धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

चिंतन-प्रणाली में धरती और बीज के बिम्ब


 

इसमें कोई संदेह नहीं कि चिंतन एक आंतरिक प्रक्रिया है परंतु यह भी सही है कि जिन बिम्बों की भाषा से यह प्रक्रिया चलती है, वे बिम्ब बाह्य परिवेा में प्राप्त होते हैं। मनुष्य जिस परिवे में रहता है, उसका बिम्ब उसके मन पर अंकित हो जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि मनुष्य बाह्य परिवेा को संवेदना शक्ति के द्वारा (पंच ज्ञानेन्द्रिय और मन के द्वारा : देखकर, सुनकर, सूँघकर, चखकर, छूकर तथा अनुभव करके) आंतरिक बना लेता है। इस प्रकार वह परिवे स्मृति के द्वारा मनुष्य की चेतना का अंग और अं बन जाता है।

जिस प्रकार जला शय के तट पर स्थित वृक्ष-आदि का बिम्ब जला शय में दृ श् यमान होकर जला शय का अंा बन जाता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने चारों ओर के संसार को जो चित्र मन में बनाता है, वह उसका आधारभूत ज्ञान या अनुभव होता है। आधारभूत इसलिए कि मनुष्य बज भी कोई नया अनुभव करेगा, तो वह पूर्व-अर्जित-अनुभव, उस नए अनुभव का माध्यम बनेगा। उदाहरण के लिए बालक ने गरम दूध पिया तो उसका मुँह और जीभ झुलस गए, यह उसका आधारभूत-अनुभव हुआ। इसके बाद कभी किसी दिन उसे मठा (छाछ) दी गयी, तो उसका दूध पीने का आधारभूत-अनुभव स्मृति के द्वारा सजीव हो गया। कहावत है कि 'दूध का जला छाछ को फूँक- फूँककर पीता है।' जब उसे दूध और छाछ का अंतर ज्ञात हो गया तो यह उसका नया ज्ञान हुआ। इस प्रकार पूर्वार्जित बिम्ब आगे के चिंतन और ज्ञान का माध्यम बन जाता है।

(अ) बिम्ब : ज्ञान के विस्तार का माध्यम

बिम्बों के द्वारा के विस्तार की प्रक्रिया का एक उदाहरण 'पहेलियाँ' हैं। बच्चों को जो पहेलियाँ सुनाई जाती हैं, उनके बिम्ब बच्चों के मन पर पहले से अंकित होते हैं। उन पूर्व अर्जित बिम्बों के द्वारा नए ज्ञान को बूझने की प्रक्रिया में पहेलियाँ बच्चों के चिंतन को झकझोरती हैं। उदाहरण के लिए दो पहेलियाँ हैं-

              १.
एक थाल में सरसों गिनी न जाए

              २.
ऊँचौ सौ पहाड़ जापै फूलन की बहार
माली तोड़ न सकै माली जोड़ न सकै।

'एक थाल में अनगिनत सरसों' और 'ऊँचे पहाड़ पर फूलों की वह बहार जहाँ माली की पहुँच नहीं है' यो दोनों बिम्ब आका के सितारों का एक नया चित्र उभार देते हैं।

(आ) ज्ञात से अज्ञात की व्याख्या

मनुष्य प्राकृतिक परिवे का एक बिम्ब ग्रहण करता है तथा उस बिम्ब से फिर प्राकृतिक परिवे के दूसरे बिम्ब को समझता और अभिव्यक्त करता है। इसे हम ज्ञात से अज्ञात की व्याख्या भी कह सकते हैं। जैसे आका में सितारों की पहचान के लिए राशियों के जो बिम्ब परिकल्पित किए गए, वे सब (मेष, वृष, कर्क, सिंह, वृचिक, मकर, मीन) प्राणी धरती के हैं।

आका में सप्तर्षि के सात तारों के पास 'त्रि शुंक' के तीन तारे होते हैं। किसान ने उन्हें एक कथा के माध्यम से यों समझा कि "सात गायें खेत में चुग रही थीं, जब बे खेत में अधिक नुकसान करने लगीं तो भगवान ने तीन गाँठ का पैना (बैलों को हाँकने के उपस्कर) फेंककर मारा। वही तीन गाँठ का पैना आका में त्रि शंकु के रुप में मौजूद है।"-१ इसी प्रकार कालचक्र से बेंधे हुए सितारों को आका में जनपदीयजन ने उसी प्रकार घूमता देखा, जिस प्रकार उसके खेत में 'दाँय' चलती है, तब गेहूँ की लाँक (ढेरी) पर बैल मंडल बाँधकर घूमते हैं।-२ उसके लिए आका में सूरज-चंदा यदि ऐसे लगें, जैसे उसके खेत में मिट्टी के दो ढेले,-३ तो यह अस्वाभाविक नहीं है।

(इ) अपढारी चकिया : प्रकृति की प्रक्रिया

चिंतन की प्रक्रिया में बिम्ब किस प्रकार अपनी भूमिका निभाते हैं, इसका एक उदाहरण 'अपढारी चकिया' है। जनपदीयजन गाँव में चाकी चलानेवाली 'पिसनहारी' को नित्य प्रति देखता है और यह भी देखता है कि चाकी के दो पाट होते हैं, एक नीचेवाला और एक ऊपरवाला। यह उसका आधारभूत बिम्ब है। अब किसी दिन किसी क्षण वह विश्व के रहस्य के संबंध में सोच रहा था। तब उसके मन में 'पिसनहारी' और चाकी का बिम्ब उभरा। इस पूर्व बिम्ब के माध्यम से उसने प्रकृति के व्यापार को देखा और समझा-

निरगुन चकिया चलै अपढारी।
एक पाट धरती चलै दूजौ चलै अकास।
पीसनहारी याम सुंदरी पीसै दिन और रात।

अर्थात् प्रकृति की अपढारी (अपने-आप चलनेवाली) चाकी चल रही है। इस चाकी का एक पाट आकाा और दूसरा पाट धरती है। चाकी घूम रही है, दिन और रात भी घूम रहे हैं।


(ई) भवसागर

इसी प्रकार का एक और उदाहरण 'भवसागर' है। समुद्र के परिवेा में रहनेवाले मनुष्य ने अनुभव किया कि समुद्र दुर्लंघ्य है, समुद्र अथाह है, समुद्र दुर्गम है, उसमें ज्वार-भाटे आते हैं। समुद्र को देख-समझकर मनुष्य के मन पर समुद्र की दुर्गमता और दुर्लंघ्यता का जो बिम्ब बना, उसके आधार पर जब उसने सांसारिक प्रपंचों और जीवन की जटिलता को देखा तो उसने 'भवाटवी' की अवधारणा रची थी। जिस प्रकार समुद्र के झंझावात में फँसी नाव में बैठे हुए व्यक्ति को उस आपदा में 'दिव्याक्ति' और उसके प्रति 'विश्वास' में ही आाा की एक मात्र किरण दीखती है, उसी प्रकार भवसागर से पार होने के लिए तथा नाव को किनारे लगाने के लिए वह ईश्वर का स्मरण करता है। कितने ही लोकगीतों और भजनों में भगवान को 'खेवनहार' और नैया पार लगानेवाले के रुप में स्मरण किया गया है। गीता में भी श्रीकृष्ण मृत्यु-संसार सागर के उद्धार की बात कहते हैं-

तेषामहं समुद्धतां मृत्युसंसारसागरात्।-४

(उ) आधारभूत बिम्ब

प्रत्येक संस्कृति की चिंतन-प्रणाली में कुछ आधारभूत बिम्ब होते हैं और ये बिम्ब उस देा तथा जनपद के परिवे से संबंधित होते हैं। प्यास से आकुल-व्याकुल मृग को रेगिस्तान में कड़ी धूप के कारण जल की लहरों का आभास होता है और इस आभास के कारण मृग उन जल-लहरों के पास पहुँचने के लिए दौड़ता है। जल की लहरें उत्तरोत्तर दूर दिखाई पड़ती हैं तथा जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, मृग वैसे-वैसे दौड़ता चला जाता है और अंत में थक जाता है। सांसारिक इच्छाओं को लोकमानस ने 'मृगमरीचिका' के उक्त बिम्ब के माध्यम से जाना-समझा है। मृगमरीचिका का यह बिम्ब शास्र और लोक दोनों में समान रुप से ग्रहण किया गया है। ब्रह्माण्ड तथा पिंडांड का अंड से और एक महीने के दो पक्ष (कृष्ण-पक्ष और शुक्ल-पक्ष) पक्षी के पंखों से जुड़े हुए बिम्ब हैं। इसी प्रकार हंस गति, गजगति, पिपीलिका मार्ग, शुकमार्ग, नीरक्षीर विवेक, कच्छप गति, विहंगावलोकन, सिंहावलोकन, मंडूकप्लुति, अस्वगति, चौकड़ी, दुलत्ती आदि हजारों-हजारों बिम्ब परिवे से प्राप्त हुए हैं। दधिमंथन के आधार पर पुराण-प्रसिद्ध समुद्रमंथन-५ तथा गोदोहन के आधार पर पृथ्वीदोहन-६ तथा क्षीरसागर-७ के बिम्ब बने हैं। मनुष्य के चिंतन में इन बिम्बों की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण होती है, इसका एक उदाहरण पहिता या चक्र है। चक्र के इस एक बिम्ब से ॠतुचक्र, भाग्यचक्र, जीवनचक्र, कालचक्र, ब्रह्माण्डचक्र, इतिहासचक्र आदि के रुप में जीवन और प्रकृति की गतियों की कितनी व्यापक व्याख्या की गयी है, यह एक स्वतंत्र अनुसंधान का विषय है। परिवे से प्राप्त ये आधारभूत बिम्ब आगे के चिंतन का माध्यम और मार्ग बनते हैं। धरती और बीज के बिम्ब भी इन्हीं 'आधारभूत बिम्बों' में से हैं।

(ऊ) चिंतन-प्रणाली में धरती और बीज के बिम्ब : वर्गीकरण

धरती और बीज संबंधी बिम्ब वैदिक साहित्य से लेकर लोकसाहित्य तक भारतीय चिंतन-प्रणाली में बहुत गहरे तक रसे-बसे हैं। चिंतन-प्रणाली में धरती-बीज संबंधी इन बिम्बों का वर्गीकरण निम्नलिखित रुप में किया जा सकता है (रेखाचित्र-११)।

(क) प्रकृति संबंधी चिंतन
(ख) जीवन संबंधी चिंतन

(क) प्रकृति संबंधी चिंतन

जिज्ञासा मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है और भोजन करने के बाद उसकी दूसरी समस्या अपने परिवे को समझना ही है। वह अनादि काल से सूरज, चंदा, आका श, तारे, बादल, हवा, नदी, समुद्र, पहाड़, वृक्ष-वनस्पति तथा प शु-पक्षी को देखता रहा है और उनके संबंध में सोचता रहा है। यह प्रकृति क्या है? इसका कारण क्या है? इसका कर्त्ता कौन है? सूरज क्यों उगता है? क्यों अस्त हो जाता है? कहाँ से आता है और कहाँ चला जाता है?- ये प्रन मानव-चिंतन के मौलिक प्रन हैं।

धरती-बीज और प्रकृति संबंधी अध्याय में हमने देखा था कि धरती-बीज की प्रक्रिया एकांत प्रक्रिया नहीं है, वह सम्पूर्ण प्रक्रिया से उसी प्रकार अविच्छिन्न है, जिस प्रकार कि जला शय में एक लहर दूसरी लहर से अविच्छिन्न है। वहाँ हम देख चुके हैं कि बीज की जीवनयात्रा अंकुरण से प्रारंभ होकर पुन: नए बीज बनने के साथ पूरी होती है और इस जीवनयात्रा में धरती, पानी, हवा, रो शनी, ऊष्मा तथा ॠतुओं का प्रभाव निर्णायक होता है। प्रकृति के इस प्रभाव को भारत के मुनिमानस और लोकमानस दोनों ने देखा है और पंचमाहभूतों की प्रक्रिया के रुप में उसकी पहचान की है।-८ लोककथा और पुराकथाओं में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनमें प्रन उठा है कि पंचमहाभूतों में सबसे शक्तिााली कौन है? पहले आका है कि पहले धरती, पहले हवा है कि पहले पानी, पहले चंदा है कि पहले सूरज? फिर सूरज अपनी चमक से चमकता है कि इसके पीछे किसी 'और' की सत्ता है?

