ब्रज-वैभव

मथुरा मूर्ति कला

मथुरा कलाकृतियों में प्रस्तुत कथा दृश्य



बुद्ध जीवन के दृश्य

 

जातकों के ही समान मथुरा की कलाकृतियों में बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाए अंकित की गई हैं। उनमें से अधोलिखित विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।

(१) जन्म (सं. सं. ००. एच १; ००, एन २ इत्यादि, चित्र ४९)


इन दृश्यों में एक छायादार घने वृक्ष के नीचे एक स्री ख़ड़ी दिखलाई पड़ती है जो अपने उठे हुये दाहिने हाथ से वृक्ष की शाखा थामे रहती है और बाएं हाथ से बगल ही में खड़ी हुई दूसरी स्री का सहारा-सी लेती रहती है। उसकी दाहिनी ओर एक मुकुटधारी देवता नवजात शिशु की लेने के लिए दोनों हाथ फैलाये रहता है। इस दृश्य की मूलकथा निम्नांकित है :

गौतम बुद्ध जिन्हें पहले कुमार सिद्धार्थ कहते थे, कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के बेटे थे। इनके जन्म से ही लोगों की सारी इच्छाएं सिद्ध हो गई थी इसलिए इन्हें सिद्धार्थ कहा जाता था।१ इनकी मां का नाम मायादेवी था जो कुमार के जन्म के समय लुम्बिनी (रुम्मनदेई-नेपाल) के उद्यान में एक शालवृक्ष के नीचे खड़ी थी। उन्होंने अपने दाहिने हाथ से वृक्ष की टहनी को पकड़ लिया था। दैवी प्रभाव के कारण बोधिसत्त्व ने साधारण मनुष्यों की तरह से जन्म नहीं लिया अपितु अपनी माता के दाहिने पार्श्व से वे प्रगट हुए। सर्वप्रथम उन्हें शक्र और ब्रह्मा ने अपने हाथों में लिया। ये दोनों देवता मायादेवी के पास ही खड़े थे। माया के पास दिखलाई पड़ने वाली दूसरी स्री सम्भवत: उनकी बहिन महाप्रजापति गौतमी है।



(२) प्रथम स्नान (सं. सं. ००. एच २)


इस विशालखण्ड पर जो दृश्य बना है उसमें ऊँचे आसन पर एक नग्न मानव खड़ा है और उसके अगल-बगल दो मनुष्याकृति सपं हाथ जोड़े हुए दिखलाई पड़ते हैं। बिल्कुल ऊपर की ओर शंख, बांसुरी, मृदंग, और ढोल ये पांच वाद्य बने हुए हैं जो पंचतूर्य के नाम से पहिचाने जाते थे। स्पष्टत: ये वाद्य स्वर्गीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते हैं। कथा का रुप इस प्रकार है :

बोधिसत्त्व के जन्म लेते ही वहाँ पर एक कमल उत्पन्न हुआ जिस पर वे खड़े हो गये। तत्पश्चात् नंद और उपनन्द नामक दो नाग राजाओं ने आकाश में ठंडे और गर्म पानी की दो धाराएं उत्पन्न की जिनसे बोधिसत्त्व को प्रथम स्नान कराया गया।२



(३) जम्बू वृक्ष के नीचे कुमार सिद्धार्थ


इस दृश्य को अंकित करने वाला शिलाखण्ड इस सम्य दिल्ली के संग्रहालय में है।३ कथा निम्नांकित है :

कुमार सिद्धार्थ अपने साथियों के साथ कृषिग्राम गये। वहाँ पर उन्होंने एक सुन्दर जम्बू वृक्ष देखा जिसकी शीतल छाया बड़ी सुहावनी थी। उसी समय उन्होंने एक मुट्ठी-भर घास लेकर वृक्ष के नीचे आसन बनाया और स्वयं ध्यान में लीन हो गये।४

 

