ में सुरक्षित होकर रह गया था किन्तु अपनी कुटिलता की विषाक्त गन्ध से शासक वर्ग को प्रभावित करता रहता था। पर यहाँ इस रायसे के प्रारम्भ की पंक्तियों से विदित होता है कि छछूंदर कुए में गिर पड़ी उसे बाहर कौन निकाले किसकी भुजाओं में इतनी शक्ति है

""गिरी छछूंदर कूप में भयौ चहूं दिसि सोर।
जो बाहर काड़ै कुआ को है भुजबल जोर।।''

धर्मपाल नामक व्याल छछूंदर से युद्ध करने को तैयार होता है। यहाँ पर धर्मपाल साँप के स्वभाव वाले किसी व्यक्ति का प्रतीक है। छछूंदर कुएं में गिरे तो यह स्पष्ट ही है कि वह पानी में भंग जायेगी तथा यह चूहे की तरह का ही प्राणी है अतः पानी में गिरते ही शक्ति हीन हो जाता है जबकि सपं पानी में भी शक्ति सम्पन्न रहता है। इस प्रकार सपं के स्वभाव वाले किसी सामन्त द्वारा कुंए में पड़ी हुई अशक्त छछूंदर के समान किसी दूसरे सरदार परविजय पा लेने के प्रसंग पर ""छछूंदर रायसा'' तीव्र व्यंग्य है। झूठी प्रशंसा के युग में जब कविता भाजी रोटी हो गई थी ऐसे समय में इन हास्य रचनाओं के रचनाकारों द्वारा उन कवियों और कुपात्र शासकों पर कठोर व्यंग्य है।

युद्धस्थल में दो वीरो के युद्ध के साथी भी होते हैं। छछूंदर रायसे में साँप और छछूंदर के मध्य हुए युद्ध के गवाह मेंढ़क और कैंकड़े हैं। कुएं में पड़ा हुआ मेंढ़क -""कूप मूण्डूक'' विवेहीनता या सीमित ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस व्यंग्य रचना में भी कवि का यही दृष्टिकोण प्रतीत होता है। अर्थात् साँप और छछूंदर के स्वभाव वाले दो शासकों के इस युद्ध के साक्षी विवेक रहित या अल्पज्ञ व्यक्ति ही रहे होंगे।

छछूंदर पर विजय प्राप्त करने धर्मपाल व्याल कुंए से बाहर निकला तो सारे जहान में सह संवाद फैल गया। उस समय धर्मपाल की स्थिति काली नाग को नाथ कर यमुना से बाहर निकले कृष्ण के समान थी। रासो की पंक्तियां इस प्रकार हैं-

""धरम पाल बाहर कढ़ौ, जानी सकल जहांन।
ज्यों काली कौ नाथ के, बाहिर आयौ कान।।''

परन्तु उपर्युक्त पंक्तियों में भी विजेता के ऊपर तीक्ष्ण व्यंग्य है। छछूंदर के समान दुर्बल एंव बल वैभव रहित किसी छोटे-छोटे मोटे सामंत को विजित कर लेने पर धर्मपाल व्याल के प्रतीक व्यक्ति के किसी खुशामदी कवि द्वारा उसकी विजय का अत्यन्त अतिरंजित वर्णन किया गया होगा। यहाँ खुशामदी कवि द्वारा उसकी विजय का अत्यन्त अतिरंजित वर्णन किया गया होगा। यहाँ इस रचना में धर्मपाल को अपना धर्म पालन करने अर्थात् छछूंदर के ऊपर विजय प्राप्त करने में श्रीकृष्ण तथा छछूंदर को काली नाग की उपमा देने में रचनाकार का झूठा विरुद ढोने वाले किसी व्यक्ति के ऊपर करारा व्यंग्य है। सम्पूर्ण उक्ति अभिधा में न होकर शुद्ध व्यंजना में है।