तर्काास्रियों ने, वृक्ष पहले हुआ था या बीज पहले हुआ, इस प्रन को लेकर बहुत लंबी बहस की है, जिसे 'बीजंकुर न्याय' कहा जाता है। यही प्र श् न अपने ढ़ग से कबीर ने उठाया-

 

प्रथम गगन कि पुहुमी प्रथमे प्रथमे पवन कि पाणी।
प्रथम चंद कि सूर प्रथम प्रभु प्रथमे कौन विनाणी।
प्रथमे दिवन कि रैणि प्रथमे प्रथमे बीज कि खेतम्
कहै कबीर जहाँ बसहु निरंजन तहाँ कछु आहि कि
शून्यम्।-९

अहम् और इदम् का प्र श्

सच बात तो यह है कि प्रकति संबंधी प्र श् न मनुष्य के अपने ही जीवन का प्रन है क्योंकि विश्व का उदगम् तथा जीवन का उद्गम एक ही है। लोकमानस ने हमे शा अपने अनुभवों के माध्यम से प्रकृति के संबंध में सोचा है तथा प्रकृति संबंधी ज्ञान के माध्यम से अपने जीवन की व्याख्या की है। विश्व से कारण की खोज मनुष्य-जीवन के अपने ही कारण की खोज है। इस कारण-तत्त्व की खोज के आधार पर द श् ानाास्र और आगे चलकर विज्ञान का विकास हुआ और आगे भी होगा।

कोई भी चिंतन शून्य में नहीं होता, परिवे में होता है तथा उन बिम्बों के माध्यम से होता है, जो हमें अपने परिवे से प्राप्त होते हैं, इसलिए प्रत्येक चिंतन में परिवे तत्त्व व्याप्त होता है। परिवे चिंतन को प्रभावित करता है तथा चिंतन परिवे की रचना करता है, जीवन में यह परस्पर प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। यदि हम चिंतन-प्रणाली के इतिहास का अध्ययन करें तो हम देखेंगे कि जैसे-जैसे हम अतीत की चिंतन-प्रणाली की गहराइयों में जाएँगे, प्राकृतिक परिवे के बिम्ब हमें उतने ही प्रत्यक्ष होंगे। वे अवधारणाएँ आज के जीवन में इतनी भिन्न-भिन्न दि श् ााओं में प्रचलित हैं कि उन्हें प्रयासपूर्वक ही पहचाना जा सकता है, उदाहरण के लिए 'मौलिक' शब्द है। अधिकार भी मौलिक होते हैं, चिंतन भी मौलिक होता है और सृजन भी मौलिक होता है, न्यायालय में भी न्यायाधी मूल-अपराधी की पहचान करता है तथा रोग विज्ञानी रोग के मूल की खोज करता है। अब यहाँ ध्यान देने की बात है कि 'मूल' शब्द वानस्पतिक है। मूल शब्द धरती और बीज की चिंतन-प्रणाली से आया है। जिस प्रकार नदी में बाढ़ आती है और बालू की एक नयी परत बिछा जाती है, पुन: दूसरी बाढ़ आती है और पुरानी परत के ऊपर फिर एक नयी परत बिछा जाती है, उसी प्रकार हमारी चिंतनधारा के नीचे अतीत के चिन्तन की अवधारणाएँ विद्यमान रहती हैं। इसी प्रकार के धरती-बीज संबंधी बिम्ब हमारी चिंतन-प्रणाली में बिखरे हुए हैं। प्रकृति-संबंधी चिंतन में धरती-बीज के बिम्बों को पुन: दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

 

१. सृष्टिविद्या (विश्व की उत्पत्ति संबंधी प्रन)
२. विश्वविद्या प्रकृति की समग्र व्याख्या)

१. सृष्टिविद्या

विश्व की उत्पत्ति के संबंध में मनुष्य तब से ही सोचता रहा है, जब से उसका जन्म हुआ। पुराकथा और लोककथाओं के साथ ही दा र्शनिकों और संतों ने उत्पत्ति की इस पहेली को अनेक प्रकार से बूझा है और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उत्पत्ति के प्र श् न की चर्चा जब और जहाँ भी हुई है, बीज का बिम्ब वहाँ उपस्थित हुआ है, क्योंकि धरती पर बीज का गिरना, उसका अंकुरित होना तथा निरंतर बझडते हुए उसका वृक्ष बन जाना लोकमानस के लिए सृष्टि का एक रहस्य है।

विश्व-उत्पत्ति संबंधी चिंतन में धरती-बीज के बिम्बों को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-

१.१. मिथक
१.२. कारण तत्त्व की पहचान
१.३. परम कारण की खोज

१.१. मिथक

वेदों, उपनिषदों तथा पुराणों में विश्व-उत्पत्ति के दो प्रकार के मिथक हैं-

 

१.१.१. वानस्पतिक मिथक
१.१.२. जैविक मिथक

१.१.१. वानस्पतिक मिथक : सृष्टिकमल विश्व उत्पत्ति का वानस्पतिक मिथक है।
उल्लेखनीय है कि कमल जलीय वनस्पति है और जलीय वनस्पति सर्व प्राचीन वनस्पति है। सृष्टिकमल के मिथक के साथ यह कथा जुड़ी है कि सम्पूर्ण विश्व की रचना ब्रह्मा ने की तथा स्वयं ब्रह्मा की उत्पत्ति कमल से हुई। उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा ने स्वयं कमल के मूल कारण को खोजा।-१० वास्तव में ब्रह्मा के मन में उठनेवाला मूल कारण संबंधी प्रन मानव-मन का सनातन प्रन है।

सृष्टिकमल : सनक आदि ॠषियों ने जब संकर्षण के समक्ष ब्रह्मतत्त्व की जिज्ञासा की, तब संकर्षण ने सनकादि को भागवत-कथा सुनायी और बताया कि "सृष्टि के पूर्व सम्पूर्ण विश्व जल में निमग्न था। श्रीनारायण शेष- शैया पर पौढ़े हुए थे। जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका शक्ति को छिपाकर काष्ठ में व्याप्त रहती है, उसी प्रकार अग्नि अपनी दाहिका शक्ति को छिपाकर काष्ठ में व्याप्त रहती है, उसी प्रकार नारायण ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन कर लिया था। जब उनकी काल शक्ति ने उन्हें जीवों के कर्मों की प्रवृत्ति के लिए प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनंत लोक देखे। जिस समय भगवान की दृष्टि अपने में निहित 'लिंग' शरीरादि सूक्ष्म तत्त्व पर पड़ी तब वह कालाश्रति रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टि-रचना के निमित्त वट के बीज से विााल वृक्ष के समान ब्रह्माणड-कमल उनके नाभिदेा से बाहर निकला। वह सूक्ष्म तत्त्व कमल को के रुप सहसा ऊपर उठा और उसमें से ब्रह्माजी प्रकट हुए। वे सोचने लगे-'इस कमल की 'कर्णिका' पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया?' ऐसा सोचकर वे उस कमल की नाल के सूक्ष्म छिद्रों में होकर जल में घुसे। किंतु उस नाल में खोजते-खोजते नाभिदेा के समीप पहुँचकर भी वे उसे प्राप्त नहीं कर सके किंतु योगसाधना के द्वारा उन्होंने अपने अंत:करण में ही उस प्रका को देखा।"-११

१.१.२. जैविक मिथक : वेद, उपनिषद और पुराणों में 'हिरण्यगर्भ' के रुप में सृष्टि के जैविक मिथक की व्यापक चर्चा है।

अंडा, ब्रह्मांड : हिरण्यगर्भ : श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि सृष्टि के प्रारंभ में सर्वत्र अंधकार था। उस समय पानी में एक अं उत्पन्न हुआ और उस अं से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ, उस ब्रह्मा से सारा जगत् उत्पन्न हुआ। जिस अण् से विराट की उत्पत्ति हुई, उसका नाम 'विोष' है।-१२

सर्वप्रथम उत्पन्न होनेवाले इस अंड को ॠग्वेद में 'हिरण्यगर्भ' कहा गया है-

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
१०.१२.१

महाभारत का कथन हे कि परमात्मा ने सर्वप्रथम प्राणियों के जीवन-निर्वाह के लिए नाना प्रकार के अन्न की सृष्टि की। तदनंतर जो सुवर्णमय अंड प्रकट हुआ, उससे ब्रह्मा ने अंड के दोनों टुकड़ों से स्वर्ग तथा भूतल के मध्य में आकाा की सृष्टि की।-१३ इस अंड के मृत हो जाने के पचात् उत्पन्न होने के कारण सूर्य का नाम मार्तण्ड है।-१४

इस अंड के बिम्ब से ही तंत्र में अनेक अवधारणाओं का विकास हुआ; जैसे - पिंडांड, ब्रह्मांड, विष्वंड, प्रकृत्यंड, मायांड,
शक्तयंड आदि। तंत्र शास्र का सिद्धांत है-'यर्जिंत्प तद् ब्रह्मांडे' अर्थात् जो पिंड में है, वही ब्रह्माण्ड में है।

१.२. कारण तत्त्व की पहचान

विश्व-उत्पत्ति संबंधी चिंतन में कारण तत्त्व की पहचान पुन: वानस्पतिक तथा जैविक दो रुपों में की गयी है। इसी के साथ यह पहचान भी की गयी है कि उत्पत्ति की वानस्पतिक प्रक्रिया तथा जैविक प्रक्रिया एक जैसी ही हैं। इसलिए उत्पत्ति के वानस्पतिक कारण तत्त्व की व्याख्या में जैविक कारणों के बिम्ब तथा जैविक कारण तत्त्व की व्याख्या में वानस्पतिक कारणों के बिम्ब लिए गए हैं। यद्यपि खेत और किसान अथवा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बिम्ब को वानस्पतिक बिम्ब वर्ग के अंतर्गत रखा जाता है, परंतु इसमें जैविक तथा वानस्पतिक दोनों बिम्बों का समावेा है। अंतत: वनस्पति भी जीव ही है, भले हि वह स्थावर हो। इसलिए अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से जैविक कारण तत्त्व के अंतर्गत हम वीर्य, लिंग और योनि को तथा वानस्पतिक कारण तत्त्व के अंतर्गत क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और बीज को समाविष्ट कर सकते हैं।

 

१.२.१. जैविक कारण तत्त्व : जैविक कारण तत्त्व की पहचान शरीर संदर्भ में भी की गयी है तथा सृष्टि संदर्भ में भी।

१.२.१.१. वीर्य : बीज : शरीर-संदर्भ में : शरीर-संदर्भ में भी बीज का वैसी ही बिम्ब है, जैसा सम्पूर्ण सृष्टि में। पुरुष के वीर्य से जीवों की उत्पत्ति होती है-

तस्माद् तदात्मकाद् रागाद् बीजाद् जायंति जंतव:।
- म. भा. ाांति. २१३/१०

अथवा

भायार्ं पति सम्प्रविय स यस्माज्जायते पुन:।
जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणा कवयो विदु:।
- म. भा. आदि ७४