(४) गृह परित्याग

मथुरा कला में इस दृश्य का अंकन कम स्थानों पर हुआ है। एक तो मथुरा के संग्रहालय में है (सं. सं. ००. एच ३) जो अब बहुत ज्यादा घिस चुका है। दूसरा लखनऊ संग्रहालय में है (लखनऊ सं. सं. बी ८४)। परन्तु इसका सबसे अच्छा उदाहरण वह है जिस डॉ. फोगल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ में प्रकाशित किया है।५

संसार के दु:खों का कारण पता लगाने को तीव्र इच्छा से कुमार सिद्धार्थ ने एक रात्रि को अपना प्रासाद, सुंदरी पत्नी, नवजात शिशु और सभी प्रकार के भोगविलासों का परित्याग कर दिया। कंठक नाम के घोड़े पर बैठकर सेवक छंदक के साथ वे चुपचाप शहर से चले गये। लगभग छह योजन चलने के बाद वे घोड़े से उतर पड़े। अपना राजकीय वेष और सारे आभूषण उन्होंने छंदक को दिये और घोड़े के साथ उसे लौटने की आज्ञा दी। कुमार को इस प्रकार प्रव्रजित होते हुये देखकर केवल छंदक का ही नहीं बल्कि उस घोड़े का भी दिल भर आया परन्तु आज्ञा पालन करने के लिए उन्हें लौट जाना पड़ा।



(५) बुद्ध का मुट्टी भर घास लेकर बोधिवृक्ष के पास पहुँचना (सं. सं. १८.१३८९)


दरवाजे की धन्नी पर बने हुए एक दृश्य में बुद्ध की आवक्ष मूर्ति दिखलाई पड़ती है जो उठे हुये बाएं हाथ से वृक्ष की शाखा को पकड़े है। उसके वक्षस्थल के पास तक उठे हुये दाहिने हाथ में किसी चीज की एक गड्डी-सी है। दृश्य की पार्श्व भूमि इस प्रकार है :

सुजाता की दी हुई खीर का सेवन करने के बाद जब कुमार सिद्धार्थ ने ध्यानस्थ होने का विचार किया तब वे आसन के लिए घास खोजने लगे। इतने में रास्ते के दाहिनी ओर उन्हें स्वस्तिक नाम का घसियारा दिखलाई पड़ा। उससे उन्होंने मुट्ठी-भर घास मांगी और वे बोधिवृक्ष की ओर चल पड़े।६


(६) मार का आक्रमण (सं. सं. ०० एच. १; ००.एन २ इत्यादि)


बुद्ध के जीवन की प्रमुखतम घटना होने के कारण मथुरा कला में इसका अंकन अनेक स्थानों पर मिलता है। भूमिस्पर्श मुद्रा में बोधिवृक्ष के नीचे सिद्धार्थ

कुमार सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान को पाने का प्रयास करते हुए देख कर मार ने उनके मार्ग में बाधाएं 
खड़ी करने का निश्चय किया। प्रथम तो उसने अनेक प्रकार के शास्रों को धारण करने वाले भयानक मुखों वाले सैनिकों की सेनाएं भेजीं पर सिद्धार्थ निश्चल रहे। मार के प्रयत्न को देखकर दाहिने हाथ से भूमि को छूते हुए अथवा उसकी शपथ लेते हुए मार के प्रति उन्होंने यह प्रतिज्ञा वाक्य कहे, 'रे मार ! इस पक्षपातविहीन, चर-अचर को समान रुप से सुख देने वाली पृथ्वी को साक्षी बना कर मैं शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने निश्चय और प्रतिज्ञा से कदापि नहीं डिगूँगा।'७