छछूंदर रायसे के रचनाकार के जीवन वृत्त एवं उसकी जाति-पांति के विषय में बहुत प्रयास किए जाने पर भी कुछ पता नहीं चल सका। परन्तु धर्मपाल नामक कवि के कल्पित व्याल को प्रधान वंश का बली बताया जाना सुरुचि का परिचायक नहीं है। यहाँ बुन्देलखण्ड में प्रधान वंश का आशय कायस्थ जाति से ग्रहण किया जाता है, और पिछले समय में कायस्थ प्रतीक रहा है अधिकारी वर्ग का जन साधारण को अधिकारी वर्ग से सामान्यत- एक खीझ रही है। बहुत सम्भव है कि रचनाकार को राज्य शासन से कुछ विशेष चिढ़ रही हो। 

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गाडर रायसा

""छछूंदर रायसा'' के पश्चात हास्य रासो क्रम में ""गाडर रायसा'' है। बुन्देली बोली में ""गाडर'' शब्द ""भेड़'' के लिये प्रयोग किया जाता है। भेड़ एक नितान्त कायर, शक्ति हीन और अहिंसक पशु होता है। तथा यह समूहगामी प्राणी भी है। भेड़ की इसी प्रवृत्ति को लेकर ""भेड़ियाधसान'' मुहावरा बना।

""गाडर रायसा'' एक व्यंग्यात्मक हास्य रचना है। रचनाकार का मूल उद्देश्य बुन्देलखण्ड के किसी बनिया स्वभाव वाले ठाकुर पर व्यंग्य करना है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक सम्पूर्ण कथानक व्यंग्य से पूर्ण है। ""गाडर'' किसी शक्तिहीन सामन्त का प्रतीक है, तथा बनियां निर्बल ठाकुरों का प्रतीक है, जो अपनी मि प्रशंसा के आदी हो चुके थे। ऐसे ठाकुरों को यहाँ बुन्देलखण्ड में बनिया ठाकुर कहा जाता था। जाति शूर होने का उन्हें कोरा ही दंभ था पर सचमुच वे बनिया जाति की भाँति कायर थे। इस रायसा में वैश्य जाति के जो आस्पद चुने गए हैं उनका भी एक विशेष अर्थ है, ""गाडर'' के विरुद्ध बनियों की जो फैज तैयार हुई, उसमें मोर कीसी सजगता व तीक्ष्णता वाले ""मोर'', बिलैया जैसी चालाकी वाले ""बिलेया'', नाहर जैसी शक्ति के प्रतीक ""नाहर'' तथा इसी भाँति गंधी, नगरिया आदि विशेष वर्ग के वैश्य थे। ये सभी वैश्य जातियां ठाकुरों की विशेष उपजातियों पर व्यंग्य हैं। वीरता क्षत्रियों का स्वाभाविक गुण माना जा सकता है पर नाम और जाति से भी वीरता का बाना धारण करते हुए कायरता दिखलाने वाले ठाकुर को यहाँ व्यंगय का विषय बनाया गया है।

श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव इसे कोरा हास्य एवं मात्र मनोरंजन मानते हैं। इनका मत है-""हमारा तो विश्वास यही हे कि वीरता जैसे किसी भी सद्गुण पर किसी जाति-उपजाति का एकाधिकार नहीं। परन्तु वैश्यों की व्यवसायिक शांतिप्रियता का किसी अज्ञात पुराने कवि ने मखौल उड़ाने के लिये ही उनके द्वारा इस प्रकार युद्ध का रुपक रच डाला है, जो मात्र मनोरंजक के नाते क्षम्य है।''

""गाडर रायसा'' को ""मजाकिया रायसा'' कहा जाना भी उपयुक्त नहीं है, जैसा कि श्री हरिमोहन लाल जी ने लिखा है। और न यह मखौल उड़ाने के लिये लिखा गया मनोरंजन काव्य है। बुन्देलखण्ड के इतिहास में अवश्य ही ऐसी कोई घटना घटित हुई होगी, जिसमें किसी भेड़ शक्तिहीन समान्त ने बनिया जैसे निर्बल और डरपोक ठाकुरों पर आक्रमण किया हो और उन बनिया ठाकुरों ने उससे टक्कर लेने के लिए अपनी सेना इकट्ठी की हो, परंतु फिर भी पराजय हाथ लगी हो, और डाड़ चुकाना पड़ गया हो।

