धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

लोक-परम्परा में धरती-संबंधी अवधारणाएँ


भूगोल, भूगर्भशास्र, भू-भौतिकी, भूकंपविज्ञान, समुद्रविज्ञान तथा मृदा-रसायन धरती का अध्ययन करनेवाले विज्ञान हैं परंतु लोकवार्ता की धरती से पहचान वैसी ही है, जैसी एक बेटे की माँ से होती है।   जीवन को 'धारण' करने के कारण यह 'धरती' है, जन्म से मृत्यु तक सबकुछ इसी पर होता है, इसलिए यह 'भू' है।-१   सबके भार सहन करने के कारण वह सवर्ंसहा है तथा समर्थ होने के कारण वह क्षमा है।   धरती पर जल, थल, नदी, समुद्र, पहाड़, वन, द्वीप-द्वीपांतर, देश, जनपद, पुर, नगर तथा ग्राम का विस्तार है।   वही विश्वंभरा है।   सबको अन्न देने के कारण वह अन्नदा और अन्नपूर्णा है।   पत्थर, औषधि तथा रत्नों की खान होने के कारण वह रत्नगर्भा और वसुंधरा है।

धरती-संबंधी अवधारणाएँ - धरती संबंधी अवधारणाओं को निम्नांकित नौ भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है (रेखाचित्र-२)-

(अ) मनोवैज्ञानिक प्रणाली

  1. कथा-अभिप्राय

  2. मानवी-संवेदना

  3. अनुष्ठान

  4. अभिव्यक्ति-सम्पदा

 

रेखाचित्र-२ : धरती-संबंधी अवधारणाओं का वर्गीकरण   

 

(आ) भौतिकी प्रणाली

  1. भौतिकी उपयोगितावादी दृ

  2. धरती और हवा-पानी का संबंध।


(अ) मनोवैज्ञानिक प्रणाली

१. कथा -अभिप्राय

पुराकथा और लोककथाओं मे' धरती' के दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों रुपों के अनेक प्रसंग हैं और इन प्रसंगों से धरती के प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण एवं अवधारणाओं के विकास पर प्रकाश पड़ता है।   उदाहरण के रुप में धरती-संबंधी कुछ कथा-अभिप्रायों की चर्चा की जा रही है-

  १.१ भूलोक : धरती भी अनंत ब्रह्मांड का मात्र एक लोक है।   ऐसे अन्य लोक भी हैं-यमराज का यमलोक, विष्णु का बैकुंठ लोक, इन्द्र का स्वर्ग, ब्रह्मा का ब्रह्मलोक, नागराज वासुकि का नागलोक, राजा बलि का पाताल लोक, वरुण का वरुण लोक, चंद्रलोक, ध्रुवलोक आदि।   लोक कहानियों और पुराकथाओं में धरती के नीये पाताल है।   इन कथाओं में ॠषि, परस्वी, अप्सरा, परी तथा देवता क्षण-मात्र में संकल्प और इच्छाशक्ति के द्वारा एक लोक से दूसरे लोक में आ और जा सकते हैं।   पाताल का रास्ता पानी में होकर हे-समुद्र, नदी, तालाब और सरोवर में।   नाग-लोक का रास्ता करील के नीचे साँप की बाँबी में होकर निकलता है।   स्वर्ग के लिए विमाना का साधन है।

  १.२. जल में से धरती का उद्धार : वाराह : एक कथा के अनुसार एक बार हिरण्यक्ष नाम के दैत्य ने धरती को जल में डुबा दिया तथा धरती की चटाई लौचकर उसे रसातल में ले गया।   तब जल में से धरती को उबारने के लिए भगवान् विष्णु ने वाराह का अवतार धारण किया तब भूदेवी ने भगवान् विष्णु की स्तुति की।-२   धरती को वाराह की पत्नी कहा गया है।

  एक अन्य कथा के अनुसार प्राचीन काल में आकाश से गिरते हुए और पृथ्वी से उड़ते हुए पंखवाले पर्वत धरती को प्रकंपित कर देते थे।   यह वेदना धरती ने ब्रह्माजी से कही तब इंद्र ने पर्वतों के पंखों के नष्ट करनेक के लिए वज्र प्रहार किया, इसलिए हेद्र को पर्वतारि कहा गया है।   इंद्र ने धरती के स्थिर किया।-३

एक अन्य प्रसंग में जब हेद्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा तो उसने अपने हत्या-दोष को चार भागों में विभक्त किया और एक भाग धरती को दिया, जो धरती ने सड़ने के दोष को रुप में स्वीकारा।-४

  १.३. भूभार-हरण : धरती गाय : 'भूभार-हरण' पुराकथाओं और लोककहानियों का एक बहुप्रचलित अभिप्राय है। जब धरती पर पाप और अनाचार बढ़ता है तथा धरती के बेटे दुखी हो जाते हैं, तब धरती गाय

का रुप धारण करके भगवान् विष्णु के पास जाकर 'गुहार' करती है।   विष्णु धरती के भार को हरण करने के लिए अवतार लेते हैं।   पुराकथाओं में बैल के रुप में धर्म तथा गाय के रुप में धरती का उल्लेख अनेक प्रसंगों में है।-५   एक कथा में कलियुग कसाई का रुप धारण करके गाय और बैल दोनों को पीट रहा था, तब परीक्षित ने कलियुग को दंडित करने का निश्चय किया था।-६ लोकगीतों में कलियुग का उल्लेख आता है-

  डंडे भूप अबीजै धरती अल्प सुधा जल बरसेंगे।

  १.४ धरती पर पहली सृ : वृक्ष वनस्पति : धरती पर पहली सृष्टि वृक्ष-वनस्पतियों के रुप में हुई, इसका सूत्र प्रचेता की कथा में विद्यमान है।  प्राचीनबर्हि के पुत्र प्रचेता जब समुद्र के बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि पृथ्वी पेड़ों से घिर गयी है।  पृथ्वी पर जंगल ही जंगल हैं।  उन्होंने वृक्षों की वृद्धि देखकर जंगलों को नष्ट करने के लिए निश्चय किया।  बाद में वृक्षों के अधिपति-देवता ने उन्हें इस संकल्प से विरत किया और भेंट के रुप में मारिया नामक वृक्षकन्या समर्पित की।-७  एक अन्य कथा के अनुसार प्रियव्रत राजा के रथ के पहियों के कारण मेरु के चारों ओर जो सात गड्ढे बने, वे ही सप्त-समुद्र नाम से प्रसिद्ध हुए और जो सात द्वीप बने, वे प्लक्ष, जंबू, शाक, कुश, शाल्मलि आदि वृक्ष-वनस्पतियों के नाम से ही प्रख्यात हुए।-८  प्राचीन काल में स्थानों की पहचान वृक्षों की अधिकता के आधार पर ही की जाती थी जैसे पीपल वन, कदंब वन, कदली वन आदि।  व्रज में ताल वन, कमोद वन, कदमखंडी आदि नाम इसी परम्परा की एक कड़ी हैं।

  १.५ सीता : धरती की बेटी :   लोककथाओं का यह अभिप्राय है कि जब कभी अकाल पड़ता है तब राजा स्वयं हल जलाता है।   जब राजा सीरधव्ज जनक धरती जोत रहे थे, तब उनके हल के अग्र भाग से सीता की उत्पत्ति हुई-

  राजा जनक ने पंडित बुलाए किस विधि सूखा डारी।

  देस-देस के पंडित आये कर रहे सोच विचारी।  

  राजा जनक तुम हर लै निकरौ रानी ऐ चकरारी।

  आक ढाक कौ हर बनबाऔ पीपर की पनिहारी।

  सुरई गउन के हर जुतवाऔ सत की कुस डरवाई।

  राजा जनक नें हरु हाँकौं तब कुस कन्या आई।

  इस प्रकार सीता धरती की बेटी है।   सीता का अर्थ कृषि भी होता है।   खेत की रेखा को भी सीता कहते हैं-'भजि सीता सीता में डारौ'।

