धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

धरती-बीज : अध्ययन की पृष्ठभूमि


  1. विषय-प्रवेश
  2. अवधारणाओं के विकास में धरती-बीज-बिम्बों की भूमिका
  3. धरती-बीज-संबंध का अध्ययन करनेवाले विज्ञान एवं उनके दृष्टकोण : प्रकृति विज्ञान
  4. भाषाशास्र
  5. जनपदीय अध्ययन
  6. प्रस्तुत अध्ययन का दृष्टिकोण
  7. 'लोक' की अवधारणा
  8. धरती और बीज-संबंधी लोकवार्ता
  9. लोकवार्ता-संकलन : स्रोत

पाठ तो बालक नित्यप्रति ही पढ़ता है किंतु पहला पाठ उसे सबसे अधिक याद रहता है, क्योंकि पहले पाठ की समझ बुनियादी रहती है और उस बुनियादी समझ के ही माध्यम से वह आगे पाठों को समझता चलता है।

यदि प्रकृति को मनुष्य की 'बेसिक प्राइमरी पाठशाला' कहा जाना युक्तिसंगत है, तो वृक्ष-वनस्पति को उसका पहला पाठ भी कहा जा सकता है।   यों तो प्रकृति की पाठशाला में सूरज, चंदा, सितारे, हवा, बादल, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि बहुत से पाठ हैं, पर वृक्ष-वनस्पति से मनुष्य के अनेक नाते है।

वृक्ष-वनस्पति मनुष्य के अग्रजन्मा हैं, क्योंकि धरती पर उनका जन्म मनुष्य से पहले हुआ था और जब मनुष्य का जन्म हुआ था, तब वृक्ष-वनस्पतियों ने मनुष्यों को आश्रय दिया था, आच्छादन दिया था और मीठे-मीठे फलों का रस दिया था।   वृक्ष-वनस्पति मनुष्य के शरीर में ही नहीं, उसकी चेतना में भी समाए हुए हैं।   मानवसभ्यता कि युगयात्रा वृक्ष-वनस्पतियों की छाया में ही प्रारंभ हुई थी।   इस प्रकार वृक्ष-वनस्पति मानव-जीवन के सर्वाधिक निकट रहे हैं और उन्हीं के माध्यम से मनुष्य ने प्रकृति और जीवन की पहचान बनाई और बढ़ाई थी।   धरती और बीज की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य ने प्रकृति के समग्र व्यापार और सृष्टि-प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य ने प्रकृति के समग्र व्यापार और सृष्टि-प्रक्रिया के रहस्य को भी जाना था।

. विषय-प्रवेश

बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनने की प्रक्रिया के बिम्ब मनुष्य की चिंतनप्रणाली में बहुत गहराई तक बसे हुए हैं।   मनुष्य की चिंतनप्रणाली में धरती और बीज के बिम्बों की परंपरा को पहचानें तो चिंतन की प्रक्रिया और चिंतन का विकास क्रम स्पष्ट हो सकता है।   इसी प्रकार अभिव्यक्तिप्रणाली में ये बिम्ब जहाँ भाषा के विकास को प्रकट करते हैं, वहीं विभिन्न जनसमूहों और जनसंस्कृतियों के संबंध को स्पष्ट कर सकते हैं।   यही स्थित मिथक, विश्वास, भावना और आचार-पद्धति के संबंध में है।

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. अवधारणाओं के विकास में धरती-बीज-बिम्बों की भूमिका

मनुष्य ने जिस प्रकार अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से बीज-वृक्ष के संबंध में सोचा था, उसी प्रकार बीज-वृक्ष के बिम्बों को माध्यम से अपने जीवन के संबंध में सोचा है फिर इन दोनों को माध्यम से उस सबके बारे में सोचा, जिसे उसने देखा और अनुभव किया।   उसने अपने जीवन को वृक्ष-वनस्पतियों के जीवन के साथ मिलाकर सोचा और देखा कि धरती, जल, वायु, आकाश, समय, ॠतु और सम्पूर्ण प्रकृति का दोनों के ही जीवन से एक-जैसा नाता है।   उसने पंचभूतों की प्रक्रिया तथा काल की गति को जाना, उसने जब कर्म के फल को पहचाना था, तब फल को बीज को भी जान लिया था और यह भी समझ लिया था कि बीज कभी नष्ट नहीं होता, उसमें जीवन की निरंतरता है।   मनुष्य ने देखा कि एक वृक्ष से अनेक वृक्ष जन्म लेते हैं, एक वृक्ष से दूसरा वृक्ष बनने का कारण बीज है और धरती बीज का आश्रय है।   इस प्रकार धरती-बीज, वृक्ष और प्रकृति से उनके संबंधों की पहचान के आधार पर मनुष्य ने अनेक अवधारणाएँ बनाई और उनका विकास किया।

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. धरती-बीज-संबंध का अध्ययन करनेवाले विज्ञान एवं उनके दृष्टकोण : प्रकृति विज्ञान

३.१. वनस्पति विज्ञान

बीज कि उत्पत्ति कैसे होती है?   पौधे की आंतरिक तथा बाह्य संरचना कैसी है?   पौध किस प्रकार अपना भोजन प्राप्त करता है, किस प्रकार वह बढ़ता है, बदलते पर्यावरण के बीच किस प्रकार वह अपना अनुकूलन करता है, किस प्रकार वह अपने वंश की वृद्धि और विस्तार करता है,   वनस्पतियों के विकास की गति सरल संरचना के जटिल संरचना की ओर क्यों है?   प्रकाश तथा तापक्रम कि भिन्नता से किस प्रकार उनका फलना और फूलना प्रभावित होता है?   तथा वनस्पतियों को किस प्रकार मानव-जीवन के लिए और अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है?   इन सभी प्रश्नों पर वनस्पति-विज्ञान ने बहुत विस्तार से अध्ययन किया गया है।

३.२. कृषि विज्ञान एवं मृदा रसायन

अनाज, फल और साग-सब्जीवाले बीज कृषि-विज्ञान के अध्ययन का विषय हैं।   कौन-सी फसल का बीज कब बोना चाहिए?   कैसे बोना चाहिए?   सिंचाई कब और कैसे की जानी चाहिए?   कौन-सी खाद कितनी मात्रा में डालनी चाहिए?   फसल के रोग और कीड़ों से बचाव के क्या उपाय हैं?   उद्यान विज्ञान के क्षेत्र में बाग-बगीचोंवाले पौधों से संबंधित ऐसे ही प्रश्नों पर विचार किया जाता है।   मृदा रसायन (च्दृत्थ् ड़ण्eथ्रत्sद्यद्धन्र) मिट्टी के रासायनिक तत्त्वों-लवणों आदि पर विचार करते हैं।

३.३. आनुवंशिक-अभियांत्रिकी

इन्हीं के साथ एक बहुत प्रभावशाली अनुशासन है-जैनेटिक इंजीनियकिंरग, जिसने बीजों में आनुवांशिक-परिवर्तन करके फसलों के उत्पादन को दस गुना अधिक बढ़ा दिया है।   प्राकृतिक प्रक्रिया द्वारा बीजों में जो विकास लाखों बरसों में संभव था, जैनेटिक इंजीनियकिंरग ने महीनों में कर दिखाया है।   प्रयोगशाला में कृत्रिम प्रकाश-विकीर्णन तथा कृत्रिम तापक्रम द्वारा गेहूँ की पैदावार दो महीने में प्राप्त की जा रही है।   आम का फल प्राप्त करने के लिए अब दस बरस तक प्रतीक्षा करने की जरुरत नहीं रही, अब आप उसे चार बरस में ही प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि अब बौने आकार के बीज विकसित किए जा चुके हैं।

आज बीज की भौगोलिक सीमा को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।   धरती के एक छोर पर उगनेवाले बीज धरती के दूसरे छोर पर पहुँच गए हैं तथा उन्हें भिन्न भौगोलिक स्थिति में उगाने के प्रयोग जारी हैं।   सैकड़ों प्रकार के विदेशी पौधे प्रयोगशालाओं में बीज और धरती की प्राकृतिक प्रक्रिया पर गहन अनुसंधान हो रहे हैं तथा इस प्रकार के सभी प्रश्न प्राकृतिक विज्ञानों की परिधि में आते हैं।

३.४. प्रौद्योगिकी एवं पारिस्थितिकी

परिस्थितियों में नयी समस्या जन्म लेती है, उस समस्या का समाधान खोजा जाता है पर वह समाधान फिर नयी समस्या को जन्म देता है।   इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए भोजन की समस्या पैदा हुई तब इतिहास की अनिवार्य प्रक्रिया ने हरित क्रांति का सूत्रपात किया था और आज हरित क्रांति की उपादेयता ने भारत के गाँवों-खेतों और बागों में जड़ जमा ली है और हरित क्रांति के इस दौर में कृषि की परंपरागत प्रौद्योगिकी को विस्थापित होना पड़ा।   यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और इतिहास की आवश्यकता भी।   जिसे बीतना था, वह बीता, क्योंकि समय की छलनी में सबकुछ छन जाता है किंतु आज वही समाधान पर्यावरण की नयी समस्या लेकर आया है।   रासायनिक खादों के प्रभाव से डरकर टिंडा और चना ने समामई गाँव की धरती छोड़ दी है।   सिंचाई के नए साधनों कि परिणति गाँव में यह हुई कि बूढ़ा किसान निराश होकर कहता है कि आज तो पीने के पानी की ऊ भाबई है।-१   जो कीटनाशक शाक, फल, अन्न और भोजन को विषाक्त बना रहे हैं और सम्पूर्ण वातावरण में विष घोल रहे हैं और भोजन को विषाक्त बना रहे हैं और सम्पूर्ण वातावरण में विष घोल रहे हैं और इस पर्यावरण-प्रदूषण की चिंता ने पर्यावरण विज्ञान को बीज-वृक्ष-वनस्पति तथा मानव एवं संपूर्ण प्रकृति के संबंध का नये संदर्भों में अध्ययन करने की दिशा में प्रवृत्त किया है।