अपने प्रथम प्रयास में इस प्रकार पराभव पाकर मार ने अपनी कन्याओं को अर्थात् स्वर्ग की अप्सराओं को बुलवाया और बोधिसत्त्व के मन को चंचल करने के लिए उन्हें भेजा। काम की इन सहेलियों ने बत्तीस प्रकार की  स्री-मायाओं८ का प्रदर्शन किया और भांति-भांति से बोधिसत्त्व का चित्त चंचल करने का प्रयास किया परन्तु वे भी पूरी तरह असफल रहीं।

इस प्रकार अपने सभी प्रयत्नों में असफलता गले बांधकर मार को अपनी पराजय का घोर दु:ख हुआ वह मुंह लटका कर एक ओर बैठ गया।



(७) दो श्रेष्ठियों द्वारा भोजनदान


यह कलाकृति राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में है।९ बुद्ध के संबोधि प्राप्त करने के सात सप्ताह बाद त्रपुष और भल्लिक नाम के दो व्यापारी अपने अनुयायियों के साथ उस प्रदेश में आये। काशायवस्र पहने हुये संबुद्ध कुमार सिद्धार्थ को, जो महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से सुशोभित थे, देखकर दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और बुद्ध को प्रथम भोजन देने का सम्मान प्राप्त किया।१०



(८) लोकपालों द्वारा भिक्षापात्रों का दान (सं. सं. ००.एच १२)

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इस शिलाखण्ड पर एक आसन पर बुद्ध बैठे हुये हैं, उनके चारों ओर मुकुटधारी चार भद्र पुरुष हैं जिनके हाथों में एक-एक मात्र है। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ये लोकपाल हैं।

अभिसंबुद्धकुमार सिद्धार्थ का प्रथम भोजन करने का समय निकट आया हुआ जानकर वैश्रवण, धृतराष्ट्र, विरुधक और विरुपाक्ष नाम के चार लोकपाल वहां पर आये। प्रथम तो वे सोने के पात्र लाये थे जिनको बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया। इसके बाद क्रमश: वे वैडूर्य, स्फटिक और मसारगल्ल नामक रत्नों के पात्र लाये पर वे सभी अस्वीकृत होते गये। अन्त में वे शिलामय पात्रों को ले आये जो भिक्षु के लिए उपयुक्त थे। बुद्ध ने अपने प्रभाव से इन चार शिलापात्रों को एक पात्र में परिणत कर दिया जिसका उपयोग उन्होंने त्रपुष और भल्लिक के द्वारा दिए गए भोजन के लिए किया।११



(९) महाब्रह्मा और इन्द्र का आगमन (सं. सं. ३६.२६६३, चित्र २७)


बहुत बार बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध का कोई प्रतीक चिह्म जैसे उनका प्रभामण्डल अथवा स्वयं बुद्ध बने रहते हैं और अगल-बगल में मुकुटधारी इन्द्र और जटाधारी ब्रह्मा नमस्कार मुद्र में दिखलाई पड़ते हैं। ललितविस्तार हमें बतलाता है कि सम्बोधि प्राप्त करने के बाद महा-ब्रह्मा और शक्र कई बार बुद्ध के पास यह प्रार्थना करने के लिए आये कि वे अपने नवीन ज्ञान का उपदेश लोगों को करें। बड़ी कठिनाइयों के बाद बुद्ध के द्वारा यह प्रार्थना स्वीकार की गई।१२



(१०) धर्म-चक्र-प्रवर्तन (सं. सं. ००. एच १५९.४७४०, चित्र ५२)


बुद्ध द्वारा धर्म चक्र का प्रवर्तन दिखलाने वाले दृश्य अन्य स्थानों के समान मथुरा में भी विपुल हैं। इसमें या तो आसनस्थ बुद्ध व्याख्यान-मुद्रा में दिखलाये जाते हैं, या सही अर्थ में धर्मचक्र को चलाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। बहुधा वे शिष्यों से घिरे हुए रहते हैं। बौद्ध कथायें हमें बतलाती हैं कि शक्र और महाब्रह्मा की प्रार्थना को स्वीकार कर बुद्ध वज्रासन से उतर पड़े और वाराणसी की ओर चले। वहां पर सारनाथ में, जिसे उस समय इसिपतन कहते थे, उन्हें उनके पुराने पांच साथी मिल जो आगे चल कर पंच भद्रवर्गीय भिक्षु कहलाये। इन भिक्षुओं को उन्होंने सर्वप्रथम 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' अपना अमूल्य उपदेश दिया और इस प्रकार अपने धर्मचक्र को गति दी।