  १.६. पृथ्वी दोहन : कृषि-व्यवस्था की स्थापना :   'पृथ्वी' शब्द महाराज 'पृथु' के नाम से जुड़ा हुआ है।   यह धरती का पहला सम्राट माना जाता है।   उस समय धरती ऊबड़खाबड़ थी।   महाराज पृथु ने ही उसे समतल बनाकर कृषि योग्य बनाया।   जब वृक्षों पर फल नहीं रहे, प्रजा भूख से व्याकुल होकर पृथु के पास पहुँची।   महाराज पृथु ने तभी से खेती का सूत्रपात किया।   इस घटना को पुरकथाओं में 'पृथ्वी दोहन' के नाम से जाना जाता है।-९   जिसमें धरती गाय बनी, स्वायंभुव मनु ने बछड़ा बनकर सस्त धान्यों को दुहा।   इस प्रसंग में विस्तार से उल्लेख है कि किस-किसने धरती से क्या-क्या पाया।   ॠषियों ने वेदरुपी दूध दुहा, देवताओं ने अमृत तथा मनोबल रुप दूध पाया, दैत्य-दानवों ने मदिरा-आसव रुपी दूध पाया, गंधर्व और अप्सराओं ने संगीत-माधुर्य और सौंदर्य पाया, पशुओं ने तृण रुप भोजन पाया तथा वृक्षों ने विविध प्रकार के रस रुपी दूध को प्राप्त किया।   महाराज पृथु ने धरती को समतल करवाकर गाँव, कस्बे, नगर, अहीरों की बस्ती (घोष) खेठ, खर्वटों का निर्माण किया।   कहा जाता है कि पृथु से पहले पुर-ग्राम आदि का विभाग नहीं था।   जैन परम्परा के अनुसार पहले कल्पवृक्ष थे, जो मनुष्यों के यथेष्ट फल प्रदान करते थे।   जब कल्पवृक्षों ने अपनी महिमा का संवरण कर लिया तब भगवान् ॠषभदेव ने कृषि सभ्यता की स्थापना की।   वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया।

  १.७. धरती का आधार : विश्वास : जो धरती सब जीवों का आधार है, वह स्वयं किसके आधार पर टिकी हुई है?   इस प्रश्न के उत्तर में कई प्रकार के लोकविश्वास हैं।   धरती महान् सत्य के बल पर टिकी है, धरती यज्ञ के बल पर टिकी है तथा धरती महान संकल्प पर टिकी है।   एक विश्वास है कि सरसों के दाने के समान धरती शेषनाग के फण पर स्थित है-"धरम के आसरे धरती शेष सीस पै अटकी।"   ब्रज की गोप-संस्कृति का विश्वास हे कि धरती गाय के सींग पर टिकी है।   दस दिशाओं के दस दिक्पाल तथा दस दिग्गज धरती को साधे हुए हैं।   वाराह-अवतार में धरती वाराह के दंष्ट्र पर है तो कच्छप अवतार में कछुआ की पीठ उसका आधार है।   मथुरापुरी विष्णु के चक्र पर, वृंदावन कमल पर तथा वाराणसी शंकर के त्रिशूल पर स्थित है।

 १.८. धरती की उत्पत्ति : नगलागढू के ग्राम प्रधान गौरिशंकर के अनुसार मार्कंडेयजी ने अपने संकल्प से धरती की रचना की।   एक कथा हे कि गरुड़ी ने अंडा रखा, वह गिरकर टूट गया, उसका एक भाग धरती बना और दूसरा आकाश।   एक विश्वास के अनुसार यह अंडा सोने का था और जल में से निकला था।   पुरा कथा के अनुसार मधु और कैटभ नामक दैत्यों के मेद से उत्पन्न।-११   होने के कारण धरती मेदिनी कहलाती है, ब्रह्मा की सृष्टि होने के कारण धरती ब्रह्मा की बेटी है।   पृथ्वी के गर्भ से मंगल नाम के ग्रह की उत्पत्ति हुई, इसलिए मंगल को भौम भी कहते हैं।

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२. धरती : मानवी संवेदना  

आगे के अध्यायों में मनुष्य की चिंतन-प्रक्रिया की उस विशेषता की चर्चा की गयी है, जिसमें मनुष्य अपने अनुभव के आधार पर प्रकृति की परिकल्पना करता है।   बालक का सबसे पहला परिचय अपनी माँ से होता है, इसलिए उसके चित्त में माँ की अवधारणा बहुत गहरी है।   उसने माँ के बिम्ब के आधार पर धरती के संबंध में सोचा।   उसके बाद उसने पिता को पहचाना एवं माता-पिता के संबंध को पहचाना और उस बिम्ब के आधार पर धरती और आकाश के संबंध की अवधारणा बनायी, जिसे हम वेदों में भी देख सकते हैं।

 २.१. माता भूमि : विवाह-गीतों में गाया जाता है कि इस धरती पर दो ही देवता बड़े हैं-एक स्वयं धरती और दूसरा मेघ-  

  जा धरती पै द्वेै बड़े एक धरती एक मेहु।

  वौ बरसै वौ उपजै दोउ मिल जुर्यौ स्नेहु।

  इस गीत की भावभूमि वही है, जो वैदिक छंद के द्यावापृथिवी की है-'माता भूमि: पत्रोऽहं पृथि:।'   धरती जनन शक्ति है, माँ है, धात्री है।   पक्षियों को वही फल दैती है तथा मनुष्यों को उसी से धान औप फल प्राप्त होते हैं।   धरती मैया की अवधारणा जनपदीय-जीवन में गहरे तक व्याप्त हे।   जिस प्रकार माँ पुत्र के

आश्रय और आधार होती है, उसी प्रकार धरती भी आश्रय और आधार है।   प्राणिमात्र का जन्म धरती से ही होता है, जीवन की ऊर्जा के रुप में भोजन-धरती से ही प्राप्त होता है और धरती में हि उनका लय हो जाता है।   पद्मावत कि पंक्ति है-

  होतहिं बिरवा भये दुइ पाता,

  पिता सरग और धरती माता।

अर्थात् एक अंकुर के रुप में सृष्टि का आविर्भाव हुआ, और अंकुर से दो पत्ते फूटे, एक पात माता धरती और दूसरा पात मेघ पिता।

  २.२. धरती और मेघ :   पति-पत्नी :   लोकमानस धरती और मेघ के बीच वही संबंध मानता है, जो संबंध पति और पत्नी का होता है।   जिस प्रकार स्री की शोभा पति और पुत्र से होती है, उसी प्रकार धरती की शोभा बरसनेवाले मेघ और बीज से है-

  धरती कौ मांडन मे तौ बरसत खरौ सुहामनौ।

  धरती कौ मांडन बीज तौ उपजत खरौ सुहामनौ।

  धरती आषाढ़ में आर्द्रा नक्षत्र में ॠतुमती होती है और मेघ से ॠतु दान माँगती है।   मेघों का देवता इंद्र माना जाता है, इसलिए एक धारणा यह भी है कि इंद्र रस प्रदान करता है तथा धरती रस को ग्रहण करती है-

  को उगलै सब रसन कूँ-को सब रस कूँ खाय।

  इंद्र उगलै सब रसन कूँ-धरती सब रस खाय।

  किसानों के गीतों में हल को भी धरती का श्रृंगार करनेवाला और उसे ब्याहने वाला कहा गया है-

  हल जू ब्याहन चले धरती की गुड़िया रे।

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३. धरती :

लोकमानस ने धरती को सबसे बड़ा देव माना है।   धरती सम्पूर्ण देवभाव का आधार है और देवभाव के यावन्मात्र प्रतीक अंतत: धरती के ही रुप हैं-चाहे वृक्ष हो, पत्थर की प्रतिमा हो, गिरिराज शिला और शालिग्राम हो या मिट्टी का प्रतीक बनाया जाए।

  प्रात:काल जागकर लोग धरती से प्रार्थना करते हैं कि "हे धरती देवी, तुम सम्पूर्ण लोक की आधार हो, तू मुझे भी धारण कर, मैं तुम पर पैर रख रहा हूँ, इस अपराध को क्षमा कर।"

  श्री और भूमि विष्णु की देवियाँ हैं।   पुराकथा में लक्ष्मी कहती हैं कि मैं ही पृथ्वी बनकर चराचर जीवों एवं नदी, पर्वत और समुद्रों को धारण करती हूँ।  मैं ही अन्नादि को उत्पन्न करती हूँ तथा अग्नि और सूर्य के