प्राच्यविद्या

३.५. ज्योतिष

ज्योतिषशास्र में विभिन्न ग्रह-नक्षत्र और राशियों के वनस्पतियों पर पड़नेवाले प्रभाव का आकलन किया गया है।

३.६. आयुर्वेद

आयुर्वेद के ग्रंथों में विभिन्न वनस्पतियों के लक्षण, रुप और गुण की विस्तार से चर्चा की गयी है।   वात, पित्त, और कफ संबंधी विकारों के संदर्भ में वनस्पतियों के उपयोग पर विचार किया गया हे तथा उनसे विभिन्न रोगों में विभिन्न औषधियाँ बनाने के विषय में निर्देश दिए गए हैं।   जड़ी-बूटियों की पहचान के साथ ही वनस्पतियों की नामावली भी इन ग्रंथों में उपलब्ध है।   तुलसी, पीपल, नीम से लेकर गाजर और मूली तक भिन्न-भिन्न वनस्पतियों के उपयोग पर शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

३.७ दर्शनशास्र

दर्शनशास्र सम्पूर्ण प्रकृति और जीवन के संबंध में विचार करता है।   बीज-वृक्ष और धरती-बीज-संबंध भी उसके अंतर्गत है किंतु मुख्य बात यह है कि बीज-वृक्ष और धरती-बीज संबंधी बिम्ब दर्शनशास्र की विवेचना में व्यापक रुप से विद्यामान है।   चाहे जैनदर्शन और बौद्धदर्शन हो अथवा सांख्य, मीमांसा, वेदांत, न्याय, वैशेषिक बीज के मिथकशास्रीय अध्ययन की चर्चा यहाँ प्रासंगिक होगी।   भारतीय मिथकशास्र का अध्ययन महायुग की यात्रा ही नहीं है, वह भारतीय लोकमानस का भी अध्ययन है, क्योंकि लोकमानस और मिथक अविच्छिन्न हैं।   इसलिए पुराणों में बिखरे हुए कथा-साहित्य में बीज और वनस्पति से संबंधित कथा-रुढियों अथवा अभिप्रायों की अनुक्रमणिका तैयार करने का काम बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसका संबंध लोक और शास्र के बीच निरंतर चलनेवाली अंत:क्रिया से है।

मानविकी

३.९. भूगोल

जिस प्रकार मनुष्य तथा अन्य प्राणियों पर भौगोलिक प्रभाव निर्णायक होता है, उसी प्रकार पहाड़, रेगिस्तान, समुद्री क्षेत्र, मैदानी क्षेत्र आदि की वनस्पतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।   वनस्पतियों का भौगोलिक अध्ययन भूगोल के क्षेत्र का विषय है।

३.१०. समाजशास्र

धरती और बीज की प्रक्रिया मनुष्य को सामाजिक रुप से भी प्रभावित करती है।   किसान और मजदूर का सामाजिक संबंध, किसान का पारिवारिक संबंध, गाँव का समाज, तेली, तमोली, काछी और माली जैसी वनस्पतियों से संबंध रखनेवाली जातियों का उद्भव समाजशास्रीय अध्ययन का विषय है।

३.११. अर्थशास्र

धरती और बीज का अर्थशास्र पक्ष कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।   किसान-मजदूर का उत्पादन-संबंध, कृषिमंडी, व्यापार, कृषि पर आधारित चीनी मिल, तेल मिल, फ्लोर मिल जैसे बड़े उद्योग, लघु उद्योग, उत्पादक और उपभोक्ता संबंध जैसे विषय अर्थशास्र के अंतर्गत आते हैं।

३.१२. इतिहास

आज जो वृक्ष-वनस्पति हमारे परिवेश में विद्यमान हैं, उनमें से हजारों किस्में विदेशी हैं।   इसी प्रकार समय-समय पर अनेक वनस्पतियाँ विदेशियों के साथ भारत पहुँची हैं।   वैदिकयुग में भारत में कौन-कौन-से वृक्ष थे, मुगलकाल में कितने वृक्षों और कितने फूल ईरान-अफगानिस्तान से आये, यह सब इतिहास के अध्ययन विषय है।

३.१३. सौंदर्यशास्र

सौंदर्यशास्र से काव्य, चित्रकला, संगीत एवं मूर्तिकला का जन्म होता है।   चित्रकला, मूर्तिकला, कविता और संगीत न वनस्पति-सौंदर्य को कला-अभिव्यक्ति का प्रमुख केंद्र बनाया है।

३.१४. साहित्य एवं वनस्पतिकोश

संस्कृत साहित्य से लेकर प्राकृत-अपभ्रंश विभिन्न जनपदीय भाषाओं तथा हिंदी के काव्य-साहित्य में वृक्ष-वनस्पतियों की इतनी व्यापक चर्चा है कि कई अनुसंधान किए जा सकते हैं।   वृक्ष-वनस्पति के जीवन-चरित्र और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जो ललित निबंध लिखे वह परंपरा डॉक्टर विद्यानिवास मिश्र से लेकर बनवारी तक फूली-फली और फैल गयी है।   अँग्रेज़ी में 'भारतीय वनस्पतिकोश' भी प्रकाशित हुआ है।  

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. भाषाशास्र

धरती और बीज से फल तक की जीवनयात्रा की शब्दावली, वनस्पतियों से बननेवाली वस्तुओं तथा कृषि-प्रौद्योगिकी से संबंधित शब्दावली एवं वानस्पतिक स्रोत से जीवन के विविध क्षेत्रों में फैलनेवाली शब्दावली के विकास तथा उसका अंतरजनपदीय एवं अंतरप्रदेशीय अध्ययन बड़ा महत्त्वपूर्ण विषय है।   इस शब्दावली के अध्ययन के तीन विभाग किए जा सकते हैं-

  1. जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रयुक्त वानस्पतिक शब्द

  2. नाम (संज्ञा)

  3. कृषि और कृषक-जीवन संबंधी शब्दावली

४.१. जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रयुक्त वानस्पतिक शब्द

वनस्पतियों से मनुष्य की जान-पहचान आदिकाल से ही है, यही कारण हे कि वनस्पतियों से संबंधित हजारों-हजारों बिम्ब मानव-मन पर बने हैं और वे बिम्ब उसके शब्दों में रुपायित हुए हैं।   मनुष्य की भावनाओं, धारणाओं और विचारों के विकास के साथ उन शब्दों के अर्थ भी बदलते रहते हैं और वे शब्द तथा अर्थ उसकी भाषाओं में फैलते रहे हैं।   हजारों वानस्पतिक शब्द अपने अभिधार्थ की सीमा से निकलकर लक्षण-व्यंजना और लोकरुढि का आश्रय पाकर भाषा और बोलियों में इतने छा गए हैं कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की अभिव्यक्ति उन शब्दों के माध्यम से की जाती है।   इस अध्ययन के दसवें अध्याय में उदाहरणस्वरुप में ऐसे कुछ शब्दों पर विचार किया जा रहा है।

४.२. नाम (संज्ञा)

वृक्ष-वनस्पतियों की नामावली तथा स्री और पुरुषों की वह नामावली जिसका स्रोत वानस्पतिक है, इस वर्ग के अन्तर्गत सम्मलित की जा सकती हैं तथा इनका अंतरजनपदीय और अंतरप्रदेशीय अध्ययन किया जा सकता है।   वनस्पतियों के अनेक नाम अनेक भाषा-परिवारों से आए हैं क्योंकि वे वनस्पतियाँ स्वयं भिन्न-भिन्न देशों से आयी हैं।

४.३. कृषि एवं कृषक-जीवन संबंधी शब्दावली

डॉक्टर वासुदेवशरम अग्रवाल ने जनपदीय कार्यकर्ताओं का ध्यान ग्रियर्सन की पुस्तक 'बिहार पेजैंट लाइफ' की ओर आकृष्ट किया था और कहा था कि अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, छत्तीसगढ़ी, बघेली, बुंदेली, मालवी, कन्नौजी, बाँगरु, कौरवी इत्यादि जनपदीय भाषाओं में प्रचलित शब्दावली एकत्र की जानी चाहिए।   उन्होंने अनेक जनपदीय शब्दों के उद्भव और विकास पर विचार करते हुए वैदिकयुग, महाजानपदयुग, गुप्तयुग और मध्ययुग में उनके स्रोत को खोजा था एवं व्युत्पत्तिमूलक शब्दकोशों की रचना का विचार प्रस्तुत किया था। उनकी प्रेरणा से डॉक्टर अंबाप्रसाद सुमन ने 'कृषक-जीवन संबंधी ब्रजभाषा शब्दावली' पर अनुसंधान कार्य किया था और यह शोधप्रबंध अन्य जनपदों में ऐसी ही शब्दावली संबंधी अध्ययनों की प्रेरणा बना था।   इस दिशा में पीएच.डी. उपाधि के लिए अनेकानेक शोधप्रबंध प्रस्तुत किए जा चुके हैं।

