धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

बीज : जनपदीय अवधारणाएँ


 

बीज क्या है? बीज क्यों उगता है? इतना सूक्ष्म बीज इतना विशाल वृक्ष कैसे बन जाता है?

बीज का उगना विराट प्रकृति की कितनी ही छोटी घटना क्यों न सही, उसके संबंध में मनुष्य की जिज्ञासा की संभावना है, क्योंकि बीज के विस्तार की प्रक्रिया सम्पूर्ण जीवजगत् में चल रही है। इसलिए बीज के माध्यम से मनुष्य ने प्रकृति को, प्राणियों को तथा जीवन को समझने का प्रयास किया है।

अन्य प्राणियों में जो वीर्य है, वनस्पति में वही बीज है। वीर्य और बीज एक ही शब्द के दो रुप हैं। वीर्य जीवन की संभावना है, उसी प्रकार बीज भी जीवन की संभावना है और यह संभावना असीम है, क्योंकि बीज में एक से अनेक होने का संकल्प है और उसमें प्रजनन की निरंतरता बनी रहती है।

यह बात उल्लेखनीय है कि सामान्यतया वृक्ष का जो नाम है, वही नाम बीज का है, क्योंकि बीज और वृक्ष भिन्न नहीं है। बीज में जड़, शाखा, तना, फल, फूल, पत्ता दिखाई नहीं देता परंतु बीज में उनका अस्तित्व विद्यमान है, भले ही वह कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। यदि सूक्ष्म न हो तो विराट की कल्पना नहीं की जा सकती। बीज वृक्ष की सुप्तावस्था है और वृक्ष बीज की जागरण अवस्था है। फिर यह भी सत्य है कि प्रत्येक बीज वृक्ष नहीं बनता। हजारों-हजारों बीज नष्ट हो जाते है और असंख्य बीज आहार बन जाते हैं और जो धरती के गर्भ में पहुँच जाते हैं, वे भी सभी नहीं उपजते, क्योंकि बीज से वृक्ष होने की यात्रा में कुछ अन्य उपकारक तत्त्व भी आवश्यक होते हैं।

प्रत्येक बीज में वंशवृद्धि की मूल प्रवृत्ति है। कहा जाता है कि न्यूटन नाम के वैज्ञानिक ने धरती पर गिरते हुए सेब-फल को देखकर गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के पहचाना था। उसका कथन कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है इसलिए फल धरती पर गिरा किंतु धरती के यह आकर्षण कुछ अधिक व्यापक है। सेब धरती पर गिरा एक से अनेक होने के लिए। बीज की समग्र जीवन-शक्ति अपने वंश-विस्तार में संलग्न होती है। यही तथ्य सृष्टि-विस्तार को स्पष्ट करता है। स्थिर और निर्जीव-सा प्रतीत होनेवाला बीज धरती की कोख में पहुँचकर आकाश, हवा, पानी, सूरज का संस्पर्श पाकर गतिशील हो जाता है।

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१. बीज की जीवन-प्रक्रिया को हम दो भागों में वर्गीकृत कर सकते है-आंतरिक और बाह्य (रेखाचित्र-३)।

१.१. आंतरिक प्रक्रिया

आंतरिक प्रक्रिया दो प्रकार की है-प्रजनन प्रक्रिया और आनुवंशिक प्रक्रिया। प्रजनन प्रक्रिया के अंतर्गत उत्पत्ति एवं गति का अध्ययन किया जा सकता है और आनुवंशिक प्रक्रिया के अंतर्गत प्राणतत्त्व और रुपतत्त्व का। प्राणतत्त्व में तासीर और आनुवंशिकी के विकास का अध्ययन कर सकते हैं तथा रुपतत्त्व में वनस्पति के आकार-प्रकार तथा रुप का।

१.२. बाह्य प्रक्रिया

बीज की बाह्य प्रक्रिया के दो भेद है-पंचीकरण प्रक्रिया और प्राणि प्रक्रिया। पंचीकरण प्रक्रिया के अंतर्गत धरती, मेघ, जल, वायु, आकाश, सूरज, ताप तथा कालतत्त्व का अध्ययन हम आगे के अध्याय में करेंगे तथा प्राणि प्रक्रिया के दो भेद हैं-मानवेतर प्रक्रिया एवं मानव प्रक्रिया। मानवेतर प्रक्रिया के अंतर्गत यह देखा जा सकता है कि पशु-पक्षी, कीट-पतंग किस प्रकार वनस्पति के जीवन में सहायक और बाधक होते हैं। कीट-पतंग निषेचन करते हैं तथा मधु संचय भी करते हैं। बीज-वनस्पति के जीवन में मनुष्य की भूमिका की चर्चा आगे के अध्यायों में यथाप्रसंग की जाएगी।

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२. बीज के बिना शकरकंद का बीज नहीं होता, उसका चपा (कुल्ला) लगाया जाता है। शहतूत की लकड़ी गाढ़ी जाती है। पाकर के गुद्दे को काटकर बो देते हैं। गुलाब की लकड़ी लगायी जाता है। सिंगाड़े की बेल पोखर में डाल दी जाती है और वह बहुत विस्तृत क्षेत्र में फैल जाती है, इसे लत्ती रोपना कहते हैं। केले की जड़ चारों ओर बाँस, बनरफ तथा ग्वारपाठे की तरह कुल्ली फूटती है, जिसे गाँव में 'गुड़िया' कहतै हैं। इस 'गुड़िया' को जहाँ लगा देते हैं, वहाँ नए पौधे उग आते हैं। एक केला जहाँ लगा दिया जाय वहाँ चारों ओर केले के पौधे पैदा होते चले जाते हैं। बाँस के संबंध में भी यही बात है। खस, गाँडर, सींक का बीज भी होता है तथा उसका गूदर भी गढ़ जाता है। नीबू का बीज भी लगाया जाता है और लकड़ी भी। कनेर बीज से भी उगाया जाता है पर अधिकांशत: बरसात में कलम लगायी जाती है। बीज मेहँदी का भी होता है पर इसकी कलम ही लगायी जाती है। ईख की गाँठ में 'आँख' होती है, उससे पेड़ उपजता है। अंगूर की बेल का पत्ता भी धरती पर गिर जाय तो उपज सकता है। अबूजा और बिगोनियाँ तो पत्तियों से ही उपजते हैं। आलू, प्याज, लहसन, गुलदावली, गुड़हल, बंडा, घुइयाँ, जिमीकंद, अदरक, पोदीना, जलकुंभी, दूब आदि का बीज नहीं होता, तने या आँख द्वारा इनके पौधे उत्पन्न होते हैं। अनन्नास के शिरोमणि को काटकर मिट्टी में दबा देने से दूसरा पौधा तैयार किया जाता है, इसके पौधे के तने पर जो अँखुए निकले रहते हैं उनसे भी पौधे उगाये जाते हैं।

 

 