रुप में मैं ही प्रकाश करती हूँ तथा फल आदि को पकाती हूँ।

  ३.१. वंदेमातरम्-जगदंबा का विग्रह :   एक बड़ी विचित्र पुराकथा है कि भगवान् शंकर सती का शव ढोते हुए भारत की सारी धरती पर घूमे तब विष्णु के चक्र से शिव का अंग-प्रत्यंग कटकर जहाँ-जहाँ गिरा वहाँ-वहाँ तत्तत् अंगों के प्रतिरुप शक्तिपूजा का पीठ रुप में प्रतिष्ठित हुए और भारतवर्ष जगदंबा का श्रीविग्रह बन गया।-१२   कहने की आवश्यकता नहीं कि वंदेमातरम् की भावभूमि लोकमानस की एसी अवधारणाओं में बहुत प्राचीन है।

  ३.२. तीर्थ : पूर्वज-संबंध : धरती के जिन स्थलों से हमारे पूर्वजों के जीवन का संबंध रहा है, वे स्थान भी पूर्वजों के प्रति हमारी श्रद्धा के केंद्र बने।   ब्रज लोकवार्ता में अनेक तपस्थली और साधना भूमि से संबंधित कहानियाँ हैं, जिनके कारण वे स्थान हमारे लिए उतने ही पवित्र बन गए हैं, इन्हें हम तीर्थ के रुप में मानते हैं।   तीर्थों के रुप में धरती के प्रती यह देवभाव ही अभिव्यक्त होता है।   उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की जो कथाएँ ब्रज में प्रचलित हैं, वैसी ही कथाएँ भारत के विभिन्न भागों में हमें मिल जाती हैं।   इन्हें देखकर लगता है कि लोक-सरस्वती ने सारे भारत की धरती पर तीर्थों कि लिपि में वे गाथाएँ लिख दी हैं-हिमालय पार्वती का पिता है, समुद्र लक्ष्मी का पिता है, यमुना सूर्य की पुत्री है और यमराज की बहिन है तथा सीता धरती की बेटी है।   कहीं राम की अयोध्या है, कहीं कृष्ण की द्वारिका और कहीं शिव का कैलाश।   कहीं राम ने बालुका का लिंग बनाकर शिव की पूजा की थी, तो कहीं पांडवों ने अज्ञातवास किया।   शिव-पार्वती का विवाह हिमालय के आँगन में हुआ था परंतु लोक-सरस्वती कहती है कि पार्वती द्वारा शिव पर उछाले गए सात चावल सात रंग की बालू बनकर कन्याकुमारी के पास बिखर गए।   'ओणम' के अवसर पर राजा बलि केरल में प्रतिवर्ष अपनी प्यारी प्रजा को देखने आते हैं, परंतु राजा बलि का टीला मथुरा में है।-१३

  ३.३. कृष्ण : लीला-भूमि : श्रीकृष्ण के जन्म और उनकी लीलाओं के कारण ब्रजभूमि धन्य हो गयी।-१४   गोकुल, वृंदावन, गोवर्द्धन, नंदगाँव, बरसाना, कामवन, संकेत, राधाकुंड, कृष्णकुंड-ब्रज चौरासी कोस के कितने ही स्थल हैं, जिनका कृष्णलीला से संबंध है।   ब्रजरज के संबंध में कहा जाता है कि-

  मुक्ति कहै गोपाल ते तेरी मुक्ति बताय।

  ब्रजरज उड़ मस्तक परै मुक्ति मुक्त है जाय।  

  ब्रजरज गायों की पदरज है, ब्रज धूल माथे पर लगाना अनंत जन्मों का पुण्य है।

  ३.४. पिंड-ब्रह्मांड अवधारणा : माटी खाने का प्रसंग : कृष्णलीला के कई प्रसंग दार्शनिक अवधारणाओं के अभिव्यक्त करते हैं किंतु यहाँ उनके माटी-भक्षण प्रसंग को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा।   कृष्ण ने ब्रजरज खायी और जब माँ यशोदा ने मिट्टी खाने पर उन्हें डाँटा और मुँह खोलकर दिखाने को कहा तो यशोदा ने गोपाल के मुख में समस्त ब्रह्मांड मंडल के दर्शन किए।-१५   अणु और ब्रह्मांड की एकरुपता को प्रकट करनेवाली इस कहानी में पिंड, ब्रह्मांड-अवधारणा का दार्शनिक-सूत्र विद्यमान है।

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४. धरती : अनुष्ठानों में

धरती सम्पूर्ण अनुष्ठानों का आदार है। यज्ञ के प्रारंभ में भूमि का शोधन,मार्जन, लेपन करके रंग-बिरंगी धातुओं से चौक पूरा जाता है।   मकान निर्माण करने से पहले तथा कुआँ खोदने से पहले भूमि-पूजन होता है।   हरे गोबर और पीली मिट्टी से मंडप लीपकर कलश धरे जाते हैं।   नवदुर्गा पूजन के निमित्त स्रियाँ गाते हुए पीली मिट्टी लेने जाती हैं, और उससे वेदी बनायी जाती है।   जब किसान 'वामनी' के लिए खेत पर पहुँचता है तब बीज की गठरी को सिर से उतारकर तुरंत उसी खेत का एक ढेल 'धरती मैयाट कहकर गठरी में रखता है, उसे स्याबड़ कहते हैं।   सै-बरकत के लिए यह अन्नपूर्णा का ही एक अनुष्ठान है।

  गाँवों में स्रियाँ पाँच पोता मिट्टी के धोंधा और पाँच काली मिट्टी के धोंधा बनाकर उसकी पूजा करती हैं।   विवाहादि में घूरे की पूजा करते समय जो 'आखर धरे' जाते हैं, वे हैं-'पहलो रे फूल धरती ऐ दीजै।'   लोकमानस धरती के द्वार रक्षित होने के कारण आश्वस्त है-'धरती से दीवान खड़े हैं न्याँ काए की संका' अथवा 'धरती माता दीखे पन पेसुर दीखे।'

  सभी मांगलिक कार्यों में पीली मिट्टी के ढेल पर मौली लपेटकर उसे गणपति के रुप में प्रतिष्ठित किया जाता है।   मिट्टी की ही 'गौर' बनायी जाती है, जिन्हें सौभाग्य की कामना के साथ पूजा जाता है।   धरती की बेटी गगनवासिनी 'गाजपनमेसुरी' को भी पोतामिट्टी से मानवाकृति रुप में थाली में प्रतिष्ठित किया जाता है तथा 'आसचौथ' का चित्रण भी पट्टे पर मिट्टी घोलकर किया जाता है।

  'अखतीज' के दिन कोरा (नया) घड़ा पानी से भरकर रखा जाता है।   'करीके' के रुप में मिट्टी के ढेले लगा दिए जाते हैं।   घट का 'सीरा-फुलका' से पूजन होता है।   मिट्टी के ढेलों में जितने भीग जाएँ उतने ही महीने वर्षा का अनुमान लगाया जाता है।

  धरती पर ही चौक कलश-स्थापन होता है, 'सतियो' काढ़ा जाता है। देवठान एवं गोवर्द्धन की प्रतिष्ठा की जाती है। विवाहों में गाया जाता है-'पहली भामर रे धरती माता साखि।'   इस भामर की पहली साक्षी धरती माता है।   जब कोई नया कपड़ा पहना जाता है, तब उसे पहले धरती को समर्पित किया जाता है।

  ४.१. परिक्रमा और जात :   'जात' और 'परिक्रमा' भी धरती के प्रति देवभाव की ही अभिव्यक्ति है।   अनेक स्थलों पर जात दी जाती है, परिक्रमा की जाती है।   पृथ्वी-परिक्रमा का अभिप्राय पुराकथा में विद्यामान है।   देवताओं में प्रथम पूज्य कौन होगा, इसका निर्णय करने के लिए ब्रह्मा ने उन्हें पृथ्वी की परिक्रमा करने का निर्देश दिया था।   पृथ्वी की परिक्रमा नहीं हो सकती, इसकी पूर्ति मथुरा की पंचकोसी परिक्रमा के रुप में अक्षय-नवमी के दिन की जाती है।  आदिवाराह कि परिक्रमा भी पृथ्वी-परिक्रमा के भाव से ही की जाती है।  ब्रज चौरीसी कोस, वृंदावन, गरुड़गोविंद, गोवर्द्धन तथा अंतरगेही परिक्रमा धरती के प्रति देवभाव के प्रकट करती है।