रुपकात्मक भाषा का प्रयोग करते हुए ललितविस्तर बतलाता है कि इस प्रकार बारह तिल्लियों वाले, तीन रत्नों से सुशोभित धर्म चक्र को कौडिन्य, पंच भद्रवर्गीय, छह करोड़ देवता तथा अन्यान्य लोगों के सम्मुख भगवान बुद्ध द्वारा चलाया गया।१३



(११) श्रावस्ती के चमत्कार (सं. सं. १३.२९०)


इस प्रतिमा में बुद्ध खड़े हैं और उनके कन्धों से ज्वालाएं निकल रही हैं। इस कला-कृति में बुद्ध के प्रातिहार्य का चित्रण है जो उन्होंने श्रावस्ती (आज का सहेत-महेत) में किया था। बौद्ध कथाओं के अनुसार१४  अन्य मतों के आचार्यों द्वारा चुनौती दी जाने पर भगवान बुद्ध ने भी अपना प्रभाव दिखलाने के लिए श्रावस्ती में प्रातिहार्य करने का निश्चय किया। पूर्व-निश्चित समय पर सारे जनसमूह के सम्मुख उन्होंने चार प्रातिहार्यं या चमत्कार दिखलाये। ये चार प्रातिहार्य ज्वलन, तपन, वर्षण और विद्योतन के नाम से पहिचाने आते हैं। आकाश में स्थित बुद्ध के शरीर से जनता ने ज्वालाएं, गर्मी, जल और प्रकाश को निकलते देखा। प्रस्तुत प्रतिमा में ज्वलन प्रातिहार्य दिखलाया गया है।



(१२) बुद्ध दर्शन के लिए इन्द्र का आगमन अथवा इन्द्रशिला गुफा का दृश्य (सं. सं. ००. एच ११; ००. एन ३)


मथुरा कला मे इस दृश्य का चित्रण विपुलता से पाया जाता है। अन्यत्र यथा बुद्ध-गया, साची, अमरावती एवं स्वातनदी की घाटी में भी१५  इसका अंकन मिलता है। मथुरा की कलाकृतियों में बहुधा किया गया गुफा का अंकन दिव्यावदान के वर्णन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।१६ पर्वत की गुफा उसमें बैठे हुए बुद्ध, वन का प्रातिनिध्य करने वाले सिंह और मयूर, वीणा पर गायन करने वाला गन्धर्व तथा ऐरावत के साथ इन्द्र का लेखन बड़े ही सुन्दर प्रकार से हुआ है। कथा निम्नांकित है :

एक समय बुद्ध राजगृह के पास एक गुफा में बैठे हुए थे। वहाँ उनका पूजन करने के लिए देवराज इन्द्र आया। उसके साथ ऐरावत हाथी तथा अन्त:पुर की अन्य रमणियाँ भी थी। बुद्ध समाधि में थे। उस समय वहां गन्धर्वराज पंचशिख ने मधुर गायन किया तथा देवराज ने तथागत का पूजन किया। 


(१३) नालागिरि हाथी का दमन


इस दृश्य का अङ्कन यहाँ कम मिलता है। लखनऊ के राज्य-संग्रहालय१७ में केवल एक ऐसी प्रतिमा है जिसमें बुद्ध खड़े हैं और उनके पैरों के पास नालागिरि हाथी पैर झुकाये बैठा है। इस हाथी को मदान्ध बनाकर देवदत्त द्वारा बुद्ध पर छोड़ा गया था, पर तथागत के प्रभाव से वह नम्र हो गया।