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. जनपदीय अध्ययन

धरती और बीज के अध्ययन का एक अन्य पक्ष उन किसानों-बागवानों-मालियों और श्रमिकों के अनुभवों में उजागर होता है, जिनका संपूर्ण जीवन वृक्षों-वनस्पतियों और फसलों के बीच व्यतीत होता है।   खेत जोतने, बीज बोने, रखाने तथा फल प्राप्त करने की संपूर्ण कला का वह निधान है।   किसान ने वनस्पतिशास्र तो नहीं पढ़ा, पर वनस्पतियों से उसकी सगी नातेदारी है, इसलिए प्रत्येक वनस्पति को उसने पहचाना है और उसका नामकरण किया है।   उसने यह भी जानने का प्रयास किया है कि किस जड़ी-बूटी, फूल-फल, पत्ते, छाल, गोंद का क्या उपयोग हमारे जीवन में हो सकता है।   उसने अपने रोगों का उपचार वनस्पतियों में खोजा है।   किसान ने प्रयोगशाला में बीज का विकास नहीं देखा है किंतु खुले आसमान में उसने बीज के परिवेश की स्म्पूर्णता देखी है।   उसने यह भी आँकने का प्रयास किया है कि किस ग्रह-नक्षत्र का वनस्पति पर क्या प्रभाव होगा।   ट्यूबवैलों और नहरों के विकास के बावजूद वह आज भी वर्षा पर निर्भर है।   किसानों के पास वर्षा के अनुमान का वाचिक-परंपरा से प्राप्त शास्र मौजूद है।   वह हवा, नक्षत्र तथा पशुपक्षियों की गतिविधि को आँककर वर्षा का अनुमान कर लेता है।   हवा के एक-एक कोण से कृषक की पहचान है।   संक्षेप में कहें तो किसान के पास बीज के परिवेश का व्यवहारिक अनुभव है।   किसान ने वनस्पतिशास्र के सिद्धांतों को भले ही नहीं जाना पर यह पाठ उसने अपनी परंपरा से जरुर सीखा था कि वृक्ष-वनस्पति निर्जीव पदार्थ नहीं हैं, उनमें उसी प्रकार की चेतना है, जैसी हममें है।   उसकी परंपरा ने शाम के समय वृक्ष की डाली कभी नहीं नबाई थी कि उस समय वृक्ष सोते हैं।   उसने कभी कच्चा फल नहीं तोड़ा था।   हरा पेड़ उसके लिए काटना पाप था।   उसके सौंदर्यबोध में जहाँ लता, पता, पुष्प, फल और निकुंजें थीं, वहीं उसकी आचारप्रणाली, विचारप्रणाली में बीज और वृक्ष थे।   वृक्ष-वनस्पति उसकी आस्था और विश्वास के केंद्र रहे हैं।   चंपा, नीम, बबूल, इमली और महुआ और आँवला उसके देवता हैं, जिन्हें वह अपने आड़े वक्त में मनाता है।   उसकी सम्पूर्ण जीवनपद्धति ही वनस्पतिमूलक है।

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. प्रस्तुत अध्ययन का दृष्टिकोण

प्रस्तुत अध्ययन धरती और बीज की प्रक्रिया और परिवेश का अध्ययन है।   परिवेश शब्द का अर्थ है-परित:वेष्टनम् अथार्त चारों ओर का आच्छादन, आवरण, बंधन तथा संरक्षण।   किसी भी प्राणी के जीवन और विकास को प्रभावित करनेवाली समस्त बारही अवस्थाओं और प्रभावों का नाम परिवेश है।   दिक् और काल में जो कुछ भी देखे, सुने तथा अनुभव किए जाने योग्य है-चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, जड़-चेतन, सूर्य, चंद्र, ग्रह-नक्षत्र, दिशा, आकाश, धरती, जल, अग्नि, वायु, समुद्र, नदी, वन, पर्वत, द्वीपद्वीपांतर, पशुपक्षी, कीट, सरीसृप, जलजंतु और स्वयं मनुष्य तथा मनुष्य की जीवन-प्रणाली बीज का परिवेश है।   परिवेश के रुप में मनुष्य बीज-वृक्ष को प्रभावित करता है, किंतु मनुष्य धरती और बीज की प्रक्रिया से संबद्ध होने के कारण धरती-बीज संबंध से प्रभावित भी होता है।   धरती में बीज न उगे, अकाल पड़ जाय या अतिवृष्टि हो जाय तो मनुष्य की समस्त जीवन-प्रणाली उससे प्रभावित होगी, क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य बीज-वृक्ष का परिवेश है, उसी प्रकार धरती और बीज तथा उनका संबंध मनुष्य-जीवन का परिवेश है।   सम्पूर्ण बाह्य परिवेश के साथ धरती और बीज भी मनुष्य के अंतर्जगत् में विद्यमान है।   संवेदना शक्ति के द्वारा मनुष्य बाह्य परिवेश को आंतरिक बनाता है, अंतर्मन की रचना करता है।

प्रक्रिया से हमारा तात्पर्य उसकी आंतरिक गति से है, जो काल के साथ जड़ और चेतन, चर और अचर में सर्वत्र विद्यमान है।   यह प्रक्रिया नित्य और निरंतर है और इसी के साथ एक प्रक्रिया से दूसरी प्रक्रिया जुड़ी हुई है।   यह प्रक्रिया उच्छ्ृंखल और अनियमित नहीं है।   इस प्रक्रिया में एक नियमितता और

संबद्धता है, धरती और बीज की प्रक्रिया एक ओर संपूर्ण प्रकृति से जुड़ी हुई है और दूसरी ओर मानवजीवन से।   सच बात तो यह है कि लोकमानस की दृष्टि में मानव-जीवन प्रकृति का ही अंग है।

६.१. सम्पूर्णता का अध्ययन

प्रक्रिया और परिवेश के अध्ययन को समग्रता का अध्ययन भी कहा जा सकता है।   आजकल सम्पूर्ण ज्ञान को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है-मानविकी तथा प्राकृतिक विज्ञान।   समाजशास्र, राजनीतिशास्र, अर्थशास्र और संस्कृतिशास्र जैसे अनुशासन मनुष्य को केंद्र में रखकर उसके सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में सोचते है।   परंतु क्या मनुष्य केवल सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से ही प्रभावित होता है?   वास्तविकता यह है कि सामाजिक, सामाजिक,   राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश मनुष्य का कृत्रिम परिवेश है।   जिस प्रकार मकड़ी एक जाला बुनती है, उसी प्रकार मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ प्रकृति और मनुष्य के बीच एक कृत्रिम परिवेश की रचना करती हैं।   मानव-निर्मित कृत्रिम परिवेश की एक सीमा है और उस सीमा के बाहर अनंत प्रकृति का असीम विस्तार है, अनंत प्रकृति, स्वयं मानव भी जिसकी कृति है।   इसी के साथ मनुष्य जीवन की प्ररेक प्रवृत्तियों (मूल प्रवृत्तियों) को यदि हम अंत:प्रकृति कहें तो यह उचित ही होगा।   इस प्रकार मनुष्य प्रकृति से अभिन्न है और प्रकृति से भिन्न इकाई के रुप में मनुष्य का कोई भी अध्ययन खंड-सत्य का अध्ययन है।   यही बात प्राकृतिक विज्ञान के संबंध में है।   यद्यपि वे सभी अध्ययन मनुष्य-जीवन की आवश्यकता से प्रेरित हैं और उनका ध्येय भी मनुष्य-जीवन ही है, फिर भी प्राकृतिक विज्ञान के अनुशासनों का ध्येय है-प्रकृति के रहस्यों को जानना।   लोकमानस की दृष्टि में ज्ञान का ऐसा वर्गीकरण नहीं होता।   वह जब प्रकृति के संबंध में सोचता है, तब उसकी दृष्टि में मनुष्य-जीवन होता है और जब मनुष्य के संबंध में चिंतन करता है, तो उसकी आँखों में प्रकृति के बिम्ब होते हैं।   लोकमानस की दृष्टि समग्रदृष्टि है।   जनपदीयजन का दर्शनशास्र है-सबकुछ का सबकुछ से अभिन्न संबंध तथा उसका जीवन-सूत्र है-सर्वत्र चैतन्य की अनुभूति।

धरती-बीज संबंधी प्रस्तुत अध्ययन में इस विषय के अनुसंधान की विभिन्न दिशाओं और संभावनाओं का भी आकलन किया गया है।   आत्मा और जीवन की निरंतरता का सिद्धांत एक दिन में नहीं बन गया, वह प्रकृति और जीवन के निरंतर-निरीक्षण का परिणाम है।   वह सिद्धांत तोता-रटंत या सीखी हुई बात होती, तो लोकमानस उसे कब का भुला चुका होता, क्योंकि लोकमानस किसी की परवाह नहीं करता, उसमें बड़े से बड़े सम्राटों को सबक सिखाने की क्षमता है।   वास्तविकता यह है कि ये सिद्धांत लोकमानस के अपने अनुभवों के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं।