  ४.२. मिट्टी : शुद्धि की धारणा :  धरती को पवित्र माना गया है-'आंक पवित्तर, ढाक पवित्तर और पवित्तर धरती।'   उसके स्पर्श से अशुद्ध भी शुद्ध हो जाता है।   इसीलिए शौच-निवृत्ति के बाद मिट्टी से हाथ धोने का विधान है।  कुआँ, तालाब, सरोवर तथा नदी-घाट पर यदि हाथ धोने के बाद मिट्टी शेष रह जाती है तो उसे राक्षसों का भाग माना जाता है।   बर्तनों को भी मिट्टी से शुद्ध किया जाता है।

  ४.३. मिट्टी स्नान :  विश्वास किया जाता है कि-"अमावस के दिन यदि सूअर के द्वारा खोदी गयी मिट्टी से शरीर मलकर नहाया जाय तो पाप नष्ट हो जाते हैं।"-१७  मंगल कलश में सात स्थानों की मिट्टी एकत्र की जाती है।

 ४.४. ब्रजरज और पुलिन :  श्रीकृष्ण ने गोकुल में ब्रजरज खायी थी, यह प्रसिद्ध पौराणिक प्रसंग है, 'ब्रह्मांडघाट' की मिट्टी का पेड़ा भक्तयात्री प्रसाद के रुप में ले जाते हैं।   यमुना की रेत में चाँदी जैसी चमक होती है और कुछ आसमानी रंगवाली रेत को 'पुलिन' कहा जाता है तथा वृंदावन के आश्रमों में यह कई फुट गहरे में बिछा दी जाती है, क्योंकि यह उनके आराध्य 'श्यामा-श्याम' को प्रिय है।

  ४.५. मिट्टी में समाधि :  किसी भी व्यक्ति के मरने पर उसके शव को गाड़ने, जलाने तथा जल में बहाने की प्रथा है, इस प्रकार अंतिम गति भी मिट्टी ही है।  इसलिए कहा जाता है कि-'जा नर देही पै जल बरसैगौ खेती करैगौ किसान।'   माटी में सब चीज 'माटी' हो जाती है।

  माटी कहै कुम्हार ते तू का रोदै मोय।

  इक दिन एस होयगा हों रौंदेगी तोय।

  मुसलमान शव को धरती में गाढ़ते हैं-'सैय्यद सोये भुम्म में दै दै गहरी नींद, जगावै बीबी फातिमा।'   जब गुग्गागुरु जाहरपीर ने धरती से आश्रय माँगा था तब धरती ने उससे कलमा पढ़कर आने को कहा था।

  सासनी के पास किरार ठाकुरों का एक गाँव है-कौमरी।   यहाँ एक विचित्र रिवाज देखने में आया।   किरार ठाकुर श्री गुलवीर सिंह की अंतिम क्रिया में उनके शव को गड्ढा खोदकर समाधि की मुद्रा में बैठाला गया और बाद में फिर शव दाह भी किया गया।   इस अनुष्ठान में प्रतीकात्मक रुप से दफनाने की क्रिया भी सम्मिलित थी।   दफनाने को समाधि देना कहा जाता है।   समाधि देने में शव को समाधि मुद्रा में बैठाया जाता है।   भैरोंनाथ के उपासक योगी-लोगों को समाधि दी जाती है और जहाँ समाधि दी जाती है, वहाँ ऊपर शिवलिंग प्रतिष्ठित कर दिया जाता है।

 ४.६. मिट्टी : टोटका (अभिचार) :   कुत्ता आदि के काट लेने पर विष का शमन करने के लिए मिट्टी की गोलियाँ बनाई जाती हैं तथा मंत्र पढ़कर काटे हुए अंग पर घुमाई जाती हैं।   न के अभिचार में जिसकी न लगी हो, उसके पैर की धूल या उसके दरवाजे की मिट्टी का प्रयोग किया जाता है।

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५.

लोकजीवन की चिंतन-प्रणाली में धरती संबंधी अनेक अवधारणाएँ रसी-बसी हैं।   उदाहरण के रुप में यहाँ कुछ अवधारणाओं की चर्चा की जा रही है।

  ५.१. कण-कण में चैतन्य :   जब लोकमानस विश्वास व्यक्त करता है कि कण-कण में राम हैं तब राम का अर्थ एक विराट चेतना होती है, वह विराट सूत्र, जिसमें अनंत ब्रह्मांड माला के दानों की तरह पोया हुआ है।   वह विराट चेतना सम्पूर्ण प्रकृति को नियंत्रित करती है।   जनपदीयजन के पास शब्द चाहे न हों पर यह ज्ञात है कि सबकुछ उसी का किया हो रहा है।   सबकुछ में एसा कुछ भी नहीं है, जो विच्छिन्न हो।   कण-कण में राम रमे हैं, तभी तो छोटा-सा बीज वृक्ष बन जाता है, एक वृक्ष से हजारों वृक्ष बन जाते है।   उत्पन्न करने की यह शक्ति कुदरत का रहस्य है परंतु उस रहस्य को लोकमानस जड़ नहीं, चैतन्य मानता है।   पृथ्वी, जल, अग्नि (तेज), आकाश, वायु और काल को लोकमानस दिव्यशक्ति के रुप में पहचानता है।

  ५.२. पंचीकरण प्रक्रिया : सृष्टि का स्वरुप :   पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये पाँच तत्त्व हैं।   धरती में आकाश व्याप्त है, जल, अग्नि और वायु भी व्याप्त है, पाँचों तत्त्व पाँचों तत्त्वों में व्याप्त है।   उनकी प्रक्रिया नित्य-निरंतर चल रही है।   यह दर्शनिक अवधारणा शास्रीय है किंतु शास्र और लोक के बीच जो आदान-प्रदान प्रक्रिया चलती है, उसका एक और उदाहरण हमें अलीगढ़ जनपद के गाँव गढ़राना में मिला, जब वहाँ के श्री मुरली सिंह ने 'भूमंडल की रचना' संबंधी एक बहुत लंबी 'जिकरी' रचना सुनायी-

  प्रथम बनें आकास दूसरे लंबर वायू

  तृतीय अग्नी बने अग्नि से जल बन जायू

  जल से पृथ्वी होय पृथ्वी से औषध बने

  औषध से हो वीर्य, वीर्य होय उत्पत्ति

  रचना सुन भूमंडल की।

  सृष्टि की निरंतर प्रक्रिया को लोकमानस ने 'अपढारी चकिया' के रुप में देखा है-'एक पाट धरती तलै दूजौ तलै अकास।'

  इस प्रक्रिया से ही जीव उत्पन्न होते हैं।   चराचर की सृष्टि होती है।  नदी, पहाड़. मैदान, समुद्र इसी प्रक्रिया से उत्पन्न है।   मेघ चल रहे हैं, ॠतु चल रही है, जल और वायु चल रहे हैं, ज्वालामुखी फटता है, आँधी आती है और प्रलय हो जाती है।

  उत्पन्न होना, स्थिर रहना और मिट जाना-ये तीनों अवस्था पंचीकरण प्रक्रिया की ही देन है।   यही प्रक्रिया वनस्पति बनती है, वृक्ष बनती है, अन्न बनती है।  अन्न से जीव बनते हैं।  भोजन करने और उसके पच जाने तथा उसके विसर्जन करने की प्रक्रिया भी पंचीकरण का ही परिणाम है।  साँस का आना-जाना भी रक्त, मांस, अस्थि और वीर्य बनता है, वीर्य से फिर नयी सृष्टि होती है।  जीव एक दूसरे के जीवन का आधार हैं।  उनका नित्य-निरंतर सापेक्ष संबंध है।  वे सभी जीव इस धरती पर रहते हैं।  धरती सभी का आश्रय है और परिणति भी है।

 ५.३. माटी का धोंधा :  चोला (मानव-शरीर) को मिट्टी की ही रचना कहा जाता है।   'माटी का धोंधा' शरीर का पर्यायवाची है।   भजनों में गाया जाता है-

  हंसा तो उड़ जायेगा माटी पड़ी रह जायगी

  अथवा

  मत करै देही पै गुमान काऊ दिन माटी में मिल जायगौ।

  ५.४. आत्मा, अन्न और प्राण :   गाँवों में बड़े-बूढ़े कहते हैं कि मनुष्य के मरने के बाद आत्मा आकाश में घूमती है तथा बरसात में नीचे उतरती है और धरती में फैलती है।   किसान उस धरती को जोतता है, बोता है तथा अन्न उपजाता है।   उसी अन्न से वीर्य बनता है, उसके माध्यम से जीव अपन-अपने संस्कारों के अनुसार जन्म ग्रहण करता है।   इसलिए जीव-मात्र पार्थिव हैं।   पृथ्वी ही बीज और अनाज के रुप में रुपांतरित होती है।

