धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

भाषा-संपदा में बीज-वृक्ष के बिंब


चिंतन प्रक्रिया में बिंबों की भूमिका पर विचार करते हुए हम देख चुके हैं कि मनुष्य संवेदनााक्ति के द्वारा बाह्य परिवे को आंतरिक बनाता है और इस प्रक्रिया के द्वारा 'अंतर्जगत्' की रचना करता है। यह 'अंतर्जगत्' सूक्ष्म और बिंबात्मक है। अंतर्जगत् बहिर्जगत् (बाह्य परिवे श) का वैसा ही बिंब है, जैसा दपंण में दिखाई देनेवाला 'मुख का प्रतिबिम्ब' और जिस प्रकार दपंण में दिखाई देनेवाला मुख का प्रतिबिंब मुख से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार अंतर्जगत् बहिर्जगत् से भिन्न नहीं है।

१. चिंतन, स्वप्न और भाषा

चिंतन अंतर्जगत् की वैसी ही प्रक्रिया है, जैसी प्रक्रिया स्वप्न है। बिंबों के कारण ही हम सपनों को 'देखना' कहते हैं अन्यथा स्वप्न अवस्था में हमारी आँखें भी बंद होती हैं तथा शेष ज्ञानेंद्रियाँ भी बाह्य परिवे से विच्छिन्न होती हैं।

यदि हम यों कहें कि 'स्वप्न निद्रावस्था का चिंतन है और चिंतन जागरित अवस्था का स्वप्न है,' तो यह असंगत नहीं होगा। इसलिए बिंब स्वप्न में भी हैं और चिंतन में भी बिंब है।

चिंतन आंतरिक प्रक्रिया है और भाषा 'अंतर' की अभिव्यक्ति का माध्यम है। दूसरे शब्दों में चिंतन अंदर ही अंदर चलने की प्रक्रिया है और अभिव्यक्ति अंदर से बाहर आने की प्रक्रिया है। इस प्रकार अंतर्जगत् का जितना संबंध स्वप्न और चिंतन से है, उतना ही अभिव्यक्ति से। इस प्रकार स्वप्न, चिंतन तथा भाषा-तीनों में बिम्बों का महत्त्व है।

२. सूक्ष्म भाषा : बिंब भाषा

तंत्राास्र में वाक् (वाणी) की चार अवस्थाओं का विवेचन है-परा, पयंती, मध्यमा और वैखरी।-१ जो स्थूल शब्द हमारे कहने-सुनने के व्यवहार में प्रचलित हैं, वे वैखरी वाक् हैं। जो वाक् चितंन के रुप में भीतर ही भीतर सक्रिय है, वह स्थूल शब्द का कारण है तथा वैखरी रुप शब्द जाल की पूर्व-अवस्था है, उसे मध्यमा कहते हैं। मध्यमा वाक् की भी पूर्व अवस्था पयन्ती है, जो बिंबात्मक है, वही विचारभूमि है। परावाक् विचारभूमि से परे है तथा वह वाक् की सूक्ष्मतम अवस्था है। इस प्रकार बिंबों को हम सूक्ष्म भाषा अथवा भाषा की पूर्व अवस्था कहते हैं। जिस प्रकार नैगेटिव फिल्म पोजिटिव फोटो बन जाता है उसी प्रकार अंतर्जगत् के वे बिंब हमारी समग्र अभिव्यक्ति संपदा ( शब्द, उपमा, दृष्टांत, मुहावरे इत्यादि) में प्रतिबिंबित हो जाते हैं।


३. बिंब, पद और पदार्थ

गाय शब्द कहने से मन पर तुरंत ही गाय का जो चित्र उभरा, उसका कारण पूर्व में गाय को देखना और अनुभव करना तथा देखने और अनुभव करने के बाद उसके बिंब का स्मृति-ाक्ति के द्वारा मन पर अंकित हो जाना था। गाय शब्द उस बिंब को इसलिए उभार सका, क्योंकि हमारे बोध में गाय ाब्द उस वस्तु रुप गाय के प्रतीक के रुप में प्रतिष्ठित है। हमारे मन पर जो गाय का बिंब अंकित है, वह एक ओर 'वस्तु' रुप गाय से जुड़ा है तो दूसरी ओर ' शब्द' गाय से।

३.१. बिंब : संप्रेषणीयता

इस प्रकार बिंबों के आधार पर ही भाषा की रचना और विकास होता है। ये बिंब सामान्यजन के चित्त पर जितने अधिक व्यापक होंगे, अभिव्यक्ति की संक्रमणाीलता उतनी ही व्यापक होगी। भाषा की संरचना में इन बिंबों की भूमिका का महत्त्व इसलिए भी है कि ये बिंब उन सभी लोगों के मानस पर समान रुप से अंकित होते हैं, जो एक से परिवे में रहते हैं तथा उस परिवेा को देखते-सुनते और अनुभव करते हैं। वक्ता और श्रोता, दोनों के मन पर समान रुप से अंकित होने के कारण वे बिंब एक मन की बात दूसरे के मन तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।

४. जीवन और प्रकृति : बिंब-प्रतिबिंब

चिंतन प्रणाली की भाँति अभिव्यक्ति प्रणाली में भी यह सामान्य प्रवृत्ति है कि मानवजीवन-संबंधी विवेचन में प्रकृति के बिंब तथा प्रकृति-संबंधी तथ्यों के उद्घाटन में मानवजीवन के बिंबों को आधार बनाया जाता है।

५. निरंतर प्रक्रिया : जीवन का प्रवाह

एक बिंब जब किसी वि शेष संदर्भ में रुढ़ हो जाता है, तब उस रुढ़ अर्थ से फिर एक नया बिंब बनता है और फिर वह नया बिंब जीवन के प्रवाह के साथ पुन: नए अर्थ की ओर आगे बढ़ जाता है। यह प्रक्रिया जीवन के साथ नित्य-निरंतर चलती रहती है और इसी के साथ भाषा का विकास होता है। शब्द क्रियााील जीवन में निर्मित है और प्रचलित होते हैं तथा उनके नए प्रयोग शब्दों में नया अर्थ भर देते हैं। शब्द जीवन के साथ जुड़े होते हैं, जीवन से भिन्न होकर शब्द की सत्ता नहीं है, इस प्रकार शब्दों का अध्ययन जीवन का भी अध्ययन है। भाषा का संबंध समग्र जीवन से है।

६. भाषा-संपदा में बीज-वृक्ष के बिंब

चिंतन प्रणाली की भाँति अभिव्यक्ति प्रणाली में भी धरती और बीज के बिंब बहुत गहराई तक रसे-बसे हैं। बीज से वृक्ष होने की प्रक्रिया से जुड़े हुए उन हजारों शब्दों का संकलन और अध्ययन किया जाए तो जीवन के विविध संदर्भों को व्यक्त करते हैं तो हम अपने सांस्कृतिक इतिहास की पूरी कहानी समझ सकते हैं, क्योंकि मनुष्य की युगयात्रा और ज्ञानयात्रा वृक्ष-वनस्पतियों की छाया में ही प्रारंभ हुई थी।

(अ) वर्गी करण

ग्रामीण क्षेत्रों में जो बोलियाँ प्रचलित हैं उनमें आज भी वानस्पतिक बिंब बहुत व्यापक हैं और इन बिंबों के कारण उनकी अभिव्यक्ति-क्षमता बहुत अधिक साक्त हो जाती है। भाषा-संपदा में वानस्पतिक बिंबों का वर्गीकरण चार भागों में किया जा सकता है (रेखाचित्र-१२)-