६.२. लोक और शास्र

धरती और बीज के इस अध्ययन-पथ में लोक और शास्र-दोनों आदि से अंत तक साथ रहे हैं।   लोक और शास्र के प्रश्न पर विभिन्न लोकवार्ता-विदों ने विभिन्न दृष्टियों से सोचा है।-२   कुछ अध्येताओं ने 'शास्र' में अहंचैतन्य और 'लोक' में समष्टि चैतन्य को देखा है, कुछ लोकवार्ताविदों ने लोक को गाँव और शास्र को नगर माना है।   पुराने मानव-विदों की दृषटि में लोकवार्ता असभ्य, अर्द्धसभ्य, जंगली, आदिवासी, मूढ़, अपढ़, निरक्षर, गँवार और अज्ञानी तथा असंस्कृत लोगों का ज्ञान था।   अनेक मनोविज्ञानी लोकमानस में आदिम-मानक खोजते हैं।   अनेक कलाविद् शास्र में लालित्य तथा लोक में अनगढ़ को देखते हैं।   अनेक विद्वान शास्र को लिखित-परम्परा तथा लोक को वाचिक-परम्परा के रुप में देखते हैं।   कुछ समाजशास्री शास्र को शासक-वर्ग के अस्र के रुप में देखते हैं तथा लोक और शास्र में वे मुनिमानस और जनमानस का वही द्वेंद्व देखते हैं, जिसे समाजशास्री समाज में वर्गसंघर्ष के रुप में पहचानते हैं।   कुछ समाजशास्री कहते हैं कि शास्र बाँधता है और लोक उनमुक्त करता है, जबकि कुछ समीक्षकों ने शास्र में वैदिक-परम्परा और लोक में आगम-परम्परा को चीन्हा है।   कुछ विचारक शास्र में तर्क और लोक में श्रद्धाभाव का साक्षात्कार करते हैं।   किसी की दृष्टि में शास्र सिद्धांत और आदर्श है तथा लोक व्यवहार है।   कुछ इतिहासविदों ने 'शास्र' में 'आर्य' और 'लोक' में 'अनार्य' को खोजा है जबकि अन्य कई आलोचकों ने वर्ण और जाति की दृष्टि से शास्र और लोक के पौरोहित्य को पहचानने का प्रयास किया है।   किसी की दृष्टि में लोकवार्ता विद्रोह की अभिव्यक्ति और सर्वहारा का अस्र है, तो किसी की दृष्टि में लोकवार्ता में दलित की करुणा है।   अनेक अध्येताओं ने लोकवार्ता में अंतर्भुक्ति को देखा है, तो अनेक विद्वानों ने यह भी कहा है कि शास्र ने सदैव लोक की उपेक्षा की है।   प्रस्तुत अध्ययन में लोक और शास्र के बीच चलने वाली आदान-प्रदान की निरंतर प्रक्रिया एवं लोक तथा शास्र की परस्पर-पूरकता पर विचार किया गया है।   बीज का बिम्ब शास्र के पास भी है और लोक के पास भी है।   बीज का जो बिम्ब लोक ने शास्र को दिया था, शास्र ने उसका विकास किया तथा अपना विकसित बिम्ब फिर लोक को दिया तथा लोक में वह फिर आगे बढ़ा।

       इस दृष्टि से शास्र-साहित्य के अंतर्गत अथर्ववेद, उपनिष्द्, महाभारत, भागवत, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण, बृहत्संहिता, भाव प्रकाश (आयुर्वेद ग्रंथ), रामचरितमानस आदि ग्रंथों में बीज-वृक्ष संबंधी बिम्बों को आनुषंगिक रुप से प्रस्तुत अध्ययन का विषय बनाया गया है।

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. 'लोक' की अवधारणा

लोक में सब हैं, लोक सबका आश्रय है।   विभिन्न जाति-बिरादरी, वर्ण और संप्रदाय 'लोक' में ही जन्म लेते हैं, लोक से ही जीवनी शक्ति प्राप्त करते हैं और लोक में ही समा जाते हैं।   परमहंस, योगी और संन्यासी भी लोक से प्रेरित होते हैं तथा लोक के लिए ही लोक से बाहर जाते हैं और लोकमय हो जाते हैं।   स्वेच्छाचारी शासकों को भी लोकनिंदा का भय होता है और उनके शासन लोक के धिक्कार से नष्ट हो जाते हैं।   लोक ही व्यक्ति के मन को बाँधता है, मन के संस्कार करता है, उसे सामाजिक बनाता है।   युद्धभूमि में अपने प्राण न्यौछावर करनेवाले सैनिक का मन लोक से उत्प्रेरित होता है।   बड़े-बड़े आंदोलन और क्रांतियाँ लोक के द्वारा अभिप्रेरित होती हैं।   वीरों को वीर बनानेवाला वह लोक ही होता है, जो वीरों के गीत गाता है और वीरों की पूजा करता है।   लोक कि उक्तियाँ व्यक्ति के मन को दुलारती, डाँटती, फटकारती, समझाती और व्यंग्य-वाणों का प्रहार करती हैं।   जिस प्रकार चौराहे पर खड़ा सिपाही वाहनों का मार्गदर्शन और नियमन करता है, उसी प्रकार व्यक्ति के मन में जीवन का मार्ग-दर्शन करनेवाले 'अच्छे और बुरे' पाप और पुण्य तथा सही और गलत के 'विवेक' की प्रतिष्ठा लोक के द्वारा ही संपन्न होती है।   इसलिए प्रत्येक व्यक्ति लोकभावित होता है, क्योंकि लोक उसके भीतर बैठा है।   सभी लोक अंतत: लोग (लोग शब्द लोक से ही व्युत्पन्न है) ही हैं, चाहे कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो।   आधुनिक से आधुनिक व्यक्ति के मानस में बीते हुए युगों के संस्कार सोये हुए हैं और जिस प्रकार धरती के गर्भ में छिपे अदृश्य-बीज अनुकूल ॠतु आने पर अंकुरित हो जाते हैं, उसी प्रकार आधुनिक मानस में भी वे आदिम-संस्कार जग जाते हैं।   इसलिए परम्परा के संस्कारों से सर्वथा मुक्त मानस की बात कोरी कल्पना ही है।   इस स्तर पर भी सभी लोग 'लोग' ही हैं।

बड़ा, छोटा, मालिक, नौकर, अधिकारी, राजनेता, व्यापारी, प्राध्यापक, श्रमजीवी, बुद्धिजीवी, विद्वान, बेपढ़ा, शासक और शासित आदि बाह्य उपाधियाँ ही हैं।   जिस प्रकार हम घर से अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल परिधान धारण करके बारह जाते हैं और जब लौटकर आते हैं तो फिर उस परिधान को खूँटी पर टाँग देते हैं और वह विशिष्टता छोड़कर घर में सामान्य बन जाते हैं, बच्चों में अपने उस बाहरी बड़प्पन को भूल जाते हैं, उसी प्रकार इन उपाधियों के भीतर प्रत्येक व्यक्ति लोक ही है।   कहावत है कि-'धोती के भीतर सब नंगे।'   धोती एक आवरण मात्र है।   उसकी प्रकार आधुनिक मानस की आधुनिकता एक छिलका-मात्र है।   आधुनिकता के छिलके को कुरेदने पर लोकमानस का तत्त्व स्पष्ट हो जाएगा।   लोक अपना घर है, जहाँ सार बाहरी विशिष्टताएँ खो जाती हैं।

मनुष्य-मात्र में यह सामान्य तत्त्व होने के बावजूद अहंचैतन्य भी अनिवार्य रुप से होता है।   मैं, तू, यह, वह अपना, पराया का यह बोध ही तो जीवन के व्यवहार को गतिशील बनाता है।   इसी के आधार पर दल बनते हैं, सेनाएँ बनती हैं और राज्यसत्ता खड़ी हो जाती हैं।   एक जाति दूसरी जाति को परास्त करती है।   विजेता जाति अपने ज्ञान और संस्कृति को विजित जाति के ज्ञान और संस्कृति से अधिक श्रेष्ठ मानती है, इतिहास में इसके सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं।   ठीक इसी प्रकार से समाज का प्रभुतासंपन्न वर्ग अपरी संस्कृति को सामान्य लोगों की संस्कृति से उच्चतर सिद्ध करने और उससे भिन्नता बनाए रखने का प्रयास करता है।   यह बात दूसरी है कि अंतत: वे सभी संस्कृतियाँ लोक की व्यापक संस्कृति में समा जाती हैं।   क्योंकि प्रभुत्वसंपन्नवर्ग कि प्रभुता और विजेता जाति की विजय स्थायी नहीं होत।   सूरज की धूप पड़ती है और बर्फ पिघल जाती है, उसी प्रकार अभिजात चेतना भी पिघलकर सामान्य में मिल जाती है।   वही उसकी अंतिम गति है, क्योंकि लोक सबका आश्रय है।   इस प्रकार 'लोक' अनेकता और भिन्नता में एकता तथा समानता का अनुसंधान है।   उस सामान्य तत्त्व का अनुसंधान है, जो मनुष्य मात्र में है।