  ५.५ पार्थिव :  पृथ्वी में पैदा होने, पृथ्वी में स्थित रहने और पृथ्वी में लय होने के कारण सभी पदार्थ पार्थिव हैं।  उनमें जो भी कुछ परिवर्तन होता है, वह पृथ्वी की ही क्रिया है।

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६. अभिव्यक्ति सम्पदा में धरती

यदि भाषा-सम्पदा में धरती के बिम्बों का अध्ययन किया जाय तो एक 'कोश' बन सकता है क्योंकि लोकजीवन ने धरती के एक-एक कण की पहचान की है।  धूल से लेकर पहाड़, कीट से लेकर समुद्र, गड्ढे से लेकर खान सभी धरती पर ही तो हैं।  धरती पर ही कोयला है और धरती पर ही हीरा, रत्न और नगीना हैं।  कितने प्रकार की धातु और रत्न हैं और उन सबके बिम्ब भाषा में विद्यामान हैं-माटी का मटूलना, पहाड़ उठाना, धूर फाँकना, धरती धकेल, किरकिरी करना, धूल में मिलाना, मिट्टी का ढेल, पत्थर पड़ना, पत्थर होना, पथरा जाना, गुणों की खान, धरती बोझन मरना, धरती पर भार, धरती फाड़ना, धरती पर पैर न रखना, ऊसर साँड़ा, बंजर-बाँझ, पाँझ, पानी गड्ढे में मरना, ईतर के घर पीतर, सेने के पाँउड़े, चाँदी के पाँउड़े, लोहे के पाउँड़े, लौहपुरुष और सोने कौ-हजारों-हजारों मुहावरे, कहावतें, अलंकरा-प्रयोग और लाक्षणिक प्रयोग लोकजीवन की दैनिक बोलचाल में बिखरे पड़े हैं।

  इसके अतिरिक्त योग, चिंतन, उपासना आदि में धरती के बिंब हैं।   संतों ने 'मूलाधार' को धरती कहा है।-१८   कबीर की बानी है-

   कहै कबीर ते बिरला जोगी धरणि महारस चाखा।

 

  (कबीर ग्रं., पद १६२)

  धरती संबंधी हजारों कहावतें हैं, जैसे-'जमानों झूठन और पूठन कौ है।'   पहले पूठा खेत पर पानी नहीं पहुँचता था, तो वहाँ कुछ पैदा नहीं होता था।   खाद-पानी के पहुँचने से आजकल पूठा खेत में खूब अन्न उपजने लगा है।   इसलिए कहावत है-'जमानों झूठन और पूठन कौ है।'  

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(आ) भौतिक प्रणाली

७. भौतिक उपयोगितावादी दृ

मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र के जीवन का आधार धरती है, इसलिए जीवन में ऐसा क्या है, जो पार्थिव नहीं है?   अथवा जिसका पृथ्वी से संबंध नहीं है?   धरती पर ही भोजन और आवास है, जीवन के समस्त उपकरण धरती से ही मिले हैं।   प्रस्तुत अध्ययन में धरती और बीज के संबंध की चर्चा ही प्रासंगिक है।   फिर भी जीवनोपयोगी उपकरण, आवास, उपचार तथा धन के रुप में धरती की चर्चा की जा रही है-

७.१. धरती : धन : जीवन-आधार :   खेती और आवास के उपयोगिता-संबंध ने धरती को धन के रुप में समाज का आधार बनाया।   धरती-धन की अवधारणा से ही जमींदार, भूपति या भूप की अवधारणा विकसित हुई।   पृथ्वीपति राजा का पर्याय माना गया क्योंकि वह अपनी इच्छा से किसी को पुरस्कार, दान व

सम्मान के रुप में धरती दे सकता था, लगान ले सकता था।   धरती के लिए ही राजाओं की लड़ाई होती थी, आज भी सीमा-विवाद उठ खड़े होते हैं-जर, जोरु, जमीन को झगड़े की जड़ कहा जाता है।   कहावत है-'जमीन जोरु   जोर की, जोर घटे पै और की' या 'वीर भोगे वसुंधरा।'   जिसके पास ताकत है, उसी की धरती है इसलिए कहते हैं-'कब्जा सच्चा झगड़ा झूठा।'   पृथ्वी जीतने का अभिप्राय लोककथाओं में है।   गोदान की तरह भूमिदान का भी महत्त्व है परंतु धरती को बेचना अशुभ माना जाता है।   पुराने जमाने में धन को जमीन में गाड़कर रखने की प्रथा थी-'कौड़ी-कौड़ी माया जोड़ी, जोड़ जमीं में धरता है।'

७.२. मिट्टी : जीवन उपकरण : बर्तन :   आज जहाँ स्टील, पीतल, ताँबे और काँसे के बर्तनों का प्रचलन है, वहाँ कल तक मिट्टी के बर्तन प्रचलित थे।   घड़ा, हँडिया, कुल्लड़, डबुआ, मटकना, सकोरा, कोठी, कुलहइया, सरइया, अनाज भरने के नाद एवं घर में काम आनेवाले प्राय: सभी बर्तन मिट्टी के बनाए जाते थे।   यहाँ तक कि पुराने कुंओं में अवशेष के रुप में घड़ों के जो खीपरे मिलते हैं, उनसे यही बात प्रमाणित होती है कि 'रहट' की सिंचाई में घड़े ही जोड़े जाते थे।   मिट्टी के बर्तनों का चलन बहुत प्राचीन है तथा खुदाई में प्राप्त मिट्टी के बर्तनों के आधार पर पुरातत्त्वविद् काल-निर्धारण करते हैं।   सासनी के किले का १९७८ में पुरतात्त्विक सर्वेक्षण हुआ था, तब वहाँ प्राप्त मिट्टी के ठीकरों को महाभारत-कालीन बताया गया था।   इन बर्तनों के बनाने की कला किसी जमाने में बहुत विकसित थी और उन्हीं के कारण कुंभकार को प्रजापति माना जाता था, 'बूढ़ेबाबू' लोकदेवता का पुरोहित वही था और आज भी वह 'बूढ़ेबाबू' लोकदेवता का 'पुजापा' ग्रहण करता है।

७.३. करवा चौथ:   वृंदावन के भक्तों में 'करवा' नामक मिट्टी के बर्तन का विशेष महत्त्व है, उनके पास जीवनचर्या के लिए मात्र यही पात्र रहता है।   मध्यकालीन रसिक भक्त स्वामी हरिदासजी का 'करुआ' अभी तक दर्शनों के लिए रखा जाता है।   स्रियाँ करवा चौथ (कार्तिक कृ. ४) को जिस पात्र से चंदा को अर्घ चढ़ाती हैं, वह बर्तन मिट्टी का बना यही करवा होता है।   इस त्यौहार की पहचान मिट्टी के बर्तन 'करवा' से जुड़ी है, जिसकी परम्परा का सूत्र इतिहास के उस युग में ले जाता है, जब मिट्टी के बर्तनों का इतना महत्त्व था।

७.४. मिट्टी के खिलौने :    पर्व-त्यौहारों और मेलों पर बिकनेवाले बच्चों के खेल-खिलौने, हटरी, गूजरी, पनिहारी, पूतरा, घोड़ा, हाथी, लड़कियों के लिए चौके के बासन आदि मिट्टी के ही बनते हैं।   दीपावली पर धना घरों में भले ही सोने-चाँदी के लक्ष्मी-गणेश हों पर मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश की पूजा वहाँ भी अनिवार्य है।

७.५. मृणमूर्तियाँ : धूर कोय :   ब्रज की अनेक विशाल मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हुई हैं।   'पूँछरी कौ लौठा' कंस अखाड़े का कंस तथा उसके पहलवान मिट्टी के हैं।   गणेश की मूर्ति भी मिट्टी की बना ली जाती थी, उस पर सिंदूर का चोला चढ़ाया जाता रहा है।   ब्रज में मातृका की प्राचीन मृणमूर्तियों के पुरावशेष मथुरा के संग्रहालय में विद्यमान हैं, जिससे वहाँ मिट्टी की मूर्तियों की प्राचीन परम्परा सिद्ध होती है।   मकान कच्चा या पक्का कैसा भी हौ, मिट्टी से ही बनता है।   मध्यकाल में राजा लोगों के किले भी मिट्टी से ही बनते थे, सासनी का किला भी मिट्टी का ही था, जिसके अवशेष अभी भी विद्यमान हैं।