२.१. अदृश्य बीज : हरिमाया

ऐसे हजारों बीज हैं, जो अदृश्य रुप से धरती में विद्यमान रहते हैं और हवा तथा पानी के साथ दूर-दूर तक अपना क्षेत्र-विस्तार करते रहते हैं। ऐसे अवांछित खरपतवार को जिन्हें किसान निराई करके खेत से बारह निकालता है, सूख जाने पर जलाता है, वे भी खेत में कहीं न कहीं छिपे रह जाते हैं और मौसम आने पर उग आते हैं। आक, पापड़ी, सेंमल इत्यादि के बीज हवा के साथ उड़ते हैं और अपने लिए जमीन बना लेते हैं। पानी के साथ सैकड़ों प्रकार के बीज बहकर यहाँ से वहाँ फैल जाते हैं। बथुआ, खुत्ती की फली या खत्तुआ आदि को पशु खा लेते हैं और गोबर के साथ वे बीज जमीन में गिरते हैं और जम जाते हैं। इन्हें किसान हरिमाया से उपजा हुआ कहते हैं। कई बार ऐसे अदृश्य बीज विदेशों से मँगाए गए अनाज के साथ भी आ जाते हैं जैसे-गा घास (जिसे कांग्रेस घास भी कहते हैं) तो उत्तर प्रदेश-हरियाणा में एक समस्या बन गयी है। वे बीज हवा के साथ फैलते हैं और बड़ी तेजी के साथ वंश-वृद्धि करते हैं।

२.२. पक्षी बीज बोते हैं

पीपल और वट जैसे वृक्षों के बीजों को बोने में पक्षियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। वट और पीपल के गोद (फलों) को कौआ जैसे पक्षी खा लेते हैं परंतु उन फलों के बीज नहीं पचते, वे उनकी बीट के साथ बाहर आते हैं। बीट जहाँ भी गिरती है वहीं पीपल, वट उग आते हैं। कभी-कभी तो सीमेंट की बहुमंजिला इमारतों पर इतनी ऊँचाई पर इन वृक्षों को उगा हुआ देखा जा सकता है, जहाँ सामान्यतया मनुष्य का हाथ नहीं पहुँच पाता। पीपल की जड़ें बहुत गहराई और विस्तार में फैलती हैं। इन जड़ों से भी पीपल और वट के पौधे उग आते हैं। पक्षी के पेट में पहुँचने पर पीपल और वट के बीज की रासायनिक क्रिया हो जाती है, जो उसकी उत्पादक शक्ति को बढ़ा देती है। पिछले दिनों वनस्पति-वैज्ञानिकों का ध्यान मारीशस के डोडो वृक्ष की प्रजाति की ओर गया था, जो प्राय: नष्ट हो रही है। इसके नष्ट होने का कारण उस पक्षी का विनाश किया जाना है, जो इस वृक्ष के ही नाम से जाना जाता था। यह डोडो पक्षी पेड़ के फलों को निगलता था। पेट में फलों का गूदेदार भाग तो पच जाता था परंतु बीज नहीं पचते थे। बीज के ऊपर का कड़ा छिलका डोडो पक्षी के पाचन-तंत्र के पाचक रसों की क्रिया के कारण नरम पड़ जाता था और ऐसे बीज जो डोडो पक्षी की बीट के साथ जमीन पर गिरते थे उनका ही अंकुरण होता था। डोडो पक्षी के अभाव में 'टर्की' नामक पक्षी को ये बीज जबरदस्त खिलाए गए, उसकी बीट के साथ निकले बीजों को बोया तो वे अंकुरित हो गए।-१ वट और नीम के अतिरिक्त पक्षी की बीट में शहतूत के पत्तों का अवशिष्ट और नीम की निबौली भी निकलती है, जिनसे इनके पौधे उपज आते हैं। अमरबेल के अंश को अपनी चोंच में दबाकर पक्षी उड़ता है और दूर किसी वृक्ष पर डाल देता है। जहाँ भी यह बेल गिरती है, उसी वृक्ष पर फैल जाती है तथा उसी वृक्ष से अपनी जीवनी शक्ति प्राप्त करती है।

२.३. प्रकृति का संविधान : अदृश्य विवेक

लोकमानस ने इस सम्पूर्ण प्राकृतिक-प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में अदृश्य विवेक का अनुभव किया है, ये बीज धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचते हैं तो उसके प्रकीर्ण को मात्र-संयोग कहना पर्याप्त नहीं होगा, अवश्य ही उसके मूल में प्रकृति का कोई संविधान है। बीज में ऐसी कोन-सी आकर्षण शक्ति है, जिससे प्राणिमात्र वनस्पति के इर्द-गिर्द खिंचा चला आता है और बीज के जीवन-चक्र में भूमिका प्रस्तुत करता है। क्या वनस्पति का यह आकर्षण भूख और अन्न के अंत:संबंध में है या कि गंध, रुप, रंग और रस के रहस्य में है?

बीज का यह जीवन इस प्रश्न का जीवंत उत्तर है कि क्या प्रकृति का सम्पूर्ण व्यापार विरोधों से बना है या सामंजस्य से अथवा उसमें मात्र संयोग ही है?

२.४. वृक्षारोपण की प्रक्रिया : मनुष्य द्वारा

आषाढ़ के महीने में आम की गुठली गाढ़ दी जाती है। एक माह में पपैया उपजता है। पपैया को एक-एक बलिश्त की दूरी पर बो दिया जाता है। जब यह दो साल का हो जाता है, तब सोलह गज दूरी पर कलमी तथा तीस गज दूरी पर देशी आषाढ़ में ही रोपा जाता है। जब खूब वर्षा हो जाय तब एक गज बड़ा गोल तथा एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा जाता है, उसमें गज भर नीचे पौध रोपी जाती है तथा सप्ताह में एक बार पानी दिया जाता है। तीन वर्ष में कलमी पर और पाँच वर्ष में देशी पर फल आ जाता है। माह में बौर लगती है, फाल्गुन में बौर लगती है, फाल्गुन में अमियाँ छट जाती हैं तथा आषाढ़ में पकना शुरु हो जाता है। जामुन, अमरुद, बेर इत्यादि वृक्षों को भी आम की तरह से ही रोपा जाता है।

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३. आनुवंशिक जब तक इमली इमली है तब तक वह खट्टी ही रहेगी। जब तक नीम नीम है, तब तक वह कडुआ ही रहेगा भले ही उसे गुड़ और घी से सींच दिया जाय। एक ही जल में एक ही भूमि में उगे हुए वनस्पतियों को यह रसभेद कहाँ से मिला, बीज को यह रुप, रंग, रस और गंध कहाँ से मिला? क्या बीज पर लिखे ये संस्कार वैसे ही हैं, जैसे मनुष्य के जीवन के संस्कार और आनुवंशिक गुण? - २

३.१. आनुवंशिकता का विकास

बीज हर बार नया जन्म ग्रहण करता है, उसके जीनव में सूक्ष्म से विराट और एक से अनेक होने की गति है। अंकुरित होना, पल्लवित होना, विकसित होना, फूलना और फलना तथा फिर बीज उत्पन्न करना ताकि फिर नया वृक्ष जन्म ले सके। बीज से फल और फल से बीज की चक्रीय गति के साथ बिंदु रुप बीज में एक सरल-रेखीय गति भी है, और वह है आनुवंशिकता का विकास।