अर्थात् पति बीज रुप से अपनी स्री में प्रविष्ट होकर पुन: पुत्र रुप में जनमता है, इस तरह पति को पुत्र रुप से उत्पन्न करने के कारण पत्नी को जाया का नाम सार्थक होता है। बृहत्संहिता (सौबाग्यकरणाध्याय १२) में बीज-वृक्ष के बिम्ब के साथ पुत्र-उत्पत्ति की प्रक्रिया का विवेचन करते हुए कहा गया है कि 'जिस वृक्ष का कलम या बीज भूमि में बोया जाता है, वही वृक्ष उत्पन्न होता है, दूसरा नहीं। इस तरह आधारभूत स्री में फिर पुत्र रुप से आत्मा की ही उत्पत्ति होती है, केवल क्षेत्र का योग वि शेष है।' यही बात दूसरे शब्दों में भागवत में कही गयी है कि 'जैसे एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही पिता की देह द्वारा माता की देह से पुत्र की देह उत्पन्न होती है।' वीर्य से प्रकट होनेवाली चेतना को वट-बीज के बिम्ब द्वारा समझाते हुए महाभारत (ाांति २१८.२९) ने कहा-

रेतो वट कणीकायां घृतपाकाधिवासनम्।
जाति: स्मृतिरयस्कांत: सूर्यकांतोऽम्बु भक्षणम्।

अर्थात् जैसे वटवृक्ष के बीज में पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा त्वचा छिपे होते हैं उसी प्रकार वीर्य से शरीर आदि के साथ चेतनता भी प्रकट होती है।

लोकजीवन में वीर्य को बीज और वं कहा जात है और इस प्रकार के प्रयोग प्रचलित हैं-'मिट गयौ बीज व श्ंा' अथवा 'अभिमन्यु ने उत्तरा के गर्भ में पुरुवंा का बीज स्थापित किया।'

१.२.१.२. वीर्य : बीज : सृष्टि-संदर्भ में : नासदीय सूक्त का वचन है कि-'कामस्तदग्र समवर्ततांधि मनसो रेत: प्रथमं मदासीत्' अर्थात् उस ब्रह्मा के मन का जो रेत (वीर्य) प्रथमत: निकला, वही आरंभ में काम अर्थात् सृष्टि-निर्माण की शक्ति हुआ।-१५

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण 'गर्भस्थापन' के ही बिम्ब से सृष्टि की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मेरी प्रकृति ही मेरे लिए गर्भस्थापन का क्षेत्र है, उसमें में गर्भ-स्थापन करता हूँ, उससे ही सब भूतों की उत्पत्ति होती है-

ममयोनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गमर्ं दधाम्यहम।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत। (१४/३)
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवंति या:
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता। (१४/४)

१.२.१.३. सृष्टि-संदर्भ : लिंग : सृष्टि विद्या के विवेचन प्रसंग में रेत और गर्भस्थापन के बिम्ब के साथ ही सृष्टि के प्रतीक के रुप में लिंग की महिमा का विस्तार अनेक पुराण-कथाओं में विद्यमान है। लिंग-पुराण में तो तत्संबंधी अनेक प्रसंग हैं ही, स्कंद पुराण में ब्रह्मा और नारायण शिवलिंग के आदि और अंत का अनुसंधान करते हैं किंतु उसके आदि-अंत को नहीं देख पाते। लिंग की यह अज्ञेय महिमा वास्तव में सृष्टि विद्या के प्र श् न की ही अभिव्यक्ति है।

१.२.२. वानस्पतिक कारण तत्त्व : वनस्पति के कारण तत्त्व को खेत, किसान और बीज के रुप में जाना गया है।

१.२.२.१. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ : सृष्टि विद्या के प्रसंग में एक और महत्त्वपूर्ण बिम्ब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का है। गीता का तेरहवाँ अध्याय 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग योग' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्रकृति को क्षेत्र तथा पुरुष को क्षेत्रज्ञ (किसान) कहा गया है। प्रकृति और पुरुष अथवा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही सचराचर की उत्पत्ति होती है-
यावत्संजायते किंचित्सत्वं स्थावर जंगमम्।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ संयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ १३/२६

अर्थात् स्थिर रहनेवाले वृक्ष, लता, दूब, गुल्म, त्वक्सार, बेंत, बाँस आदि जितने स्थावर प्राणी हैं और चलने-फिरनेवाले मनुष्य, प शु-पक्षी, कीट, पतंग, मछली, साँप आदि थलचर, जलचर, नभचर जितने जंगल प्राणी हैं, वे सबके सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही पैदा होते हैं।

१.२.२.२. बीज : (अ) वट-बीज की अणिमा : छांदोग्य-उपनिषद् में जब आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को तत्त्व का उपदेा करने लगे, तो बोले-'इस सामनेवाले वटवृक्ष से एक बड़ का फल ले आ।' जब श्वेतकेतु बड़ का फल ले आया, तब बोले-'इस फोड़।' जब श्वेतकेतु ने बड़ के फल को फोड़ दिया, तब बोले-'इसमें क्या देखता है?' श्वेतकेतु ने कहा, 'भगवन्, इसमें ये अणु के समान दाने हैं।' आरुणि के पुन: उन दानों में से एक दाने को फोड़ने को कहा और फिर पूछा कि 'इसमें क्या देखते हो?' श्वेतकेतु ने कहा-'कुछ नहीं।' तब आरुणि ने समझाया कि-'हे सौम्य, इस वट-बीज की जिस अणिमा को तू नहीं देखता, उस अणिमा का ही यह इतना बड़ा वटवृक्ष है। यह जो अणिमा है, एतद्रूप ही यह सब है। वह सत्य है, वह आत्मा है और श्वेतकेतु वह तू है।-१६

(आ) सृष्टि बीज : 'योगवासिष्ठ' में महर्षि वसिष्ठ कहते हैं कि 'ब्रह्म रुप से स्थित हुए मैंने जब समाहित चित्त होकर देखा तो अपने शरीर के भीतर ही मुझे सृष्टि रुपी वृक्ष एक अंकुर के रुप में स्थित दिखाई दिया। जैसे देहरी के भीतर रखा हुआ बीज वर्षा के जल से भीग जाने पर अंकुरित हो जाता है, उसी प्रकार सृष्टिबीज अंकुरित हुआ।-१७

(इ) सिसृक्षा बीज : उपनिषदों में अपने को रचने की सोई हुई इच्छा ही सृष्टि का बीज है। सामान्यतया प्रत्येक बीज में एक से अनेक होने का संकल्प है और यही सृष्टि रचना का सत्य है-

बहुस्यां प्रजायेय (छांदोग्य ६.२.३ तथा तैत्तिरीय २.३)

(ई) प्रकृति बीज : 'श्वेताश्वर उपनिषद्' में प्रकृति को सृष्टि का बीज कहा गया है-'एकं बीजं बहुधा य: करोति (६.१२)' अर्थात् परमेश्वर एक ही प्रकृति रुप बीज को बहुत प्रकार से रचना करके विचित्र जगत् को बनाते हैं।

(उ) आत्मा बीज : महाभारत में देहधारी प्राणियों का बीज अव्यक्त आत्मा को बताया गया है। यह बीज भूत आत्मा ही गुणों के संग के कारण 'जीव' कहलाता है-

तद्बीजं देहिनामाहुस्तद् बीजं जीव संज्ञितम्।
- म.भा. ाांतिपर्व २१३.३

(ऊ) कर्म बीज : महाभारत में प्राणियों की उत्पत्ति का बीज कर्म है और वह कर्म ही इंद्रियों की उत्पत्ति का भी कारण है-

कर्णणा बीज भूतेन चोद्यते यद् यदिन्द्रियम्।
जायते तदहंकाराद् रागययुक्तेन चेतसा।
-म. भा. ाांति २१३.१५

अर्थात् बीजभूत कर्म से जिस-जिस इंद्रिय को उत्पत्ति के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है, राग युक्त चित्त से वही-वही इंद्रिय प्रकट हो जाती है।

गुण-कर्म का बीज ही वह कारण है जिसका परिणाम आत्मा और प्रकृति में विविधता के रुप में अभिव्यक्त होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि एक ही जल नीम में कडुंआ और आम में मीठा बन जाता है-

भूमि संस्थान योगेन वस्तु संस्थान योगत:।
रसभेदा यथा तोये प्रकृत्यामात्मनस्तथा।
-
शांति २२०

(ए) वासना बीज : जन्म-मरण : सांसारिक प्रपंच के बीज पर विचार करते हुए संतों ने तृष्णा, अहंकार, मोह, अज्ञान और वासना का उल्लेख किया है। संत पलटू साहब का कथन है कि-
बीज वासना कौ जरै तब छूटे संसार।

जला हुआ बीज नहीं उग सकता इसलिए अहंकार और वासना का बीज जब तक जलेगा नहीं, तब तक जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहता है।

फसल काटने के बाद खर-पतवार के बीज खेत में रह जाते हैं। किसान उन्हें जला देता है, क्योंकि यदि उन्हें जलाया न जाए तो वे बीज भविष्य में धूप, वर्षा और हवा की अनुकूलता पाकर पुन: झाड़, झंखाड़, लता और तृण आदि के रुप में उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार मन में कामनाओं और इच्छाओं के बीज छिपे रहते हैं। ये ही बीज 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्' रुप भव चक्र के कारण होते हैं। संत पलटू इन्हीं बीजों को जलाने की बात कहते हैं।

(ऐ) बीज : अव्यक्त तत्त्व की खोज : बीज और वृक्ष के संबंध की पहचान कारण और कार्य के संबंध की पहचान तो है ही, इसी के साथ वह एक से अनेक

(ए) वासना बीज : जन्म-मरण : सांसारिक प्रपंच के बीज पर विचार करते हुए संतों ने तृष्णा, अहंकार, मोह, अज्ञान और वासना का उल्लेख किया है। संत पलटू साहब का कथन है कि-
बीज वासना कौ जरै तब छूटे संसार।

जला हुआ बीज नहीं उग सकता इसलिए अहंकार और वासना का बीज जब तक जलेगा नहीं, तब तक जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहता है।

फसल काटने के बाद खर-पतवार के बीज खेत में रह जाते हैं। किसान उन्हें जला देता है, क्योंकि यदि उन्हें जलाया न जाए तो वे बीज भविष्य में धूप, वर्षा और हवा की अनुकूलता पाकर पुन: झाड़, झंखाड़, लता और तृण आदि के रुप में उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार मन में कामनाओं और इच्छाओं के बीज छिपे रहते हैं। ये ही बीज 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे ायनम्' रुप भव चक्र के कारण होते हैं। संत पलटू इन्हीं बीजों को जलाने की बात कहते हैं।

(ऐ) बीज : अव्यक्त तत्त्व की खोज : बीज और वृक्ष के संबंध की पहचान कारण और कार्य के संबंध की पहचान तो है ही, इसी के साथ वह एक से अनेक अदृय, अव्यक्त से व्यक्त, सूक्ष्म से विराट, निराकार से साकार और निर्गुण से सगुण के संबंध की भी पहचान है। बीज में वृक्ष की संभावना अव्यक्त से व्यक्त की गति की संभावना अव्यक्त से व्यक्त की गति की संभावना है-

यथाश्वत्थ कणीकायामन्तर्भूतो महाद्रुम:।
निष्पन्नो दृयते व्यक्तमव्यक्तात् संभवस्तथा।
-म.भा.
शांति २११.२

अर्थात् जैसे पीपल के छोटे से बीज में एक वि शाल वृक्ष अव्यक्त रुप से समाया हुआ है, उसी प्रकार अव्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति होती है।