(क) शब्द-प्रयोग
(ख) मुहावरे
(ग) कहावतें
(घ) आलंकारिक प्रयोग

(क) शब्द-प्रयोग

शब्द-प्रयोग-संबंधी वानस्पतिक बिंबों के भी दो वर्ग किए जा सकते हैं-

१. अभिधान
२. लाक्षणिक प्रयोग

१. अभिधान : वृक्ष-वनस्पतियों के नाम पर स्थानों और व्यक्तियों के अभिधान की परंपरा बहुत पुरानी है। इसलिए अभिधान-वर्गीय बिंबों के भी दो भेद किए जा सकते हैं-

१.१. स्थान अभिधान : वृक्ष-वनस्पतियों के नाम पर कई स्थानों का नामकरण मिलता है; जैसे-पुष्करराज, कु शावर्त (कनखल), वृंदावन, तालवन, कमोदवन, कदमखंडी (ब्रजमंडल), बद्रिकाश्रम आदि। यह परिपाटी प्राचीन है तथा पुराणों में भी शाल्मलिद्वीप, कु शद्वीप, शाकद्वीप, प्लक्षद्वीप, जंबूद्वीप तथा पुष्करद्वीप की चर्चा है।

१.२. व्यक्ति अभिधान : केदारनाथ पिप्लेश्वर, पिप्लाद, विल्वकेश्वर भगवान शिव के नाम हैं, वहीं स्री-पुरुषों के नाम भी वृक्ष-वनस्पतियों के आधार पर रखने की परिपाटी अद्यावधि विद्यमान है; जैसे-आोक, तुलसीदास, पुष्पराज, फूलसिंह, सुमन, चंदन और पुहुपसिंह (पुरुष), कादंबरी, मधूलिका, अपर्णा, कमला, मालती, मल्लिका, माधवी, तुलसी, अंगूरी, पुष्पा, कुसुम, सरोज, कुमुद, चंपा, गूजरी, चमेली, रामकली, गुलाबो, बादामी, पुष्पलता, वृंदा, फूलन, फूलवती, फूलनियाँ, अनारो, सुमन, केसर, वसंती, जूही आदि (स्री नाम)।

१.३. गीत अभिधान : ब्रज क्षेत्र में भात, सदाफल, नरंगफल, मेहँदी, पीपरिया और धतूरा विविध अवसरों पर गाये जानेवाले लोकगीतों के नाम हैं।

२. लाक्षणिक प्रयोग : बीज, अंकुर, अँखुआ, जड़, मूल, शाखा, दाना, सींक, काँटा, तिनका, फाँस, ठूँठ, स्कंध, पर्व, कांड, खेत जैसे वानस्पतिक " शोत के ऐसे हजारों शब्द हैं, जिनका प्रयोग लोकजीवन के अन्यान्य संदर्भों में किया जाता है।

चम्पा, चमेली, धतूरा, जायफल, करब, फटेरा, बथुआ, मूली, झाऊ, फरास, सरसों, मटर, छुआरा, मूँज, महुआ, बैंगन, अनार, केसर, छिलका, प्याज, छूँछ, फूँस, इमली, नीम, खटाई, खजूर, बबूल, चिरचिटा, सुपारी, किन्नी, पेठा, तरबूजा, खरबूजा, इत्यादि के लाक्षणिक प्रयोग संज्ञा, उपमान, विोषण आदि के रुप में लोकजीवन में बिखरे हुए हैं।

रंग : लोकमानस ने रंगों को वृक्ष-वनस्पतियों के आधार पर ही पहचाना है, इसलिए उन रंगों की संज्ञा, वनस्पतियों के आधार पर ही निर्धारित हुई है; जैसे-नारंगी रंग, गेहुआँ रंग, धानी रंग, मूँगिया, बादामी रंग, किामिाी, अंगूरी, कपासी, कन्नेरी, केलई, कपूरी, केसरिया, कत्थई, प्याजी, पिस्तई, नीबुआ, जामुनी, अन्नारी, चंपई, बैंगनी और सब्जी।

परिवार तथा वाङ्मय (साहित्य) को भी वृक्ष के बिंब के रुप में ग्रहण करने की प्राचीन परंपरा है, इसलिए परिवार तथा वाङ्मय के संदर्भों में भी वानस्पतिक "ाोत के ाब्दों के लाक्षणिक प्रयोग प्रचलित हैं।

शब्द मुहावरा कहावत अलंकारिक प्रयोग

अभिधान लाक्षणिक प्रयोग उपमा रुपक दृष्टांत उदाहरण

स्थान अभिधान व्यक्ति अभिधान

संज्ञा उपमान वि शेषण क्रिया

रेखाचित्र-१२ : भाषा-संपदा में बीज, वनस्पति-संबंधी बिंबों का वर


२.१. परिवार संदर्भ के वानस्पतिक
शब्द : परिवार का 'पुरखा का बाग' तथा 'बारी-फुलवारी' कहा जाता है। बड़े-बूढ़े को आाीर्वाद देते हैं-'कडुंए नीम ते ऊ बड़ौ होय', 'बड़-पीपर, ते जेठो होय।' बूढ़े बाबा को पीपर परिवार के चार लड़कों को 'चार डाल', कुलवधू को 'मँगरे पर चढ़ती बेल', शि शु को 'आँचर का फल' तथा पहलौटी बेटी को 'कड़वा फल' कहा जाता है।

पारिवारिक संबंधों के लिए भी वानस्पतिक बिंबों का प्रयोग किया जाता है-नंद भौजाई में 'आँच फूँस कौ सौ बैर' है, सास 'कोठे पै की घास', दूर जमैया 'फूल बराबर' पास जमैया आधौ, 'कमल फूल' सी ननदुलि कहियै, चंदा जैसी चाँदनी 'गुलाब जैसौ फूल' लल्ला राम ने दयौ।

एक पंजाबी लोकगीत में माँ को ऐसी घनी छायावाला वृक्ष कहा गया है, जिससे कुछ छाया उधार लेकर प्रभु ने स्वर्ग बनाया है। यह वृक्ष सर्वथा विचित्र है, क्योंकि दुनिया के सारे वृक्ष जड़ सूखने पर सूखते हैं किंतु यह वृक्ष फूल (पुत्र) के मुरझाने पर सूख जाता है-

माँ वर्गा घन छावाँ बूटा सानूँ न न आए।
जिस तों लेके छाँ उधारी रब ने सुरग बनाए।
बाकी दुनियाँ दे सब बूटे जड़ सुक्याँ मुरझावन।
ऐपर फुल्लाँ दे मुरझायाँ एह बूटा सुक जाए।

२.२. वाङ्मय संदर्भ के वानस्पतिक शब्द : 'वाक्' को बीज के बिंब के रुप में ग्रहण करते हुए संपूर्ण वाङ्मय (साहित्य, ज्ञान) को वृक्ष के रुप में देखने-समझने की परंपरा का सूत्र बहुत प्राचीन काल तक पहुँच जाता है। शब्द कल्पद्रुम, काव्यद्रुम, क्रिसन-रुकमिनी-री बेल, बृहत्कथा मंजरी, वांछाकल्पलता, सुखमंजरी, हुलास लता, आनंद लता आदि ग्रंथों के नाम हैं। वेद को वृक्ष के रुप में ग्रहण करके ही आश्वलायिनी आदि शाखाओं का विभाजन किया गया था। भागवत को वेद के वृक्ष का पका हुआ फल कहा गया था-'निगम कल्पतरोर्गलितं फलंाुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्' उपनिषदों के अध्यायों को 'वल्ली' कहा गया है; जैसे-तैत्तिरीय उपनिषद् के शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली तथा भृगुवल्ली। कांड, स्कंध, पर्व, मंजरी, स्तवक वानस्पतिक शब्द हैं, जो साहित्य में बहुप्रचलित हैं।