गाडर रायसा में बनिया ठाकुरों की वीरता एवं सेना का जो चित्रण कवि द्वारा किया गया है, वह इस प्रकार है-

""जहं कौन की है बात, उठ सेर मारे प्रात।
लीनी सवारी वेस, ओढ़ चिलता खेस।।
जुर चले सजकै सेन, कासी कहै जब वैन।
अब खबर ले अमगाइ, हुन नाउऔ पइवाइ।।''

भला बनिया ठाकुर प्रातः काल उठकर शेर मार सकता है, उपर्युक्त पंक्तियों में व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण है। गाडर जैसे निरीह प्राणी के लिऐ ऐसे-ऐसे व्यक्तियों का सेना सजाकर जाना जो शेर मारने की शक्ति रखते हों। ऐसे लोग भी लड़ने की योजना पर घर के कोने में बैइकर काना फूसी करें। ""ठाकुर और चाकर'' सब एक स्वरुप दिखलाई पड़ते हैं। अर्थात् वैश्य वर्ग की पोषाक लगभग उस जमाने में एक सी ही हुआ करती थी। नीचे लिखी पंक्तियों कमें यह विवरण देखिये।

रासो में एक स्थान पर कवि ने बगली, कतैया, पाग या पगड़ी, तथा धोती आदि वस्रों की चर्चा भी की है। बगली व कतैया नाम का ढीलाढाला कुर्ता आमतौर पर बुन्देलखण्ड के बनियों द्वारा पहना जाता था।

""ठाकुर चाकर चीन न परें, एक रुप पनमेसुर करे।
लरबे की मसलत सब ध्रै, काना फूसी बैठे करे।।''

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इस प्रकार लड़ने का कोरा दंभ रखने वाले झूठी प्रशंसा चाहने वाले कायर और सामर्यिहीन लोग ही कोने में बैठकर कानाफूसी करने वाले होते हैं। जब ये बनिया ठाकुर ""गाडर'' से युद्ध के लिए प्रस्थान करते है, तब कुंजो नाम की स्री भूमियां नामक स्थानीय देवता से प्रर्थाना करती है, कि जब साहु बनिया ठाकुर जीत कर घर आवेंगे तो गुरया को रोट चढ़ा गा-बजाकर सती की पूजा कर्रूंगी, ""आसो'' की पूजा उसारकर रख दूगी। इस प्रकार अपने गुरु के चरणों की वन्दना करके परतैया नामक वयक्ति के नायकत्व में बनिया ठाकुरों की वह सेना जब सरकती हुई ""गाडर'' की तरफ जाती है, तब तक "विघना'' भेड़िया गाडर पर हमला कर देते हैं। ""विघना'' यहाँ तीसरे किसी अधिक शक्ति सामन्त का प्रतीक है, जिसके अचानक आक्रमण से ""गाडर'' के प्रतीक सामन्त मैदान छोड़कर भाग निकलते हैं। इस स्थिति को बनिया ठाकुर अपने ऊपर गाडरों का हमला समझ बैठे और घबड़ा कर इधर-उधर भागने लगे।

""गाडर रायसा'' में इस स्थिति का वर्णन निम्न पंक्तियों में देखिए-

""सरकत चले बानियां जबै,
सरकौआं दृग मूंदे तबै।
जै लौ विघना परै बजाई,
गाडर रा भागै अकुलाई।
झपट गई भरका की गैल,
परी बानियन के दल ऐल।।''

गाडर तो विघना के डर से भाग रही थी पर बनियों के समूह में खलबली मच गई। गाडरों ने तो मनुष्य समझकर सहारे की कामना से बनिया ठाकुरों का सामीप्य पकड़ा था।

""मानस जान आसरौ लयौ।
बनियन पसर जान भगदयौ।।''