वृक्ष के स्कंध, शाखा, प्र शाखा, पत्र, पुष्प, फल स्पष्ट दिखाई देते हैं पर बीज में वे दिखाई नहीं देते किंतु सूक्ष्म रुप में विद्यमान रहते हैं। यही सूक्ष्म से विराट और विराट से सूक्ष्म की गति है। बीज से वि शाल वृक्ष बनता है और फिर वृक्ष की वि शालता सूक्ष्म रुप में बीज में समाहित हो जाती है, पुन: वृक्ष बनने के लिए। इस प्रकार भारतीय द श् ान में अव्यक्त तत्त्व की खोज का आधार बीज का बिम्ब है और अव्यक्त के प्रतिपादन में वटवृक्ष और उसके बीज का उदाहरण बार-बार दिया गया है। यह कहना असंगत नहीं है कि भारत का तत्त्व-चिंतन बीज-वृक्ष के बिम्ब को अपने साथ लेकर आगे बढ़ा है।

(ओ) बीज और वृक्ष : निद्रा और जागरण : प्रलय और सृष्टि : सृष्टि और प्रलय एक ही 'परम कारण' की दो स्थितियाँ हैं। बीज को सोया हुआ वृक्ष कहा जा सकता है तथा वृक्ष को जागा हुआ बीज। बीज अंकुरित पल्लवित, पुष्पित और फलित होकर अंत में फिर अपने को बीज-रुप में समाविष्ट कर देता है, इस प्रकार सिकुड़ करके वही बीज बन जाता है और फैलकर वही वृक्ष बन जाता है। एक अवस्था में सम्पूर्ण सृष्टि बीज में लीन हो जाती है और दूसरी अवस्था में वह अपना ही सृजन करती है, पहली अवस्था निद्रावस्था है और दूसरी अवस्था जागरण की अवस्था है। इसलिए प्रलय को निद्रा कहा गया है-योगनिद्रा और सृष्टि जागरण की स्थिति है। निद्रा की अवस्था में सम्पूर्ण शक्तियाँ 'मूलचेतना' में समा जाती हैं, इसलिए 'तत्त्वसन्दोह' में कहा गया है-


सचराचर जगतो बीजं निखिलस्य निज निलीनस्य।
-त. स. २

निद्रावस्था में सृष्टि का सम्पूर्ण प्रसार सचराचर जगत् के उसी बीज में लीन हो जाता है। बीज में वृक्ष होना आविर्भाव है और वृक्ष का बीज में सिमट जाना तिरोभाव है।

(औ) पाँच द शा : बीज और वृक्ष का बिम्ब जहाँ विश्व की (सृष्टि और प्रलय) दो अवस्थाओं को अभिव्यक्त करता है, वहीं सृष्टि की भी पाँच अवस्थाएँ इसी बिम्ब के माध्यम से स्पष्ट हो जाती है। उत्पन्न होना, बढ़ना, स्थिर रहना, घटना (क्षीण होना) और नष्ट हो जाना (आत्यंतिक ना नहीं, रुप परिवर्तन) दूसरे शब्दों में अंकुरित होना, पल्लवित होना, फलना-फूलना, छीजना और नाम-रुप का नष्ट हो जाना-वृक्ष की ये पाँच अवस्थाएँ हैं।-१८ सृष्टि की भी पाँच द शाएँ ही मानी गयी हैं।

वृक्ष ही नहीं, पत्ती और फूल की भी भिन्न अवस्थाएँ होती हैं। एक अवस्था वह होती है, जह वृक्ष पर कौंपल (किसलय) आती है फिर वह विकसित होकर पत्ती बन जाती है और अंत में वह सूखती है और पतझर और वसंत जुड़े हुए हैं, उसी प्रकार उदय और अस्त तथा सुख और दुख जुड़े हुए हैं-

एक दिना फल फूल कें को न भयौ पतझार।

(अ:) बीज सनातन है : बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की प्रक्रिया तो निरंतर चलती है, परंतु बीज का आत्यंतिक विनाा नहीं होता। कहीं न कहीं वह बीज सुरक्षित रहता है। श्रीमद्भागवत में प्रलय के प्रसंग में उल्लेख आता है कि मनु बीज को लेकर नाव पर सवार हुए।-१९ तंत्राास्र में बतलाया गया है कि बीज शिव के मुख में सुरक्षित है।

बीज उन अर्थों में भी सनातन है कि नए वृक्ष रुप में बीज अपना कायाकल्प करता है। जिस प्रकार पुत्र के रुप में पिता ही नया जन्म लेता है, उसी प्रकार वृक्ष की वं श-परंपरा सनातन है।

१.३ परम कारण की खोज

वृक्ष-बीज के बिम्ब ने मानव बुद्धि को कारण-तत्त्व की खोज में प्रवृत्त किया और उसने प्रत्येक कार्य के कारण को खोजा। भिन्न-भिन्न कारणों का कोई एक ही परम कारण होना चाहिए।

१.३.१. जो पै बीज रुप भगवान : विश्व के उस परम कारण को बीज के रुप में ही जाना-समझा गया। संत कबीर कहते हैं-

जो पै बीज रुप भगवाना तो पंडित का कथसि गियाना।

तत्त्व की बात एक यही है कि सबका बीज ईश्वर है।

१.३.२. अव्यय बीज : श्रीमद्भगवद्गीता में ईश्वर को 'अव्यय बीज' कहा गया है। सामान्य बीज से अंकुर पैदा होता है, तब बीज का वह स्वरुप नहीं रहता परंतु परमात्मा अव्यय-बीज है और अंकुर पैदा करने के बाद भी वह उसी प्रकार अपने स्वरुप में बना रहता है जिस प्रकार शून्य में से शून्य घटा देने पर शून्य तद्वत शेष रहता है। परमात्मा पूर्ण है और पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होने के बाद भी पूर्ण, पूर्ण ही रहता है। इसलिए गीता के शब्दों में परमतत्त्व अव्यय तथा सनातन बीज है-

प्रभव: प्रलय स्थानं निधानं बीजमव्ययम्। ९.८
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। १०.३९
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। ७.१०

१.३.३. संसार महीरुहस्य बीजाय : जिस प्रकार विश्व की व्याख्या वृक्ष के बिम्ब के माध्यम से की गयी है तथा विश्ववृक्ष या संसार विटप के प्रतीकों की परंपरा वैदिक साहित्य से लेकर लोकसाहित्य तक सर्वत्र विद्यमान है, उसी प्रकार विश्वबीज, सर्वबीज, सचराचरबीज आदि के रुप में ईश्वर की अवधारणा बहुत व्यापक है।

दुर्गासप्ताती में भगवती को विश्वबीज कहा गया है-

त्वं वैष्णवी शक्तिनरंतवीर्या विश्वस्यबीजं परमासि माया। (११.५)

तंत्राास्र में 'पराम्बा' को सर्वबीजा, सर्वबीज-स्वरुपा तथा बीजाकर्षिणी कहा गया है।
-२०

भागवत के कथावाचक 'मंगलाचरण' में श्रीकृष्ण को संसार-महीरुह (वृक्ष) के बीज के रुप में नमन करते हैं-

तस्मै श्री कृष्णाय नम: संसार महीरुहस्य बीजाय।

१.३.४. बिंदुभाव : बीज : तंत्राास्र में श्रीचक्र के रुप में विश्वविद्या का विवेचन है। विश्ववृक्ष की भाँति श्रीचक्र भी विश्वचक्र है। बिंदु बीज है और वृक्ष वृत्त है। बिंदु का ही विस्तार वृत्त में है। इसलिए सम्पूर्ण वृत्त समाया हुआ है। ठीक वैसी ही बात-

बिंदु में सिंधु समान, को कासों अचरज कहै।

श्रीचक्र का मूल बिंदु चराचर का बीज है। प्रलयकाल अर्थात् सुषुप्ति अवस्था में सम्पूर्ण स्थूल और सूक्ष्म-जगत् परम कारण में लीन हो जाता है। उस समय विर्मामयी महााक्ति विश्व को अपने गर्भ में लीन करके प्रकाामय हो जाती है और देाकाल से सर्वविध परिच्छेद-ाून्य होकर विश्राम करती है। इसे तंत्राास्र की परिभाषा में 'बिंदु-भाव' कहते हैं। यह वह अवस्था है, जब समस्त प्रपंच वासना वृक्ष की भाँति बीज में लीन रहती है।-२१

१.३.५. परावाक् : अस्फुट विश्व : श्रीचक्र के बिंदु को ही परवाक् कहा गया है, जिस प्रकार मयूर के अं के रस में मोरपंख के नाना रंग अव्यक्त रुप से अभिन्न होकर रहते हैं, उसी प्रकार स्थूलवाणी का सम्पूर्ण वैचित्र्य अव्यक्त रुप से परावाक् में विद्यमान है। दूसरे ाब्दों में परावाक् आत्मसत्ता है, जिसमें अस्फुट रुप से बीज-रुप में विश्व समाया हुआ है।-२२

२. विश्वविद्या

विश्वविद्या के अंतर्गत हम प्रकृति संबंधी उस चिंतनधारा और अवधारणाओं को सम्मिलित कर सकते हैं, जिनमें विश्व की समग्रह व्याख्या की गयी है। श्रीविद्या, श्रीमंत्र तथा विराट पुरुष आदि ऐसी ही अवधारणाएँ हैं। इन्हीं अवधारणाओं में एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा विश्ववृक्ष है, जिसमें वृक्ष के बिम्ब के आधार पर विश्व-प्रसार का विवेचन है। विश्वविद्या के अंतर्गत ही हम कर्ता के खोज संबंधी प्र श् न को भी सम्मिलित कर सकते हैं, क्योंकि जहाँ लोकमानस को कारण प्रत्यक्ष नहीं हुआ, वहाँ उसने कर्त्ता के रहस्य की पहचान करने का प्रयास किया है। इस प्रकार विश्वविद्या के अंतर्गत प्रकृति संबंधी चिंतन को हम दो भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं-

२.१. विश्ववृक्ष
२.२. कर्त्ता के वृक्ष

२.१. विश्ववृक्ष : विश्व की व्याख्या : वृक्ष का बिम्ब

भारतीय साहित्य में वृक्ष के बिम्ब के आधार पर विश्व की व्याख्या करने की परम्परा बहुत व्यापक है। वैदिक साहित्य में जीवात्मा-परमात्मा को अश्वत्थ वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों के रुप में देखा गया है। दोनों पक्षी सखा हैं और एक ही डाल पर बैठे हैं। प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होनेवाले सुख-दुख ही इस अश्वत्थ के फल हैं। जीवात्मा रुप एक पक्षी तो इन फलों को खा रहा है किंतु परमात्मा रुप पक्षी केवल देख रहा है, वह साक्षी मात्र है-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिष जाते
तयोरन्य पिप्पलं स्वद्वत्यनन्नयो अभिचाकाीति।
-ॠग्वेद १.६.४.२० अथर्व ९.९.२० श्वेता ४.६

 

२.१.१. ब्रह्मांड : अश्वत्थ : 'कठोपनिषद्' में कहा गया है कि-जिसका मूल परब्रह्म है, प्रधान शाखा ब्रह्मा और अवांतर शाखा, देव, पितर, मनुष्य, प शु, पक्षी, हैं,

ऐसा यह ब्रह्मांड रुप पीपल का वृक्ष अनादि काल से है-

ऊर्ध्वमूलोऽवाकााख एषोऽश्वत्थ: सनातन:।
तदेवं
शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तर्जिंस्मल्लोका: श्रतिा सर्वे तदेवामृतच्यते।
-तृतीय वल्ली.