बाँस या ईख की गाँठ को पर्व कहते हैं। संधिस्थान भी पर्व है। बाँस या ईख में पर्व 'पोर' बना और उँगली के संधिस्थान में 'पोरुआ' बना। त्यौहार और उत्सव भी जीवन को नयी चेतना, नयी दि शा देते हैं, इसलिए वे भी पर्व हैं। संधिस्थान के बिंब से ग्रंथों का विभाजन भी पर्व के आधार पर होता है-महाभारत के अठारह पर्व प्रसिद्ध हैं।

वृक्ष की जड़ से लेकर शाखा तक के हिस्से, जो विभक्त-से दिखते हैं, 'कांड' कहे जाते हैं, यही विभाजन रामायण में बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड तथा उत्तरकांड के रुप में दृष्टिगत होता है और जिस प्रकार बरगद में कई स्कंध होते हैं, उसी प्रकार भागवत के भी बारह स्कंध हैं। ग्रंथ के प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर एक 'पुष्पिका' भी होती है।

नाटक और महाकाव्य में बीज से फल तक की अवस्थाएँ स्वीकार की गयी हैं। 'अर्थ प्रकृति' की पाँच स्थितियों में पहली स्थिति 'बीज' है। 'दारुपक' का वाक्य है-

स्वल्पोद्दिष्टस्तु तध्देतुर्बीजं विस्तार्यनेकधा

अर्थात् रुपक के प्रारंभ में स्वल्पसंकेतित वह 'हेतु' जो अनेक विधि विस्तृत होता हुआ 'फल' का कारण है, बीज कहलाता है। रुपक की पाँचवीं अवस्था 'फलागम' है। 'फलागम' में नायक-नायिका के अभीष्ट की सिद्धि हो जाती है। 'रसपरिपाक' और फल-परिपाक के बिंबों में समानता है।

२.३. वानस्पतिक क्रिया : जीवन के संदर्भ में : जड़ जमना, अंकुरित होना, पल्लवित होना, पुष्पित होना या फूलना, फलना, फैलना, पैदा होना, लहलहाना, हरा होना, सूखना, झड़ना, टपकना, गिरना, उखड़ना, झकझोरना, हिलना, झूमना, लिपटना, टूटना, कुम्हलाना, खिलना, उगना, चटकना, सरसना, डहजहाना, पियराना, ललाना, उत्पन्न होना, पकना, छितराना, नबना, उभरना, महकना, लचकना, रोपना और कलम लगाना आदि क्रियाएँ वानस्पतिक हैं, परंतु इन क्रियाओं का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में भिन्न संदर्भों में होता है। कमल के फल-सा भी खिलना होता है और फूँट-सा भी, रोम रोम खिलता है। कान पक जाता है और घाव भी। अंकुरित यौवना, सुगंधि फैलना (या फैलना) आदि वानस्पतिक बिंब हैं। आम भी गदराता है और यौवन भी। खेत हरे होते हैं और आदमी भी हरा (प्रसन्न) हो जाता है, घाव भी हरा हो जाता है। इसी प्रकार गाय के गाभिन (गर्भिणी) होने को 'हरी होना' कहा जाता है। मन में क्रोध और लोभ उत्पन्न होते हैं, खेत में वनस्पति। पेड़ भी उगता है और सूरज, चंदा तथा तारे भी। वृक्ष पर भी 'पतझर' होता है तथा शरीर पर भी-

जा दिन तेरे मन तरवरक के सबै पात झर जै हैं।

२.४. अवयव : मानव देह तथा वृक्ष : मानव देह तथा वृक्षों में लोकचेतना ने बिंब-प्रतिबिंब भाव माना है, इसलिए वृक्ष संबंधी शब्द देह के संदर्भ में तथा देह संबंधी शब्द वृक्ष संदर्भ में प्रचलित हैं। वृक्ष की शाखा को 'भुजा' कहा जाता है, इसी प्रकार 'फुनगी' को चोटी कहते हैं-तरुाखिा। वटवृक्ष की लटकनेवाली वरोह को लट अथवा जटा कहा जाता है। मानव शरीर में सिर के उलझे और लंबे बालों को 'जटा' कहते हैं, बालों का गुच्छा 'लट' है। ईख और बाँस आदि के पोरों के जोड़ को गाँठ कहते हैं, अन्य वृक्षों में भी जहाँ कठोर और उभरी हुई जगह दिखती है, उसे गाँठ कहते हैं। अदरक की भी गाँठ होती है। पत्तागोभी को गाँठगोभी भी कहते हैं। मानव शरीर में भी एड़ी के ऊपर गाँठ होती है। फोड़े की 'उदेर' से गाँठ बन जाती है। (रक्त जम जाता है)। पेड़ का धड़, जहाँ से शाखाएँ निकलती हैं, स्कंध कहलाता है। मनुष्य के शरीर में भी कंधा होती है। जौ और गेहूँ में भी बाल होते हैं, मानव शरीर के भी बाल हैं। आलू में जहाँ से अंकुर निकलता है, वह छोटा-सा गड्ढा 'आँख' कहलाता है तथा जब फल में कीड़ा लग जाता है और गड्ढा-सा बन जाता है तो उसे 'काना' कहते हैं। कमल का मृणाल नाल कहलाता है और नवजात शि शु की नाभि में भी 'नाल' होती है, नाल का उच्छेदन होता है। सूखे हुए नाल के इस अंा को बच्चे की माँ अत्यंत सुरक्षा के साथ रख लेती है।

नारियल के खोपरे में और मनुष्य के खोपड़े में भी कुछ समानता है। उँगली, अँगूठे आदि के जोड़ का पोर तथा उँगलियों की दो गाँठों के बीच का स्थान पर्व है, जिसे पोरुआ कहा जाता है। ईख में भी दो गाँठों के बीच का हिस्सा पोर (पर्व) है। केतकी आदि में हलके रंग का निकला हुआ कोंपल या केले आदि के पौधे के भीतर का भाग गाभा है। गाभा का शब्द गर्भ से बना है। संस्कृत वृक्ष का पर्यायवाची शब्द है-पादप। पादप शब्द की व्युत्पत्ति-पादेन पिवतीति पादप: अर्थात् जो पैर से पिए वह पादप हुआ। यहाँ नीचे का हिस्सा होने के कारण वृक्ष को पाद कहा गया है।

मनुष्य की त्वचा खाल है और वृक्ष की त्वचा छाल है। मृग और बाघ की त्वचा को भी मृगछाल और बाघछाल कहते हैं। वृक्ष की टहनी को डार कहते हैं। डार का अर्थ, कलाई भी है-'डारन चार चार चुरी बिराजत।' किसी-किसी व्यक्ति के आँख में तिल के बराबर सफेदी होती है, इसे फुली कहते हैं, बड़ी और ऊपर उठी हुई फुली टेंट कहलाती है। कहावत है-'अपनों टेटु तक नाँइ दीखै दूसरे की फुली ऊ दीखत्यै।' फुली और टेंट के बिंब कपास के गूला (फल) से संबंधित हैं। जब गूला पककर फूट जाता है, तो उसमें से कपास की सफेदी चमकने लगती है। इस पके हुए गूले का जनपदीय नाम 'टेंट' है। शरीर में तिल जैसे काले नि शान को तिल भी कहते हैं। लहसन लाल रंग का होता है, शरीर पर जो लाल नि शान होते हैं, वे भी लहसन कहलाता हैं, कद-काठी के लिए देहयष्टि तथा बेल कहते हैं-'लंबी बेल उमर की बारी।' रोमलता (रोमावलि) भ्रूलता (भौंह) भी होती हैं।

