बुंदेलखंड संस्कृति

हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा

रासो कावें का मूल प्रतिपाद्य

 

सामाजिक - देश के अधिकांश भूभाग पर मुगल सत्ता का प्रभाव था। चंपत राय और छत्रासाल जैसे थोड़े क्षत्रिय थे, जो सुख-वैभव का त्याग कर तथा भारी कष्ट झेलकर आजीवन मुगलों से लोहा लेते रहे। अधिकांश राजवंशों में फूट एवं वैमनस्य था, जिससे वे आपस में लड़कर नष्ट होते रहते थे।

अधिकांश क्षत्रिय राजाओं और सामन्तों पर मुस्लिम शासकों की संप्रभुता का प्रभाव छा चुका था। अपने सीमित स्वार्थों की सुरक्षा के लिए विदेशियों के प्रति अटल और असीम निष्ठा पर वे गर्व करते थे। साम्राजय की रक्षा के लिए वे सुदूर दक्षिण में तथा उतर में बलख-बदख्शां तक भी रक्त का बहाना अपना वीरोचित धर्म समझते थे। बुन्देला राजपूतों में एक उल्लेखनीय विशेषता यह अवश्य रही कि वे अपने रक्त सम्बन्ध पर गर्व करते रहे। यहाँ मुसलमानों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जाने जैसे किसी भी उदाहरण का नितान्त अभाव है। बलात् धर्म-परिवर्तन की धटनायें भी नगण्य ही रहीं। टिकैत मधुकर शाह जैसे कुछ उदाहरण भी पाये जाते हैं, जिनमें मुगल दरबार के प्रति भक्ति के साथ ही स्वधर्म पालन के प्रति कट्टरता का अच्छा निर्देशन हुआ है। शुभकरन और दलपतिराव जैसे सामन्त किन्हां अवसरों पर मुगल सेना के प्रभावशाली नायकों से खुलकर मतभेद प्रकट कर सकते थे। अधिकांश अवसरों पर सम्राट बुन्देली आनबान का ध्यान रखते हुए उनका विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे।

बुन्देलखण्ड के सभी राज्यों में मुगलों के समान शान शौकत एवं विलास-प्रियता का दौर था। यह प्रभाव उनके अन्तःपुरों में एक से अधिक रानियों के परिवारों में कभी कुछ स्प्श्ट देखने को मिल जाता था। गृह कलह् भी देखा जाता था। सामान्ती वातावराण के राज्य-कर्मचारी विलासमय जीवन बिताते थे। निम्न वर्ग की जनता की दशा सोचनीय थी। समाज के गरीब तबके के लोग सुखी न थे, परन्तु किसी प्रकार निर्वाह करते जाने को ही भाग्य-विधान मानते थे। अधिकांश लोग राजा की नौकरी करना पसन्द करते थे, जिससे उनहें अर्पेक्षाकृत अधिक सुविधायें मिल सकें। मध्यम वर्ग सुखी था। हिन्दू समाज में बाल विवाह प्रचलित था। सती प्रथा भी थी। उच्च घरानों में पर्दा प्रथा भी प्रवेश पा चुकी थी।

युद्धों के समय मंहगाई हो जाती थी। रासो ग्रन्थों में कहीं-कहीं इसका उल्लेख मिलता है-

""तेरह दिनानों भयौ नाज तीन रुपै सेर,
पानी घास मिलै नाहीं कीनौ दष्षिनीन घेर।
करत विचार तहाँ भए हैं मुकाम तीन,
डेरन पे सत्रसेन रही चहुँ ओर फेर।।''
एक अन्य उदाहरण-
""मरे ऊट अरु बाज मिले आनउन घास तहं।
पानी के आगे नहिं सपावै उसांस तहं।।

उपर्युक्त विवरण के अनुसार स्पष्ट होता है कि राजाओं तथा सामान्त, सरदारों का जीवन अधिकांशतः युद्धों में उलझा रहता था। सामान्य जनता के कष्टों की ओर दृष्टिपात करने का प्रायः उन्हें कम ही अवसर प्राप्त होता था।

राज्य कर्मचारी सुखमय जीवन व्यतीत करते हुये, साधारण प्रजा के साथ मनमाना व्यवहार करते थे। समाज में विभिन्न प्रकार की प्रथायें तथा लोक रीतियाँ भी प्रचलित थीं।

 