२.१.२. अव्यय अश्वत्थ : श्रीमद्भगवद्गीता में संसार को ऊपर की ओर मूल तथा नीचे की ओर शाखा वाला अव्यय अश्वत्थ बतलाया गया है-


उर्ध्वमूलमध:
शाखामश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।
अधचोंध्वर्ं प्रसृतास्तस्य
शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।
अधचमूलान्यनुसंततानि कर्मानुबंधीनि मनुष्य लोके।
-१५.१-२

ऊर्ध्व शब्द परमात्मा का वाचक है। संसार-वृक्ष परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। संसार-वृक्ष की प्रधान शाखा ब्रह्मा है तथा वेद इस संसार-वृक्ष के पत्ते हैं। संसार-वृक्ष की सत्, रज, तम-गुणों के द्वारा बढ़ी हुई शखाएँ नीचे, मध्य में तथा ऊपर फैली हुई हैं। मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधनेवाले मूल भी नीचे और ऊपर व्याप्त हो रहे हैं।

२.१.३. ब्रह्मवृक्ष : महाभारत (अश्व. ३५.२०-२३/४७-१२-१५) में ब्रह्मवृक्ष का वर्णन करते हुए कहा गया है कि अव्यक्त प्रकृति जिसा बीज है, बुद्धि (महत्) जिसका तना है, अहंकार जिसका पल्लव है, मन और दस इंद्रियाँ जिसकी खोखली खोडर हैं, महाभूत और तन्मात्रा जिसकी बड़ी शाखाएँ हैं। सदा पत्र, पुष्प और ाुभााुभ फल धारण करनेवाला समस्त प्राणियों के लिए आधारभूत यह ब्रह्मवृक्ष सनातन है।

२.१.४. संसार वृक्ष : 'भागवत' में प्रवृत्तिाील सनातन संसार-तरु का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इस सनातन वृक्ष की एक ही प्रकृति (अयन) है, दो फल हैं-(सुख तथा दुख), तीन मूल हैं (सत, रज, तम), चार रस हैं (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष), पंच विध (पंचेंद्रिय), छ: स्वभाव (उत्पन्न होना, स्थिर होना, बढ़ना, परिवर्तित होना, घटना और नष्ट हो जाना), सात वल्कल (रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य), आठ शाखा (पंच भूत तथा मन, बुद्धि अहंकार), नौ आँखें ( शरीर में स्थित मुख आदि नवद्वार), दस कोटर (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि दस प्राण) तथा दो पक्षी जीव और ईश्वर हैं-

एकायनोऽसौ द्विफलस्रिमूलचतूरस: पंचिविध: षडात्मा।
सप्तत्वगष्ट विटपो नवाक्षो दाच्छदी द्विखगो हृदिवृक्ष:।
-भाग. १०.२.२७

भागवत (११.१२.२०-२३) में अन्यत्र संसार-वृक्ष का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-यह संसार-वृक्ष अनादि और प्रवाह रुप से नित्य है। कर्म की परंपरा इसका स्वरुप है तथा मोक्ष और भोग इसके फल-फूल हैं। इस संसार-वृक्ष के दो बीज हैं-पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इंद्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर-दो पक्षी घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्ष में वात, पित्त और कफ रुप तीन तरह की छाल हैं। सुख और दुख दो फल हैं।

२.१.५. विश्व कदंब : अश्वत्थ, कदंब, वट और गूलर का उल्लेख विश्ववृक्ष के रुप में मिलता है। तंत्र शास्र में कंदब को 'संसार महीरुह' कहा गया है, जिसमें असंख्य ब्रह्मांज रुपी गोल फूल गुँथे हुए हैं। ये फूल उत्पन्न होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं। पुष्प रुप इन ब्रह्मांडों में विश्वात्मा त्रिपुरा विहार करती हैं। महात्रिपुरसुंदरी के चिंतामणि-सदन के चारों ओर कदंबों का वन है।-२३ राधा-कृष्ण के साथ कदंब के वर्णनों की दीर्घ परंपरा 'विश्व-कदंब' की ओर संकेत है।

२.१.६. गूलर का बिम्ब : एक पुराकथा है कि एक ॠषि गूलर के वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। उस गूलर पर असंख्य फल लदे हुए थे। गूलर के फल में भुगने होते हैं। ॠषि ने दिव्य दृष्टि से देखा तथा कीट के साथ संवाद किया। ॠषि ने कहा-'रे कीट, क्या तुम जानते हो कि विश्व-ब्रह्मांड कितना बड़ा है?' गूलर के फल में बंद रहनेवाला वह कीट बतलाता ही क्या? उसने गूलर के फल के अंदर एक चक्कर लगाया और बताया कि 'विश्व इतना बड़ा है।' ॠषि हँसे और बोले-'रे कीट, जिसे तू विश्व-ब्रह्मांड कह रहा है, ऐसे ब्रह्मांड इस एक पेड़ पर इतने लटक रहे हैं, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती और फिर इस उपवन में इतने सारे गूलर के पेड़ हैं फिर इस धरती पर ऐसे उपवन और वन असंख्य हैं।"-२४

२.१.७. संसार विटप : गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस (उत्तरकांड दोहा १३/५) में संसार-विटप का वर्णन करते हुए कहा है-

अव्यक्त मूल मनादि तरु त्वच चार निगमागम भने
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने
फल जुगल विधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आ"ाति रहे
पल्लवत फूलत नसत नित संसार विटप नमामहे।

अर्थात् निर्गुण इस संसार विटप का मूल है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय चार अवस्था त्वचा हैं, श्रद्धा, तृषा, हर्ष, शोक, जन्म, मरण छ: स्कंध हैं। पंचीकृत पंचतत्त्व अर्थात् पच्चीस शाखा हैं। वासना घने पत्ते, फल पाप-पुण्य, अहम् वेलि है।

२.१.८. सूक विरख : संत कबीर की बानी है कि वृक्ष रुप में आपने संसार की सृष्टि की है। सत रज तम त्रिगुणात्मक प्रकृति ही इस संसार-वृक्ष की तीन शाखा हैं, जिन पर द्विधा के पत्र-पल्लवित हैं तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ही इसके चार फल हैं, इसके दो अधिकारी पार और पुण्य हैं-

सूक विरख बहु जगत उपाया समझि न परै विषम तेरी माया।
साखा तीन पत्र जुग चारी फल दोइ पाप पुंन अधिकारी।

२.१.९. अक्षय वृक्ष : कबीर की उलटबाँसियों में एक ऐसे अद्भुत वृक्ष की परिकल्पना है, जो पृथ्वी और पवन दोनों को अपने में विलीन करता जाता है। दरिया साहब ने 'गुणातीत' की कल्पना ऐसे वृक्षों के रुप में की है, जिसके धूप और छाँह नहीं है परंतु अनंत सुगंधि तथा अमृतफल हैं।

अछे बिरछ तीर लों बैठिहों तहँवा धूप न छाँह रे।
चाँद न सुरुज दिवस नहिं तहँवा नहिं निस होत विहान रे।
अमृत फल मुख चाखन देहों सेज सुगंध सुहाग रे।

'दादू' का अक्षय वृक्ष भी अद्भुत है, जिसमें न जड़ है, न शाखा और वह पृथ्वी पर है भी नहीं; किंतु दादू उसी का अनंत फल खाते हैं।

२.१.१०. संसार-वृक्ष : लोकगीतों में : संसार-वृक्ष के वर्णनों की प्राचीन परंपरा का सूत्र ब्रज के जिकरी भजनों में भी उपलब्ध है। रुदायन गाँव के श्री मिश्रीलाल वाष्ठि ने एक भजन सुनाया था-
नौ करोड़ छह लाख सहसदस तुम पहचानों,
इतने योजन भूप वृक्ष सुरपुर में जानों।
तापै लटक रहे फल चार
तिन कूँ लावै तोर कें तो होय मेरौ उद्धार।

२.२. कर्त्ता की खोज

मनुष्य के मन में एक ओर जहाँ कारण की खोज का प्रन रहा है, वहीं कर्त्ता के प्रन ने भी उसे झकझोरा है। कार्य-रुप में विश्व उसके सामने है। प्रत्येक कार्य का एक कर्त्ता भी होता है फिर विश्व-रुप इस कार्य का कर्त्ता कौन है? बीज-वृक्ष के बिम्ब के माध्यम से उसने इस प्रन का भी उत्तर पाने का प्रयास किया है। विोषकर कर्त्ता का प्रन वहाँ उपस्थित हुआ, जहाँ कारण की खोज का पथ दृष्टिगत नहीं हो पा रहा था।

२.१.१. पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी है : मनुष्य ने देखा कि शहतूत के पत्ते चौड़े होते हैं। इमली की पत्ती छोटी होती है, केले का पत्ता बड़ा होता है। कचनार का पत्ता गोल होता है। कुंत की पत्ती लंबी होती है। गुलमनियाँ की पत्ती नुकीली होती है और गुलमेहँदी का पत्ता लंभा कटावदार होता है। नीम की पत्ती की कटिंग बिल्कुल अलग होती है। गुलदाऊ की पत्ती डोरे जैसी पतली होती है और ओंधाझार की पत्ती तिकोनी होती है। ऐंठफरी की पत्ती सिकुड़ी और इठी हुई होती है। मोरपंखी की पत्ती मोर के पंख जैसी और नागफनी की पत्ती नाग के फन जैसी होती है। पत्तीयों की इस रुप-रचना को देखकर जब मनुष्य का मन आचर्य और कुतूहल से भर गया तो उसके मुख से अनायास यही पंक्ति निकली-

पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी है
तेरे हाथ कतरनी कहीं नहीं।

'करतार' जैसा अद्भुत है कि प्रत्येक पत्ते की 'कटिंग' अलग है, दीखती है; परंतु करतनी (कैंची) कहीं भी न नहीं आ रही। कार्य है लेकिन कारण दृष्टिगत नहीं हो रहा।

२.२.२. अमरबेल बिन मूल की : प्रत्येक वृक्ष-वनस्पति की जड़ होती है और उस जड़ से ही वे अपनी जीवनी शक्ति प्राप्त करते हैं परंतु जब मनुष्य ने 'अमरबेल' को देखा तो आ श् चर्य में भर गया। वह बिना जड़ के ही वृक्षों पर पसर जाती है। अव श् य ही इसका 'कारण' उस 'कर्त्ता' की लीला' है। रहीम कहते हैं कि जो प्रभु बिना जड़वाली अमरबेल को जीवन देनेवाला है, हमें उसी की शरण लेनी चाहिए-

अमरबेल बिन मूल की प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं दजि खोजत फिरियै काहि।

लोकमानस का विश्वास और अधिक दृढ़ होता है कि प्रकृति का संविधान ईश्वर के अधीन है।

२.२.३. रामभरोसे जे रहें : बीज के लिए पानी का प्रबंध आवयक है परंतु पर्वतों की ऊँचाई पर पानी कौन पहुँचा सकता है? वहाँ के वृक्ष हरे-भरे हैं। इसका 'कारण' कौन है? अवय ही यह 'करतार की लीला' है-

रामभरोसे जे रहें परबत पै हरियाँइ।


२.२.४. हरिमाया : जेठ मास की गर्मी में सारी वनस्पतियाँ झुलस जाती हैं परंतु इसे हरि की माया के अतिरिक्त और क्या कहा जाय कि 'आक' और 'ज्वासा' इस समय फल-फूल रहे हैं-