(ख) मुहावरे-२

तिल की भाँति राई और जौ भी बहुत छोटे होते हैं, इसलिए अणु भर को 'राई भर' कहते हैं और जौ भर भी। 'हिसाब जौ-जौ बखीा सौ-सौ' अथवा 'जौ भर दाब सौ भर खुाामद।' अत्यंत वृद्ध व्यक्ति के लिए 'जमना गंगा का जौ' कहा जाता है क्योंकि लहर किसी भी क्षण आ सकती है और जौ को बहाकर ले जाएगी। 'राई घटै न तिल बढ़ै' में भी राई का अर्थ तनिक है, किंतु परमात्मा राई को पर्वत बना सकता है और पर्वत को 'राई'। राई में खटास होती है, इसलिए संबंधों में खटास पैदा करने के अर्थ में 'दूध में राई डालना' मुहावरा प्रचलित है।

मिर्च लगना, आँख में मिर्च झोंकना अथवा मिर्च छिड़कना मुहावरे क्रम श: बुरे लगने, बेवकूफ बनाने और चिड़ाने के अर्थ में प्रचलित हैं। 'गा मूली समझना' अर्थात् तुच्छ समझना। 'किस खेत का बथुआ है?' मुहावरा भी तुच्छता के अर्थ में प्रयुक्त होता है। मूली के पत्ते व्यर्थ होते हैं, किसी व्यर्थ वस्तु के बदले मूल्यवान चीज को माँगना ऐसा है जैसे मूली के पत्ते देखकर मोती माँगना।

जब सभी एक जैसा व्यवहार करते हैं, तब कहा जाता है-'एक बेल के तौमरा।' तौमरा से वाद्य भी बनता है, इसलिए एक कहावत है-'अपनी तूमरी अपनों राग।' जब तक छिलके में है तब तक चना एक है और जब वह छिलके से अलग कर दिया जाय तो एक चने की दो दाल बन जाती हैं। बिरादरी के पंच हुआ करते थे जो भाई-भाई में अंतर पैदा करके उन्हें विभाजित कर देते थे, चने पर एक लोकगीत है-

एक चना दो चार करें हम, जो कोई हमको पंच बान ले।

दाल-संबंधी मुहावरे में-'उर्द पै द्वेै ई फली', 'उर्द में सफेदी', 'मटर की द्वेै फली फोड़ना', 'छाती पर मूँग दलना', 'मूँग-मौठ में कौन बड़ी' जैसे लाक्षणिक प्रयोग प्रचलित हैं।

यदि कोई व्यक्ति 'बेरिया के झाड़' में फँस जाय तो फिर वहाँ से निकलना बहुत कठिन है, क्योंकि बेर के काँटे अंकु जैसे होते हैं और सैकड़ों काँटे एकसाथ शरीर और कपड़ों में लग जाते हैं और सुलझाने पर भी नहीं सुलझते। इसी प्रकार 'निसोड़े' की गुठली पहले तो फल से ही अलग नहीं होती और फल से अलग होती है तो उँगलियों में चिपक जाती है, कपड़ों में चिपक जाती है, अलग करना मु श् कल हो जाता है। इसीलिए ऐसे व्यक्ति या ऐसी परिस्थिति के लिए मुहावरा प्रचलित है-'बेरिया कौ झार', 'निसोड़े की गुठली।'

इसी प्रकार 'हींस की झाड़ी' होती है। यदि किसी प्रकार तोता हींस की झाड़ी में चला जाय तो उसका उड़ना मु श् कल है, जब कि नीम पर बैठा तोता 'फुर्र' उड़ जाता है इसलिए बाधाओं से डरे हुए व्यक्ति को 'हींस कौ सूआ' कहते हैं। किसी व्यर्थ और अनुपयोगी वस्तु के लिए 'धान कौ भूसा', 'नीम कौ चंदन', 'घास कौ बंधन', 'अंडौआ का लट्ठ' अथवा 'फटेर कौ चूसा' कहते हैं क्योंकि इनमें से कोई वस्तु काम की नहीं।

फूल में काँटे, हारिल की लकरी, पींड़ की तरह पड़े रहना, पत्ते की तरह सूखना, सूखकर काँटा या छुहारा हो जाना, झरकटी में हाथ डालना भी मुहावरे हैं।

उपमान और रुपक के रुप में भी मुहावरों का प्रयोग होता है, जैसे-रेड़ का पेड़, ईंधन, विष की बेल, ठूँठ, पूरौजड़, चेंपा (रोग) इत्यादि। ऊपर से कठोर और अंदर से सहृदय व्यक्ति बादाम-सा और ऊपर से नरम तथा अंदर का कठोर व्यक्ति बेर-सा है। छोटे-मोटे के लिए चना मटर-सा तथा ठिंगने के लिए बैंगन-सा कहा जाता है। लंबा तो खजूर-सा है ही।

लौकिक-न्यायांजलि (जैकब कृत) एवं ग्रन्थों में बादरायण संबंध, कंटकेन कंटकाकीर्ण, हस्तामलक, पल्लवग्राही ज्ञान एवं काकतालीय न्याय जैसी दृष्टांत बीज-वृक्ष-वनस्पति के बिंबों के ही उदाहरण हैं।


(ग) कहावत

कहावतों में वृक्ष-वनस्पति-संबंधी बिंब उदाहरण तथा दृष्टांत के रुप में उपस्थित होकर जीवन के यथार्थ को प्रत्यक्ष कर देते रहैं।-३ उदाहरण-

अंबा फूलै नबि चलै
बेरिया के रुख में काँटे ई काँटे
गिलहरी कूँ गूलर मेवा
गिलौंटे मीठे होंय तो गिलहरी काए कूँ छोड़ै
गीदी गाय गिलौंदे खाय,
दौर-दौर महुआ तर जाय।
ईख न देत बिना चोखें रस।
थोथा चना बाजे घना।

कहावतों में इन बिंबों की विभिन्न भंगिमाएँ हैं। अनेक कहावतों में जीवन की परिस्थिति के साथ वृक्ष-वनस्पति के बिंब और अधिक सजीव बन जाते हैं; जैसे-

झूठा की बात, खजूर की सीरक।

अर्थात् झूठे व्यक्ति का आश्वासन उसी प्रकार है जैसे खजूर के पेड़ की छाया।

'लहसन की गंध और पार छिपते नहीं।' यहाँ पाप के लिए लहसन की गंध का उपमान इतना सटीक है, जितना संत के लिए तुलसी और भाँग के लिए कसाई का उपमान।

कहावत है-

तुलसा के ढिंग भाँग बवाई, म्हंई संत म्हंई बसत कसाई।

बिंब-प्रतिबिंब भाव की एक और लोकोक्ति है-

बार लगायी खेत कूँ, बार खेत कूँ खाय।
राजा है चोरी करै न्याय कौन घर जाय।

खेत की रक्षा के लिए काँटों की बाड़ लगायी थी पर वह बाड़ खेत को ही खाने लगी। राज ही चोरी करने लगे तो बताओ, न्याय जिसके घर जाए?