वंश की दृष्टि से मिट्ठा-खट्ठा जम्हीरी, बिजौरा नीबू-वंश के हैं। काश गन्ने का प्रजापति है। अमोखी गाँव के कुँवर पाल सिंह का कहना है कि गन्ने के भुट्टे के अंश जमीन पर जहाँ गिर पड़ते हैं, वहाँ काश पैदा हो जाता है। बड़े-बुढ़े किसानों ने बताया था कि उनके जमाने में गेहूँ छाती के बराबर उग आता था, जब कि आज गेहूँ की कुछ किस्में घुटने भी नहीं छू पातीं। आम की नस्लें आज वैसी नहीं हैं, जैसे दरख्त होते हैं। आज आम की बहुत बौनी किस्में बागों में आ चुकी हैं। यह आनुवंशिक परिवर्तन जैनटिक इंजीनियकिंरग के माध्यम से आज मनुष्य के द्वारा तो किया ही जा रहा है परंतु यह प्रक्रिया प्राकृतिक है और करोड़ों वर्ष की इस प्रक्रिया ने वनस्पतियों में विविधता का विकास किया है। वनस्पतिशास्र बता सकता है कि गेहूँ किसी जमाने में घास वर्ग का पौध था। प्राकृतिक प्रक्रिया से वह अन्न का पौधा बन सका।

३.२. गुणात्मक परिवर्तन

जब किसी पेड़ का बीज बोया जाता है या टहनी रोपी जाती है तो उसकी नस्ल देशी होती है परंतु उस पर जब दूसरे वृक्ष की कलम चढ़ा दी जाती है तो उसकी प्रजाति बदल जाती है। उसमें गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है तथा उसका फल और अधिक मीठा बन जाता है। क्या यह अंतरजातीय संबंध वैसा ही नहीं है जैसा मनुष्यों में होता है?

 

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४. कदली, कपास, तांबूल आग्नेय कुल की भाषाओं के शब्द हैं तथा नारिकेल, दाड़िम, कदंब, निंब और जंबु शब्द मुंडा स्रोत के हैं। पान की बेल को नागवल्ली कहते हैं और संस्कृतिशास्री इसका संबंध नाग-संस्कृति से जोड़ते हैं। शूर्पारक क्षेत्र से आने के कारण सुपारी संज्ञा बनी। राई को असुर-संस्कृति से जोड़ा जाता है। मलय से कर्म रंग या कमरख, पुर्तगाल से संतरा और मौजांवीक से मौसमी शब्द की व्युत्पत्ति बतायी जाती है। संतरा पुर्तगाली शब्द है। माल्टाद्वीप से माल्टा आया, यूकेलिप्टस के पेड़ को गाँवों में अभी भी कलट्टर का पेड़ कहा जाता है, क्योंकि पहले वह अंग्रेजों की कोठियों में लगाया गया था।

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५. वृक्ष- गूलर के संबंध में अनुश्रुति है कि वह बारह बजे रात को फूलता है परंतु उसके फूल को भाग्यवान ही देख सकते हैं। गूलर पर सूरज जैसा प्रकाश देनेवाला एक ही फूल लगता है परंतु उस सब नहीं देख सकते। अशोक के संबंध में किंवदंती है कि वह सुंदरी के पदाघात से फूलता है। गुड़हल (जपा कुसुम) के संबंध में विश्वास किया जाता है कि यह जिस घर में होगा उस घर में लड़ाई होगी। पियाबाँसा (कुबरक) स्रियों के आलिंगन से पुष्पित होता है। कालिदास ने लिखा है-तिलक कुरबकौ वाक्षणालिंगनाभ्याम्। कहा जाता है कि हालाहल के तेज से समीप के वृक्ष जल जाते हैं। बाँस तथा केवड़ा के झुरमुट में साँप रहता है। चंदन के वृक्ष के संबंध में भी यह प्रसिद्ध है कि उससे साँप लिपटे रहते हैं। दोंनामरुआ का पौध बड़ा सुगंधित होता है। इसकी गंध में ऐसा आकर्षण होता है कि पशु-पक्षी खिंचे चले आते हैं। अनुश्रुति है कि इसके पास भूत रहता है।

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६. हींग, प्याज, लहसन अपनी उग्रगंध के लिए विख्यात हैं तो बबूल, हींस, सेंहुड़ और करील अपने काँटे के लिए। भोजपत्र और ताड़पत्र की ख्याति इसलिए है कि प्राचीन काल में उन पर ग्रंथ लिखे जाते थे। भोजपत्र की छाल कागज के समान पतली तथा कई परतेंवाली होती है। खाल की लकड़ी अपनी मजबूती के लिए विख्यात है। सबसे छोटी पत्ती इमली की और सबसे बड़ा पत्ता केला का होता है। अशोक की गीली लकड़ी भी जल जाती है। अगस्तिया का फूल अगस्तय नक्षत्र के उदय होने पर खिलता है।

किसी वनस्पति पर लाल फूल आया, किसी पर पीला फूल आया और किसी पर नीला फूल आया, किसी पर मीठा फल आया, किसी पर खट्टा फल आया तथा किसी वनस्पति पर काँटे आये, यह विविधता लोकमानस की जिज्ञासा का विषय रहा है।

६.१. वृक्ष-वनस्पतियों की आयु

गूलर की उम्र सौ वर्ष की बतायी जाती है। वटवृक्ष की आयु एक हजार साल की बतायी जाती है।-३ सुरक्षा रखने पर देशी आम की उम्र एक सौ पचास वर्ष तथा कलमी आम की पचास वर्ष बतायी जाती है। बबूल, बेरीया और फरास की उम्र बारह से बीस वर्ष, अमरुद की दस वर्ष, नीम की सौ बरस, छोंकर और इमली की एक सौ पचास बरस तथा पीपल की उम्र इन सबसे अधिक बतायी जाती है। कठफुल्ला केवल वर्षा ॠतु में जीवित रहता है। अनाज की सभी फसलें ॠतुजीवी हैं, इनकी उम्र एक ॠतु मात्र है। अरहर की उम्र एक वर्ष है।

६.२. भौगोलिक भेद

कुछ वृक्ष हिमालय पर ही होते हैं तो कुछ विन्ध्य पर और कुछ समुद्री तट पर। कोई मलयाचल पर पैदा होता है; जैसे-चंदन, तो कुछ वनस्पति कश्मीर में ही उपजती हैं; जैसे-केसर। कोई रेगिस्तानी क्षेत्र की वनस्पति है तो कोई जलीय वनस्पति है। इसकी चर्चा धरतीवाले अध्याय में यथाप्रसंग की जा चुकी है।

६.३. हवा, पानी और धरती की भिन्नता

केला, ईख और धान अधिक पानी चाहते हैं जबकि पपीता अधिक पानी देने से सूख जाता है, बेर भी कम पानी चाहता है।

खरबूज, तरबूज, ककड़ी रेतीली भूमि में अच्छे उपजते हैं, जबकि केला पानी मिट्टी में और कपास काली मिट्टी में। गेहूँ, चावल, मक्का के लिए दोमट अधिक उपयुक्त है। आक, जवासा और अगिनबूटी बं भूमि में भी उग आते हैं।

मिर्च, खरबूजा और तरबूजा पछइयाँ रवा में अधिक होते हैं जबकि लौका पुरवइया हवा में।

वनस्पतियों की संख्या इतनी अधिक है कि मनुष्य वनस्पतियों के बीच ही जन्मा, वनस्पतियों के बीच ही उठा, चला और बढ़ा किंतु सभी वनस्पतियों से इसकी पहचाना आज भी नहीं हो सकी। प्रकृति में यह विविधता इतनी व्यापक है कि 'हेरनहार हिरान' अर्थात् देखनेवाला हैरान हो जाता है।