सो निदाध फूलौ फलै आक डहडहौ होय।

एक ही 'कारण' के दो भिन्न वनस्पतियों में भिन्न प्रभाव हैं।

२.२.५. तेरी सत्ता के बिना : यदि बीज को समय पर पानी न मिले, धूप न मिले, अनुकूल हवा न मिले तो वह अंकुरित नहीं हो सकता। बीज के अंकुरण के लिए आँधी, तूफान, सूरज, चंदा, बादल, ॠतु तथा प्रकृति की विश्वव्यापी प्रक्रिया आवयक है। मनुष्य के सोचा कि इस प्रक्रिया का कारण क्या है? क्या सूरज अपनी चमक से चमकता है? क्या नक्षत्र अपनी इच्छा से चलते हैं। क्या आँधी, तूफान, ओले, ॠतु अपनी इच्छा से चाहे जैसे-चाहे जब यों ही आती-जाती हैं या इनके पीछे कोई प्राकृतिक विवेक और नियम है? और यदि नियम है तो उन नियमों का नियंता कौन है? यदि चौराहे पर एक सिपाही न हो तो 'ट्रैफिक' की भिड़ंत ही चौराहों की नियति बन जाय। इस सम्पूर्ण विश्वप्रक्रिया के पीछे कोई एक नियंता अवय है। इसीलिए 'लोक' का निचित विश्वास है कि-

तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु मंगल मूल।
पत्ता तक हिलता नहीं खिले न कोई फूल।


इस प्रकार यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति के बाह्य परिवे
के बिम्बों ने मानव बुद्धि को 'विश्वात्मा' की अवधारणा तक पहुँचाया और मानव-विश्वास की शक्ति से निरंतर दृढ़ होकर यह अवधारणा परमात्मा, परमेश्वर, भगवान, करतार आदि के रुप में लोकमानस में प्रतिष्ठित हुई।

 

(ख) जीवन संबंधी चिंतन

जीवन संबंधी चिंतन में धरती-बीज के बिम्बों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

 

१. सैद्धांतिक प्रन
२. व्यावहारिक अनुभव

 

१. सैद्धांतिक प्रन

जीवन के सैद्धांतिक प्रन जीवन की दि श् ाा निर्धारित करते हैं और जीवन को दि शा प्रदान करते हैं। इन प्र श् नों को पुन: तीन वर्गों में रखा जा सकता है-


१.१. कर्म संदर्भ
१.२. उपासना संदर्भ
१.३. देह, चित्त और आत्मा-संदर्भ

इस वर्ग में हम कर्म, भाग्य तथा पाप-पुण्य-संबंधी चिंतन में धरती-बीज के बिम्बों को देख-समझ सकते हैं।

१.१. कर्म संदर्भ

लोकमानस ने बीज और फल के संबंध को पहचानकर कर्म और फल के संबंध को जाना है। जिस प्रकार फल का कारण बीज है उसी प्रकार जीवन में प्राप्त होनेवाले सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि का कारण व्यक्ति का अपना कर्म है। फल शब्द कार्य के परिणाम और जीवन के पुरुषार्थ के लिए रुढ़ है। सफलता और निष्फलता का बिम्ब जीवन में प्रत्येक कार्य से जुड़ा हुआ है। कर्मफल के लिए फल से अधिक उपयुक्त कोई शब्द नहीं है, इसलिए लोकोक्तियों में निरंतर फल के बिम्ब को ही ग्रहण किया गया है-

पिया करनी के फल पाओगे।
बुरे का फल बुरा होता है।
जैसी करनी करी तोय फल तैसौ दीयौ।
जो जस करै सो तस फल चाखा।
बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ ते खाय।

कर्मफल के सिद्धांत ने भारत की संस्कृति को कर्मप्रधान बनाया है। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-'कर्मण्येवाऽधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।'२५

१.१.१. एक कूँड़ में दो सरकं : भाग्य की व्याख्या : भाग्य किसे कहते हैं? इस पर बहुत सोचा, विचारा और लिखा गया है परंतु गाँव के एक साधारण किसान ने एक ही कूँड़ (क्यारी या रेखा) में उपजे दो सरकंडों की नियति को देखा और भाग्य तत्त्व की इतनी सरल और स्पष्ट व्याख्या कर दी। एक कूँड़ में दो सरकं पैदा हुए, किसान ने उनमें से एक को काटा और अपने बच्चे ही कलम बनायी तथा दूसरे सरकं को छप्पर में लगा दिया। एक सरकं कलम बना तथा दूसरा छप्पर में लगा, यही भाग्य है-

एक कूँड़ में दो सरकं अपने अपने भाग।
एक छील के कलम बनायी एक छाई छप्पर छान।

१.१.२. पाप-पुन्न दो बीज हैं : जिस प्रकार खेत में जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है, उसी प्रकार इस शरीर से जैसा कर्म किया जाता है, वैसी ही जन्म-मरण रुपी फल जीव को बार-बार भोगना पड़ता है, इस दृष्टि से यह शरीर क्षेत्र है। शुभा शुभ कर्मों के बीज के लिए महाभारत में शरीर का क्षेत्र कहा गया है।

क्षेत्राणि हि शरीराणि बीजं चापि शुभा शुभम्।
- नारायणमहिमा प्रसंग

गोस्वामी तुलसीदास ने 'दोहावली' में इसी प्रकार का भाव व्यक्त किया है-

तुलसीदास काया खेत है मनसा भयौ किसान।
पाप पुन्न दोउ बीज हैं बुवै सो लुनै निदान।

शरीर रुपी इस क्षेत्र की ओर दृष्टि रखने से, इस क्षेत्र के साथ संबंध रखने से जीवात्मा को गीता मे क्षेत्रज्ञ कहा गया है-

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:। (१३.१)

१.२. उपासना संदर्भ

उपासना संदर्भ में चिंतन-प्रणाली के बिम्बों को दो वर्गों में रखा जा सकता है-

१.२.१. उपासना तत्त्व
१.२.२. उपास्य तत्त्व

१.२.१. उपासना तत्त्व : उपासना संबंधी बिम्ब पुन: तीन प्रकार के हैं-

१.२.१.१. हठयोग
१.२.१.२. मंत्रयोग
१.२.१.३. भक्तियोग

१.२.१.१. हठयोग : (अ) हठयोग : बीज-वृक्ष के बिम्ब : योगतत्त्व के विवेचन के संदर्भ में भी शरीर को वृक्ष कहा गया है-एक विरष भीतर नदी चाली (कबीर)। मूलाधार चक्र से सह"ाार चक्र तक की परिकल्पना कमल के फूल के रुप में की गयी है। संत कवियों ने मेरुदंड को आम का पेड़ बतलाया है-'आँवलियों थलिमौरियौ ऊपर नींव बिजौरी फलियौ।' गोरखबानी में सह"ाार चक्र को फूल और कुंडलिनी को मालिन कहा गया है-'एक फूल सोलह करंडियाँ मालनि मन में हरषिन माइ।'

(आ) समाधि वृक्ष : योगवााष्ठि में 'समाधिवृक्ष' की अवधारणा है-जिसका बीज ध्यान, अंकुर विवेक, ाास्र-चिंतन औप साधुसंग दो पत्ते एवं रस वैराग्य है। सत्य-धैर्य-करुणा-मैत्री शाखाएँ हैं, या पुष्प है, प्रज्ञा मंजरी है, उपाम छाया तथा कैवल्य फल है। इसकी शीतल छाया में मन रुपी मृग विश्राम कर रहा है।-२६ कबीर ने सहज-समाधि रुप वृक्ष का वर्णन करते हुए कहा है-

तरवर तासु विलंबियै जो बारह मास फरंत।
सीतल छाया गहर फल पंखी केलि करंत।

(इ) सह"ाार : मीठा फल : सह"ाार चक्र से " शवित होनेवाले अमृतबिंदु को मीठे फल के रुप में देखते हुए कबीर कहते हैं-

फल मीठा पै तरबर ऊँचा कौन जतन कर लीजै।
नेंक निचोर सुधारस वाकौ कौन जुगत सों पीजै।
पेड़ विकट है महा सिलहला अगह गहा नहिं जाई।
तन-मन मेल्हि चढ़ै सरधा सों तब वा फल कों पाई।

(ई) वैराग्य बीज : 'योगवााष्ठि' में वैराग्य बीज, चित्त खेत, शुभकर्म हल, शांति जल, प्राणायाम प्रवाह, विवेकी जन कानन तथा संतोष और मुदिता को खेती की रखवाली करनेवाले के रुप में प्रस्तुत किया गया।-२७

१.२.१.२. मंत्रयोग : बीजाक्षर : तंत्राास्र में सिद्धांत के अनुसार अणु से ब्रह्मांड तथा सूक्ष्म से स्थूल तक सभी पदार्थ अंतिम रुप में वर्ण ही हैं। अ से लेकर क्ष पर्यन्त पचास वर्णों में विश्व का समस्त ज्ञान अधिष्ठित है। वर्णों से ही समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए 'तंत्राास्र' में मातृका-वर्ण को विश्वजननी कहा गया है-'मंत्राणां मातृका-देवी मातृका वर्णरुपिणी।'

मातृकाओं में अ से अ: पर्यन्त सोलह स्वर ाक्ति के तथा क से क्ष तक छत्तीस वर्ण ावि के अक्षर हैं-

ककारादि क्षकारांता: वर्णास्ते ाविरुपिण:।
समस्त व्यस्त रुपेण षर्जिंट्त्रात् तत्त्व विग्रहा।-२८

ये बीजक्षर छत्तीस तत्त्वों के उद्गम हैं और विश्व छत्तीस तत्त्वों की ही रचना है। ह बीजाक्षर से आकाा उत्पन्न हुआ, क से वायु, र से अग्नि, स से जल तथा ल से पृथ्वी-

हकाराद् व्योम संभूत ककारात्तु प्रभंजन।
रेफादग्नि सकाराच्च जल तत्त्वस्य संभव:।
लकारद् पृथिवी जाता तस्मात् विश्वमयी च सा।-२९

इसलिए तंत्र शास्र और मंत्र शास्र में वर्णों को बीजाक्षर अथवा बीजमंत्र कहा जाता है। देवता और वर्ण अभिन्न हैं, सम्पूर्ण मंत्र-विद्या का सार तत्त्व यही है। प्रत्येक मंत्र का एक बीजक्षर होता है। बीज से वृक्ष के विकास होता है और अंत में फल की प्राप्ति होती है।

१.२.१.३ भक्तियोग : (अ) प्रेम अंकुर : मीरा ने भक्ति-प्रेम की बेल का उल्लेख इस प्रकार किया है-'अँसुअन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तौ बेल फैल गयी का करिहै कोई।' रहीम के बरवै में भी प्रेम-प्रीत के बिरवा का उल्लेख है। कहते हैं कि रहीम की प्रियतमा ने यह 'बरवै' रहीम से उस समय कहा था, जब वे उससे विदा होने लगे थे-

प्रेम प्रीत कौ बिरवा चलेउ लगाय।
सींचन की सुधि लीजो मुहझि न जाय।

यह छंद उन्हें इतना अच्छा लगा कि उसे उन्होंने अपनी काव्य-रचना का रुप बनाया तथा 'बिरवा' के आधार पर 'बरवै' नामकरण किया। सूरसागर में भी प्रेम-अंकुर का वर्णन है-

हिरदै जामि प्रेम अंकुर जड़ सप्त पताल गयी।
सो द्रुम पसरि सिखर अंबर लौं सब जग छाय लई।
बचन सुपुत्र मुकुल अवलोकनि गुणनिधि पुहुप भई।
परसि परम अनुराग सींच सुख लगी प्रमोद जई।
सूरदास फल गिरिधर नागर मिल रस रीत नई।

(आ) रसरीति : बीज का समपंण : भक्ति और प्रेम के समपंण की व्याख्या के लिए रज्जब न बीज का बिम्ब ग्रहण किया। जब बीज के दोनों परत धरती की सृजन-ाक्ति को समर्पित हो जाते हैं, तभी नया अंकुर बनता है। यही रज्जब की 'तीजी रस रीति' का समपंण भाव है-