(१४) बुद्ध का स्वर्ग से अवतरण (सं. सं. ००. एन. २; ३९.२०६८; चित्र २८)


इस दृश्य को पहिचानने का मुख्य लक्षण तीन सीढियों का बनाया जाता है, जिनमें से निचली सीढ़ी के नीचे नमस्कार मुद्रा में झुकी हुई एक स्री भी दिखलाई पड़ती है। कुछ नमूनों में इन सीढियों पर तीन प्रतिमाएं भी बनी रहती हैं।

बुद्ध के स्वर्गावतरण की कथा इस प्रकार है। संबोधि की प्राप्ति के बाद बुद्ध अपनी माता को उपदेश देने के लिए स्वर्ग में गए। वहां पर तीन महीने रहकर उन्होंने अनेक उपदेश दिये। तदुपरान्त वे संक्श्य (वर्तमान संकिस्सा) नामक स्थान पर पृथ्वीतल पर उतर आये। इस समय स्वर्ग से तीन सीढियाँ लगाई गईं। एक सोने की, दूसरी रत्नों तथा तीसरी चाँदी की थी। बीचवाली सीढ़ी से बुद्ध उतरे तथा अगल-बगल वाली सीढियों से शक्र और ब्रह्मा उनके साथ आये। उतपलवर्णा नाम की भिक्षुणी ने सर्वप्रथम उन्हें देखा और उनका स्वागत किया। मूर्तियों में सीढ़ी के पास झुकी हुई स्री यही उत्पलवर्णा है।



(१५) बालकों द्वारा बुद्ध को धूलि-दान (सं. सं. ००.एच १०)


इस संग्रहालय में अब तक संगृहीत मूर्तियों में केवल एक ही स्थान पर यह दृश्य अङ्कित है। गांधार कला में भी इसके नमूने देखे जा सकते हैं।१८ प्रस्तुत शिलाखण्ड पर भिक्षापात्र फैलाकर खड़े हुए बुद्ध के सामने नमस्कार मुद्रा में झुकी हुई दो नन्हीं-सी मानव आकृतियाँ बनीं है। बौद्ध कथाएं हमें इस दृश्य को समझने में बड़ी सहायता करते हैं।

एक बार बुद्ध राजगृह में भिक्षाटन कर रहे थे। रास्ते में उन्हे दो बालक जिनका नाम जय और विजय का धूल से खेलते हुए मिले। इनमें से एक बालक ने मुट्ठी-भर धूल बुद्ध के भिक्षापात्र में यह कहकर डाल दी कि यह जौ का आटा है, दूसरा इस घना को देखता रहा। बुद्ध ने इस पांशु अंजलि को बड़े प्रेम से स्वीकार किया और भविष्यवाणी की कि धूलिदान करने वाला बालक भविष्य में सम्राट् अशोक होगा।१९



(१६) नंद और सुन्दरी की कथा (सं. सं. १२.१८६, लखनऊ संग्रहालय संख्या जे ५३३)


अश्वघोष के प्रमुख काव्य सौंदरानन्द की यह मुख्य कथावस्तु है। इसका अङ्कन मथुरा में नहीं अपितु गांधार कला में भी हुआ है। मथुरा कला में इसका उपयोग द्वारा स्तम्भों को सजाने के लिए किया गया है, जिसका सबसे सुन्दर उदाहरण इस समय लखनऊ के राज्य संग्रहालय में है।