परन्तु ये बनिया ठाकुर इतने भीरु थे कि स्वयं भी इतने भयभीत हो गये कि वे कुंए में गिर पड़े और ""विघना'' के डर के से ""गाडर'' भी ऊपर से गिर पड़ी। कुएं में पड़े हुए बनिया ठाकुरों की दयनीय दशा का कवि ने बहुत ही रोचक चित्रण किया है।

""लख कासी रोवन जब लागौ,
बचौ कुआ न इनपै भागौ।
हाथ जोर जब ही चिचियाई,
आज न बा दल के हम आई।।'

उपर्युक्त पंथ्कतयों में बनिया ठाकुर गाडर से प्रार्थना करता है कि मुझे बचने दो मैं उस दल का नहीं हूं। यहाँ उस दल से अभिप्राय गाडर से युद्ध करने आई बनिया ठाकुरों की सेना से हैं।

गाडर कुंए के जल में स्वयं भयभीत होकर तैर रही थी और बनिया ठाकुर करुणा कर के उसके पैरों पर गिर रहा था तभी-

""चरन छुवत गाडर सिर चढ़ी,
बिनवत करुना करके बड़ी।।''

गाडर बनिया ठाकुर के सिर पर च्ढ़गई और वह अपने पुत्र की सौगन्ध खाकर पुनः कहने लगा कि मैं उस दल का नहीं हूं। इस पंक्तियों में कायरता की पराकाष्ठा है। वह "गाडर राय' से दण्ड भरने के लिए कहता है। तब गड़रिया आकर रस्सा का फँदा बनाकर गाडर को कुंए से निकाल लेता है तथा बनिया ठाकुरों को निकाल देता है। बहुत पुराने समय से ही बुन्देल खण्ड के राज्यों में दण्ड भरने या चौथ वसूल करने की प्रथा विद्यमान थी। पराजित शासक विजेता राजा को चौथ देना स्वीकार कर सन्धि कर लेता था और एक-दूसरे के सहयोगी हो जाते थे। "गाडर रायसा' में भी कवि ने ऐसा ही वर्णन उपस्थिति किया है।
कवि के द्वारा दिया गया विवरण निम्न प्रकार है-

""घर तै ले रुपया जब दये,
मिला वेग परताई लये।
न मिलक सबहीविधि करी,
हिए भक्ति गाडर की परी,
करी खातरी धिक जब, बसौ खुसी सों जाइ।
पटी हमारी में बसौ, बाखर लेउ बनाय।।

"गाडर रायसा' विशुद्ध बुन्देली बोली में लिखा गया है। लिपिकारों ने अज्ञातवश इस रचना के कुछ शब्दों में मनमाने हेर फेर कर लिए हैं, जिनकी पाठ शुद्धि आवश्यक है। उदाहरण के लिए "दगली' शब्द अशुद्ध है, इसके स्थान पर "बगलीद्ध शब्द होने चाहिए, जिसका अर्थ एक वस्र विशेष से है, जो पुराने लोग "कतैया' नाम के वस्र की तरह प्रयोग करते थे। इसी तरह "दहेड़ा' का "दहोंड़ा' गहरा भरा हुआ पानी का स्थान, "बाजियों का "बानियों' बनियो का बहुवचन क्योंकि बुन्देली में "बाजियों' कोई शब्द नहीं है, होना चाहिए। एक शब्द "धूं का' जिसका अर्थ श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने "धक्का' से लिया है ,जबकि यह शब्द विशुद्ध बुन्देली की बोली का है और इसका अर्थ एक "जोरदार आवाज' है, जो गड़रियो लोग प्राय- भेड़ों को हांकने के लिए प्रयोग करते हैं। ठेठ बुन्देली के कुछ शब्द सरसता और माधुर्य के साथ कवि द्वारा ओचित्यपूर्ण ढंग से प्रयुक्त किए हैं, जैसे-"खेसन के टूंका हो गए' अर्थात् "खेस७ नामक वस्रों के टुकड़े-टुकड़े हो गए। "खेस' बिल्कुल ग्रामीण बोली का शब्द हेफ इसी प्रकार "सरकौआ' सरकते हुए, किंरगचले' चल दिए, "भरका' बीहड़ में टीलों के बीच की ऊबड़ खाबड़ ऊँची नीची जगह, "आसरौ' सहारा, "पसर आदि शब्द हैं, जो बड़ी स्वाभाविका के साथ प्रयुक्त हुए हैं।