धार्मिक - उत्तर भारत में भक्ति युग में एक लम्बी सनत परम्परा रही है, जिसका देश के अन्य भागों पर भी स्पष्ट प्रभाव पड़ा इस समय में अनेक सम्प्रदायों की स्थापना की गई। साधु संतों के वाद-विवादों के अखाड़े हुआ करते थे, जहाँ खण्डन मण्डन की रीतियों द्वारा अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता था। लोगों में अन्ध विश्वास बहुत था।

बुन्देलखण्ड में उत्त्र मध्यकाल में अनेक प्रसिद्ध सन्त हुए, जिन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। महात्मा अक्षर अनन्य योग और वेदान्त के अच्छे ज्ञाता थे। राजयोग के उनके उपदेश का ही परिणाम था कि सेंवढ़ा नरेश राजा पृथ्वीसिंह ने कर्मयोग स्वीकार करते हुए वैराग्य का विचार त्याग दिया। यही पृथ्वीसिंह हिन्दी साहित्य में "रतन हजारा' के रचयिता "रसनिधिद्ध कवि के नाम से विख्यात हुए। इन्होंने अपने काव्य में प्रेम योग की एक सुन्दर धारा वहाई है। अनन्य जी एक बोर किसी बात पर रुष्ट होकर वन में चले गये। राजा पृथ्वीसिंह उनसे क्षमा मांगने पहू#ुाचे, परन्तु उन्हें एक झाड़ी के पास बड़े आराम से लेटा हुआ देखा, तो अपना अपमान समझकर पूछा-""पाँव पसारा कब से'' उत्तर मिला-""हाथ समेटा तब से''।

अनन्य जी ने इसी समय से वैराग्य ले लिया, पर राजा का मन रखने के लिए वचन दिया कि वे विचरते हुए कभी'कभी दर्शन देंगे। पश्चात् बुन्देल केशरी छत्रसाल से भी उनकी भेंट हुई। महाराज छत्रसाल और अक्षर-अनन्य के बीच पत्राचार की बात प्रसिद्ध है। अनन्य जी के लिखे हुए चिट्ठे ऐतिहासिक महत्व से परिपूण्र हैं। निर्गुण मागीं सन्त कवियों में अनन्य का अपना स्थान है। उनकी रचा शैली थोड़े में बहुत कुछ बता देती है। उदाहरण-

""आवै सुगन्ध कुरंग की नाभि कुरंग न सो समुझै मनमाही।
दूध सुधाहिं धरै सुरभी, न सवाद लळे सुरभीतिहिठाही।।
जान कों सार असार अजान कौं, जाने बिना सब बात वृथा हीं।।
ईश्वर आप अनन्य भने इमिहै सबमें सब जानत नाहीं।।''

स्वामी प्राणनाथ धामी प्रणामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए हैं जिन्होंने बुन्देल केशरी छत्रसाल को अपना शिष्य बनाते हुए आशीर्वाद दिया कि वे औरंगजेब के विरुद्ध अपने अभियान में स्थाई सफलता प्राप्त करें, उनके राज्य में सुख समृद्धि की कभी कोई कमी न हो और हिन्दुत्व की रक्षा में उनका नाम अमर हो। सर्व साधारण में यह विश्वास प्रचलित है कि पन्ना नगरीमें हीरों का पाया जाना स्वामी प्राणनाथ के आशीर्वाद का ही परिणाम था, जिससे महाराज को अपनी लड़ाइयों के लिए तथा प्रजा पालन एवं दान शीलता आदि कर्तव्यों के लिए धन की कमी न होने पावे। बताया जाता है कि स्वामी प्राणनाथ जी की सेवा में दक्षिणा भेंट करते हुए छत्रसाल ने निम्नलिखित दोहा कहा-

""यह टीका यह पांवड़वो, यही निछावर आय।
प्राननाथ के चरन पर, छत्ता बलिबलि जाय।।

राजा की नीति धर्म समन्वित थी। राजा लोग राज्य के कार्यों में भी अपने धर्म गुरुओं से सलाह लेते थे। इस युग में ब्राह्मण धर्म का ही बोल बाला था। ब्राह्मणों के आशीर्वाद और प्रचार से ही राजा आन्तरिक व्यवस्था में स्वतंत्र थे। नरेशों के व्यवहार का प्रभाव साधारण जनता पर भी विशेष रुप से व्यक्त होता था। उसमें भी धर्म भीरुता, दानशीलता की प्रवृतियाँ बनी हुई थीं। नरेशों में राज धर्म के अनुसार अन्य सम्प्रदायों के प्रति धार्मिक उदारता का भाव बना हुआ था।