अश्वघोष द्वारा वर्णित कथा हम नीचे दे रहे हैं।२० धम्मपद की टीका में दी हुई कथा में थोड़ा अन्तर है। शाक्य वंश के एक कुमार का नाम नंद था। सुन्दरी उसकी पत्नी थी। एक समय अपने महल के ऊपर वाले मेंजिस पर जब दोनों पति-पत्नी विहार कर रहे थे, उस समय बुद्ध ने नंद के प्रासाद में भिक्षार्थ प्रवेश किया। सेवकों ने उनकी ओर कोई ध्यान न दिया और न उनके आगमन की कोई सूचना दी। फलत: किंचित रुककर बुद्ध बाहर चले गये। उनका इस प्रकार असम्मानित होकर जाना महल की छत पर कढ़ी एक सेविका देख रही थी। उसने नंद को यह समाचार दिया। तत्काल नन्द अपनी प्रियतमा की आज्ञा लेकर सौध पर से उतर आया और बुद्ध के पीछे चला। मार्ग में ही उसने बुद्ध को प्रणाम किया और अपराध के लिए क्षमा-याचना की। बुद्ध नन्द को अपने मठ में ले गये और बहुत कुछ उसकी इच्छा के विरुद्ध ही उन्होंने उस प्रव्रजित भी किया। वे बार बार उस भौतिक सुखों का परित्याग करने का उपदेश देते थे। पर नन्द पर इन उपदेशों का कोई प्रभाव न पड़ा, वह सदैव खिन्न ही रहा करता था। तब एक दिन बुद्ध उसे अपने साथ स्वर्ग ले गए और वहां की अनिंद्य सुन्दरियों का उसे दर्शन कराया। अब उनके सामने नन्द को सुन्दरी का सौन्दर्य फीका मालूम पड़ने लगा और उन्हें पाने की इच्छा जग उठी। बुद्ध ने उन्हें बदलाया कि उन्हें पाने के लिए घोर तप करना होगा। नन्द ने तपस्या प्रारम्भ की। शनै:-शनै: बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द ने वैराग्य की भावना जगाई। अन्ततोग्तवा सभी प्रकार के ऐहिक और पारलौकिक सुखों का परित्याग कर नन्द सच्चा विरक्त भिक्षु बन गया।



(१७) तपस्वी ब्राह्मण बावरी की कहानी (सं. सं. ०० ज. २, ऊपरी भाग)


एक वेदिका स्तम्भ के ऊपरी फुल्ले में यह दृश्य अंकित है। यहाँ एक छत्रधारी व्यक्ति श्रोताओं के बीच कोई भाषण दे रहा है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के मतानुसार यह निम्नांकित कथा का चित्रण है :२१ 

गोदावरी के तट पर अपने सोलह शिष्यों के साथ बावरी नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण रहता था। उसके पास एक दिन एक ब्राह्मण आया और ५०० मुद्राओं की याचना करने लगा। उक्त धनराशि को न पाकर उसने बावरी को इस पर घोर दु:ख हुआ पर किसी दयालु देवता ने उसे बुद्ध के पास आने का सुझाव दिया। अपने सभी शिष्यों को लेकर यह बुद्ध के पास पहुँचा जहाँ प्रत्येक ने बुद्ध से एक-एक प्रश्न पूछा। सबको समाधानकारक उत्तर देकर बुद्ध ने सन्तुष्ट किया।



(१८) बुद्ध का महापरिनिर्वाण (सं. सं. ००. एच ७, ०० 'एच ८, ००' एच २, इत्यादि)


बुद्ध जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होने का कारण इसका अङ्कन कई स्थानों पर मिलता है। जब बुद्ध की मृत्यु हुई उस समय उनकी आयु ८० वर्ष की थी। वे उन दिनों कुशीनगर (कसिया, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश) को जा रहे थे। अपना अंत निकट जानकर उन्होंने आनन्द से दो शाल वृक्षों के बीच चौकी लगाने के लिए कहा, और सिरहाना उत्तर की ओर करके दाहिनी करवट पर लेट गये। इसी समय एक घुमक्कड़ साधु, जिसका नाम सुभद्र था, वहाँ आया। यही बुद्ध का अन्तिम शिष्य हुआ। अंत में अपने सभी शिष्यों को निर्वाण के लिए अनन्त प्रयत्न करते रहने का आशीर्वाद देकर भगवान बुद्ध ने अपना पार्थिव देह त्याग दिया। उस समय वहाँ उनके अपने शिष्य, अन्तिम भिक्षु सुभद्र, कुशीनगर के मल्ल शासक आदि के अतिरिक्त कई देवतागण भी उपस्थित थे।