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७. वनस्पतियों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जा सकता है-फल, फूल, पत्ती, आकार, भूमि, जल एवं अन्य विशिष्टताओं को आधार बनाकर सैकड़ों वर्गीकरण कृषिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, उद्यानविज्ञान में किए गए हैं। आयुर्वेदिक तथा शास्रीय वर्गीकरण भी पुराण-ग्रंथों में मिलते हैं; जैसे-द्रुम, त्वक्सार, वनस्पति, औषध, लता और वीरुध, पिंडफल, पापफल, तृणवृक्ष, क्षीरीवृक्ष, स्वर्गवृक्ष आदि।

७.१. द्रुम, त्वक्सार, वनस्पति, औषध, लता और वीरुध : शास्रीय वर्गीकरण

प्राचीन शस्र-ग्रंथों में सम्पूर्ण वनस्पतियों को छ: भागों में वर्गीकृत किया गया है-द्रुम : जिनमें पहले फूल आकर फिर फल आता है; जैसे-आम, जामुन। जिनकी छाल कठोर होती है, वे वृक्ष त्वक्सार कहे जाते हैं; जैसे-बाँस। जिन वृक्षों पर बौर आये बिना ही फल आ जाता है, उनकी संज्ञा वनस्पति है; जैसे-बड़, पीपल औप गूलर आदि। जो फलों के पक जाने पर स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं, वे वनस्पतियाँ औषध हैं, जैसे-गेहूँ, चना और धान आदि। जो लताएँ किसी वृक्ष का आश्रय लेकर चलती हैं, वे ब्राह्मी और गिलोय जैसी वनस्पतियाँ लता हैं, किंतु जो लता धरती पर ही फैलती हैं, कठोर होने के कारण ऊपर की ओर नहीं चलतीं, वे वीरुध कही जाती हैं; जैसे-खरबूजा, तरबूज, पेठा इत्यादि (रेखाचित्र-४)।-४

 

 

७.२. पिंडफाल : पापफल : तृणवृक्ष : विषवृक्ष : क्षीरीवृक्ष तथा स्वर्गवृक्ष

शास्रों में खजूर, लाल खजूर, सुपाड़ी और नारियल जैसे वृक्षों को पिंडफल द्रुम कहा गया है तथा बाँस, कुश, काँस, दूब, सरकंडे जैसे वृक्ष तृणवृक्ष कहे गए हैं। दूधवाले वृक्ष क्षीरीवृक्ष हैं, जैसे खिरनी, वट, पाकर, आदि। काकतुंड जैसे जहरीले फलवाले वृक्ष पापवृक्ष हैं। आक, थूहर, कनेर, धतूरा, भाँगरा, विषवृक्ष हैं।

स्वर्ग के वृक्षों में पारिजात, बहेड़ा, मंदार (आक) और कल्पवृक्ष की गिनती की गयी है। सोमलता भी स्वर्ग की ही वनस्पति है। पूजनीय वृक्षों को चैत्य वृक्ष या देववृक्ष कहा जाता है।

७.३. आयुर्वैदिक वर्गीकरण

आयुर्वेद-शास्र में वनस्पतियों को सात वर्गों में विभाजित किया गया है-'पुष्पवर्ग' में कमल, कुमुद, गुलाब, चमेली आदि तथा 'फल वर्ग' में आम, कटहल, केला, बेल, अनार आदि एवं धान्य वर्ग में चावल, गेहूँ, मूँग, उड़द, चना, मटर आदि। आयुर्वेद में 'शाकर्गीय' वनस्पतियाँ चार प्रकार की हैं-जिनके पत्तों की सब्जी बनती है, जैसे-बथुआ, पालक, पोदीना, धनिया, चौलाई। जिनके फूल की सब्जी बनती हे जैसे-फूल गोभी। जिनके फल की सब्जी बनती है जैसे-पेठा, काशीफल, करेला, तोरई, बेंगन तथा चौथावर्ग कंद है जैसे-शकरकंद, आलू, मूली, गाजर, जिमीकंद आदि आयुर्वेद-शास्र में वृक्ष-वनस्पतियों का पाँचवाँ वर्ग 'वटाकि वर्ग' कहा गया है, जैसे बड़, पीपल, गूलर, पाकर, शाल, पलाश, शाल्मलि, तमाल आदि। हारीत-आदि वर्ग में हरड़, बहेड़ा, पीपली, अदरक, अजमोद, अजवायन, सोंठ, मेंथी, अमलता, इंद्रजौ, हल्दी, लहसुन और प्याज की गणना है तथा 'गडूच्या' वर्ग में गिलोय, पान, कटेरी, आक, धतूरा, नीम, कचनार, बाँस, कुश, दूब, अश्वगंध, इंद्रायण, जवासा, सुदर्शन, अकोय, शतावरी आदि की गणना की गयी है (रेखाचित्र-५)।-५

 

 

७.४. जनपदीय वर्गीकरण

शासत्रीय वर्गीकरणों के अतिरिक्त किसान माली काछी अतवा जनपदीयन वनस्पतियों का वर्गीकरण भिन्न प्रकार से करते हैं। फलूचा, फुलवार, तुरसावर, बारी, पालेज, वैशाखी, कतिकी, तरखत, रुख, झाड़ी, झुंड, घास, बेल, पौधे आदि जनपदीय वर्गीकरण के अंतर्गत रखे जा सकते हैं। इन्हें हम चार भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं। १. वन सम्पदा, २. कृषि सम्पदा, ३. उद्यान सम्पदा तथा ४. जलीय वनस्पति (रेखाचित्र-६)।

 

 

 

७.४.१. वनसम्पदा : (अ) दरख्त और रुख - बहुत लंबे-चौड़े और गहन छायावाले वृक्ष दरख्त कह जाते हैं; जैसे-पीपल, सेमर, गूलर, बरगद, इमली और नीम आदि। जिन पेड़ों के फल-फूल उपयोगी नहीं समझे जाते और छाया भी विरल होती है, वे रुख कहे जाते हैं; जैसे-बबूल, बकाइन, फरास, पीलू, गाँदी और जंगलजलेबी आदि।

(आ) झाड़ी : जिन काँटेदार पेड़ों की टहनियाँ आपस में मिली होती हैं, वे झाड़ी कहलाते हैं; जैसे-हींस की झाड़ी और करील की झाड़ी। भरबेरी और अकोला की गिनती भी झाड़ी के अंतर्गत ही होती है।

(इ) झूँड : झूकटी : घास के जिन पौधों की जड़ें एक होती हैं परंतु तना नहीं होता, बहुत-सी पत्तियाँ एक साथ निकल पड़ती हैं, वे झुंडदार घास झूँड या झूकटी कहलाती हैं; जैसे-गाँडर, दाम, मोंथ, कुश, मूँज, भाभर, काँस इत्यादि। ये पौधे जमीन में से पत्तियों के रुप में ही निकलते हैं। इन पत्तियों के समूह को झुरमुट कहते हैं। सुदर्शन और केवड़ा भी झुंड के रुप में उत्पन्न होते हैं।

(ई) जड़ी-बूटी : रुखड़ी : वे जंगली वनस्पतियाँ जो औषधि के रुप में काम आती हैं, उन्हें जड़ी-बूटी और रुखड़ी कहते हैं। जेंती, असगन्ध, ऊँटकटेरा भटकइया की गिनती रुखड़ियों में की जाती है।

(उ) पौधे और बेल : छोटे पौधे को बिरवा या बिरुला कहते हैं। तुलसी का बिरवा होता है, जिसे थामरे में उगाया जाता है।