शरणागत वत्सलता का भाव अधिकांश बुन्देला नरेशों में विद्यमान था। उनकी आपसी लड़ाइयों का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वे किसी के पीछे संधर्ष मोल लेने से नहीं चूकते थे। छोटे से दतिया राज्य के अधिकपत्य शत्रुजीत ने महादजी की विधवा बाईयों का पक्ष लेकर अपने से कहीं बड़े वैभव से टक्कर ली थी।

 

राजनैतिक - बुन्देला राजवंश का इतिहास मुख्यत मुगलों के उत्कर्ष से ही प्रारम्भ होता है। मुगलों का तृतीय सम्राट अकबर जिस समय सिंहासन पर बैठा, उस समय भारत छोटे-छोटे अनेक स्वतन्त्र राज्यों में विभाजित था। अकबर ने कई स्वतन्त्र राज्यों पर विजय पाते हुए मुगल साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया। उसने बिखरे हुए इन राज्यों को राजनैतिक एकता में बाँधकर देश में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया। बुन्देलखण्ड को भी उसने राजस्थान, उत्तर-पश्चिम-सीमान्त-प्रदेश, गोंडवान आदि के साथ अपने साम्राज्य का अंग बनाया। यहाँ बुन्देलखण्ड में उसने प्रत्यक्ष अधिकार जमाने की विशेष चिंता नहीं की। राजधानी आगरा का निकटवर्ती यह प्रदेश दक्षिण के उसके अभियानों के लिए सहज सीधा मार्ग था। अतएव उसने ओरछा के बुदेला शासक से मैत्री स्थापित करने में ही अपने उद्देश्य की पूर्ति देखी। मधुकर शाह और वीरसिंह देव जेसे बुन्देलखण्ड का राज्य कई जागीरों में बँट गया। स्वभावतः इन छोटे राजाओं के स्वार्थ मुगलसत्ता से मिलकरचलने में ही पूरे हो सकते थे। अतः ये राज्य साम्राजय की शक्ति पर अधिक निर्भर रहने लगे और इस प्रकारइनकी दासता का अध्याय प्रारम्भ हुआ। अधिकांश बुन्देला राजाओं ने मुगल साम्राज्य के प्रति वफादारी को अपना राजनीतिक धर्म मानकर उसके लिए गर्व करने की नीति अपनाई।

प्रबल प्रतापी वीरसिंह देव एक अत्यन्त महत्वकांक्षी योद्धा थे। बादशाह अकबर और शाहजादा सलीम में जब मतभेद उभर कर प्रकटहुए और सलीम ने अकबर के अत्यन्त विश्वासपात्र मंत्री और सेनापति अबुल फजल को अपने मार्ग की एक बड़ी बाधा समझा, तो सलीम को वीरसिंह देव का ही एकमात्र सहारा समझ पड़ा। उसने अबुल फजल को मार डालने के लिए वीकिंरसह देव से सम्पर्क स्थापित किया। बुन्देलों की प्रधान गद्दी ओरछा पर अधिकार पाने की महत्वाकांक्षा लेकर वीरसिंह देव ने सहज ही यह काम कर डाला। अबुल फजल का वध करने के पश्चात् उन्होंने उसका सिर काटकर जहाँगीर के पास इलाहाबाद भेज दिया। सलीम फूला न समाया। उसने अपने मित्र वीरसिंह देव को भरपूर पुरस्कार देने की नीति बना ली। परन्तु सम्राट अकबर के जीवन काल में वीरसिंह देव को उसके रोष का सामना करते हुए अनेक कठिनाइयों को झेलना पड़ा। सलीम जब जहाँगीर के नाम से गद्दी पर बैठा, तो उसने वीरसिंह देव को पुरस्कृत करने में कमी नहीं की। कालान्तर में वीरसिंह देव के उत्तराधिकारी सम्राट से मैत्री के इस आदर्श के नाम पर हीं मुगलों के ऊपर अधिकाधिक निर्भर रहने लगे। वीरसिंह देव के बड़े बेटे तथा ओरछा के राजा जुझारसिंह को साम्राज्य की दासता कुछ अखरने लगी। उन्होंने शाहजहाँ के शासन काल में दो बार मुगल सम्राट के विरुद्ध विद्रोह भी खड़ा किया, परन्तु वे बुरी तरह परासत हुए। संभवतः इसीलिए आगे के अन्य राजाओं ने मुगलों से बनाये रखने में ही कुशलता समझी।