यह साधारणता ही लोकमानस की असाधारणता है।   यह लोक ही है, जहाँ राजा फकीर के द्वार पर खड़ा होकर याचना करता है और महापंडित 'बूढ़ी डोकरी' तर्क के सामने परास्त हो जाता है।   इस प्रकार शासित होकर भी 'लोक' राजाओं और सम्राटों पर शासन करता है।

पतंजलि जैसा भाषाशास्री भाषा-संबंधी विवेचन में लोक अंतिम प्रणाम स्वीकार करता है और धर्मशास्र भी कहता है-'यद्यपि सिद्ध लोकविरुद्ध नाकरणीयम् नाचरणीयम्।'   जो लोक के विरुद्ध है, वह न्याय के भी विरुद्ध है।   चाणक्य ने अपने अर्थशास्र में लिखा था कि जो शास्र को जानता है, लोक को नहीं जानता, वह मूर्खतुल्य है-'शास्रज्ञोऽप्यलोकज्ञो भवेन्मूर्खतुल्य:।'

किसी भी सिद्धांत की परीक्षा के लिए लोक का क्रियाशील जीवन प्रामाणिक कसौटी है।   'लोकवार्ता' लोक के क्रियाशील जीवन की अभिव्यक्ति और संविधान है, वही लोकजीवन का तत्त्व-चिंतन है।

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. धरती और बीज-संबंधी लोकवार्ता

धरती और बीज-संबंधी लोकवार्ता को हम चार भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं-लोकभाषा, लोकसाहित्य, लोकशास्र और लोककला (रेखाचित्र-१)।

८.१. लोकभाषा

किसी भी भाषा और बोली की संरचना बिम्बों के आधार पर होती है और ये बिम्ब परिवेश से प्राप्त होते हैं, इसलिए भाषा में उसका परिवेश विद्यमान रहता है।   लोकभाषा प्राकृति परिवेश में फलती, फूलती और फैलती है, इसलिए उसके शब्द प्रयोगों और मुहावरों में प्रकृति के बिम्ब और अधिक होते हैं।   जनपदीयजन की दैनिक बोलचाल में धरती-बीज संबंधी मुहावरे व्यापक रुप से बिखरे हुए हैं, उदाहरण के लिए-जड़ हरी होना,

जड़ जमाना, जड़ काटना, पेट में फाँस पड़ना, छाया में पलना, गूलर का फूल, झरकटी में हाथ डालना, फूल में काँटे, काँटों का ताज, काँटों में हाथ डालना आदि।

 

 

 

८.२. लोकसाहित्य

वनस्पतियों की भाँति लोकसाहित्य भी धरती से उत्पन्न होता है, इसलिए जीवन की पृष्ठभूमि, उपमान, प्रतीक या अन्य रुपों में धरती-बीज के संदर्भ सम्पूर्ण लोकसाहित्य में खोजे जा सकते हैं,-३   फिर भी यहाँ लोकसाहित्य की उन विशेष विधाओं की रुपरेखा प्रस्तुत की जा रही है, जो इस अध्ययन में विशेष रुप से प्रासंगिक हैं-

८.२.१ लोकगीत : लोकगीतों का एक वर्गीकरण पुरुषों के लोकगीत तथा स्रियों के लोकगीत के रुप में किया जाता है।

(क) पुरुषों के लोकगीत : पुरुषों के लोकगीतों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-आनुष्ठानिक गीत तथा मनोरंजन गीत।   जिकरी, भजन, लावनी और बारहमासा-इस प्रकार के पुरुष लोकगीत हैं, जिनमें धरती-बीज का प्रसंग विशेष रुप से उपलब्ध हुए हैं।   पुरुषगीतों में अनेक प्रकार के भजनों का भी समावेश हो जाता है, जैसे-

       मत करै देही पै गुमान, काऊ दिन धरती में मिल जायगौ।

       जा नरदेही पै दूब जमेंगी, सो रुगि चुगि जांगी हरि की गाथा।

                             अथवा

       चुन चुन कलियाँ महल बनाया हंस कहै घर मेरा।

       ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया-रैन-बसेरा।

(ख) स्रियों के लोकगीत : स्रियों के लोकगीतों को भी दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-आनुष्ठानिक गीता तथा मनोरंजन गीत।

(अ) आनुष्ठानिक गीत : आनुष्ठानिक गीत दो प्रकार के होते हैं-संस्कार-विषयक गीत एवं त्यौहार तथा देवी-देवताओं के गीत।   संस्कार-विषयक गीतो को अंतर्गत वे सभी गीत आते हैं, जो जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यंत विभिन्न अवसरों पर गाए जाते हैं।   इनमें से कई गीतों के नाम भी वानास्पतिक हैं, जैसे-धतूरौ, नरंगफल, मेहँदी, हल्दी, पीपर इत्यादि।

       जन्मगीतों के अंतर्गत पीपल गीत है-

              अरे भला पीपर करुई कसाल पीपर मेरें को पियै।

       विन्नायक गीत है-

              पहलौ बासौ बारी ओ बसियौ बारी तौ बेंगन भरी।

              फल फूल बारी बोले बंसरी कुंजों मरुऔं केबरौ।

देवी-संबंधी गीतों में वृक्ष-वनस्पतियों का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है।   एक देवी गीत है-

              नगर कोट की मैल में म्वाँ लंबौ पेड़ खजूर।

              ग्वा पै चढ़ कें देखती मेरौ जाती कितनी दूर।

       एक नवरात्रि गीत में लोंग बोने, उसकी सिंचाई करने से फलने तक का वर्णन है-

                      लौंग बय दै रे भवन बिच द्वेै क्यारी।

              जब रे लौंग बबाइन आई तौ बय आये देवर और भाभी।

              जबरे लौंग भराइन आई तौ भरि आये देवर और भाभी।

       एक गीत की पंक्ति इस प्रकार है-

              अन्नन में तौ बड़ो ऐ ग्वाइदयें फल होय।

(आ) मनोरंजन गीत : स्रियों के मनोरंजन गीतों के अंतर्गत ॠतुगीत, श्रमगीत तथा खेलगीतों का समावेश होता है।

       उदाहरण-

              चाकी तर मैंने धनियाँ बोयौ

              जा धनिये नें कुल्ला फोरे।

              इन कुल्लन पै मैंने गऊ चराई

              गउअन नें मोय दुद्धा दीनों।

       एक ढोला गीत इस प्रकार है-

              धर्म धरती में समाय गयौ री

              पुन्न गयौ पाताल आप दुनियाँ में छाय गयौ री।

सिल बीनते समय स्रियाँ 'सिलहरा' और 'चिरई' गाती हैं।   मिर्च और ईख बोने के समय 'जोगनी' गायी जाती है।   इसी प्रकार बुवाई तथा फसल काटने के समय के गीत भी हैं।

      ८.२.२. लोककहानी - लोककहानियों के भी दो वर्ग किए जा सकते हैं-

(क) मनोरंजक : मनोरंजक कहानियों में जीवन की पृष्ठभूमि के रुप में तो वृक्ष-वनस्पतियों का व्यापक चित्रण है ही, अनेक कहानियों में वृक्ष-वनस्पति पात्र के रुप में उपस्थित हैं तथा उनके साथ मनुष्य के संवाद होते हैं।   अनेक कहानियों में वृक्ष-वनस्पतियों का जीवयोनि रुप में चित्रण हुआ है, जैसे-'कौलनदेई', 'बम्बे' पर 'बेरिया' रुप में जन्म लेती है।

(ख) आनुष्ठानिक: आनुष्ठानिक कहानियाँ बड़ी भावभक्ति से कही-सुनी जाती हैं तथा इनकी परम्परा भी कुछ अधिक प्राचीन है तथा उनका एक पारम्परिक विधि-विधान भी है, जैसे-गाज की कहानी 'चुटकी' में जौ लेकर सुनी जाती है।   कहानियों में 'चम्तकार-तत्त्व' होता है और यह तत्त्व वनस्पति-बीजों से भी जुड़ा हुआ है, जैसे-'करवा चौथ की कहानी' में 'बर्तनखंडनी' पति के शव के आसपास पीली मिट्टी बिखेरकर जौ बो देती है।   इसी प्रकार सकंटचौथ की कहानी में 'डोकरी का बेटा' जब अंवा में बैठाया गया ते उसने माँ के द्वारा दिए गए गणेशपूजा के जौ चारों ओर बिखेर दिए तथा उनके प्रभाव से वह अंवा में से जीवित बच निकलता है।

८.२.३. लोकोक्ति : लोकोक्तियों का विस्तार इतना व्यापक है, जितना लोकजीवन है।   जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जिस पर लोकोक्ति ने टिप्पणी न की हो।   लोकोक्तियाँ लोक-चिंतन और लोक-दृष्टिकोण के ब्रह्मसूत्र हैं, जैसे -