७.६. मिट्टी : उपचार :   गाँवों में बच्चों के पेट पर स्रियाँ मिट्टी का लेप कर देती थीं, पानी डालती रहती थीं, जिससे बुखार और दस्त की चिकित्सा हो जाती थी।   नक्की चलने पर पानी जालकर पोता मिट्टी सुँघा  देती थीं।   फोड़ा-फुंसी होने पर मुलतानी मिट्टी पोत दी जाती थी।   पहलवान लोग शहरीर में रज लगाया करते थे।   गोपी-चंदन भी लगाया जाता था।   एक कहावत है-

  मिट्टी पानी हवा, सब रोगों की एक दवा।

७.७. गर्भिणी स्री : मिट्टी में एक सुगंधि (सौंधापन) होती है।   जब जमीन को छिड़का जाता है तब एस गंध उठती है।   इसी प्रकार 'कोरे' घड़े के पानी में 'कुराँइद' होती है।   जिससे जल की मधुरता, स्वाद और सुगंधि बढ़ जाती है मिट्टी में एक स्वाद हो जाता हे, इसलिए गाँवों में गर्भिणी स्रियाँ कच्ची या पक्की मिट्टी खती हुई देखी जा सकती हैं।

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८.

मिट्टी से जनपदीयजन का जन्म से मृत्यु तक का नाता है, इसलिए धरती और मिट्टी से उसकी पहचान भी गहरी है।   ट्यूबवैल-आपरेटर ओमप्रकाश गुप्ता जो सासनी में रहते थे, मिट्टी को चखकर बता सकते थे कि उसमें कितना पानी लगाया गया है।

  प्रत्येक जनपद में अलग-अलग प्रकार कि मिट्टियाँ और खार-खड्डे हैं, ऊँची-नीची जमीन है तथा टीले और पहाड़ हैं।   जनपदीयजन ने उन सबका नामकरण किया है, जिनका संकलन किया जाय तो एक शब्दकोश बन सकता है।

  ८.१. धरती की सतह से नीचे :   जब कुआँ खोदते हैं तो विविध नीचाइयों पर विविध प्रकार की मिट्टियाँ मिलती हैं, मथुरा जनपद के ग्राम जैसिंर पुरा के निरंजन सैनी ने बताया कि बत्तीस हाथ नीचे पीरा मिट्टी आती है।   बत्तीस से बयालीस के बीच में पोता मिट्टी कटती है और वहाँ यमुना की रेत या पीली मिट्टी आ सकती है।   बावन और बासठ हाथ के बीच कई प्रकार की मिट्टी आती है, इनमें एक 'गिलगोबरा' भी होती है।   इसमें पोता और कँकरीली मिट्टी मिली होती है।   उसके नीचे 'खिलपा' मिट्टी होती है, जिसकी 'खिलफ' सी खिल जाती है।   यह बासठ और बरत्तर हाथ नीचे आती है।   जब बयासी हाथ नीचे का 'सुत्त' लगता है तब मोटा कंकड़ आयेगा।   इसके साथ दो प्रकार की 'बारु' होती है, एक में सोने का वर्ग होता है, यह पीली होती है, दूसरी तरह की मटमैली मिट्टी में जमनोंए-वर्ग (चाँदीवाले वर्ग) आते हैं।   सौ हाथ नीचे यदि 'बोकिंरग' किया जाये तो 'पोता' और 'कँकरीली' आती है और कँकरीली न आवे तो फिर खिलपा मिट्टी आती है, जो कटने वाली मिट्टी होती है (सारणी-१,२)।

  ८.२. धरती की सतह पर कुम्हरौट और चिकपीरा :   जिस काली-चिकनी मिट्टी के बर्तन बनते हैं, उसे 'कुम्हरौटी' या 'भामनी' कहते हैं और जहाँ ऐसी मिट्टी मिल जाती है, वहाँ 'खनाना' बन जाता है, कुम्हार वहीं से मिट्टी लाता है, इसे खूब कूटा जाता है।   चिकनी-पीली मिट्टी ईंट बनाने के काम आती है, इसे 'चिकपीरा' कहते हैं, जहाँ उपयुक्त मिट्टी मिल जाती है, वहाँ ईंटों के भट्टे बनाए जाते हैं।

सारणी-१ :   जिला मथुरा के ग्राम जैसिंह पुरा के निरंजन सैनी की सूचना के आधार पर धरती की सतह के नीचे विविध मिट्टियों का विवरण


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धरती की ऊपरी सतह

पीरा

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 ३२ हाथ नीचे तक

पोता

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 ४२ हाथ नीचे तक

रेत पीली रेत

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 ५२ हाथ नीचे तक

पोता + ककरीली गिलगोबरा  

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 ६२ हाथ नीचे तक

खिलपा

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 ७२ हाथ नीचे तक

कँकरीली सुनैरा बालू

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 ८२ हाथ नीचे तक

पोता कँकरीली

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सारणी-२   :   ग्राम काबड़ी जिला पानीपत के किशनलाल की सूचना के आधार पर धरती की सतह के नीचे की मिट्टी  


चिकनी + रेत = रोशली उपजाऊ

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धरती की ऊपरी सतह

डक्कर : कम रेत

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रेत

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गड्ड : मुलतानी

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 २९ फुट नीचे तक

कँकरीली (रेत मीला)

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  ३५ फुट नीचे तक

लेल्ली (कीचड़)

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 ४१ फुट नीचे तक

रेत : मीठा पानी रोशली

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८.२.१. पोता मिट्टी :   रंग की दृष्टि से एक मिट्टी पीली होती है-पीरोंदा, एक सफेद होती है-पोता या मुलतानी, एक मिट्टी काली होती है तथा लाल रंग की बदरपुर मिट्टी होती है, जो दुरदुरी होती है।   गाँवों में बरसात से पहले स्रियाँ पोखर की मिट्टी लेने जाती हैं, जिनसे चूल्हे-अँगीठी बनाती हैं, तथा छत और आँगन को लीपा जाता है।   इसी से थूमा बनाए जाते हैं।   मिट्टी लेने जाना एक आवश्यक अनुष्ठान और अनिवार्य कार्य माना   जाता है।   इसी से थूमा बनाए जाते हैं।   मिट्टी लेने जाना एक आवश्यक अनुष्ठान और अनिवार्य कार्य माना जाता है।   'छन्न' मिट्टी में छोटी-छोटी कंकड़ी होती हैं। ८.२.२. मिश्रित मिट्टियाँ :   'भूड़' धरती में काली मिट्टी का मिश्रण हो, तो उसे 'दोमट बलूई' कहते हैं, काली तथा चिकनी मिट्टी के मिश्रण को मुटैरा कहते हैं।   चिकनी, पीली और भुरभुरी मिट्टी का मिश्रण 'कसेटा'' कहलाता है।   काली और भुरभुरी मिट्टी का मिश्रण दोमट-मिटीयार कहलाता है।  

 

८.२.३. पूठा, निमान और कल्लर :  ऊँचे धरतालवाली धरती को 'डोंगर' या 'पूठा' कहते हैं और नीचे धरातलवाली धरती को 'निमान' कहते हैं, इधर-उधर का पानी बहकर 'निमान' में हा आता है।  ऊँचे पूठों पर कपास बोना अच्छा रहता है, क्योंकि उसे कम पानी चाहिए और नीचे के खेतों में तिल और ज्वार बोया जाता है।  'ताल' और 'पोखरों' में सिंगाड़े और कमल लगाए जाते हैं।

 सख्त मिट्टी 'कठार' कहलाती है।  इसे 'कल्लर' भी कहते हैं।  कहावत है कि 'कल्लर बयौ न नीपजै श्रम बाढ़ै धन हानि।'  'कबिसा' न तो 'भूड़' की तरह रेतीली होती है और न 'गाढ़' की भाँति कड़ी।  'कबिसा' पानी पड़ने पर कड़ी हो जाती है।  जिसमें क्षार होता है, वह मिट्टी नुनखरी हो जाती है।