मलय पर्वत पर जहाँ चंदन-वृक्ष पैदा होते हैं, चंदन का उतना महत्त्व नहीं, इसलिए कहावत है-'मलयाचल की भीलनी चंदन देत जराय।' अत्याधिक जल्दी करने को 'हथेली पर सरसों जमाना' कहा जाता है।

खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है और मनुष्य भी दूसरे को देखकर उसकी होड़ करता है। उधार लेकर खाना और फूस का तापना क्षण भर का सुख है। जब किसी व्यक्ति को लालच लग जाता है और बार-बार आता है, तब कहा जाता है-'गोदी गाय गिलोंदे खाय, बार-बार महुआ तर जाय।'

दरवाजे पर स्थित बेर का पेड़ वैसा ही है जैसे पास रहनेवाला बौहरा अर्थात् उधार देनेवाला। आते-आते बेरिया के काँटे उलझायेंगे और बौहरा भी तकाजा करेगा। इसलिए कहावत है-'द्वारे की बेरिया और जौरे कौ बौहरौ।'

'गिलोय' और 'करेला' दोनों ही कड़वे होते हैं और उनकी बेल नीम पर चढ़ी हो, तो कटुता दुगुनी हो जाएगी, इसी दुगने कड़वेपन को अभिव्यक्त करने के लिए कहा जाता है-'एक तो गिलोय दूजें नीम चढ़ी।'

इसी प्रकार सारे गाँव में चेचक ( शीतला) फैली हो और पूरे गाँव में एक नीम का पेड़ हो और सभी चाहते हों कि उन्हें नीम की छाँह मिले, उस परिस्थिति की कहावत है-'एक नीम और घर-घर सीतला।' लगभग यही परिस्थिति 'एक अनार सौ बीमार' लोकोक्ति में अभिव्यक्त हुई है।

(घ) आलंकारिक प्रयोग

आलंकारिक प्रयोग के रुप में बीज-वृक्ष-वनस्पति संबंधी बिंब काव्य-साहित्य और र्दान में व्यापक रुप से बिखरे हुए हैं। काव्य शास्र में उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, उदाहरण एवं दृष्टांत आदि अलंकारों की विवेचना मूल रुप में इन बिंबों की ही विवेचना है। तत्त्वचिंतन में तथ्य को स्पष्ट करने के लिए ऐसे प्रयोगों का आश्रय लिया गया है; जैसे-

'ठीक समय में बोया और सींचा हुआ बीज, अंकुर एवं पल्लवादि के रुप में अभिव्यक्त होता है, उसी प्रकार प्रातिभज्ञान गुरु-उपदिष्ट क्रिया द्वारा अभिव्यक्त होता है।'

अत्मा जौ, सरसों और सवाँ से भी सूक्ष्म है।

"ईश्वर चराचर प्रकृति में उसी प्रकार से व्याप्त है; जैसे मेहँदी में लालिमा, ईख में माधुर्य, तिल में तेल और पुष्प में सुगंधि।"

"जिस प्रकार ग्रीष्म की प्रचंड धूप में पुराने पेड़ सूख जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य दरिद्रता दु:ख से क्षीण हो जाते हैं।"

संदेह रुपी वृक्ष को काटने के लिए शास्र कुठार रुप है।

इसी प्रकार के हजारों उदाहरण काव्यों से उद्धृत किए जा सकते हैं; जैसे-

मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहि बिरंचि सम।
फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।

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(आ) अथ -विस्तार

इस प्रकार जीवन के विविध संदर्भों में निरंतर प्रयोग के द्वारा वानस्पतिक ाब्दों का अर्थ-विस्तार हुआ है और वह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। उदाहरण के रुप में यहाँ बीज, खेत, जड़, पत्ते, फूल, फल, फाँक, शाखा, छाया, दाना, काँटा, तिनका, गाँठ, सींक, ठूँठ, छूँछ, फाँस, लता, तिल और व श्ंा शब्द के अर्थविस्तार पर विचार किया जा रहा है।

१. बीज

बीज का अर्थ है शुक्र, वीर्य, रेत और व श्ंा। बीज शब्द की व्युत्पत्ति-'वि शेषण कार्यरुपेण अपत्यतया च जायते' अथवा 'वि शेषण ईजते कुकिंक्ष गच्छति शरीरं वा' रुप में की जाती है। वृक्ष-वनस्पति समेत प्राय: संपूर्ण प्राणियों के जन्म का कारण यह बीज या वीर्य है। इसलिए बीज शब्द का लाक्षणिक अर्थ है 'कारण'। तंत्र शास्र का बीजाक्षर अक्षर ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाले सिद्धांत का सूत्र है। 'स्वसंवेदबोध' नामक ग्रंथ में सात बीजाक्षरों तथा उनके साथ अंकुरों का उल्लेख है, उन्हीं से सात करोड़ मंत्रों का उद्भव होता है।

जंतु विज्ञान में भ्रूण के प्रारंभिक रुप को बीजांड कहते हैं, जबकि वनस्पति विज्ञान में बीज के प्रारंभिक मूल रुप को बीजांड कहते हैं। 'बीज बोने' का लाक्षणिक अर्थ वह मूल कृत्य या कर्म है, जो आगे चलकर बहुत विस्तृत रुप धारण कर लेता है, बीज 'फार्मूला' या सूत्र को भी कहते हैं क्योंकि उसकी व्याख्या विस्तृत रुप में की जाती है। मन में ईर्ष्या और अभिमान का बीज अंकुरित होता है तथा जिज्ञासा का बीज भी अंकुरित होता है। विचारों के बीज भी बोए जाते हैं। नाट शास्र में नाटक की एक अर्थप्रकृति का नाम बीज है। 'बीजगणित' का बीज अक्षर का द्योतक है। दुर्गा-सप्ताती में एक ऐसे रक्तबीज नामक दैत्य का उल्लेख है, जहाँ उसके रक्त की बूँद गिर जाती थी, वहीं उसके समान दैत्य पैदा हो जाता था।

बीज शब्द से अन्य कई शब्द बनते हैं, जैसे-बीजक, बिजार, बीज धान्य बीजवाहन और बीजगुप्ति आदि। मध्ययुग में जमीन में गाड़ी जानेवाली धनसंपत्ति के साथ प्राय: धातुपत्र पर उत्कीर्ण संपत्ति का विवरण तथा उसे पाने का मार्ग लिख दिया जाता था, उसे बीजक कहा जाता था। महात्मा और संतों की वाणियों के संग्रह को भी बीजक कहते हैं।

२. क्षेत्र

धरती को जोतकर प शुओं से रक्षा के लिए बाड़ लगाकर पानी के लिए नालियाँ बनाकर किसान बीज के लिए क्षेत्र तैयार करता है, यह क्षेत्र ही खेत है। क्षेत्र या खेत की सीमा होती है, इसलिए क्षेत्र का लाक्षणिक अर्थ सीमा भी है।

जिस प्रकार बीज की उत्पत्ति वृक्ष से होती है, उसी प्रकार मनुष्य (आदि प्राणियों) की उत्पत्ति भी बीज (वीर्य) से होती है। जिस प्रकार जुती हुई भूमि बीज का क्षेत्र है उसी प्रकार स्री (योनि) मनुष्य की उत्पत्ति के लिए बीज का क्षेत्र है। स्री के लिए यह अवधारणा प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकृत हुई थी। इस न्याय के अनुसार मृत, नपुंसक या राजयक्ष्मा आदि व्याधियों से ग्रस्त पुरुष की स्री (खेत) धर्मानुसार अन्य पुरुष से जिस पुत्र को उत्पन्न करती थी, वह उस स्री के पति का क्षेत्रज पुत्र कहलाता था। पांडव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव) पांडु की 'क्षेत्रज' संतान थे।

क्षेत्र शब्द का अर्थ-विस्तार होता है, तो वह धर्म का क्षेत्र (धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे), कर्म का क्षेत्र और रण का क्षेत्र भी बन जाता है-