              हौनी बलवान है।    

              हरी खेती ग्यावन गाय, मुँह परै तो जानी जाय।

              गेहूँ खेत में बेटा पेट में।

              आक पवित्तर ढाक पवित्तर और पवित्तर धरती।

              जैसा खाऔ अन तैसा उपजै मन।

              बारे पूत हरी री खेती, ह्मवै हैं कब धौं किननें देखी।

              फल बिन डार नबै कबहू ना।

              जानें चीरि है चोंच बु ही देगौ चारौ।

       ब्रज की लता, पता वनस्पतियों के संबंध में अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जैसे-

              कहूँ कहूँ गोपाल की गयी, सिटल्ली भूल।

              काबुल में मेवा करी, ब्रज में किए बबूल।

              वृंदावन के बिरछ कौ मरम न जानें कोय।

              डार-डार अरु पात-पात पै राधे-राधे होय।

८.२.४ पहेली : पहेली, कूट और उलटबाँसी जैसी विधा लोकजीवन को बहुत प्रिय है और इनकी परम्परा भी बहुत पुरानी है।   वेदों-उपनिषदों तक में इस परम्परा का सूत्र उपलब्ध होता है।   धरती-बीज और वृक्ष-वनस्पति-संबंधी सौकड़ों पहेलियाँ ब्रज के लोकजीवन में आज भी प्रचलित हैं।   एक उलटबाँसी 'बिलखौरा कलाँ' के श्री अमर सिंह ने सुनाई-

          सुता पिता ते कहि रही वेद रीत आधार।

              बाबुल मोम ॠतुदान दै अपनों धर्म सम्हार।

              यहाँ सुता धरती, पिता जल तथा ॠतुदान वर्षा है।

       इसी प्रकार सिंगाड़े की पहेली है-

              इत कूँ खूँटा उत कूँ खूँटा, बीज में गाय का दुद्धा मीठा।

       'तुलसी' के संबंध में एक पहेली है-

              आठ पहर चौंसठ घड़ी, ठाकुर पर ठकुराइन चढ़ी।

८.३. लोकशास्र

लोकशास्र-४   के अंतर्गत लोकाचार, लोकानुष्ठान, लोकविश्वास एवं लोकज्ञान और अनुभव का समाहार होता है।

८.३.१. धार्मिक अनुष्ठान : मनौती, कृतज्ञता-ज्ञापन, प्रायश्चित्त, पुत्रकामना, वर की प्राप्त, पति-पुत्र और भाई की जीवनरक्षा, दीर्घायु, कौटुंबिक मंगल, धनधान्य, दूध-पूत की प्राप्ति, प्रियहित, शारीरिक-मानसिक कष्ट-निवारण, शत्रुनाश तथा स्वर्ग-मोक्ष के निमित्त परम्परा के प्रवाह में अनेक अनुष्ठान लोकजीवन में प्रचलित हैं, जैसे-स्नान, दान, तीर्थ, परिक्रमा, जात, व्रत, उपवास, पर्व-त्यौहार आदि। इनमें अनेक अनुष्ठानों का संबंध वृक्ष-वनस्पतियों से है।

धरती-बीज-संबंधी अनेक विधिविधान लोकजीवन में प्रचलित हैं।   जैसे जब किसान खेत बोने जाता है ते सधुआ पूजा जाता है।   घर के द्वार पर पीली मिट्टी की पाँच 'चँदिया' रखी जाती हैं।   उन्हें 'सधुआ' कहते हैं।   इसी प्रकार जब फसल कट जाती है और गेहूँ की ढेरी लग जाती है, तब 'रास' पूजी जाती है।   खेत का मिट्टी का ढेल देवता के रुप में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है, जिसे 'स्याबड़' कहते हैं, 'अकौआ' के फूल से इसकी पूजा होती है।

इसी प्रकार दीपावली के दूसरे दिन गोवर्द्धन पूजा का अनुष्ठान होता है।   देवशयनी-ऐकादशी को धोंधा-ग्यारस कहते हैं।   इस दिन पोता-मिट्टी के पाँच धोंधे बनाए जाते हैं तथा बीच में दूब लगा दी जाती है और उसकी पूजा होती है।   नागपंचमी के दिन भी जौ बोए जाते हैं।

८.३.२. लोकाचार : लोकाचार के अंतर्गत सामाजिक आचार-पद्धति एवं दैनिक विधि-निषेध का समाहार होता है।

(क) दैनिक विधि-निषेध : दैनिक विधि के अंतर्गत खाने-पीने, सोने-जगन, आने-जाने, स्वागत-सत्कार तथा अभिवादन के तरीके आते हैं।   दाल, चावल, कढ़ी इत्यादि को कच्ची रसोई या सकरा कहते हैं और पूरी-परांठे को निखरा।   सकरा-भोजन अपरस में किया जाता है।

निषेध के अंतर्गत वे वर्जनाएँ आती हैं, जो लोकविश्वास से जुड़ी हैं, जैसे-पीपल के नीचे पेशाब करने से मुँह पर सकला हो जाता है, इसलिए ऐसा नहिं करना चाहिए।   स्नान करके तुरंत गूलर या महुआ की छाया में जाने का निषेध है।

(ख) रीतिरिवाज : लोकाचार का दूसरा रुप गर्भ से मृत्युपर्यंत अनेक संस्कारों से संबंधित है और यह विधि-विधान मुख्य रुप से वृद्ध स्रियों के आधीन है।   साद फरेई, जन्तजापौ, मुड़ामन, जनेऊ, विवाह, गौनों और मरियत आदि विभिन्न अवसरों के विभिन्न रीतिरिवाज हैं।   वृक्ष-वनस्पतियों का इन रीतिरिवाजों से घनिष्ठ संबंध है, जिसके संबंध में आगे के अध्यायों में विचार किया जा रहा है।

रीतिरिवाजों में अनेक प्राचीन अनुष्ठान अंतर्भुक्त हो चुके हैं।   घुड़चढ़ी के समय दूल्हे कि 'बहिन' जौ बिखेरती हैं।

सौगंध खाने के लिए हाथ में अन्न लेना या पीपल की डाल पकड़ना या हरे वृक्ष के नीचे खड़े होकर कहना 'सत्यनिष्ठा की परीक्षा' माना जाता है।

(ग) पाप-पुण्य :   लोकाचार प्रणाली के अंतर्गत ही वे मूल्य भी आ जाते हैं, जिन्हें लोकजीवन पाप और पुण्य के रुप में मान्यता देता है।   वृक्ष लगाने का पुण्य जहाँ यज्ञों के पुण्य के समान माना जाता है, वहीं हरा वृक्ष काटना पाप के अंतर्गत आता है।

८.३.३. लोकविश्वास : लोकविश्वासों के अंतर्गत देवतत्त्व, पूजातत्त्व, टोना-टोटका एवं शकुन-अपशकुन आदि का समावेश होता है।

(क) देवतत्त्व : देवतत्त्व में मातृभावना, पितृभावना, प्रेतपूजा, वीरपूजा और प्रकृतिपूजा का अंतर्भाव होता है।   प्रस्तुत अध्ययन का संबंध विशेष रुप से प्रकृतिपूजा से है-धरती, जल, मेघ, वायु, अग्नि, सूर्य, चंद्र, ग्रह-नक्षत्र, पर्वत, नदी, तीर्थ, सपं, गाय अन्य पशु-पक्षी तथा वृक्ष-वनस्पति।   इस अध्ययन में प्रकृतिपूजा के अंतर्गत विशेष रुप से वृक्ष देवतत्त्व तथा धरती देवतत्त्व की चर्चा प्रासंगिक है तथा आगे के अध्यायों में उन पर विचार किया गया है।

(ख) पूजातत्त्व : पूजातत्त्व में देवतत्त्व के साथ ही आनुष्ठानिक सामग्री तथा विधि-विधान का अध्ययन किया जाता है।   अनेक देवताओं की पूजा की आनुष्ठानिक सामग्री वृक्ष-वनस्पति की संपदा है तथा देवतत्त्व और पूजातत्त्व का यह संबंध परिवेश को रेखांकित करता है।

(ग) टोटका : टोटका संबंधी प्रयोगों में अनेक वनस्पतियों के उपयोग पुरानी परम्पराओं से प्राप्त हैं तथा लोकजीवन में इनके प्रति दृढ़ विश्वास-५   भी देखा जाता है, जैसे-तीसरे दिन, तीसरे पाख या तीसरे महीने गर्भिणी को गोला का फूल खिलाया जाये तो इसके लड़का पैदा हो।   अथवा जिस स्री को गर्भ न होता हो उसे बड़ का अंकुर दूध के साथ पिला दिया जाता है।

८.३.४. लोकज्ञान तथा अनुभव : लोकजीवन का ज्ञान उसके हजारों वर्ष के अनुभव पर आधारित है तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आगे बढ़ता रहता है।   जीवन में रोज नई बातें होती हैं, रोज नई परिस्थितियाँ आती हैं, वह उन पर टिप्पणी करता है।   जनपदीयजन प्रकृति को प्रत्यक्ष और निकट देखता है, क्योंकि वह प्रकृति के खुले आँगन में रहता है।   उसे बीज, वृक्ष, वनस्पति, धरती, पानी, आकाश, हवा, सितारे और बादलों का व्यावहारिक ज्ञान है।