शाहजहाँ में धार्मिक कट्टरता का अंश अवश्य था। तभी जुझारसिंह को विद्रोह करने की आवश्यकता पड़ी, परनतु उसके बाद औरंगजेब ने सम्राट बनते ही अकबर के समय से चली आने वाली नीतियों को एकदम बदल दिया। कट्टर सुन्नी मुसलमान औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों को एकदम बदल दिया। कट्टर सुन्नी मुसलमान औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों ने उत्तर में सिक्खों से लेकर दक्षिण में मराठों तक ग्रान्ति कीचिनगारी प्रज्जवलित कर दी। सिक्ख, मराठा और सतनामी मुगल साम्राज्य के प्रलि बैरी बन बैठै। तभी राजा चम्पतराय और उनके पुत्र छत्रसाल नामक बुन्देला वीरों ने हिन्दुत्व की रक्षा के लिए मुगल सत्ता को उखाड़ फेंकने का व्रत लिया। वीर छत्रसाल तो छत्रपति शिवाजी के आदर्श से विशेष रुप से अनुप्राणित थे। अपने पिता चम्तराय से भी अधिक नाम उन्होंने पाया है। बुन्देलखण्ड की स्वाधीनता के लिए उनका योगदान किसी प्रकार कम नही। अपने ही वंश के कुछ अन्य शासकों से बुन्देल केशरी छत्रसाल को समुचित सहयोग मिल पाता, तो इस मध्यवर्ती भूभाग से मुगलों की सत्ता कभी की उठ गई होती। महाराज छत्रराज ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया, परन्तु अपने वंश के अन्य नरेशों के प्रति विशेज्ञ सख्ती नहीं बरती। यपि औरंगजेव के बाद मुगल साम्राज्य दिन प्रतिदिन अशक्त होता गया, तथापि ओरछा, दतिया आदि के राजघराने मुगलों के आश्रित बने रहे।

मुहम्मद खाँ वंगश के आक्रमणों का सफल प्रतिरोध करने के लिए महाराजा छत्रसाल ने वृद्धावस्था के अन्तिम दिनों में पेशवा बाजीराव से सहायता चाही। पेशवा को अपना तीसरा बेटा मानते हुए उन्होंने अपने राज्य का एक तिहाई भाग भी सौंप दिया था। फलतः इस भूभाग में मराठों को पैर जमाने का अवसर मिल गया। झांसी और ग्वालियर मराठों की, इस क्षेत्र में दो बड़ी राजधानियाँ स्थापित हुई। इन राज्यों से बुन्देलखण्ड के नरेशों के सम्बन्ध बनते और बिगड़ते रहे। कभी किसी राजा का व्यवहार मैत्रीपूर्ण होता और कभी कोई शत्रुता मानता। समय-समय पर कोई मराठा सरदार इन राज्यों पर छापा मारते रहते।

शृंगारिक - रासो काव्यों की परम्परा में कुछ ऐसे रासो ग्रन्थ है जिनका वर्ण्य-विषय ही शृंगार-परक रहा है। वीसल देव रासो एवं सन्देश रासक तो पूर्णतया शृंगार रचनायें ही है, जैसा पहले रासो काव्य परम्परा में लिखा जा चुका है। वीसलदेव रासो में वीसलदेव के जीवन के १२ वर्षों के कालखण्ड का वर्णन किया गया है। वीसलदेव अपनी रानी की एक व्यंग्योक्ति पर उत्तेजित होकर लम्बी यात्रा पर चला गया और एक राजा की रजाकुमारी के साथ विवाह करके भोग विलास के जीवन में निरत हो गया। इस प्रकार इस ग्रंथ शृंगार के दोनों ही पक्षों का सुन्दर समन्वय है। वियोग शृंगार एवं संयोग शृंगार का अच्छज्ञ चित्रण इस काव्य ग्रन्थ में किया गया है।

पृथ्वीराज रासो को पढ़ने से ज्ञात होता है कि महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने जितनी भी लड़ाइयाँ लड़ीं, उन सबका प्रमुख उद्देश्य राजकुमारियों के साथ विवाह और अपहरण ही दिखाई पड़ता है। इंछिनी विवाह, पह्मावती समया, संयोगिता विवाह आदि अनेकों प्रमाण पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की शृंगार एवं विलासप्रियता की ओर संकेत करते हैं। मुंजरास में मुंज और तैलप की विधवा बहिन मृणालवती ही प्रणय कथा शृंगार का अनुपम उदाहरण ही है।

उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि रासो काव्यों में वर्णित सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं शृंगारिक प्रवृतियाँ विविधता से पूर्ण थीं। 

 

Top

::  अनुक्रम   ::

© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र

Content prepared by Mr. Ajay Kumar

All rights reserved. No part of this text may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopy, recording or by any information storage and retrieval system, without prior permission in writing.