समर खेत में जाय कें मैं दुंगो होस बिगार।

या

कौरव आमें लड़न खेत में सब तन साज सजाय।

इसी संदर्भ में बलिदान होने को 'खेत होना' कहा जाता है। विवाह के अवसर पर जब बराज गाँव में पहुँचती है तो एक लोकाचार गाँव के पहले खेत में होता है, उसे 'खेत लगुन' कहते हैं।

क्षेत्र शब्द भूगोल, इतिहास, राजनीति और समाज सभी क्षेत्रों में पहुँच चुका है। शिक्षा का भी क्षेत्र होता है और सेवा का भी क्षेत्र होता है। न्यायालय का क्षेत्र अलग है। पुलिस के क्षेत्र में भी एक क्षेत्र-अधिकारी होता है। भारत का उत्तरपूर्वी क्षेत्र भी है तथा पहाड़ी क्षेत्र भी है। अपने-अपने क्षेत्र में क्षेत्र शब्द के व्यापक प्रयोग प्रचलित हैं।

क्षेत्रपाल और क्षेत्रफल जैसे शब्द क्षेत्र से ही बने हैं। अनुष्ठानों में क्षेत्रपाल का पूजन होता है, लोकजीवन में 'भुमियाँ' क्षेत्रपाल का ही रुप है।

३. जड़

जड़ या मूल वनस्पति का महत्त्वपूर्ण अंग है, इसी से यह जीवनी शक्ति रुप 'भोजन' का संचय करता है, इसलिए यह जीवन का आधार है-'पेड़ टूटकर गिर पड़ै जड़ जब जायै सूख।' जड़ शब्द का अर्थ आधार या बुनियाद भी बनता है और कारण भी; जैसे-'परजा जड़ है राज की, राजा है ज्यों रुख' अथवा ' जमीन जोरु झगड़े की जड़', 'पेड़ की जड़ धरती, लुगाई की जड़ चूल्हा।'

'जड़ काटना' या 'जड़ में मट्ठा डालना' 'विना करने' के अर्थ देनेवाले मुहावरे हैं। जड़ गहरी होती है तो जीवन शक्ति भी गहरी होती है, उस स्थिति के लिए मुहावरा है-'कुएँ में जड़ होना।'

जड़ शब्द से दो लक्ष्यार्थ और निष्पन्न होते हैं। एक तो जड़ अर्थात् मूर्ख, जड़ता अर्थात् मूर्खता या अज्ञान। 'जा धियो हरति सिंचति वाचि सत्यम्।' दूसरे जड़ शब्द अचेतन के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। द र्शनाास्र में सृष्टि का वर्गीकरण जड़ और चेतन-दो भागों में किया गया है।

स्तब्ध होने को जड़ीभूत हो जाना कहा जाता है। जड़ से ही जड़ी-बूटी का 'जड़ी' शब्द बना है। जड़ शब्द पर्याय है मूल। मूल से मूली, मौलिक, मूलभूत, मूलमंत्र, मूलप्रकृति, बद्धमूल, मूलपुरुष, मूल कारण, मूलकर्म, मूलग्रंथ, मूलोच्छेद, मूलभाव, मूलधन, मूलविद्या, आमूलचूल, समूल, मूल स्थान तथा मूलक शब्द बनते हैं। ज्योतिषाास्र में मूल-नक्षत्र भी है। कहते हैं कि मूल-नक्षत्र में पैदा होनेवाला बालक प्रतापी होता है।

जड़ संबंधी अन्य मुहावरे हैं-पाताल में जड़ होना, जड़ काटना, जड़ खोखली होना, जड़ गहरी होना, जड़ जमाना, जड़ हरी होना।

४. पत्ता

पत्ता, पत्ती, पात, पतिया, पाती आदि शब्द 'पत्र' शब्द से निष्पन्न हैं और 'पत्र' शब्द पत् धातु से निष्पन्न है। पत् धातु का अर्थ है गिरना और चूँकि वृक्ष से गिरता है, इसलिए उसका नाम है पत्र। बड़, पीपल, ढाक, केला और पान के पत्ते हैं तथा नीम और इमली की पत्ती। ताड़पत्र और भोजपत्र लिखने के काम आते थे, उस जमाने का कागज वही था, उन्हीं पर संद श्ेा भेजे जाते थे, इसलिए आगे चलकर पत्र का अर्थ चिट्ठी भी बन गया। चिट्ठी पर जो ठिकाना लिखा है, वह पता है। सभ्यता के विकास की गति में पत्र शब्द और आगे बढ़ा तो प्रपत्र, परिपत्र, पत्रिका, पत्रा, समाचारपत्र, प्रमाणपत्र, नियुक्तिपत्र, ापथपत्र और अधिकारपत्र जैसे शब्द नए संदर्भों के साथ प्रस्तुत हुए और इसी के साथ ताम्रपत्र, स्वर्णपत्र, रजतपत्र, और लोहे की पत्ती बनी। चूँकि पुराने जमाने में पत्तों के बर्तन भी बनाए जाते थे, इसलिए पत्र मे ही पात्र शब्द बना। 'पत्तल' या 'पतूखी' शब्द भी उसी कुनबे के हैं। पहले कभी द्रोण वृक्ष के पत्तों का जो पात्र बनता था, वह आगे चलकर दोना कहलाया। बाद में पात्र शब्द मृत्पात्र, स्वर्णपात्र, रजतपात्र, कुपात्र, सुपात्र तथा पात्रता के अर्थ में विकसित हुआ। यही पात्र शब्द उपन्यास और नाटकों का भी पात्र बना और पात्र-योजना बनी। ढाक के तीन पात, पत्ता खटकना, पत्ता सींचना, पत्ता तक न हिलना, पीले पत्ते की तरह निर्जीव होना, पीपल के पत्ते की तरह काँपना और इमली की पत्ती पर मौज करना जैसे मुहावरों में पत्ते के कुलगोत्र की ही कहानी है। संख्या की सीमा से बाहर हो तो कहा जाता है-'जितने पीपल में पत्ते हैं।'

ज्यों केला के पात के पात-पात में पात।
त्यों चतुरन की बात में बात-बात में बात।

लोकोक्ति प्रसिद्ध है। मुहावरा है-'तू डाल-डाल मैं पात पात।' पत्र का पर्याय पर्ण है। पर्ण से 'पन्ना' और 'पन्नी' निष्पन्न होते हैं। पर्णकुटी पत्तों की कुटी है तथा पर्ण से ही 'पान' शब्द की व्युत्पत्ति होती है।

५. फूल

जब डाल पर कोई कली खिलती है तो द्रष्टा के मन की कली भी खिल जाती है और वह प्रफुल्ल हो जाता है। मान की प्रसन्नता को मनुष्य फूल पर आरोपित करता है अथवा खिला हुआ फूल मन की प्रसन्नता का जनक है? बात कोई भी हो, फूलने का अर्थ प्रसन्न होना है। इस प्रकार 'फूलना' शब्द व्यवहार में उतरता है, तो हम अपने प्रिय को देखकर खिल जाते हैं, फूल जाते हैं। रघुनंदन फूले न समायँ अर्थात् रघुनंदन की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं।

अब यह 'फूलना' शब्द नए व्यवहार में, नए अर्थ की खोज में चलता है तो मुँह फूलना, गाल फूलना, साँस फूलना, पेट फूलना जैसे लाक्षणिक प्रयोग बनते हैं। भड़भूजा के यहाँ मक्का को फुलाया गया, खिलौनेवाले के यहाँ गुब्बारे को फुलाना गया तथा भड़भूजा के यहाँ मक्का फूला बना और गुब्बारेवाले के यहाँ फुलाने का अर्थ हुआ-'फूँक मारना।' 'गाल फुलाने' का अर्थ है क्रुद्ध होना। कहावत है कि 'हँसना और गाल फुलाना' एक साथ नहीं हो सकते।