लोकज्ञान तथा अनुभव के तीन क्षेत्र हैं-प्रकृति संबंधी ज्ञान, मानव संबंधी अनुभव तथा व्यवसाय संबंधी ज्ञान।

(क) प्रकृति संबंधी ज्ञान : प्रकृति संबंधी ज्ञान के अंतर्गत वर्षा का पूर्वानुमान, वायुज्ञान, लोक ज्योतिष, वनस्पतिज्ञान, औषधि ज्ञान, भूविज्ञान, प्राणिज्ञान आदि का समावेश होता है।

(अ) मेघज्ञान : वर्षा के पूर्वानुमान का पूरा लोकशास्र जनपदीयजन ने विकसित किया है, जिस पर चौथे अध्याय में विस्तार से विचार किया जा रहा है।   वर्षा के पूर्वानुमान से संबंधित अनेक कहावतें भी प्रचलित हैं।

          गौरैया पानी न्हाय, सूखा कौ अनुमान लगाय।

              बोली लोंमड़ी फूली कास अब नाँऐं बरसा की आस।

              बादर बगली आमें सेत बरखा जलते भर जायँ खेत।

(आ) भूज्ञान : भूज्ञान के अंतर्गत धरती के सतह के नीचे की मिट्टी के गुण-लक्षण तथा सतह के ऊपर की विविध मिट्टियों के गुण-लक्षण तथा उनकी पहचान का समावेश होता है।   जैसे-मिट्टियों के नाम-रेत, भूड़रा, दोमट, पोता, चिकनोंट, गाढ़, टैरा, कसेट, मटियार, कठार, मकसीला, पूठा, बाँगर, कल्लप, कबिसा, ऊसर, बंजर, चिकपीरा, कुम्हरौटी, रेह, ककरेठा आदि।

(इ) लोक चिकित्सा : स्वास्थ्य संबंधी कहावतों में अनेक औषधियों से संबंधित सूत्र हैं, जैसे-

                      पकौ पान, खाँसी न जुकाम।

                      सोंठ हर्र पीपर, इसे खाकर जी पर।

गाँव में साधारण रोगों का उपचार परंपरागत औषधियों से ही किया जाता है और ये उपचार घर-घर प्रचलित हैं, जैसे-

नाक में फुंसी होने पर 'तोरई' या 'काशीफल' का फूल सूँघ लिया जाता है।   पेट के दर्द में आम की गुठली भूनकर नमक के साथ खाई जाती है।

(ख) मानव संबंधी ज्ञान : जातियों तथा समाजिक संबंधों को प्रकट करनेवाली लोकोक्तियाँ, स्वप्नों के द्वारा भविष्य-अनुमान, स्री-पुरुषों की आकृति से संबंधित कहावतें, लोक के मानव-संबंधी अनुभव की परिधि में आती हैं।   धरती-बीज के मानव-जीवन के साथ संबंध में श्रम-संबंध आते हैं, आर्थिक-संबंध आते हैं, इनकी अभिव्यक्ति मानव-संबंधी-अनुभव की परिधि में आती है, जैसे-

               अन्न धन अनेक धन, सोना चाँदी आधा धन,

                      पूँछ-डुलावन कुछ नहीं।

                                    अथवा

                      काम कौ न काज कौ ढाई सेर नाज कौ।

(ग) व्यवसाय संबंधी ज्ञान : लोकजीवन ने किसानी का ज्ञान, पशुपालन का ज्ञान, सपेरे, जादूगर, शिकारियों का ज्ञान, जुलाही, कुम्हार, नट, कंजर, तेली, माली आदि के व्यवसाय से संबंधित ज्ञान का जो विकास किया है, वह भी लोकवार्ता का विषय है।   इस अध्ययन में विशेष करके किसान और माली के जीवनानुभवों, तत्संबंधी कहावतों का अध्ययन-सामग्री के रुप में सम्मिलित किया गया है।

(अ) खेताबरी : हमारे गाँवों में खेती-संबंधी कहावतों की खान हैं, हालाँकि उनमें से अधिकांश कहावतें घाघ की हैं, किंतु लोकजीवन में एक प्रवृत्ति देखी जाती है कि रचनाओं को लोक-मान्यता प्राप्त प्रतिष्ठित कवियों का नाम लगाकर प्रचारित किया जाता है।   सूरदास, तुलसीदास और कबीरदास के नाम पर अनेक भजन हैं, जो पाठालोचन के बाद प्रक्षिप्त माने गए हैं, यही बात घाग के संबंध में भी कही जा सकती है।   इन खेती-संबंधी कहावतों में पूरा कृषि-कौशल समाया हुआ है।   उदाहरण के लिए धरती-संबंधी परीक्षा-

                      बाँगर बोयौ बाजरौ खादर बोबै धान।

                      अपने ई बेटा हींजरा मोय बताबै बाँझ।

       जोतने से संबंध में कहावत है-

                      असाढ़ न जोतौ एक बार, अब जोतौ बार-बार।

       बोने से संबंधित कहावत है-

                      सन धनौ बन बेगौ, मेंढक फंदी ज्वार।

(आ) जनवृत्त : पृच्छा : जनपदीयजन से पृच्छा भी अध्ययन-सामग्री का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है।   सठिया के ठाकुर भगवान सिंह ने ऐसी कितनी ही नई-नई बातें बताईं, जैसे-अधिकांश पक्षी एक मादा अंडा रखते है, एक नर अंडा।   डहरवाले पंडितजी ने वृक्षों की आयु के संबंध में सूचना दी तथा यह भी बताया कि पृथ्वी का रंग पीला है, क्योंकि अंकुर पीला निकलता है, सूरज का दर्शन करके हरा हो जाता है।

८.४. लोककला

लोककला के अंतर्गत उन चित्रों को लिया जा सकता है, जिनमें वृक्ष-वनस्पति एवं फल-फूलों के अभिप्राय अंकित किए जाते हैं।

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. लोकवार्ता-संकलन : स्रोत

प्रस्तुत अध्ययन के लिए लोकवार्ता-सामग्री प्रमुख रुप से सासनी-विकासखंड के गाँवों से एकत्र की गयी

सर्वश्री रामप्रसाद ढैरवाले (७०), गौरीशंकर पाठक (७५), रमनलाल कुलश्रेष्ठ (८६), श्रीमती ब्रह्मादेवी (६), गौरीशंकर शर्मा प्रधान (६५), गाँव नगलागढू के हैं तथा शांतिप्रकाश वशिष्ठ (५५), मुरली सिंह (७८), ठाकुर मेहताब सिंह (७५), दामोदर त्रिगुणायत (७२), गाँव गढ़राना के।   हरियानगला गाँव के बौहरे शादीलाल (७५), बिलखौर के विक्रम सिंह (५५), समामई के बाबा बहोरनदास तथा अमर सिंह कछवाहे (५५), दिनावली गाँव के प्रधान रामहरि शर्मा, रमेशपाल सिंह, रामजीलाल पाठक (६०), कोरीभगत केशवदेव (५५), सठिया गाँव के बड़े ठाकुर भगवान सिंह, श्रीरामभगत (७०), और बाबूलाल चौधरी (६२), कन्यागुरुकुल के पास वैष्णोदेवी मंदिर के स्वामी दुर्गानंद (६५) एवं सासनी के श्री प्रकाशचन्द्र जैन, बी.डी.ओ. सासनी, ए.डी.ओ. सासनी तथा बांधनू न्याय पंचायत के किसान-सहायक हरिसिंह आदि महानुभावों से एक पृच्छापत्र के आधार पर सूचनाएँ एकत्र की गयीं।   इस जनपदीय तीर्थयात्रा में श्री प्रेमप्रसाद पाठक, रामकिशन शर्मा तथा राजकुमार पाठक (नगलागढू), गोविंद कुमार, गिरीश कुमार (दिनावली), विनेश कुमार भारद्वाज तथा नरेंद्र कुमार वशिष्ठ बच्चन (गढ़राना) मेरे साथ रहे।

       मथुरा में यमुनापार किशनगंज गाँव में श्री रामचंद्र सैनी, गंगाराम माली, भगवानदास सेनी, श्रीमती लक्ष्मी (५७), चिरंजीलाल (६०), कालीचरन (५०) तथा जैसिंह पुरा के निरंजन सैनी से पूछताछ द्वारा सामग्री एकत्र की गयी, इनके साथ ही श्रीमती चंदादेवी, श्री हरिहर शास्री, आचार्य श्यामसुंदर चतुर्वेदी तथा डाक्टर विद्यानिवास मिश्र से धरीत-बीज-संबंधी शास्रीय बिम्बों के संबंध में पूछताछ की गयी।   फिर भी इस अध्ययन की लोकवार्ता-सामग्री का बड़ा हिस्सा वह है, जो १९६९ से लेकर १९८८ तक जनपदीय आंदोलन के प्रसंग में सासनी-क्षेत्र से संकलित किया जाता रहा।   सासनी सर्वेक्षण समिति के तत्त्वाधान में लोकोक्तियों के संग्रह का अभियान हो-लोकवार्ता संकलन के लिए अपने विद्यार्थियों की ग्राम टोलियों को लेकर सासनी क्षेत्र के गाँवों में जब-जब गया, तब-तब लोकवार्ता सामग्री की झोली भरकर लाया, जिसका कुछ हिस्सा 'सासनी-सर्वेक्षण', 'लोकशास्रअंक' तथा 'लोकोक्ति और लोकविज्ञान' के रुप में प्रकाशित हो सका है और अधिकांश निजी संग्रह के रुप में अप्रकाशित रखा है।

