बुंदेलखंड संस्कृति

हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा

कटक रचनाऐं

पारीछत कौ कटक - यह श्री द्विज किशोर द्वारा विरचित बुन्देली की छोटी सी रचना है। यह ""बेला ताल कौ साकौ'' के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि इस काव्य में बेला ताल की लड़ाई का वर्णन है। इस रचना में जैतपुर के महाराज परीछत के व्यक्तित्व और उनके द्वारा प्रदर्शित वीरता का वर्णन किया गया है। सन् १८५७ से भी पहले महाराज पारीछत ने अंग्रेजी शासन के विरुद स्वाधीनता का बिगुल बजाया था। ""पारीछत कौ कटक'' अधिकतर जनवाणी में सुरक्षित रहा। सम्भवतः अग्रेजी शासन के भय से इसे लिपि वद्ध न किया जा सका होगा। लोक रागिनी में कई छन्द लुप्त होते चले गये हों तो आश्चर्य क्या। 

झांसी की कटक - यह झांसी के तात्कालीन अखाड़िया कवि ""भागी दाऊजी ""श्याम'' विरचित है। जो १८५७ की क्रान्ति के प्रत्यक्षदर्शी थे। डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा ने अपेन प्रसिद्ध उपन्यास ''झांसी की रानी'' के समकालीन कवियों में भग्गी दाऊजू का उल्लेख किया है। यह कक डॉ. भगवानदास माहौर झांसी द्वारा संपादित ""लक्ष्मीबाई रासो'' के परिशिष्ट में दिया गया है। कटक बीच में दो स्थानों पर खण्डित है। १ से ३३ तक छन्दों के बाद ३६ से ३८ छन्द तक है। ३९ वाँ छन्द अधूरा है फिर प्रति खण्डित है। फिर ४० से ४२ तक छन्द है। यहीं ""कटक्'' समाप्त हो गया है। समाप्ति पुष्पिका इस प्रकार दी गई है--

भिलमलसांय की कटक - इसके रचनाकार कवि भैरोंलाल हैं। बुन्देल वैभाव सं. गौरीशंकर द्विवेदी ""शंकर'' झांसी में कवि का जन्म स्थान श्रीनगर बताया गया है। श्रीनगर बुन्देलखण्ड के किसी साधारण ग्राम का नाम रहा होगाा संभव है, कवि ने और भी रचनायें लिखी हों। द्विवेदी जी के अनुसार भैरोंलाल का जन्म सं. १७७० में हुआ तथा इनका कविता काल सं. १८०० विक्रमी थाा इस रचना में अजयगढ़ राज्य के दीवान केशरी सिंह और बाधेल वीर रणमतसिंह के युद्ध का वर्णन दिया गया है। बाबा रणतसिंह ने सन् १८५७ में स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी शासन का डटकर विरोध किया था/ यह रचना भी उस समय अधिकतर जनवाणी में ही सुरक्षित रही, परन्तु अजयगढ़ राज्य के एक नरेश श्री रणजोर सिंह ने ""भिलसांय को कटक'' अपनी एक पुस्तक के परिशिष्ट के रुप में मुद्रित कराया है जो आज भी अजयगढ़ राज्य पुस्तकालय में सुरक्षित है। इस रचना को उपलब्ध कराने का श्रेय श्री अम्बिकाप्रसाद ""दिव्य'' अजयगढ़ को है। रचना छोटी है पर भाषा, छन्द एवं विषय की दृष्टि से महत्वूपर्ण है।

महत्व
रास तथा रासो या रासक रचनायें प्रमुखतः दो रुपों में उपलब्ध होती है। १. धार्मिक रचनायें २. ऐतिहासिक कोटि की रचनाएं। धार्मिक रचनाओं के अनतर्गत रास ग्रन्थों में जैन कवियों द्वारा लिखित जैन धर्म से सम्बन्धित रचनायें आती हैं। इन रचनाओं में जन तीर्थकरों तथा जैन धर्म के सिव्द्धान्तों के धार्मिक विश्वासों आचार एवं व्यवहारों पर प्रकाश डालती हैं तथा जैन साहित्य को भी इन रचनाओं के द्वारा पर्याप्त संरक्षण प्राप्त हुआ है। धार्मिक रचनाओं के ही अन्तर्गत दूसरा स्थान बौद्ध सिद्धान्तों का विवचेन किया गया है। इसके अतिरिक्त पौराणिक आधार पर स्थित -पंच पाण्डव रास' पाँचों पाण्डवों के सम्बन्ध में लिखा गया है। ऐतिहासिक कोटि में आने वाले रासो या रासक ग्रन्थों के वर्ण्य विषय भी विभिन्न दिखलाई पड़ते हैं। कुछ रचनाओं में शृंगार रस को प्रधानता मिली है, जैसे सन्देश रासक मुंजरास तथा वीसलदेव रास। इन ग्रन्थों का कथानक किसी न किसी प्रमाख्यान से सम्बन्धित है। मांकण रासो, छछूंदर रायसा, गाडर रायसा व धूस रायसा हास्य रस की राचनायें हैं, परन्तु अधिकता वीर रस की रचनाओं की ही है। युग विशेष की संस्कृति, धर्म, इतिहासतथा राजनीति आदि की परिस्थितियों का एक लिपिबद्ध विवरण प्रस्तुत करने में इन रासो ग्रन्थों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

 

 

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