एक से दो फुट तक की ऊँचाईवाले वनस्पति भी पौधे कहलाते हैं; जैसे-ओंगा, उसीड़, चिरचिटा, अकसन, धतूरा, पतरचटा आदि। लगभग तीन हाथ ऊँचा पौधा क्षुप कहलाता है, इसकी जनपदीय संज्ञा है बोझा। सोंफ, धनिया, अजवायन के पौधे क्षुप हैं।

बेल वृक्षों का सहारा लेकर ऊपर चढ़ती हैं तथा वृक्षों पर फैल जाती हैं; जैसे-सेंम, अमरबेल, बनकचरिया, कुँदरु (बिंबाफल), गिलोय आदि। चढ़नेवाली बेलों के अतिरिक्त रेंगनेवाली बेल भी होती हैं, ये जमीन में फैलती हैं, जैसे-काशीफल, खरबूज, लौकी आदि।

(ऊ) घास की प्रजातियाँ : घास सैकड़ों प्रकार की होती हैं। कुछ घास के पौधे होते है; जैसे-लजमंती, मौरैला, मकरकरा, भाँगरा, बीछूफल, बाबरी घास आदि। कई घासें बेल के रुप में धरती पर चलती हैं; जैसे-लजमंती, मौरैला, मकरकरा, भाँगरा, बीछूफल, बाबरी घास आदि। कई घासें बेल के रुप में धरती पर चलती हैं; जैसे-ऐंठफरी, हिन्नखुरी, हंसराज, दूब, गोखरु, सितावर, बिसखपरा आदि। जिन घासों की पत्तियाँ चारों ओर फैलाती हैं, वे छत्तादार घास (छतीली घास) कहलाती हैं; जैसे-संखाहोली, बारहमासी, गोभी, सिबलिंग आदि।

७.४.२. कृषि-सम्पदा : (ए) अनाज : कातिकी और वैशाखी फसल : श्रावण मास में बोकर कार्तिक महीने में काटी जानेवाली फसल को कतिकी (खरीफ) कहते हैं। इसके अंतर्गत कपास, मक्का, ज्वार, बाजरा, उड़द, मूँग, सन, ईख, तिल, धान और अंडी आदि की गिनती की जा सकती है। वैशाख मास में पककर तैयार होनेवाली फसल को रवी की फसल या वैशाखी कहते हैं। इसके अंतर्गत गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों और मसूड़ का समावेश है।

(ऐ) साग-सब्जी : बारी और पालेज : आलू, गाजर, मूली, प्याज, पालक, मेंथी, गोभी, करेला और बेंगन आदि सब्जियों की खेती को 'पालेज' कहा जाता है। लौका, तोरई, काशीफल, ककड़ी, खरबूज, और पेठा आदि 'बारी' की फसल हैं। गंगा-यमुना की रेती में बारी की फसल अधिक अच्छी होती है।

७.४.३. उद्यान सम्पदा : (ओ) बाग : फलूचे : बागों में फल और फूलों के पेड़ उगाये जाते हैं। फलवाले पेड़ों को फलूचे के पेड़ कहते हैं। आम, अमरुद, केला, खिरनी, जामुन, बेल, पपीता आदि की गिनती ऐसे ही वृक्षों में की जाती है।

खट्टे फलों को तुरसावर कहते हैं। ये हैं-आँवला, इमली, करोंदा, कमरख, खट्टा, जम्हीरी नीबू, फालसा, शहतूत, लुकाठ आदि।

अमरुद और नीबू वर्ष में दो बार फल देते हैं। इसलिए इन्हें दुबरेजी कहते हैं।

(औ) उपवन और वाटिका : फुलवार : माली बागों में फुलवार उगाते हैं। गुड़हल, अर्जुन, कचनार, कनेर, कुंद, कदंब, कमल, गुलमोर, गुलाब, गेंदा, चंपा, चमेली, जूही, बेला, टगर, मौलसिरी, रातरानी, हारसिंगार, शिरीष, फुलवार के पेड़ हैं। पत्तों की शोभा के लिए मोरपंखी लगाया जाता है। गृहवाटिकाओं में भी मेहँदी, गुड़हल, गेंदा, गुलाब, बेला और चमेली को लगाया जाता है।

(अं) रानी फसल : खेतों में बिना उगाए ही पैदा हो जानेवाली वनस्पति को रानी फसल कहते रहैं। जौ और गेहूँ के खेतों में अकरकरा, चटरी, चंदन, बथुआ, मोथा, पोला, खरतुआ, सीतामाता तथा बथुआ अपने-आप उग आते हैं। मक्का, ज्वार और बाजरा के खेतों में खिरकिटी, कनकौआ, ढराइन, निरगुंडी और ल्हैसुआ आदि उत्पन्न हो जाते हैं। अरहर के साथ झोझरु, मेंथी के खेतों में तरातेज तथा कपास और ईख में बनहल्दी पैदा हो जाती है। रेतवाली जमीन में फरफेंदुआ अपने-आप उग आता है।

(अ:) अरण्य धान्य : मुनिधान्य : समा, पसाई, चावल, नीवार (तिन्नी), कोदों तथा त्यौरादाल की गिनती क्षुद्रधान्य या अरण्य धान्य के रुप में की जाती है। ये घास की तरह उपज आती हैं। नीवार और समा को मुनिधान्य कहा जाता है तथा ॠषि पंचमी जैसे (प्राचीन परम्परा से जुड़े हुए), व्रतों में 'समा' खीर खाई जाती है।

७.४.४. जलीय वनस्पति : सिंगाड़ा, कमल और कुमुद पोखर या तालाब में उगाए जाते हैं। जलकुंभी, मुलहटी (मधूलिका) सिवार और जंगली कासिनी भी जलाशयों में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियाँ हैं। लड़सी, फफूला, प्यार आदि पानी के पौधे हैं तथा पगुला पानी की बेल हैं।

अलसी, ब्राह्मी, नागर, मोथ, नरसल, गंगालहरी, कपूस आदि वनस्पतियाँ पानी के सहारे उगती हैं।

 

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८. बीज-वृक्ष : पेड़ की जड़ की शाखा तक के हिस्से को तना कहते हैं। संस्कृत में इसका नाम स्कंध या प्रकांड है। बड़ी शाखा भी स्कंध कहलाती है, इसका जनपदीय नाम गुद्दी है। जहाँ से डाली निकले, उसे अवरोह कहते हैं।

जिस स्थान से दो शाखा निकलें, उसे हरियाणवी में दोसाँगा, तीन शाखा निकलें उसे तिसाँगा कहते हैं। शाखाओं के निकलने की जगह इतनी मोटी हो कि आदमी बैठ भी सके तो उसे पंजाड़ा कहते हैं। बड़े-बूढ़े कहते हैं कि एक जगह से अधिक से अधिक पाँच शाखाएँ निकलती हैं।