द्वेै पख बीरज दालि हैं, बिच अंकुर परतीत।
सो रज्जब ऊँचा चल्या, यह तीजी रसरीत।-३०

१.२.२. उपास्य तत्त्व : उपास्य संबंधी बिम्ब पुन: पाँच प्रकार के हैं-

१.२.२.१. ठूँठ और अपर्णा लता : शिव और शिवा : तंत्र शास्र में अक्रिय अपरिणामी एवं निर्विकार होने के कारण शिव की परिकल्पना स्थाणु (ठूँठ) के रुप में की गयी है तथा शिवा की परिकल्पना कल्पलता के रुप में। पार्वती ने तप करते-करते जब पत्तों को खाना भी छोड़ दिया था, तब उनका नाम 'अपर्णा' पड़ गया किंतु शंकराचार्य ने अपर्णा को बिना पत्तोंवाली ऐसी लता बतलाया है, जिसने सम्पूर्ण जगत् को अपने में लपेट लिया है तथा वह 'पुराना ठूँठ' (स्थाणु) भी कैवल्य नामक फलों से युक्त हो गया है-

सपर्णामाकीणार्ं कतिपय गुणै: सादरमिह,
श्रयन्त्यन्ये वल्लीं मम तु मतिरेवं विलसति।
अपर्णोंका से जगति सकलैर्यत्परिवृत:
पुकाणोऽपि स्थाणु: फलति किल कैवल्यपदवीम्।
-सौंदर्यलहरी

१.२.२.२. कनकलता और यामतमाल : राधा-कृष्ण : ठीक ऐसी ही परिकल्पना वृंदावन के रसिक भक्तों की है, जिसमें श्रीराधा कनकलता और श्रीकृष्ण यामतमाल हैं और कनकलता यामतमाल से लिपटी हुई है-
सहज रसीली नागरी सहज रसीलौ लाल।
सहज प्रेम की बेलि मनों लिपटी प्रेम तमाल।

१.२.२.३. प्रकृति-पुरुष : सींक और मूँज : तत्त्व चिंतन की जटिल और गहरी व्याख्याएँ वानस्पतिक बिम्बों के आधार पर कितनी सरल और स्पष्ट हो सकी हैं, इसका कारण परिवे का जीवित-जागरित अनुभव है। प्रकृति और पुरुष के संबंध को स्पष्ट करने के लिए सींक और मूँज का उदाहरण लिया गया। सींक और मूँज एकत्र रहकर भी भिन्न हैं। प्रकृति और पुरुष के भेद का उदाहरण गूलर और उसका कीट है। गूलर और उसके कीड़े एक साथ रहकर भी परस्पर भिन्न हैं। (दे. : म.भा. शांति ३०८.२३ तथा ३१५.९)

१.२.२.४. पुहुप बास ते पातरा : सूक्ष्मतत्त्व : परम तत्त्व की सूक्ष्मता को कबीर ने पुष्प सुगंधि के बिम्ब के द्वारा अभिव्यक्त किया-

पुहुप वास तें पातरा ऐसा तत्त्व अनुप।

१.२.२.५. तीन चना एक छोलका : बूट (चने) के किसी-किसी छोलका में तीन दाने लगते हैं। तीन दानेवाले उस छोलका के माध्यम से रसिक भक्त हरिदासी सम्प्रदाय के आचार्यों ने 'यामा-याम और सखी' तत्त्व का प्रतिपादन किया है-

तीन चना एक छोलका ऐसौ अर्थ विचार।

१.३. देह, चित्त और आत्मा संदर्भ

१.३.१. देहवृक्ष : योगवााष्ठि में वृक्ष के बिम्ब से ' शरीर का वर्णन है-देह वृक्ष संसार रुपी वन में उगा है, चित्त रुपी चंचल वानर इस पर उछल-कूद करता है, मंद मुस्कान फूल और सुख-दुख फल हैं, हाथ पुष्पगुच्छ और कंधे तथा बाँहें शाखा हैं, प्रत्येक अवयव विषय-चिंतन रुप मंजरी से अलंकृत है, दु:ख रुपी घुन के लग जाने से जिसमें छेद या घाव हो गए हैं, इस वृक्ष पर तृष्णा रुपी साँपिनी तथा क्रोधरुप कौआ रहता है, समस्त इंद्रिय रुपी पक्षी हैं तथा मस्तक के के जमे हुए तिनके हैं, इस पर अहंकार रुपी गीध घोंसला बनाता है, जब प्राणवायु रुप पवन चलात है तब सम्पूर्ण अवयव रुप पल्लव हिलते हैं। यह देह-वृक्ष जीव रुप पथिक का विश्राम-स्थल है।-३१ तन तरुवरक की अवधारणा भक्तिसाहित्य और लोकभजनों में भी विद्यमान है। सूरदास का पद है-

जा दिन मन पंछी उड़ जै हैं।
ता दिन तेरे तन तरुवर के सबै पात झर जै हैं।

१.३.२. चित्तवृक्ष : मायामय संसार खेत है, अहंकार बीज और चित्त रुप वृक्ष है। अनात्म देह में आत्म-विषयक बुद्धि इसका अंकुर है तथा विषय भोग फल है। चित्त रुप विषवृक्ष शरीर रुपी गड्ढे में उगा है, आ शा इसकी शाखा है, विकल्प पत्ते हैं तथा चिंता की मंजरी है। यह चित्त-वृक्ष जरा-मरण-व्याधिरुप फलों के भार से झुका है।-३२

१.३.३. माया : अमरबेल : संत-साहित्य में माया और सांसारिकता को बेल के रुप में समझा गया है-

ये गुनवंती बेलरी तव गुन बरनि न जाय।
काटे ते हरियरी सींचे ते कुम्हलाय।
आँगन बेलि अकास फल अव्यावर का दूध।
ससा सींग की धुनहड़ी रमें बाँझ का पूत।-३३

अर्थात् इस प्राकृति माया बेल को इंद्रियों के कुल्हाड़े से काटा जाए (भोगा जाय) तो यह अधिक बढ़ती है और यदि प्रभु-भक्ति के जल से सींचा जाय तो कुम्हला जाती है। यह माया रुप बेल संसार के सहन में फैली हुई है। इसा अस्तित्व अनब्याही गाय के दूध, खरगो के सींग के वाद्य तथा बाँझ के पुत्र की तरह है।

१.३.४. आत्मा : कमलिनी : इसी प्रकार कबीर ने जीवात्मा को कमलिनी के रुप में ग्रहण किया है-'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी।' हे कमलिनी, तू क्यों कुम्हला रही है? तेरी नाल सदैव जल (परमात्मा रुप जल) में रहती है। जल में ही तेरा जन्म हुआ और जल में ही तेरा निवास है, फिर तू किस कारण से सूख रही है?-३४

२. व्यावहारिक अनुभव

लोकमानस ने जीवन के व्यावहारिक अनुभवों की व्याख्या धरती और बीज के बिम्बों के माध्यम से की है क्योंकि वृक्ष-वनस्पति लोकजीवन का प्रत्यक्ष परिवे है। ये व्यावहारिक अनुभव जीवन के बहुत गहरे प्र श् नों से जुड़े हुए हैं। जीवन, मृत्यु, वृद्धावस्था, संसार, सांसारिक संबंध, आनुवंशिकता, तासी, सत्री, पुरुष, संग, रुप, और गुण, सफलता और असफलता लोकजीवन के दैनिक व्यवहार संबंधी प्र श् न हैं।

२.१. ओस का मोती : क्षणिक जीवन

जीवन की नश्वरता और क्षणिकता की पहचान लोकमानस के धूप पड़ने पर कुम्हला जानेवाला फूल एवं वृक्ष के पत्ते की नोंक से झरनेवाले तुषार-बिंदु से की। प्रात:काल पत्ते पर ओस की बूँद बड़ी सुहावनी लगती हैं किंतु तनिक हवा चलती है और बूँद झर जाती है-

जैसे मोती झरै ओस कौ ब्यार चलै ढहि जातौ।
ए जग जीवत ही कौ नातौ।


२.२. नदी-किनारे का वृक्ष

जो अत्यंत वृद्ध व्यक्ति मौत के किनारे पर है, उसे लोकजीवन में 'जमुना-गंगा का जौ' अथवा 'नदी-किनारे का रुख' कहा जाता है। जमुना-गंगा के किनारे पूजा-अनुष्ठान के जौ पड़े रह जाते हैं, किसी भी क्षण लहर आती है और उन्हें बहाकर ले जाती है। इसी प्रकार लोकजीवन का अनुभव है कि जो वृक्ष नदी-किनारे पर खड़े होते हैं, उनकी जड़ की मिट्टी धीरे-धीरे कटती रहती है और एक दिन सहसा वे वृक्ष टूटकर गिर जाते हैं या बह जाते हैं-

नदी-किनारे रुखड़ा जब तब होय बिनास।


२.३. जो तू सींचै मूल कों

पत्तों को सींचना निरर्थक है, इसलिए 'सांसारिक-संबंधों' को नहीं, संसार के मूल रुप भगवान की सेवा करनी चाहिए, उनका आश्रय लेना चाहिए क्योंकि-

जो तू सींचै मूल कों तौ फूलै-फलै अघाय।

२.४. संसार : सेमर का फूल

सेमर ( शाल्मलि) का फूल देखने में तो आकर्षक होता है परंतु जब तोता आकर उसमें चोंच मारता है, बार-बार प्रयास करता है किंतु उसे रुई के अतिरिक्त कोई स्वाद नहीं मिलता। यह संसार सेंमर के फूल जैसा है-

ऐसा यह संसार है जैसा सेंमर का फूल।

अथवा

यह संसार फूल सेंमर कौ पंखी देख लुभायौ।
चाखन लग्यौ रुई सी उड़ गयी हाथ कछू नहिं आयौ।

संसार की निस्सारता का दूसरा बिम्ब केलो के उन पत्तों का है, जिनको उधेड़ते चले जाएँ पर अंत में कोई तत्त्व नहीं मिलता।

२.५. संसार : काँटों की झाड़ी

यह संसार उलझनों, कष्टों और काँटों से भरा हुआ है। इसलिए उस झाड़, झंखाड़, बीहड़ जंगल अथवा काँटों की झाड़ी भी कहा जाता है-

बिकट बनी काँटेन की झाड़ी
माया में तू रहि रह्यौ प्राणी।

२.६. सांसारिक संबंध : पत्ता डाल का

संसार के सम्पूर्ण संबंध नियति के अधीन हैं। बीज अंकुरित हुआ, पत्ता, जाल, तने, फल और फूल का विकास हुआ। पत्ता टूटा और हवा उसे वृक्ष से कोसों दूर उड़ा कर ले गयी। वृक्ष और पत्ते का जैसा संबंध है, हमारे सभी सामाजिक और पारिवारिक संबंध उसी प्रकार के हैं-

पत्ता टूटौ डाल कौ लै गयौ पवन उड़ाय।
अब के बिछुरे ना मिलें दूर पड़ेंगे जाय।


२.७. रैनबसेरा

संसार की विचित्रता यह है कि अज्ञान के कारण इसे लोग तेरा और मेरा समझते हैं, परंतु जिस प्रकार पक्षी तिनकों से वृक्ष पर 'रैनबसेरा' बनाते हैं, संसार के महल, मकान और दौलत भी उसी प्रकार की हैं-

चुन चुन कलियाँ महल बनाया हंस कहै घर मेरा।
ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैनबसेरा।