       सन् १९६९ में पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी ने जनपदीय मंत्र की दीक्षा लेकर सामनी-सर्वेक्षण अंक निकालने की आज्ञा दी थी, तभी से जनपदीयजन से परिपृच्छा का जो चाव चढ़ा, वह निरंतर विकसित होता रहा और जनपदीय-मिशन बन गया।   इस मिशन के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने अजरोई, भोजगढ़ी, तिलौठी, लुटसान, छोंड़ा, नगरिया चैन, बिजाहरी, वीर नगर, कलनगला, रुहल, रुदायन, पढ़ील, बसगोई, लढ़ौटा, गौहाना खेड़ा तथा ताल का नगला ग्रामों की तीर्थयात्रा की।   लोकवार्ता की समिधा-संकलन में जिन विद्यार्थियों का सहयोग मिला, उनमें हरियानगला के योगेश त्रिगुणायत, कौमरी के राजेंद्र पाल शर्मा, कलनगला के ओमप्रकाश सिंह, रुदायन के मणिकांत और अंबरीष कुमार के नाम आज भी याद आ रहे हैं।

       सर्वश्री   मिश्रीलाल वशिष्ठ (रुदायन), बौहरे शादीलाल (हरियानगला), वैद्य हरिपाल सिंह (लढ़ौटा) को मैं जनपदीय-अध्ययन का आचार्य मानता हूँ।   पढ़ील गाँव के रामप्रसाद पाठक सर्वोपरि थे, जो कि पिच्चासी वर्ष की अवस्था में भी बालसुलभ उत्साह से एक के बाद एक कहानी, गीत, पहेली और लोकवार्ता-संबंधी अन्य सामग्री के द्वारा मेरे पात्र को भर देना चाहते थे।   आज सोचता हूँ कि यदि उन दिनों मेरे पास टौपरिकाँर्डर होता, तो कई किताबों के प्रकाशन की लोकवर्ता-सामग्री उन्हीं की बोली में सुरक्षित हो जाती।

       हरियानगला के सामनेवाले अमरुदों के बाग को रखानेवाले कुम्हार झम्मन सिंह ने पद्यात्मक संवादवाली 'सीलनदेवी' की जो कहानी सुनाई, वह यदि उन्हीं की आवाज में सुरक्षित होती, तो कितना अच्छा रहता।   कसनगला के हरिजन गंगा सहाय ने 'नागा से कागा भयौ' तथा 'मछली कौ उपदेश' कहानियाँ ही नहीं सुनाईं, अपने यहाँ के रीतिरिवाज भी बताए।   जाति-परिवेश के गंगासहाय ने चलते समय एक पंक्ति में इस प्रकार साकार कर दिया था-'कितनऊ औगुन कर लै हाथ पंचन के रोज धुबाये जा।'   इसी प्रकार बिजहारी गाँव के जाटव रोशन ने अपने यहाँ के रीतिरिवाजों के संबंध में बताया।   ऊसवा गाँव के विद्यार्थी भगवतीप्रसाद केजाटव परिवार में सिड़रिया की ताथा मिली।   श्री डोरीलाल ने बनजारों के गाँव वीरनगर आने का आमंत्रण दिया, जहाँ हुकम सिंह, बाबूलाल, दुर्गपाल सिंह ने भूतों की कहानियाँ सुनाईं और बताया कि हम लोग पीपरवाले की मानता करते हैं।   इस गाँव में मुझे मुर्गा पालनेवाली 'राजा तज की रानी' की कहानी सुनने को मीली थी, जिसके पास मुर्गा का रुप धारण करके रावण आया था।   यहीं मेरी बुद्धि परीक्षा के लिए प्रश्न पूछा गया था-

                      पाँच चुड़ी कुच पीठ पै सिर के ऊपर दंत।

                      ऐसी तिरिया कौन है जिसका भजन करै भगवंत-

९.१. सासनी क्षेत्र    

सासनी आगरा-अलीगढ़ राजमार्ग पर हाथरस (से सात मील) और अलीगढ़ (से चौदह मील) के बीच बसा एक कस्बा है, जो चारों ओर गाँवों से घिरा है। अखईपुर, अजरोई, उसवा, कौमरी, खेरिया, चदैया, छोंड़ा गढ़ौआ, जसराना, जिरौली, चिकारी, तिलौटी, दरकौला, देदामई, दरियापुर, द्वारकापुर, नगलागढ़, नदैना नगला लच्छी, नगलारुँद, रतनानगला, ठाकुर नगला, ऊसबा माँजरा, निनामई, बरसै, बसगोई, बाँधनूँ, बिजारही, बिर्रा, बिघेपुर, बोजगढ़ी, मुहरिया, मौमनाबा, रघनियाँ, रुदायन, रुहल, लढ़ौटा, लुटसान, सठिया, सुसायत, हनुमानचौकी, हडौली आदि इस क्षेत्र के प्रमुख गाँव हैं, सासनी विकासखंड की उत्तरी सीमा पर अलीगढ़ विकासखंड, दक्षिणी सीमा पर हाथरस विकासखंड, पूर्व की ओर अकबराबाद एवं हसायन विकासखंड तथा

पश्चिम की ओर इगलास विकासखंड स्थिति हैं।   सासनी विकासखंड ७८.६ पूर्वी देशांतर तथा २७.४५ उत्तरी अक्षांश पर स्थित हैं।   सासनी विकासखंड ७८.६ पूर्वी देशांतर तथा २७.४५ उत्तरी अक्षांश पर स्थित है।   सासनी विकासखंज सामान्यत: एक समतल मैदान है।   कहीं-कहीं निचले हिस्से हैं, जिनमें बरसात का जल भर जाता है।   यहाँ की मिट्टी बलुई, दुमट तथा चिकनी है।   इस क्षेत्र में होकर एक बरसाती नदी 'सेंगर' प्रवाहित होकर यमुना में मिल जाती है।   यह क्षेत्र विशेष रुप से टिंडे, आम, अमरुद, बेर एवं सब्जियों के लिए प्रसिद्ध है, यहाँ गेहूँ जौ, चना, मटर, सरसों, राई, गन्ना, मक्का, बाजरा, दालें, ज्वार, खुत्ती, शकरकंद, आलू, टमाटर, बेंगन, किंभडी, मूली, गाजर, लौकी, तोरई, अरबी, गोभी, सेम, शलजम, प्याज, लहसन, फालसे, खिरनी, पपीता तथा नींबू आदि अधिक होते हैं।   जमीन उपजाऊ है तथा नलसूपों और बिजली का जाल फैला हुआ है, इसलिए हर प्रकार की फसल के लिए यह क्षेत्र अच्छा है।

इस क्षेत्र में किरार, सोलंकी, जादों, बनजारे, गौरये ठाकु, जाट, जुलाहे, जाटव, बनिया, ब्राह्मण एवं अन्य बिरादरियों के लोग रहते हैं।   गौहाना का वह टीला, जहाँ कुछ वर्ष पहले बौद्ध प्रतिमाएँ मिलीं, साथ   ही तिलौठी, लुटसान, देदामई, कौमरी, नगलागढू, दरियापुर और दरकौला आदि के खँडहर-टीले तथा समय-समय पर प्राप्त मूर्तियाँ यहाँ के पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक महत्त्व के स्पष्ट करती हैं।   राजापुहुप सिंह ने सासनी में एक किला बनवाया था, जिसे लार्ड लेक ने तोड़ा था।

सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से सासनी क्षेत्र ब्रजभूमि के ही अंचल में है।   उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जहाँ 'ब्रजचौरासीकोस' श्रीकृष्ण की उपासना का केंद्र रहा, वहीं यमुना के दक्षिणतट के आगे बढ़ने पर बलराम (दाऊजी) के मंदिर अधिक मिलते हैं।   सासनी में भी दाऊजी के मंदिर हैं।   सासनी के पास ही एक स्थान है बरहद।   यह ब्रज की हद अर्थात् सीमा कहा जाता है:

              इत बरहद उत सोंनहद श्री सूरसेन कौ गाम।

              ब्रजचौरासी कोस में मथुरा मेडल धाम।

सासनी के अतिरिक्त मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्र से भी लोकवार्ता-सामग्री एकत्र की गयी है, इसी के साथ ब्रज लोकवार्ता-संबंधी अन्य अनेक अध्ययनों के संदर्भ भी यथाप्रसंग दिए गए हैं।

एक तरह से धरती और बीज संबंधी यह अध्ययन ब्रज लोकमानस के विश्वबोध का अध्ययन भी है।

संदर्भ

  1. दे. परिशिष्ट ११.३

  2. दे. परिशिष्ट ११.४

  3. दे. परिशिष्ट १

  4. लोकशास्र अंक : आशा : सासनी (राजेंद्र रंजन)

  5. मनीप्लांट के संबंध में यह विश्वास है कि वह जिस घर में रहता है, वहाँ धन रहता है।   मनीप्लांट की डाली भी चुरा करके लायी जाती है।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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