डाल से निकलनेवाली डाली कहलाती है। वृक्ष के सर्वोपरि हिस्से को फुनगी कहते हैं। पेड़ की चोटी 'टुलकी' है, यह तरुशिखा है-'तरुशिखा पर थी अब राजती कमनीकुलवल्लभ की प्रभा।' पेड़ के सीधे तने को गाँव में सल्ला कहते हैं। आँवले की नयी शाखाओं को सुरा कहा जाता है। पेड़ के तने में जो पोल होती है, लकड़ी में गड्ढा होने के कारण उसमें खोंतर, कोटर या खौलर बन जाता है। धर्मबुद्धि, पापबुद्धि की कथा में पापबुद्धि के पिता ने इसी खोंतर में बैठकर साक्ष्य दिया था। शाखाओं में जो गड्ढे हो जाते हैं, उनमें पक्षी अपना घोंसला बना लेते हैं। गुद्दी पर मौहार की मक्खियों के छत्ते लग जाते हैं। बबूल, नीम इत्यादि के तने में से गर्मी में एक चिपचिपा द्रव पदार्थ निकलता है, जिसे गोंद कहते हैं। पीपल के गोंद से लाख बनाया जाता है। वृक्ष की छाल को विल्कल या बक्कल कहते हैं।

केले के तने संस्कृत में कदली-स्तंभ कहते हैं, इसका जनपदीय नाम पींड़ है। केले के तने के ऊपर परत होती हैं जो गाभा कहलाती हैं। नीम और बबूल के कटे हुए तनों को भी पींड़ कहते हैं।

८.१. बाली

बाजरा, ज्वार, गेहूँ, जौ आदि अनाजों तथा चिरचिटा एवं अन्य कई प्रकार की घासों में फूल की जगह बाली उगती हैं। गेहूँ में जिस स्थान से बाली निकलती है, उसे कोथ कहते हैं। जब बाल निकलने को होती है तब कोथ फूल जाता है, इसलिए इसे फूला भी कहते हैं। बालों में दाना पड़ने को अंडा पड़ना कहा जाता है। मेरठ की ओर इसे मक्खनफूल कहते हैं। जब बालों में दाने भर जाते हैं,तब उसका रंग सुनहरी हो जाता है। गेहूँ के सख्त और बड़े बालों को तीकुरिया कहते हैं।

८.२. नरई

गेहूँ का दाना जिस खोल में रहता है, वह 'अकौआ' कहलाता है। अकौए सहित गेहूँ के दाने को 'दोरई' कहते हैं। गेहूँ की आंतरिक मींग 'कनिक' कहलाती है। गेहूँ जब उगकर हाथ-डेढ़ हाथ का हो जाता है, तो उसे 'खूँद' कहते हैं। गेहूँ बड़ा होता है, तब 'नलई' कहलाता है।

८.३. छोलका : छोला

दो या तीन चने के दाने जिस आवरण में होते हैं, उसे छोलका, छोकला या चोकला कहते हैं। चने के दाने का घर घेगरा है, जिसमें दो द्यौल (चने की दाल) होते हैं। छिलका सहित चने का दाना बूट कहलाता है और जब इसे होली की आग में भून लिया जाता है, तब होला कहते हैं।

८.४. भुटिया

मक्के के बड़े पौधे में गाँठ फूटती है और लाल-पीले रंग के रेशे-सूत-निकलते हैं। सूत के नीचे हरी परत में

मक्के की भुटिया रहती है। यह हरी परत पगुला कहलाती है। पगुलों में गड़ेली पर दूध से भरे दाने लग जाते हैं, तो उसे दुद्धर भुटिया कहते हैं। भुटिया-भुट्टा को अंड़िया और कूकड़ी भी कहते हैं। भुट्टे में मोती की तरह दाने जड़े रहते हैं। यदि मक्का पर भुटिया न आवे, तो उस पौधे को 'बधिया' कहते हैं।

८.५. डंठल और फटेरौ

अरहर की पतली और नरम लकड़ी को 'लौद, काँठर' या 'कैना' कहते हैं। इनसे डलिया बनाई जाती है। मक्का, ज्वार तथा बाजरे के तने को 'फटेरौ' कहते हैं। धान के पौधे का तना और पत्तियाँ मिलकर 'पयार' कही जाती हैं। कमल के तने के संस्कृत नाम 'मृणाल' है। गाँव में इसे नाल कहते हैं। मूली और सरसों के मोटे डंठलों को 'डाँठरे' कहते हैं, इनका साग बनता है। पत्तियों सहित गा के डाँठरे को 'गजरा' कहते हैं। नीम की कोमल टहनी 'लहर्रा' कहलाती है। नीम की मजबूत टहनी से दातुन बनाई जाती है।

८.६. सींक

नीम की पत्तियाँ जिस पिच्छास से जुड़ी रहती हैं उसे नीम की सींक कहते हैं। गाँडर में पीली सींक होती है। नारियल की भी सींक होती है।

८.७. तुर्रा

मटर का तना जब बेल की भाँति आगे बढ़ता है, तब उसके सिरे पा एक सूत-सा निकलता है, उसे तुर्रा कहते हैं। लौकी पर भी तुर्रा होता है। मूँज के तने के ऊपरी भाग को तीर कहते हैं।

८.८. बीज और गुठली

कपास के बीज को बिनौला कहते हैं। बोने से पहले इसे गोबर-पानी-मिट्टी में डाल कर ओला किया जाता है। अरबी के बीज का नाम बड़ौखा है। अंडी तथा इमली के बीज चीआँ कहे जाते हैं। रीठा के फल के अंदर एक काले रंग की गोली (बीज) होती है, इस काले आवरण को फोड़ने पर गिरी निकलती है। कमल का बीज कमलकोश के भीतर होता, इसे कमलगट्टा कहते हैं। भाड़ में भुनने पर ये मखाने बन जाते हैं। पियार के बीज की गिरी चिरोंजी कहलाती है। वह दाना जो खेत में झड़कर अपने-आप बीज बन कर उगता है, लमेर कहलाता है। खरबूज के बीज का छिलका बहुत हल्का होता है। छिलके के अंदर मिंगी होती है। खीरा, काशीफल और तरबूज के बीज भी खरबूज के बीजों की तरह छीलकर व्रत-उपवास में तथा श्रीकृष्ण जन्मअष्टमी पर पाग जमाकर खाए जाते हैं।

कुछ फलों के बीज कठोर आवरण में होते हैं, उन्हें गुठली कहते हैं। आम की गुठली बो देने पर उसमें नीचे से जड़ तथा ऊपर से अंकुर का हिस्सा निकलने पर गुठली का कठोर हिस्सा खोखला हो जाता है, इस पपैया कहते हैं तथा बच्चे इसकी पीपनी बजाते हैं। आम की गुठली के भीतर सफेद हिस्से का पाउडर सफूक कहलाता है।

८.९. जड़

अरहर मूँग, अंडी, उड़द, चना और मटर की जड़ें मूसला जड़ कहलाती हैं। इसके बीज दो परतवाले होते हैं। गेहूँ, बाजरा आदि की जड़ें झखड़ा जड़ कहलाती हैं, इसके बीज में जो परत नहीं होती।

कमल की जड़ को भसीड़ा कहते हैं तथा उसका साग बनता है। पिप्पली की जड़ को पीपरामूर कहते हैं। बाँसुरई की जड़ की गिनती दस मूलों में की जाती है, जिनका काढ़ा बनाकर प्रसूता स्रियों को पिलाया जाता है। बच, कुलंजन और असगंध की जड़ें भी औषधि के रुप में काम आती हैं। अदरक की जड़ को गाँठ कहते हैं। गा और मूली कड़ी हों, तो उन्हें नर्री कहते हैं। फालसे की जड़दार पौध को जरोंदा कहते हैं। जो छोटा पौधा अन्यत्र जमाने के लिए फावड़े से उठाया जाता है, वह थापी कहलाता है।