सुनार के यहाँ फूल पहुँचा तो उसकी कला ने सोने में फूलों को रुपायित किया और कर्णफूल, हथफूल और सीसफूल जैसे गहने बने।

'होटन फूल झरे' मुहावरे का अर्थ है, इतने मधुर शब्द निकलते हैं कि चित्त गद्गद हो जाता है परंतु जो बेटा पिता की आ शाओं पर खरा न उतरा, तो कहा जात है कि ऐसे 'फूल काँ जो महेस पै चढ़े।' गूलर में फूल नहीं आता (इस विश्वास की कहानी अलग है कि गूलर का फूल ठीक आधी रात पर खिलता है और उसे केवल वही देख सकता है, जिसने पूर्वजन्म में पुण्य किए हों) इसलिए असंभव बात के लिए 'गूलर का फूल' कहा जाता है। फूल शब्द से ही फूलवारी शब्द बनता है। फुलझड़ी, फुलसुंधनी, फुलेल आदि शब्द फूल के ही विकास हैं।

सूरज छिपने पर पचिम दि श् ाा में लाली छा जाती है, उसे 'दिना फूलना' कहते हैं। कहावत है-'दिन फूल्यौ गड़रिया ऊल्यौ।'

६. फल

वृक्ष का जीवन फल से धन्य बनता है। फल का अर्थ है परिणाम। गणित में भजनफल और गुणनफल और क्षेत्रफल बनते हैं। जीवन के पुरुषार्थ का नाम फल है, इसलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की गणना चार फलों में की जाती है। उद्देय की सिद्धि का नाम है फल और इसी से 'सफल' और 'निष्फल' की अवधारणाओं का विकास होता है। ज्योतिष की एक विद्या 'फलित ज्योतिष' है और ज्योतिषी 'भाग्यफल' बाँचता है। शुभकर्मों का शुभ फल होता है और यह फल पुनर्जन्म तक पहुँचता है। फलाहार, फली, फलादेा, फलश्रुति, फलीभूत फल से ही बने हैं। 'जो दिन जाय आनंद सों, जीवन कौ फल सोय।' शास्र के अनुसार जीवन का फल तत्त्वजिज्ञासा है।

'फल' संतान का भी वाचक है। 'खूब फलौ-फूलौ, दूधन न्हाऔ पूतन फलौ' ऐसे आाीर्वाद हैं, जो बड़ी-बूढ़ी उन बहुओं को देती हैं, जो उनके पैर लगती हैं।

जादों राय पूतन बड़ फलौ, बारे-बूढ़े फलियो बरुए की दूब

और बड़ों का आाीर्वाद और साधु-महात्मा के वचन फलते हैं।

स्री के गर्भ होने को भी 'फूल लगना' कहा जाता है। बेल पर प्रारंभ में जब फल लगता है तो उसके सिर पर फूल होता है। उसी बिंब के आधार पर सोहर के एक लोकगीत का बिंब है-

पहलौ महीना जब लागियौ वाकौ फूल गह्यौ फल लागियै।

७. फाँक

कई फलों में अंदर फाँकें होती हैं; जैसे-संतरा, मौसमी, खीरा। बाहर से खीर एक फल है, किंतु उसके अंदर फाँकों का विभाजन बिल्कुल स्पष्ट है। इसी प्रकार राजनैतिक दलों के अंदर अनेक गुट होते हैं, कालेजों-विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, संगठनों आदि में भी अलग-अलग गुट होते हैं। इस स्थिति को 'खीरा की-सी फाँक' कहा जाता है।

८. शाखा

एक वृक्ष की अनेक शाखाएँ होती हैं, इसी प्रकार एक संगठन का केंद्रीय कार्यालय होता है तथा फिर उसकी अनेक शाखाएँ (ब्रांच) होती हैं।

९. छाया

छाया करना वृक्ष का धर्म है। वृक्ष की छाया में पथिक को 'सीरक' प्राप्त होती है, विश्राम मिलता है। छाया में धूप और वर्षा से रक्षा होती है, इन्हीं लक्षणों के कारण छाया का अर्थ आश्रय या शरण है। छाया में पलना, खजूर की छाया, टेढ़े पेड़ की छाया टेढ़ी आदि छाया संबंधी मुहावरे हैं।

१०. दाना

अनाज या अन्न के कण को दाना कहते हैं। गुच्छे और फलियों में लगे बीजों को भी दाना कहते हैं। इसी लक्षण के आधार पर कोई भी गोल वस्तु जो डोरे या धागे में पिरोई गई हो, दाना कहलाती है। कण या रवा भी दाने ही हैं। माला का भी दाना है और मोती का भी दाना ही है। जब देह में चार दाने पड़ जाते हैं तब नयी स्फूर्ति मिल जाती है, पर जहाँ भोजन के लिए अन्न भी नसीब न होता है, तो उसे दान-दुरदुच्च कहा जाता है। 'दाना-पानी' का अर्थ भोग्य-भाग्य है, जहाँ दाना-पानी बदा होता है, आदमी को वहीं जाना पड़ता है। और जब दाना-पानी समाप्त हो जाता है तो फिर कहीं चल पड़ता है।

११. काँटा

बबूल, करील, बेर, हींस और गुलाब काँटेवाले वृक्ष और पौधे हैं। सेंहुड़ का काँटा, गोखरु का काँटा जैसे कितने ही काँटे होते हैं, जिनसे मार्ग कंटकाकीर्ण हो जाते हैं। ऐसे मार्गों पर चलने से भगवान राम के पैर में काँटे लग गए तो सीता ने श्रम का परिहार करने के लिए-'बैठ विलंब लौ कंटक काढ़े।' 'काँटा' शब्द सुनार के यहाँ आभूषण भी बन जाता है और 'काँटे की तोल' भी बन जाता है। 'काँटा' तराजू का एक प्रकार भी है तथा मछली पकड़ने का उपस्कर भी। काँटों का ताज, काँटों की सेज, काँटों से खेलना, काँटों में हाथ डालना, काँटे बिखेरना, मार्ग का काँटा, काँटा निकलना, काँटा बनना, काँटे की तरह कसकना, काँटों में घसीटना और काँटा बोना मुहावरे प्रचलित हैं-


लखियावन पर गए फाँटे मोकूँ ससुर बय गए काँटे।
जो तोकों काँटा बुबै ताहि बोय तू फूल।

शूल या 'सूर' का अर्थ भी काँटा है। शूल से त्रिाूल, दिाासूल, शूल (दर्द) तथा शूली शब्द बनते हैं।

१२. तिनका

तिनका कितना ही निस्सार हो, परंतु उसका बिंब बड़ा ही गहरा अर्थ देता है। नियति के हाथों में हमारा जीवन ऐसा है, जैसे आँधी की गति में तिनका व शीभूत होता है-'तिनका ज्यों बयार बस।' किसी की बात को सुना-अनसुना कर देने के लिए कहा जाता है-'मेरा कह्यौ पवन कौ भुस भयौ।' अत्यंत तुच्छ को 'तिनका' कहा जाता है। गेहूँ का दाना निकल जाने के बाद भुस रह जाता है। 'भुस में लट्ठ मारना' निर्थक श्रम का द्योतक है।