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घूस रायसा

गाडर रायसा के पश्चात् घूस रायसा भी बुन्देली की एक व्यंग्य कृति ही है। इसके रचनाकार के विषय में कुछ भी विवरण उपलब्ध नहीं हो सका है, पर रासो की एक पंक्ति ""को बरनै पृथीराज कहि, फिरकै निकसी घूंस'' के अनुसार "पृथीराज' को इसका कवि माना जाना चाहिए। यह किसी कवि द्वारा धारण किया हुआ कलिपत नाम भी हो सकता है। इस सम्बन्ध में श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव का मत निम्नानुसार है-""यह "घूंस रायसा' "पिछले समय में लिखे गए "गाडर रायसा' के कवि की एक अन्य रचना है, जिसमें कुंजों नामक बुन्देलीखण्डी स्री और कासी नामक सेठ के प्रतापी पुत्र "परतैंया' के शौर्य का ही वर्णन है, इस कवि का असली नाम तो हमें विदित नहीं हो सका, परन्तु उसने "रासो' काव्य को मजाक का विषय बनाते हुए "पृथीराज' का कल्पित नाम भी धारण कर रखा था।'' परन्तु "घूस रायसा' के कवि की अन्य रचना होने में सन्देह है, क्योंकि एक तो गाडर रायसा में कवि के कल्पित नाम "पृथीराज' का कहीं उल्लेख नहीं पाया जाता, दूसरे भाषा एवं छन्द शैली में भी दोना#े#ं रचनाओं में पर्याप्त अन्तर है। गाडर रायसा तथा घूस रायसा एक ही काल में लिखी गई रचनायें तो हो सकती हैं, पर यह दोनों एक ही कवि की दो रचनायें नहीं सकतीं। दोनों कृतियों में पात्रों के नाम के साम्य के कारण ही श्री हरिमोहन लाल ने इन्हें एक ही कवि के द्वारा लिखी गई माना है पर एक कवि के द्वारा चुने गए नामों को किसी अन्य कवि द्वारा भी तो अपनाया जाना सम्भव है।
घूस रायसा भी छोटी रचना ही है। इसमें कुल ३१ छन्द है। घूस चूहे के आकार का एक बड़ा जन्तु होता है। घूस के विकराल स्वरुप व उसके उत्पातों का वर्णना करके, कुंजोंनाम की स्री और परताईं नामक वेश्य का जो कथानक इसके साथ जोड़ा गया है, उसमें हास्य की अपेक्षा व्यंग्य ही अधिक है। उस युग में जबकि हर आम व खास में युद्ध व युद्ध की चर्चायें मानव जीवन का प्रमुख अंग थीं, प्रत्येक सामन्त, सरदार अथवा क्षत्रिय को युद्ध लड़ने ही पड़ते थे। युद्धों में मारकाट की भयंकरता कायरों को युद्ध क्षेत्र से भागने के लिए विवश कर देती थी, क्योंकि सभी क्षत्रिय शूप सूपत नहीं होते थे। बहुत से कायर सरदारों के युद्ध छोड़कर भागने के उदाहरण इतिहास में मिल जायेंगे। घूस रायसा में परतैयां को ऐसे ही किसी भगोड़े सरदार का प्रतीक माना गया है, जो शत्रु का सामना न कर पीठ देकर भागा हो।

रायसे में कवि ने कुंजों के द्वारा अपने पति की वीरता पर किए गए व्यंग्य को निम्न प्रकार चित्रित किया है-

""पिया अधिक सुकुमार,
करौ घूंस सौं रार जिन।
खाल डार है फार,
तुम रोवत लम्पा लगे।।''