८.१०. अंकुर

खेत में उगनेवाले नए अंकुर को कुल्हा, कुल्ला या किल्ला कहते हैं। गेहूँ और जौ के अंकुर जब धरती से फूटते हैं तब उन्हें सुई फूटना कहते हैं। मक्का, ज्वार-बाजरे के अंकुर भी सुई कहलाते हैं। ईख की गाँठ को घुंडी या आँख कहते हैं, इसी में से कुल्ला फूटता है, इसे कल्ले निकलना या आँख फूटना कहते हैं। बाजरा के अंकुरण को फुटेर कहते हैं। शकरकंद की जड़ में से जो अंकुर निकलते हैं, वे चपा कहलाते हैं। केला और बाँस की जड़ों में से चारों ओर जो कुल्ली फूटती हैं, वे गुड़िया कहलाती हैं, और वे गुड़िया गाढ़कर ही केले और बाँस के पेड़ उगाए जाते हैं।

गेहूँ आदि पौधों में सुई फूटने के बाद सुई से जो अन्य किल्ले निकलते हैं, वृद्धि होती है, उसे ब्याँत कहते हैं।

सामान्यतया वृक्ष-वनस्पतियों के कुल्ला जब कुछ बढ़ते हैं, तो उस पर दो पत्ते आते हैं, जिन्हें दुपता या दुपती कहते हैं। दुपती के बाद फिर चौपता होता है, फिर छोटी-छोटी कोंपल-किलसियाँ उपजती हैं।

जौ के अंकुर कुछ बड़े हो जाते हैं, तो उन्हें घूँघा, जवारे-आदि नामों से जाना जाता है। सरसों का अंकुर जब एक अंगुल मोटा तथा एक हाथ ऊँचा हो जाता है, तो उसे गाँडर कहते हैं, इसकी सब्जी भी बनती हैं।

८.११. फल

फल का आवरण छिलका होता है। छिलके के नीचे कई फलों में फाँकें जुड़ी हुई होती हैं, जैसे संतरा या मौसमी में। खीरा में भी अंदर चार फाँक होती हैं। जामुन और अमरुद का छिलका बहुता हल्का होता है इसलिए उसे छिलका सहित खा लेते हैं, जामुन की गुठली थूक देते हैं। आम और केला का छिलका अलग कर दिया जाता है। छिलके के नीचे सार तत्त्व गूदा कहलाता है। आम में गूदे के नीचे गुठली होती है, देशी आम की गुठली में छूँछ भी होती है। आम के फल को डाली से जोड़नेवाली जगह पर जो काला निशान होता है, इसे टोपी कहते हैं। टोपी के हटाने पर जो तीखा-सा रस निकलता है, वह चेंप कहलाता है। यह शरीर के किसी हिस्से पर लग जाय तो फोड़े-फुंसी निकल आते हैं। टोपी बैंगन तथा किंभडी के फल पर भी होती है।

नारियल के आवरण को जटा कहते हैं। जटा के नीचे का कड़ा आवरण खोपरा कहलाता है। खोपरे के नीचे गिरी होती है। जो पका और सूखा नारियल का फल होता है, वह गोला कहलाता है। ककड़ी, बैंगन आदि में यदि कीड़ा लग जाता है तो फल काना हो जाता है। केला की कच्ची फलियों को गहर कहते हैं। गहर का साग बनता है। केला केवल एक ही बार फल देता है। काशीफल इत्यादि के सूखने पर वह तूंबा या तोमरा बन जाता है। तूमरा का वाद्ययंत्र भी बनाया जाता है तथा कमंडल भी। लबेड़े के फल में एक चिपकना द्रव-सा निकलता है, इस कारण उसे रेंहटा कहते हैं। नीबू में रस से भरे हुए जीरे होते हैं।

महुआ के फल को गिलोंटे तथा करील के फल को टेंटी कहते हैं। सुपारी को पूगीफल कहते हैं। आम के फल को बोंडी कहते हैं तथा इसमें जो रेशे होते हैं, उन्हें बाव, बूवड़ा या हउआ कहते हैं। काशीफल को कौला तथा तरबूज को मतीरा भी कहते हैं। छोटे आकार के खरबूजे की एक कि को बटिया कहते हैं। सन के पौधे पर जो काँटेदार फल आता है उसे ढैमना या झुँझनू कहते हैं। आलू के पौधे को आल तथा उसके फल को टैमना कहते हैं। इमली के फल को कतारा और पीलू के फल को लाललिलरी कहते हैं। खरबूज, तरबूज, घीया, तोरई की बेलों पर लगनेवाले नए कच्चे फल 'जई' कहलाते हैं, इनके सिरे पर फूल भी लगा रहता है। नीबू के नए फल को जो अभी-अभी लग रहा है, चोइया कहते हैं। कपास का फल गूला या डोडी कहलाता है, जो पककर फूल जाता है और उसके अंदर सफेद रुई चमकने लगती है। एक गूला में तीन-चार पंखियाँ होती हैं। छोटा अंगूर सूखने के बाद किशमिश तथा बड़ा अंगूर सूखने पर मुनक्का कहलाता है। खजूर का फल सूखने पर छुआरा हो जाता है। नीम के फल को निबौरी तथा पीपल के फल को गोदी कहते हैं। बरगद का फल बरगुदा कहलाता है।

तोरई का फल सूख जाता है तो फल की शिराएँ कड़ी होकर सूख जाती हैं, वह झमा कहलाता है। कच्चे आम को अमियाँ या आमी कहते हैं। पक जाने पर आम कहलाता है। आम की कई जिन्स होती हैं-दशहरी, तोतिया, लंगड़ा, चौसा और बंबई। देशी आम टपका कहलाता है। जो पाल से पकाया जाता है वह पाल का पका कहलाता है तथा जो डाल का पका होता है, वह बहुत मीठा होता है। बेर भी कई प्रकार का होता है, जैसे-कलमी, पोंड़ा, पेंमदी गोला और तसींगा।

८.१२. फली

सहजना, अमलतास, सेंम, छोंकरा, बाकला, जंगलजलेबी, उर्द, मूँग, मटर, मोठ पर जो फलियाँ आती हैं, उनमें बीज की लड़ियाँ होती हैं। मटर की वह नई फली जिसमें दाने नहीं पड़े, पेपना कहलाता हैं। मटर की कच्ची फलियों को सुखाकर जब साग के लिए निकालते हैं तो उसे मकोना कहते हैं। मूरी की फलियों को सेंगरी कहते हैं।

८.१३. पुष्प और मंजरी

बाजरा का पुष्प 'बुर' कहलाता है। आक का फूल 'अकौनी' कहलाता है। कपास के पौधे पर प्रारंभ में बंद मुँह का लंबा-सा फूल आता है, वह 'पुरी' कहलाता है, वही बाद में फूल बनता है। सरसों के फूलों को बसंती-फूल कहा जाता है। तुलसी का फूल मंजरी कहलाता है। मंजरी में ही बहुत छोटे-छोटे दाने होते हैं, वे तुलसी के बीज होते हैं। आम की मंजरी को 'बौर' कहा जाता है।