१३ गाँठ

ईख और बाँस के पर्व को गाँठ कहते हैं, शरीर के अंग का जोड़ (संधिस्थान) भी गाँठ कहलाता है। दो रस्सियों को गाँठ के द्वारा ही जोड़ा जाता है। कभी-कभी शारीरिक पीड़ा के कारण भी गाँठ पड़ जाती है। गाँठ शरीर में ही नहीं मन में भी पड़ जाती है। कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी होती है। अज्ञान और अविद्या की गाँठ खुलती है, तभी सत्य का प्रका दिखाई देता है। 'एक हल्दी की गाँठ से पंसारी की दुकान' मुहावरा प्रसिद्ध है। गाँठ जोड़ना, गाँठ खोलना भी मुहावरे हैं।

१४. सींक

मूँज आदि की पतली तीली, जिसमें फूल लगता है, सींक कहलाती है। सींक शब्द नाक के एक गहने के अर्थ में भी आता है। सींक पतली होती है, इसलिए पतले व्यक्ति को सींकिया या 'सींक सौ' कहा जाता है। नीम की सींक मुहावरा है। नीम की सींक लगाने का अर्थ है-दोष ढूँढ़ना। एक लोककथा है कि एक व्यक्ति को अच्छे से अच्छा भोजन कराया गया परंतु वह व्यक्ति दोषर्दाी था, उसने दोष निकाला कि जिस पत्तल में भोजन कराया गया, उसमें नीम की सींक थी, इसलिए भोजन में भी कड़वापन आ गया था।

१५. ठूँठ

ठूँठ नीरस और निष्क्रिय होता है। ठूँठ-सा खड़ा होना अच्छा नहीं लगता। ठूँठ का अर्थ मूर्ख भी है। उपाध्याय कहता है कि जो वेद पढ़कर भी उसके अर्थ को नहीं जानता, वह ठूँठ है।

स्थायणुरयं भारहार: किलाभूदधीत्य वेदं न जानति योऽर्थम्।
- कल्याण: ाक्तिअंक ५०१


१६. छूँछ

तिल का सार निकालने के बाद जो कुछ बचता है, वह निस्सार वस्तु छूँछ है। आम की गुठली चूसने के बाद 'टपका आम' में छूँछ बची रहती है, वह नीरस होती है, निस्सार होती है। इसलिए छूँछ शब्द का अर्थ है-निस्सार। कहावत है-'छूँछ किननें पूँछे।'

१७. फाँस

बाँस और सूखी लकड़ी के कड़े और सूखे रे शे को फाँस कहते हैं। कभी-कभी यह फाँस उँगली में लग जाती है तो दुखने लगती है पर पेट में फाँस पड़ जाय तो स्वजन-संबंधों में भी दरार आ जाती है।

१८. लता

तडिल्लता, भ्रूलता, बाहुलता और स्री को भी लता कहा जाता है। वाममार्गी तंत्रों में लता-साधना का उल्लेख है। योग में 'उन्मनी' को वेलि वल्लरी और लता कहा गया है। बेल का अर्थ देहयष्टि (देहलता) भी है-

लंबी बेल उमर की बारी।

१९. तिल

तिल का अर्थ भी तनिक होता है क्योंकि तिल स्वयं तनिक-सा होता है। तिल भर जगह नहीं है अर्थात् तनिक-सी भी जगह नहीं है। एक लोकगीत की पंक्ति है-'भैना तिल-तिल ढूँढी गुजरात सबरौ तो ढूँढौ मालवौ।' तनिक-सी बात का अत्यधिक विस्तार बड़ा देने के अर्थ में 'तिल का ताड़ बनाना' मुहावरा प्रचलित है। तिल काला होता है, तथा छोटा होता है, इसलिए शरीर पर जो छोटा सा नि शान होता है, उसे भी तिल कहते हैं। कहा जाता है कि तिल का तत्त्व एक बार शरीर में पहुँचने पर एक जन्म में नहीं निकलता, इसलिए ऐसे अहसान के लिए जिसका प्रतिकार जन्मभर न किया जा सके, कहा जाता है-'ऐसे तेरे कारे तिल चबाए हैं?' काले तिल अत्यंत पवित्र माने गए हैं, तिलों का प्रयोग हवन में भी होता है तथा पितृश्वरों को भी तिल से तर्पित किया जाता है। छुटकारा पाने के लिए 'तिलांजलि देना' मुहावरा प्रचलित है। 'तिनका की ओट पहाड़' भी कहा जाता है तथा 'तिल की ओट पहाड़' भी प्रचलित है। तिल या तिनका आँख के अत्यंत समीप हो तो फिर पहाड़ भी उसकी ओट में आ जाय, यह संभव है।

तिल से तेल निकलता है। तेल का अर्थ मूल में तिल का सार-तत्त्व ही था, किंतु जब तेल शब्द का अर्थविस्तार हुआ तो गोला का तेल, मिट्टी का तेल, सरसों का तेल, साँप का तेल, ओर ऊसरसाँड़े का तेल भी तेल ही कहलाता है। किसी से इतना परिश्रम कराना कि उसका तेल ही निकाल देना। इंतजार करने के लिए 'बालू से तेल निकालना' मुहावरा प्रचलित है। जिस पानी में 'तिलूला' अर्थात् तेल के-से बिंदु होते हैं, उसे तेलिया जल कहते हैं तथा आँक की पुतली के अंदर जो काला बिंदु है, उसे भी तिल कहा जाता है। तिल से तेल निकालने का व्यवसाय करनेवाली एक बिरादरी का नाम 'तेली' बन गया।


२०. वं

'खानदान' के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाल 'वं श' शब्द 'बाँस' की उत्पादकता को प्रकट करता है। बाँस जब एक बार लग जाता है तो फैलता चला जाता है। एक से अनेकता की ओर स्वत: ही चलने के कारण यही बाँस संतति-परंपरा (वं श) के अर्थ में रुढ़ हो गया है। इसी वं से आगे चलकर व श्ंाज्, श्ंावृक्ष और आनुवंशिक जैसे शब्द बनते हैं। लोकगीत जब व श्ंावृद्धि का आ शीर्वाद देता है, तब कहता है-

बाँस नइयाँ तुम बाढ़ौ मेरे लालन दुबिया जस फैलाउ।

इसी बाँस से बाँसुरी या व श्ंाी बनती है और उसी बाँस से लट्ठ या डंडा। यह डंड या दंड शब्द सजा और जुर्माने के लिए भी प्रयुक्त होता है तथा भुजदंड भी एक प्रयोग है। प्रणाम के अर्थ में 'दंडवत' शब्द का प्रयोग होता है। 'लठिया' को 'यष्टि' कहते हैं और कदकाठी को 'देहयष्टि'। डंड शब्द में 'डाँडी' बनती है और 'डंड-बैठक' एक व्यायाम है। प्रसन्नता में उछलने को 'बल्लियों उछलना' और 'बाँसों उछलना' कहते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बीज वृक्ष के बिंब हमारी भाषा और बोली में बहुत गहरे तक रसे-बसे हैं। वानस्पतिक शब्दों का प्रयोग जीवन के विविध संदर्भों में होता है तथा जीवन के प्रवाह में वे एक जगह से दूसरी जगह चलते जाते हैं। इसी को अर्थ-विस्तार की प्रक्रिया कहा जाता है। भाषा और बोली के ये बिंब भाषा और बोली के मूल "ाोत हैं। इनके अध्ययन से भाषा और बिंब का अंत:संबंध स्पष्ट होता है और हम कह सकते हैं कि भाषा के विकास में बिंबों की अनिवार्य भूमिका है और भाषा की रचना का आधार भी ये बिंब हैं।


संदर्भ

१. म. म. गोपीनाथ कविराज : तांत्रिक साधना और सिद्धांत
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना। पृ. २८७

२. देखें परिाष्टि १०

३. देखें परिाष्टि १.५

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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