कलाकृतियों में राजा के समान दिखलाई पड़ने वाला पुरुष बहुधा मल्लों का अधिपति है। नीचे की ओर ध्यानस्थ सुभद्र है तथा अन्य भिक्षु शोकमुद्रा में खड़े हैं। वृक्ष के ऊपर वृक्ष-देवता भी दिखलाई पड़ता है।



अन्य बौद्ध दृश्य


(क) रामग्राम में नागों द्वारा स्तूप का संरक्षण (सं. सं.०० जे ७१ पृष्ठ भाग)

बहुधा कलाकृतियों में ऐसे सी स्तूप दिखलाई पड़ते है जो नागों द्वारा घिरे हुये रहते हैं। इस प्रकार का स्तूप रामग्राम के प्रसिद्ध स्तूप का चित्रण माना जाता है जिसमें बुद्ध के पवित्र अवशेष रखे हुये थे। बात यह थी कि बुद्ध के महानिर्वाण के उपरान्त उनकी धातुओं या पाञ्चभौतिक अवशेषों को आठ भागों में विभक्त कर आठ स्तूप बनाये गये थे। उसमें एक रामग्राम का स्तूप भी था। अशोक ने आगे चलकर इनमें से सात स्तूपों को खोला और उनमें निहित पवित्र अवशेषों को लेकर चौरासी हज़ार स्तूपों का निर्माण कराया। परन्तु वह आठवां अर्थात् रामग्राम का स्तूप नहीं खोल सका क्योंकि उसका संरक्षण नागगण बड़ी सावधानी से करते थे।

(ख) लंका के राजा द्वारा सुमन की सहायता से बुद्ध-धातु की प्राप्ति (सं. सं. १७.१२७०) २२--एक पाषाण खण्ड पर चलता हुआ अलंकृत हाथी बना है तथा 'शस्तख धतु' ये शब्द लिखे हैं। कथा इस प्रकार है :

लंका में बुद्ध के धातु-अवशेष न होने के कारण महेन्द्र लंका का परित्याग करना चाहते थे। वहाँ के राजा ने उन्हें ऐसा न करने की प्रार्थना की तथा सुमन को भेजकर भारत से उसने बुद्ध के धातु-अवशेष प्राप्त करने का निश्चय किया। सुमन भारत आये, फिर वे स्वर्ग गये जहाँ से इन्द्र द्वारा उन्हें बुद्ध के गले की दाहिनी हड्डी (दक्खिनक्खक) मिली। लंका में राजकीय हाथी के मस्तक पर उसे पधराकर उसका विशेष सम्मान किया गया।



पूजन दृश्य



कथा दृश्यों के अतिरिक्त कई दृश्यों में भक्तगण स्तूप, धर्मचक्र, गंधकुटी या बुद्ध का निवास स्थान, बोधिवृक्ष का मन्दिर या इस प्रकार की पूजनीय वस्तुओं का पूजन करते हुए, अथवा हाथों में पूजन सामग्री लेकर चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं। कुछ दृश्यों में स्तूपों का पूजन करने वाले किन्नर और सुपर्ण भी देखे जा सकते है (चित्र १२)। इन्हें आकाश में उड़ता हुआ दिखलाया गया है।