  ८.३. धरती : सर्व बीज प्रकृति : मिट्टी और बीज : यों तो धरती को 'सर्व बीज प्रकृति' कहा गया है, बीज धरती पर गिरता है तो धरती अपनी समस्त श्कति ने उसे अपनी कोख में जमाती है।  धरती की कोख से बीज उपजता है और वृक्ष बन जाता है।  किंतु जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं कि पानी के संयोग से मिट्टी प्रभावित होती है।   'ऊसर' धरती पर घास भी पैदा नहीं होती-"ऊसर बरसै तृन नहिं जामा।"   जिस धरती पर घास उग जाती है किंतु अनाज या वृक्ष नहीं उपजता, वह बं कही जाती है।

  मिट्टी में पानी कितनी देर खड़ा हो सकता है, इस बात का बीज की उपज पर निर्णायक प्रभाव होता है और इसी के आधार पर अलग-अलग मिट्टी में अलग-अलग बीज बोये जाते हैं।  बारीक मिट्टी में गेहूँ अच्छा होता है और ढेलेदार मिट्टी में चना अच्छा होता है।  गाढ़ मिट्टी में जौ की खेती अच्छी होती है।  'चिकनौटा' में पानी खड़ा रहता है, इसलिए चावल और ईख जैसी अधिक पानी चाहनेवाली फसल के लिए वह अधिक उपयुक्त है।  बलुई मिट्टी में खरबूज, तरबूज, ककड़ी, शकरकंद, लहसन और बाजरा विशेष रुप में बोये जाते हैं, कपास के लिए भूड़ धरती उपयुक्त है।  दोमट-बलुई में उड़द, सरसों, मूँग, रमास, अनार, अमरुद, आँवला, पपीता, केला, टमाटर, सेम, काशीफल, ढेंचा, लौका, पालक, आलू, कटहल, खुत्ती, गोभी, चकोतरा, बैंगन और मिर्च बोई जाती है।   मूँगफली के लिए पीली मिट्टी तथा गाजर, मूली को लिए भूड़ा उपयुक्त है।   किंतु 'मटियार' आलू तथा मूँगफली के लिए उपयुक्त नहीं है।   दोमट में शलगम, करोंदा, फालसा, सोंफ, लाहा, मक्का, अरहर, गेहूँ, चना, जौ, सन, सूरजमुखी, आम तथा बेर बोये जाते हैं।

 

८.३.१. भूड़ और भटियार : वृक्ष का जीवन :    ग्राम नगलागढू के श्री रमनलाल कुलश्रेष्ठ के अनुसार 'भूड़' में वृक्ष पैदा भी जल्दी होता है तथा मरता भी जल्दी है, जबकि मटियार में वृक्ष धीरे-धीरे पैदा होता है तथा लंबी उम्र तक जिंदा रहता है।

८.३.२. धरती और बीज : उल्लेखनीय तथ्य :   धरती और बीज के संबंध में एक उल्लेखनीय बात सठिया गाँव के बड़े ठाकुर ने यह बताई कि-'जिस खेत में जो बीज पैदा हुआ है, उसी बीज को उसी खेत में बोने से फसल कमजोर होती है, जबकि दूसरे खेत के बीज को दूसरे खेत में बोने से फसल अच्छी होती है।   इसके अतिरिक्त नगलागढू के रामप्रसाद पाठक का कहना है कि-'जिस जमीन में आलू पैदा हुआ है, उसमें किंभडी नहीं होती, मिर्च और तोरई हो जाएगी।   'लाहा' के खेत में 'लौका' नहीं होगा।   'मटर' और चनावाले खेत में भी किंभडी उपज आवेगी।   समामई गाँव के बौहरे शादीलाल का कहना है कि-'अंग्रेजी खादों के कारण जमीन भुरभुरी हो चुकी है तथा वह अब टिंडे और चना के लिए उपयुक्त नहीं रही है।'

८.३.३. खेतों का नामकरण :    किसान कि सम्पूर्ण दिनचर्या खेत में ही व्यतीत होती है, कार्य करने-कराने के लिए उपयोगिता की दृष्टि के लक्षणों के आधार पर वह प्रत्येक खेत को एक संज्ञा (नाम) देता है।

जिस खेत में बबूल का पेड़ हो, उसे 'बबूराट, जिस खेत में पीपल का हो उस 'पीपरिया' तथा बाँसवाले खेत को 'बँसारी' कहते हैं।   छोटे खेत को 'बोंहडा' कहा जाता है।   जिन खेतों में साग-तरकारी होती है, वे 'कछियाने' कहलाते हैं।   जिस, खेत के अंदर एक वर्ष में दो फसलें करते हैं, वे 'दुसाई' तथा तीन फसलोंवाले खेत 'तिसाई' कहलाते हैं।   नाले के किनारे के खेतों को 'नरेला' कहते हैं।   जिस खेतों में केवल वर्षा का पानी ही पहुँच सकता है, ऊँचाई के कारण कुएँ या बम्बे का पानी नहीं पहुँचता, वे 'पडुआ' कहलाते हैं-'सडुआ नाता पडुआ   खेत की साख नहीं है।'   जिस खेत की मिट्टी में रेत अधिक हो, वह 'रेतुआ', रेह अधिक हो वह 'रेहा' तथा कंकड़ी हो वह खेत 'कंकरेठा' कहलाता है।   गाँव के साथ लगे खेत को 'बाड़ा' कहते हैं।   मूत-खात कि वजह से बाड़े में प्रत्येक फसल अच्छी होती है।   आबादी के सबसे पासवाला बाड़ा 'अब्बल' फिर 'दोयम' तथा और अधिक दूरीवाला खेत 'सोयम' कहलाता है।   बाड़ों से मिले खेत तथा गाँव के दूरवाले खेत 'बरहे' कहलाते ८.३.४. भौगोलिक भेद :   सठिया गाँव के बड़े ठाकुर भगवान सिंह के शब्दों में-"सासनी में संतरा नहीं होगा, कुदरती बात है, होशंगाबाद तथा जबलपुर में काली मिट्टी है, वहाँ बहुत होता है, नागपुर में बहुत होता है।   पंजाब और हिमाचल में सेब होता है, कुदरती माया है, जमीन का फर्क है।   पंजाब में यहाँ का गेहूँ दुगुनी फसल देगा, बड़ी बालें उपजेंगी।   राजस्थान में आम नहीं होगा, थोड़े दिन में मर जाएगा।   कश्मीर में केसर होती है और ब्रज में करील हो जाता है।   सासनी में अंगूर किए जाने लगे हैं पर वे खट्टे हैं, वह स्वाद है ही नहीं।"   भोजपत्र, कुटज, देवदारु हिमालय के वृक्ष हैं तो चंदन कर्नाटक का।   नारियल भी कर्नाटक में बहुत होता है।

देशी आलू और पहाड़ी आलू का भेद मिट्टी और पानी के भेद से जुड़ा है।   भौगोलिक-भेद धरती पर पैदा होनेवाली वनस्पतियों में ही नहीं, वहाँ पैदा होने वाले प्राणियों में भी परिलक्षित होता है।   कहीं साँप अधिक होते है, दो कहीं बिच्छू, रेतीली ज़मीन में एक ऊसर-साँडा नामक जानवर होता है।   कहते हैं कि इसे किसी ने पानी पीते नहीं देखा है।   गाय और कुत्तों पर ही नहीं-मनुष्य पर भी भौगोलिक-भेद का प्रभाव निर्णायक होता है।   यह भौगोलिक-भेद केवल मिट्टी का ही भेद नहीं है, यह सम्पूर्ण वातावरण का भेद है, जिसमें वर्षा, सूर्य, ॠतुचक्र, दिनरात, जल, वायु और समुद्र-पर्वत से दूर-पास का सापेक्ष्य संबंध आ जाता है।

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९. धरती, हवा और पानी : प्रकृति संदर्भ

अभी तक हमने उन अवधारणाओं की चर्चा की है, जिनका सीधा संबंध मानव-जीवन से है।   इसके अतिरिक्त धरती का प्राकृतिक संदर्भ बहुत व्यापक है, जिसकी चर्चा प्रकृति-संबंधी अध्याय में आगे की जाएगी, यहाँ केवल बीज में संबंधित कुछ बुनियादी तथ्यों का उल्लेख किया जा रहा है।

धरती पर उपजनेवाली किसी वस्तु या जीव का कारण मात्र धरती नहीं है, धरती के अध्ययन में हवा और पानी का अध्ययन जुड़ा हुआ है क्योंकि प्रकृति में कुछ भी स्वतंत्र नहीं है, सबकुछ परस्परावलंबी है।