८.१४. फूल के अंग

फल या फूल की जड़ को वृंत कहते हैं, इसी को गाँवों में डाँड़ी या डंठल कहते हैं। फूलों में अनेक पंखुड़ी होती हैं, उन्हें दल कहते हैं। गुलाब की पंखुड़ियों का गुलकंद बनता है। पंखुड़ी के पीछे फूल में जो हरी पत्ती होती है, वह अंखुरी कहलाती है तथा जिस उभरे हुए भाग पर अंखुरी होती है, वह टुमना कहलाता है। फूलों का रस पराग या मकरंद है, फूल के मध्य में जो सूक्ष्म बाल होते हैं, वे केसर कहलाते हैं। कालिदास ने लिखा है-लोध्र पुष्प का पराग (अंगराग) अलका की स्रियाँ मुख पर लगाती थीं।

सरसों के फूलों के नीचे जीरे के आकार की हरे रंग की गोलियों सहित झुग्गी लटकी रहती है।

८.१५. पत्ते

कमल के पत्तों को पुरैन या पद्मपत्र कहते हैं। कमल के पत्ते सदैव जल के ऊपर होते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अनासक्त के उदाहरण के रुप में कमल के पत्ते का बिम्ब प्रस्तुत किया है-'पद्मपत्रमिवांभसा'। खजूर का पत्ता पलिंगा कहलाता है, इससे पंखा और बोइया बनाए जाते हैं। ढाक के नए पत्तों को पेंपना कहते हैं। दोंना के आकारवाले पत्ते दोंनाबर कहलाते हैं, पीपल के पत्ते पीपरिया कहे जाते हैं। गेहूँ के नरम पत्ते लपस कहलाते हैं। ईख की पत्ती को आग कहते हैं, इसे चारे के रुप में पशु खाते हैं, तो उनका दूध बढ़ता है। गन्ने पर लिपटे पत्तों को पताई कहते हैं।

अरबी के पत्तों का साग बनता है तथा धनियाँ-पोदीना की पत्तियों की चटनी बनती है। वृक्ष की नयी मुलायम पत्ती पल्लव कहलाती है, लाल चिकना नया कोंपल किसलय कहा जाता है। पात, पतउआ, पत्ता, पत्ती, पत्र के पर्यायवाची हैं, एक पत्ते का पात्र पतूखी कहलाता है। सूखे पत्तों को पतावर कहते हैं।

८.१६. झाँखर; करब और डाँफरे

बबूल की पत्ते रहित सूखी काँटेदार शाखा को झरकटा या झाँखर कहते हैं। कपास के पौधों की पकी सूखी लकड़ी बनकटी या बनौट कहलाती है। ज्वार-बाजरे के काटे हुए पौधे करब कहलाते हैं-'करब बिकाय मोय लाय देउ लटकन।' करब की कुटी काटी जाती है। सरसों की सूखी लकड़ियों को डाँफरे कहते हैं। गेहूँ और जौ के पौधों का सूखा तना नरई कहलाता है। इसका भुस पशुओं का भोजन है। लाहा का भूसा दूरी कहलाता है। गेहूँ-जौ के रेत जैसे महीन भूसे को रैनी कहते हैं।

८.१७. नरुआ और फाँस

पोला बाँस नरुआ कहलाता है। बाँस के फटे टुकड़े को खपंच, फच्चट या खपच्ची कहते हैं। सूखे बाँस की फाँस भी उँगली में लग जाती है। किसी-किसी बाँस में बंसलोचन निकलता है।

८.१८. कलम

कलम लगाने के लिए देशी आम के तने की गर्दन (चाँद) काट देते हैं तथा उसे चीरकर अन्य वृक्ष की टहनी

(कोंपल) लगाकर सन के बंध देते हैं, इसे पैबंद लगाना कहते हैं। बेर पर मई-जून में छल्ला चढ़ाया जाता है।

८.१९. झालरौ और डूँड़ौ

बहुत पत्तेवाले वृक्षों को झालरे कहते हैं। गूलरिया झुकझालरी म्वाँ सैयद कौ थान। जिस वृक्ष में किसी कारण से कम पत्ते होते हैं, अथवा डालियों का विकास अवरुद्ध हो जाता है उसे डूँड़ौ कहते हैं।

८.२०. गुच्छा

फूलों के गुच्छे को संस्कृत में स्तवक कहते हैं। अंडी ते गुच्छों को गाँवों में गवा कहते हैं। अंगूर का भी गुच्छा होता है। केला की फलियों के गुच्छे को चरख कहते हैं।

८.२१. दूध : काँटे

आक, सेंहुड, सिहोरा, थूहड़, बड़ आदि के वृक्षों में दूध जैसा सफेद रस निकलता है। बबूल (कीकर) बेरिया, सेंहुड़, गुलाब, करील, हींस, बेल, झरबेरी, करोंदा, जवासा आदि में काँटे होते हैं। सिंगाड़े के फल पर काँटा होता है।

८.२२. गन्ना : पोई

गन्ने में दो गाँठों के बीच के रसीले हिस्से को पंगुली या पोई कहते हैं। गन्ने को छीलकर टुकड़े करके गड़ेली बनाई जाती है। गन्ने के रस का गुड़ बनता है, गन्ने का ऊपरी भाग अंगोला कहलाता है। गन्ने की एक अच्छी जिन्स को पोंड़ा कहते हैं।

८.२३. रस

आम, अंगूर, गन्ना, संतरा, मौसमी, नीबू एवं अन्य अनेक फलों का सार तत्त्व रस कहलाता है। खैर की लकड़ियों के सत्त को कत्था कहते हैं।

इस प्रकार जनपदीय जीवन में बीज-वृक्ष की प्रक्रिया, आनुवंशिकता, रुप-गुण की विविधता और उनके अंगप्रत्यंग की रचना और उनकी पहचान के संबंध में गहरी अन्वेषणा की गयी है तथा बीज की प्रक्रिया में प्रकृति के संविधान को ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है। वृक्ष-वनस्पति की विविधता, विचित्रता तथा समपूर्ण जीवन-चक्र की पृष्ठभूमि में अदृश्य विवेक की सत्ता को स्वीकारा गया है।

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संदर्भ

१. नवभारत टाइम्स, अगस्त १९९४ : एक बेमिसाल दोस्ती का अंत : के. आर. शर्मा

२. क्रोमोसोम : गुणसूत्र : विधाता की इस रासायनिक भाषा के आधार पर ही आम का बीज आम बनता है और बबूल का बीज बबूल। यही भाषा पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं में सक्रिय है। धर्मयुग १६.२.१९९४

३. उत्तर अमेरिका के मेसबार्डे पार्क में चीड़ जाति का सबसे पुराना पेड़ है, इसकी उम्र वनस्पति विज्ञान ने ४५०० वर्ष मानी है। अमेरिका के ही सिकोमा जाइगेंटिया की उम्र ३२०० वर्ष कूती गयी है। जोशीमठ में शहतूत वंश के उस वृक्ष की आयु १२०० वर्ष बतायी जाती है, जिसके नीचे आदि शंकराचार्य समाधिस्थ हुए थे। गया का बोधिवृक्ष (पीपल) ९०० वर्ष पुराना है तथा कलकत्ता के वनस्पति उद्यान का वट वृक्ष २००० वर्ष का है। एटा जिले मे जलेसर के साथ 'बरीकौ नाम' प्रसिद्ध है जिसमें १६ बीघे जमीन में फैला वटवृक्ष है। यह वृक्ष एक हजार साल का बताया जाता है।

४. भागवत ३.१०.१९

५. दे. भाव पुराण

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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