१. ललितविस्तर, ७, पृ. ९६ जातमात्रेण सर्वार्था: संसिद्धा:।

२. जे. फोलग,
The Mathura School of Sculpture, ASIR. , १९०६-७ पृ. १५२।

३.
A Guide to the Galleries of the National Museum of India, New Delhi, १९५६ पृ.३।

४. मिलाइये ललितविस्तर, ११.१९, पृ. ९३।

 
५. फोगल,
La Sculpture De Mathura , फलक ५१ ए

६. ललितविस्तर, १९, पृ. २०७-८।

. ललितविस्तर, २१, ८८, पृ. २३३ -


इयं मही सर्व जगत् प्रतिष्ठा।
अपक्षपाता सचराचरेसमा।।
इयं प्रमाणं मम नास्ति मे मृषा।
साक्षित्वमर्जिं मम संप्रयच्छतु।।


८. ललितविस्तर (मारधर्षण परिवर्त, २१, पृ. २३३-३४) में वर्णित इन स्री-मायाओं में से कई मथुरा कला के वेदिकास्तम्भों पर चित्रित की गई हैं। कुछ के उदाहरण निम्नांकित है :


(क) बाहूनुत्क्षिप्य बिजृम्भमाणान् कक्षान् दर्शयन्ति (सं. सं. १५.९७७)

(ख) उन्नतान्कठिनान्पयोधरान्दर्शयन्ति (सं. सं. १३.२८६)

(ग) अर्धनिमिलितैर्नयनै: बोधिसत्त्व निरीक्षन्ते (सं. सं. ००. जे १२)

(घ) शिर: स्वंसेषु च पत्रगुप्तांशुकसारिकांश्चोपविष्टानुपदर्शयन्ति (सं. सं. १७.१३०७, १२.२५८)


९.
A Guide to the Galleries of the National Museum of India, १९५६, पृ. ३।

१०. ललितविस्तर, २४, पृ. २७६-७७।

११. ललितविस्तर २४, पृ. २७६-७७।

१२. ललितविस्तर २५, पृ. २८७-९२।


अभूच्च ते पूर्वभवेष्वियं मति:। तीर्ण: स्वयं तारयिंता भवेयम्।
असंशयं पारगतोऽसि सांप्रतं। सत्यां प्रतिज्ञां कुरु सत्यविक्रम:।।३२
धर्मोल्कया विधम मुनेऽन्धकारा। उच्छेपय त्वं हि तथागतध्वजम्।
अयं स काल: प्रतिलाभ्युदीरणे। मृगाधिपो वा नद दुन्दुभिस्वर:।।३३

१३. ललितविस्तर, २६, ४२-४६, पृ. ३०५।


एवं हि द्वादशाकारं धर्मचक्रंप्रवर्तितम्।
कौण्डिन्येन च आज्ञातं निर्वृत्ता रतनात्रय:।।
बुद्धो धर्मश्च संघश्च इत्येतद्रतनात्रयम्।
कौडिन्यं प्रथमं कृत्वा पंचकाश्चैवभिक्षव:।
षष्टीनां देवकोटीनां धर्मचक्षुर्विशोधितम्।।


१४. दिव्यावदान, १२ पृ. १००।

१५. वासुदेवशरण अग्रवाल,
Catalogue of the Mathura Museum, FUPHS., खण्ड २३, पृ. १२५-२६।

१६. मिलाइये--दिव्यावदान ३८, मैत्रकन्यकावदान, श्लोक ७२-७३, पृ. ५०२। 

१७. लखनऊ संग्रहालय संख्या बी ३५६।

१८. एन. जी. मजुमदार,
A Gudie of the Sculpture in the Indian Museum, १९३७, खण्ड २, पृ. ५८।

१९. दिव्यावदान २६ - पांशुप्रदानावदान, पृ. २३०।

२०. एन. जी. मजुमदार,
A Guide to the Sculpture in the Indian Museum, १९३७, खण्ड २, पृ.५२।

 

२१. वासुदेवशर्ण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, FUPHS ., खण्ड २४-२५, पृ. ४।

२२. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, FUPHS., खण्ड २४-२५, पृ. १५१-५२। 

 

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