९.१. मिट्टी पर पानी तथा हवा का प्रभाव :   मिट्टी पर पानी और हवा का प्रभाव पड़ता है।   पानी कई प्रकार का होता है-मीठी, खारा, मरमरा, तेलिय और लौनी।   लौनी पानी में इतना अधिक क्षार होता है कि वह जमीन को ऊसर बना देता है। लौनी पानी लगाने से खेत में सफेद पाउडर-सा जम जाता है, जिसे धोबी लो कपड़ा धोने के लिए ले जाते हैं, इसे 'रेह' कहते हैं।   'तेलिया पानी' कडुवा होता है, जमीन इसे सोखती नहीं है, यह भरा रहता है और जमीन को अनुर्वर बना देता है।   इसी प्रकार पानी के प्रभाव में 'धाँधल' (दलदल) बन जाती है।   'धाँधल' दो प्रकार की मिट्टी से मिलकर बनती है-बारु और पीली या चिकनी।   एक जैसी मिट्टी तो 'सैट' हो जाती है पर दो प्रकर की मिट्टी धाँधल बना देती है।   'बारु'   यदि 'चिकनी' मिट्टी पर बहकर आ जाए, तो वहाँ   'धाँधल' बन जाएगी तथा फिर उस पर फसल नहीं होती।   पशु ही नहीं, आदमी भी वहाँ फँस जाता है।

 दूसरे अनेक प्रकार की मिट्टियाँ हैं, जिनका भेद पानी के सम्पर्क-भेद से जुड़ा है।   जहाँ नीचा धरातल होता है और पानी अधिक समय तक भरा रहता है, उसे 'डहर' कहते हैं।   यह मिट्टी चिकनी होती है, उसे 'गाढ़ मिट्टी' कहा जाता है।   पानी न सोखनेवाली मिट्टी 'निसोखिया' कहलाती है।   'भूड़ा' खेत में रेत अधिक होता है, इसे 'पनसोखा' कहते हैं, यह पानी को बहुत जल्दी सोख जाता है।   इसके अतिरिक्त पानी का प्रवाह एक जगह की मिट्टी को दूसरी जगह ले जाता है और इसी प्रकार आँधी-तूफ़ान-बवंडर भी एक जगह की मिट्टी को दूसरी जगह के खेतों में पहुँचाने में सहायक होते हैं और इस प्रक्रिया से मिट्टी प्रभावित होती है।

  ९.२. धरती और वनस्पति : पानी का अनुमान :  धरती पर उपजनेवाली वनस्पतियों का उस धरती के नीचे पानी की मात्रा तथा पानी के गुण से भी संबंध आँका जाता है।  कुआँ खोदने से संबंधित परम्परागत विधि के अनुसार यदि 'आक' और 'गूलर' के बीच में बाँबी हो तो नदी किनारे की भूमि में पंद्रह हाथ और जंगली भूमि में पैंतालीस हाथ नीचे मीठा जल मिलेगा।   नदी किनारे की भूमि में पानी अधिक होता है, वृक्षों से भरे-पूरे जंगल में अपेक्षाकृत कम पानी होता है।  इससे कम पानी उस धरती में होता है जहाँ टीले होते हैं किंतु मरुस्थल में पानी बिल्कुल ही कम होता है।   जिस क्षेत्र में केला, कदंब और कमल अधिक होते हैं, वहाँ की जमीन में पानी अधिक मिलेगा किंतु आम, नीम और जामुनवाली भूमि में, इन वृक्षों की ऊँचाई के बराबर जमीन खोदने से पानी मिलता है।  'आक' जैसे क्षुद्र पेड़ जहाँ होते हैं, वहाँ पानी बहुत अधिक नीचे मिलेगा।"-१९

 ९.३. चार कोस पै पानी बदलै :   कहावत है कि 'चार कोस पै पानी बदलै आठ कोस पै बानी' अथार्त् चार कोस (लगभग बारह किलोमीटर) पर पानी बदल जाता है तथा आठ कोस पर बोली बदल जाती है।  जब पानी बदल गया तो रस बदल गया-

 श्रीवृंदावन रसभूमि सब, पेंड़ पेंड़ पर भेद।

 कहुँ खारौ मीठौ मरमरौ, यहै ससुझ भ्रम छेद।

  ९.४. पानी और बीज :   पानी का दूसरा नाम जीवन है।   जिस प्रकार पानी के बिना मनुष्य नहीं रह सकता उसी प्रकार वृक्ष-वनस्पति के लिए भी पानी की आवश्यकता है-

 पानी बिना जिंदगानी कौन काम की।   जब तक धरती पानी से 'तर' नहीं होगी तब तक जड़ नहीं चलेगी-

 चलैगी तब भुम्म होय तर।

 जल के बिना अंकुर का रंग पीला पड़ जाता है।  पानी कई प्रकार का होता है -खीरा, मीठा, मरमरा, तेलिया तथा लौनी (लवणयुक्त)।   मीठा पानी ही मनुष्य को चाहिए और वृक्ष-वनस्पति भी मीठा पानी चाहते है।   तेलिया पानी से पालेज (साग-सब्जी की खेती) नहीं होती।   एक बार बरसात हो जाय, तब 'मरमरा' पानी काम कर सकता है, परंतु जेठ मास में यह पानी उपयुक्त नहीं रहता।

 चना कुदरती वर्षा की 'परेवट' करने पर होता है, ट्यूबवैल के पानी से नहीं।   ईख में नहर का पानी लगेगा तो गुड़ मीठा और वजनदार होगा।   कुँएवाले खेत का ईख खारी तथा हल्का होता है।

 खारे पानी में फसल पैदा नहीं होती।   बढिया जमीन में पहले मीठा पानी लगा कर बाद में एक खारी पानी दे दिया जाए तो फसल बढिया होगी, क्योंकि खारे पानी से मिट्टी फूल जाती है।   खारे पानी से कोई भी बीज और पौध नहीं जमेगी, जमी हुई खेत में एक बार खारा पानी दिया जा सकता है परंतु चना खारी पानी में नहीं होगा।   यदि मीठे पानी से सिंचाई का साधन न हो, तो खाद से भी कोई लाभ नहीं होगा।

 पपीता में अधिक पानी देने से वह सूख जाता है।   चना में भी कम पानी से काम चल जाता है।   'लाहा' और 'सरसों' में भी पानी कम लगता है।   मटर, चना और जौ में दो पानी तथा गेहूँ चार पानी चाहता है। पानी संबंधी कहावतें हैं-

  काले फूल न पाया पानी, धान मरा अधबीच जवानी।

  साँवा साठी साठ दिना, जब पानी बरसै रात दिना।

  धान पान ऊखेरा, तीनों पानी के चेरा।

  चाम कूँ तेल मूँज कूँ पानी।

  तरकरी है तरकारी, यामें पानी की अधिकारी

  गेहूँ पै जब बाल, खेत बनाऔ ताल।

इस प्रकार लोकपरम्पराओं में धरती संबंधी विविध अवधारणाओं-२०   द्वारा मानव-जीवन और धरती का तादात्म्य संबंध प्रकट होता है।

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संदर्भ

  1.  
  1. भवंति भूतान्यस्यामिति भू:।

  2. श्रीमद्भागवत १/३/७

  3. ॠक् २/१२

  4. भागवत ६/९/७

  5. वही १/१७

  6. वही

  7. वही ६/४/४-१५

  8. वही ५.१.३०

  9. श्रीमद्भागवत ४.१५

  10. दे. पुरुदेवचम्पू

  11. म. भा. स. पर्व तथा प्राचीन चरित्रकोश

  12. देवी भागवत पुराण

  13. दे. कादंबिनी, मई १९८८ लोकसंस्कृति और राष्ट्रीय एकीकरण (राजेंद्र रंजन)

  14. "जयति तैऽधिकं जन्मना व्रज: श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि।"  भागवत १०/३/११

  15. भागवत १०/८/३७-३८

  16. भूमध्य सागर के दोनों और महीमाता की पूजा प्रागैतिहासिक काल में होती थी, उसी का रुप हमें अत्यंत प्राचीन मिश्र की देवी आइसिस में मिलता है और रोम की चीरीस तथा यूनान की दमिना में। -डॉक्टर सत्येंद्र, भारतीय साहित्य

  17. भागवत ८.१६.२६

  18. हिंदी साहित्य कोश, पृ. ९९४

  19. लोकशास्र अंक : आशा, पृ. ४६

  20. दे. परिशिष्ट (२.१ तथा २.२)

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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