उपर्युक्त पंक्तियों में कायर क्षत्रियत्व पर तीव्र व्यंगय है। भारी-भारी हथियार धारण करने वाले तथा दुर्दान्त शत्रुओं का सामना करने वाले क्षत्रियों और सरदारों को कोमलता नहीं कठोरता शोभा देती है। परतांई की तरह वे लम्पा लगने पर रोते नहीं हैं। हथियारों के व खाकर वे मुस्कराते हैं पर कुंजो के सामने निरीह परताई भी अपनी बाहदुरी का सिक्का जमाना चाहता है। ऐसे लोगों को घर का शेर कहते हैं। अपने घर में बैठकर दुनियाँ को जीतने की योजनायें गढ़ेंगे, पर मोर्चे पर जाने में इनकी पिंडलियाँ काँपती हैं। ऐसे लोग अपने घर की स्रियों पर ही रोब जमा लेते हैं। घूस रायसा में कवि ने इस स्थिति को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

""सुन दौकरन नारी सौ लगौ,
कबै देख संग्राम में भगौा''

उपर्युक्त उदाहरण की दूसरी पंक्ति से यह स्पष्ट होता हे कि परताई अपनी पत्नी पर रौब जमाता हुआ कहता है कि संग्राम को देखकर मैं कब भागा हूँ यहाँ अप्रत्यक्ष रुप से युद्ध से भागने की स्थिति पर ही व्यंग्य है।

घूंस रायसे में युद्ध का वर्णन भी बड़ा विचित्र एवं व्यंग्यपूर्ण है। जब "दौआ' एक विशिष्ट व्यक्ति या मुखिया, जो प्राययः अहीर या यादव जाति से सम्बन्ध रखता है से पुकार की गई, तो तलवारें ले लेकर घूस को मारने के लिए मर्द वीर पुरुष दौड़ पड़े। बड़े-बड़े मंच बनाकर उन पर योद्धा लोग डट गए और पनालों की राह रोकरकर बैठ गए। इसी समय दीपक बुझ गया और घूसों का "घेरा प् गया, अर्थात् घूसों ने निकल कर हमला कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सारे योद्धा एक-दूसरे को रगड़ने और कुचलने लगे। वे सब लोग आपस में ही लड़ बैठे। यहाँ पर व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण यह है कि जब विवेक का दिया दीपक बुझ गया तो वे सब योद्धा घर में आकर आपस में ही लड़ मरे। रायसे में उल्लिखित पंक्तियाँ निम्नानुसार हैं-

"दिया बुझौ तिहि बार''
""आपसु ही में लर मरे,
हम घर ही में आइ।''
और आगे कवि लिखता है-
""राइकपरिया झूट,
कहा करतार बनाई।
आपुस ही में लर मरे,
मूंढ़ बानि में मूंस।''

उपर्युक्त पंक्तियों में किन्हीं सामन्तों, सरदारों आदि की विवेक शून्यता पर स्पष्ट व्यंग्य है।

रायसो के अन्तिम वर्णन में दिखलाया गया है कि दोनों पक्षों में सुलह हो गई। घूस कृपाल हो गई। उसने साहु को पगड़ी दी। जमीन दी और अभय किया। सहुआइन मीदिन को रेशमी लंहगा तथा चुनरी दी।

घूस रायसे में कवि को भाषा में पर्याप्त सफलता मिली है। कुछ बुन्देली के ग्रामीण माधुर्य युक्त सम्बोधन बड़ी स्वाभाविकता से प्रयुक्त किए गए हैं- जैसे मोदिन साहु अर्थांत वैश्या की पत्नी लांगा लहंगा गदवद शीघ्रता पूर्वक, चियांइ चिल्लाये आदि। इसी प्रकार कुछ पंक्तियों में भी अर्थवत्ता एवं भाषा सौन्दर्य देखा जा सकता है। जैसे -

१. ""तुम रोवत लंपा लगे।''
२. ""मेरा परे जुझार।''
३. ""मसडद्या मैड़ी भई।'' आदि

निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि हास्य व्यंग्य काव्य की दृष्टि से छछूंदर रायसा, गाडर रायसा तथा घूंस रायसा का महत्वपूर्ण स्थान है।

 

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