२.८. तासीर : आनुवंाकि तत्त्व : नीम

नीम, इमली और प्याज को देखकर लोकमानस ने 'तासीर' को पहचाना है-

इमली बूढ़ी है जायगी फिर खटाई तौ ऊ न छोड़ेगी।

अथवा

नीम न मीठे हौंय सींच गुड़ घी ते।

अथवा

क्यारी करौ कपूर की बिच मृगमद बरहा बंध।
जो अमृत जल सिंचियै तो लहसन जाय न गंध।

प्याज की गंध नहीं मिट सकती, इमली की अम्लता समाप्त नहीं हो सकती तथा प्याज की गंध नहीं जा सकती। यही 'तासीर' मनष्य जीवन में आनुवंशिक तत्त्व के रुप में होती है। आनुवंशिक गुण वं श-परंपरा से चलते रहते हैं।

२.९. वृक्ष पुरुष : लता स्री

लोकमानस में वृक्ष का बिम्ब पुरुष के लिए और लता का बिम्ब स्री के लिए प्राय: रुढ़ हो गया है। 'छोरी की जात बेल की हाँई बढ़तै।' बेल की वृद्धि बहुत तेजी से होती है, लड़की के शरीर का विकास भी तेजी से होता है। जिस प्रकार लता समीपस्थ वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर लेती है, उसी प्रकार स्री भी निकटवर्ती पुरुष का आश्रय ग्रहण कर लेती है-

विद्या बनिता अरु लता इनकौ यही सुभाय।
जो इनके नियरे बसै ताही सों लिपटाय।


२.१०. सहज पकै सो मीठा

जो फल अनुकूल ॠतु और समय आने पर सहज भाव से पकता है, वही मीठा भी होता है-सहज पकै सो मीठा। जो 'पाल' लगाकर पकाया जाता है वह फल मीठा नहीं होता, डाल का पका मीठा होता है। वही सबर का फल है।

२.११. फल बिन डार नबै ना

जब वृक्ष पर फल आते हैं तो वृक्ष फलों के भार से झुक जाता है, इसी प्रकार मनुष्य के पास गुण होते हैं तो वह विनम्र हो जाता है, जबकि 'थोथा' व्यक्ति उड़ने की कोशि करता है-

थोथौ फटकै उड़-उड़ जाय

तथा

फल बिन डार नबै कबहू ना।

२.१२. पंथी को छाया नहीं

वृक्ष की सार्थकता उसकी सफलता में है। जिस वृक्ष के पास फल और छाया दोनों नहीं हैं, भला वह किस काम का है-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागा अति दूर।

२.१.३. गूलर रोयौ फूल कूँ

बाँझ स्री दूसरी स्री की कोख को देखकर रोती है जिस प्रकार गूलर फूल के लिए और फरास फल के लिए रोता है-
गूलर रोयौ फूल कूँ, फल कूँ रोयौ फरास।
बंझा रोयी कोख कूँ देख बिरानी आस।

२.१४. रुप और गुण

रुप-रंग में सरकं और ईख एक जैसे हैं किंतु उनके स्वाद में भेद है-

गात पात दोऊ सरल दुहून अगोल-जरोल।
यह गाँडौ वह सरकंडौ सीठौ-मीठौ मोल।

इसी प्रकार आक, वट, सेंहुड, गूलर और गाय तथा भेड़ के दूध एकसमान श्वेत होते हुए भी गुण-प्रकृति में बहुत भेद है-

दुहियत उंबर आक बर, सेहुड़ सुरभी भेड़।

इस प्रकार जो देखने में एक जैसे हैं, वे गुण और कर्म में भिन्न भी होते हैं।

२.१५. गेहूँ के साथ घुन : संगति

गेहूँ के साथ घुन को पिसते देखकर, गेहूँ के साथ 'बथुआ' को पानी लगते देखकर लोकमानस ने 'संग' के महत्त्व को पहचाना। उसने पहचाना कि जब तिली के तेल को भिन्न-भिन्न प्रकार के सुगंधित पुष्पों के साथ 'बसाया' जाता है, तो वह तेल सुगंधि ग्रहण कर लेता है।


२.१६. होनहार बिरवा

लोकजीवन का अनुभव है कि भविष्य अपने लक्षण वर्तमान में प्रकट कर देता है। नीम, पीपल और बरगद जैसे बड़े-बड़े वृक्षों के पत्ते चिकने होते हैं और उससे होने वाले वृक्ष का अनुमान हो जाता है-

होनहार बिरवान के होत चिकने पात।

इस प्रकार चिंतन-प्रणाली में धरती और बीज के बिम्बों का अध्ययन करते हुए हम देखते हैं कि मनुष्य का चिंतन शून्य में नहीं होता, वह किसी न किसी परिवे में होता है और वह परिवे मनुष्य के चिंतन को उत्प्रेरित ही नहीं करता, चिंतन के माध्यम भी प्रदान करता है। चिंतन का यह माध्यम है परिवे से प्राप्त बिम्ब। चिंतन निराकार-प्रक्रिया नहीं है, वह चित्रों के माध्यम से गति शील होती है, ठीक उसी प्रकार जैसे रात को सपने आते हैं। चिंतन की प्रक्रिया और स्वपन में अनेक समानताएँ हैं। दिन में मनुष्य जिसे देखता है, रात को उसके संबंध में सोचता है और सपने देखता है।

इस अध्ययन में प्रकृति संबंधी चिंतन और जीवन संबंधी चिंतन दोनों में हमारे सामने बीज और वृक्ष के जो बिम्ब प्रस्तुत हुए हैं, वे लोक और शास्र दोनों में ही व्यापक रुप से ग्रहण किए गए हैं परंतु जीवन के व्यावहारिक अनुभवों में लोकवार्ता की रुचि अपेक्षाकृत अधिक गहरी और जीवंत है जबकि शास्र का चिंतन सृष्टिविद्या और विश्वविद्या की ओर अधिक गहरा और तलस्प र्शी है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि शास्र ने सृष्टि के जिन प्रतीकों की व्याख्या की है, वे प्रतीक लोक में पूज्य और देवभाव से युक्त माने जाते हैं। प्रकृति संबंधी चिंतन को यदि मनुष्य जीवन के उद्गम की खोज भी कहा जाय तो असंगत नहीं होगा।


बीज वृक्ष जड़ नहीं हैं, वे सृष्टि की जीवंत प्रक्रिया हैं, जैसे स्वयं मनुष्य का जीवन। इसलिए ये बिम्ब मानव जीवन के लिए मात्र आलंकारिक या काल्पनिक बिम्ब और ख्याली बातें नहीं हैं, इनसे जो निष्कर्ष मनुष्य को प्राप्त हुए हैं, उन्होंने जीवन के सिद्धांत के रुप में मानव-इतिहास को व्यापक रुप से प्रभावित किया है, जिसका सर्व¸ोष्ठ उदाहरण कर्मफल का सिद्धांत है।


संदर्भ

१. लोका शस्र अंक (सं. राजेंद्र रंजन), पृ. १३३

२. श्रीमद्भागवत ४.१२.३९

३. पहेली : लोकोक्ति और लोकविज्ञान (सं-राजेंद्र रंजन)।

४. श्रीमद्भागवद्गीता अं. १२७

५. भागवत स्कंध ८, अध्याय ८.९

६. वही स्कंध ४, अध्याय १८

७. भागवत तथा म. भा. उद्योग १०२.४ शांति ३३६

८. पंचीकरण प्रक्रिया : वेदांत ग्रंथों में पंचमहाभूतों की मिश्रण प्रक्रिया को पंचीकरण कहा गया
है। पंचमहाभूतों में से प्रत्येक का न्यनाधिक भाग लेकर सबके मिश्रण से किसी नए पदार्थ
की उत्पत्ति होती है।

९. कबीर (डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी) से उद्धत।

१०. भागवत स्कंध ३ अ. ९

११. वही

१२. भागवत ३.२६.५१

१३. म. भा. (गीता प्रेस), पृ. ५२५७

१४. भागवत ५.२०.४.४

१५. नासदीय सूक्त ४

१६. छांदोग्य उपनिषद् अध्याय ६, खंड ११

१७. यो. वा. निर्वाण प्रकरण सर्ग ८६-८७

१८. भागवत १०.२.७

१९. मत्स्य. अ. २.१०

२०. श्रीविद्या कामधेनु (पं. हरिहर शास्री चतुर्वेदी) भूमिका।

२१. अस्माच्चकारणविंदो: साक्षात्क्रमण कार्यबंदुस्ततो
नादस्ततो बीजमितित्रयमुत्पन्नं तदिदं परसूक्ष्म स्थूल
पदैरपिरुच्यते। कल्याण :
शक्ति अंक, पृ. ४४८
श्री महाकाल संहिता (दक्षिणाखंड) में सृष्टि-प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-

एतस्सिन्नेव काले तु स्वबिम्बं पयति शिवा।
तद्विबं तु भवेन्माया तत्र मानसिकं
शिवम्।
विपरीत-रतौ देवि बिंदुरेकोऽभवत् पुरां।
श्री महासुंदरी रुपं ब्रिभ्रती परमा कला।

जब विश्व-सृजन की इच्छा से ाविा प्रका से बाहर सी होकर शिव को अपने सम्मुख करती है और दपंणवत्निर्मल होने के कारण दोनों परस्पर प्रतिबिंबित हो जाते हैं, तब विर्मा- शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, यहाँ 'ईक्षण' और 'स्फुरण' है। 'प्रका श' और 'विम र्श' का संयोग 'नाद' से 'बिंदु' और 'बिंदु' से चराचर की उत्पत्ति होती है। 'बिंदु' बीज है।

महाकाल संहिता का वाक्य है कि-'बिंदु ध्वनि-सकााात्तु प्रत्येक वर्ण जातय:। मातृकार्णस्तदा जाता अक्षरेति तदा भवन्।' बिंदु-ध्वनि से मातृका वर्ण उत्पन्न होते हैं।

तंत्राास्र में 'त्रिकोण' को 'योनि' भी कहा गया है। त्रिकोण तीन तथा मध्य बिंदु मिलाकर चार बिंदु हैं, जिन्हें 'स्वयंभू लिंग', 'इतरलिंग', 'बाणलिंग' तथा 'परलिंग' कहा गया है। 'कामकला' सृष्टिविद्या है।

'कामकला' में प्रकाा ाुक्ल बिंदु हैं, वर्मा रक्तबिंदु है तथा दोनों का पारस्परिक अनुप्रवेाात्मक साम्य मिश्र बिंदु है। 'कामकला' से तीनों बिंदुओ का बोध होता है। बिंदु लिंग है तथा त्रिकोण योनि है। इसी से समस्त तत्त्वों और पदार्थों की उत्पत्ति होती है।

२२. वट बीजांतर्गत वटवृक्षीय सूक्ष्मरुप तुल्य शब्द सृष्टि सूक्ष्मरुपाालिनी त्रिपुरसुंदरी एवं तादृा सूक्ष्म रुप वत्त्व प्रवृत्ति निमित्तिक परापदवाच्या:। (वरिवस्या: टीका) भागवत (स्कंध १२ अध्याय ५) में ाुकदेवजी ने कहा है कि बीज से अंकुर और अंकुर सी बीज की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देह से दूसरी देह की उत्पत्ति होती है।

२३. सुधासिंधोर्मध्ये सुरविटप वाटी परिवृते मणि द्वीपेनीपोपवनवति चिंतामणिगृहे। (सौंदर्यलहरी)

२४. श्री हरिहर शास्री चतुर्वेदी, मथुरा से सुनी हुई कथा से।

२५. गीता : २.४७

२६. यो. वा. निर्वाण प्रकरण सर्ग ४.४.

२७. वही निर्वाण प्रकरण ४.४

२८. मातृका रहस्य।

२९. श्रीविद्या कल्पलता (श्री हरिहर ाास्री)

३०. रज्जव बानी : तीजी रसरीति।

३१. यो. वा. वैराग्य प्रकरण सर्ग १८

३२. वही उपाम प्रकरण सर्ग ५०।

३३. कबीर ग्रंथावली।

३४. वही : जल में उत्पत्ति जल में वास।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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