ब्रज-वैभव

मथुरा मूर्ति कला

मथुरा कलाकृतियों में प्रस्तुत कथा दृश्य


यह पहले ही वर्णित किया जा चुका है कि मथुरा की कला किसी धर्म विशेष की बंधी हुई नहीं है। इसके आचार्यों ने ब्राह्मण, जैन व बौद्ध धर्मों की समान रुप से सेवा की है। फलत: इसमें अनेक विषयों का अंकन हुआ है। इनमें से बहुतों की चर्चा तो हम पहले ही कर चुके हैं तथापि विभिन्न स्थानों पर दिखलाई पड़ने की चर्चा तो हम पहले ही कर चुके हैं तथापि विभिन्न स्थानों पर दिखलाई पड़ने वाले कथा-दृश्यों का विशद विवरण प्रस्तुत करना विशेष उपयोगी होगा क्योंकि इससे उन कथा दृश्यों को समझने और उनका मूल्यांकन करने में बड़ी सहायता मिलेगी। इस क्रम में उन्हीं कथा दृश्यों का विस्तार से वर्णन किया जाएगा, जो पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा में विद्यमान है। उन कथा-दृश्यों को जो अन्य संग्रहालयों में विद्यमान हे, केवल संकेत भर वर्णन किया जाएगा साथी ही उनका संदर्भ भी दिया जाएगा।

साधारणतया इन विविध कथा दृश्यों को निम्नांकित रुप से बाँटा जा सकता है-


इनमें बौद्ध कथाओं की संख्या सर्वाधिक है। यह अवश्य ही आश्चर्य का विषय है कि जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र होते हुए भी माथुरी कला में जैन कथाओं का अंकन बहुत ही अल्प है। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथा-दृश्यों की भी बहुलता नही है। अतएव प्रथम बौद्ध कथाओं का वर्णन प्रस्तुत किया जाएगा।

बौद्ध कथा दृश्य - इन्हें यहाँ दो रुपों में समझा जा सकता है - एक तो बुद्ध के अतीत जन्मों की कथाएँ और दूसरे बुद्ध जीवन के दृश्य। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बुद्धत्त्व की प्राप्ति के पूर्व बुद्ध ने कई जन्म लिए थे। इन जन्मों की कथाएँ जातक कथाओं के नाम से प्रसिद्ध है। इन कथाओं को वेदिका स्तम्भों पर, सूचिकाओं पर अथवा दीवालों पर अंकित करना प्राचीन काल की सामान्य परिपाटी थी, जिसके नमूने भरहुत, सांची, अमरावती आदि स्थानों पर तथा गांधार कला में भी प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। मथुरा की कला थी इस नियम के लिए अपवादी नहीं है। यहाँ की कलाकृतियों में अब तक निम्न जातकों की पहचान हो चुकी है। इनका संक्षिप्त प्रस्तुतिकर निम्न है -



दुखोपादान जातक (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१५.५८६, चित्र-१३)१


इसका अंकन एक वेदिका स्तंभ पर किया गया है (चित्र-१३) जिसमें एक फुल्ले में पर्णशाल के सामने एक बैठा हुआ साधु दिखलाई पड़ता है। ठीक उसकी के पास उसकी ओर मुँह किए हुए एक साँप, हिरन, कौवा तथा कबूतर भी अंकित है। कथा इस प्रकार हे कि एक बार चार बौद्ध भिक्षुओं में दु:ख के मूल कारण के विषय में सत्संग चला। चारों के मत भिन्न-भिन्न थे। अत: वे शंका निवृत्ति के लिए बुद्ध के पास पहुँचे। बुद्ध के पूर्व जन्म की एक घटना को बतलाते हुए उनका समाधान किया। उन्होंने बतलाया कि एक वन में रहने वाला हिरण, कौवा, साँप तथा कबूतर में पहले एक बार ऐसी ही बाद उठ पड़ा था। कबूतर का मत था कि प्रेम दु:ख का उपादान है, कौवे के मतानुसार दु:ख का उपादान भूख थी, साँप के मतानुसार दु:ख का उपादान घृणा थी और हिरण सोच रहा था कि भय के अतिरिक्त दु:ख का कोई दूसरा उपादान नहीं हो सकता। निकट में निवास करने वाले एक साधु से यह प्रश्न पूछा गया। उसने बतलाया कि तुम सभी अंशत: सच बतला रहे हैं पर दु:ख के मूलतम उपादान तक नहीं पहुँच पा रहे हो। साधु ने बताया कि देह धारण करना ही समस्त दु:खों का कारण है।

समारोप करते हुए बुद्ध ने बताया कि उस जन्म में साधु रुप में वे स्वयं थे और विवाद करने वाले चार भिक्षु चार जानवर थे। यह जातक कथा आज के उपलब्ध पाली साहित्य में नहीं उपलब्ध होती, अपितु बुद्ध जीवन से संबंधित एक चीनी ग्रन्थ में इसका वर्णन प्राप्त होता है।

सिसुमार अथवा वानरिन्द जातक ( (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-००.जे.४२, १२.१९५)२

यह कथा दो वेदिका स्तम्भों पर अंकित मिलती है। इसमें एक मगर और बन्दर को एक साथ दिखलाया गया है। कथा यह है कि एक समय बोधिसत्व बन्दर के रुप में एक नदी के तट पर निवास करते थे। उसी नदी में मगर का कर जोड़ा भी निवास करता था। एक बार मगर की पत्नी ने बन्दर का कलेजा खाने की इच्छा अपने पति से प्रगट की। प्रियतमा की इच्छा पूरी करने के लिए मगर ने बन्दर से दोस्ती की और एक दिन उसे सुझाया कि बन्दर को चाहिए कि वह नदी के दूसरे तट पर वृक्षों पर लगे हुए ताजे और मधुर फलों को खाया करे और इसके लिए वह स्वयं उस नदी पार ले जाया करेगा। बन्दर चालाक मगर की बातों में भरमा गया और उसकी पीठ पर बैठ कर नदी में चल पड़ा। मध्य धारा में पहुँच कर मगर ने बन्दर को अपनी वास्तविक योजना से अवगत कराया और स्वयं पानी में डूबने लगा। चतुर बन्दर हँस पड़ा, उसने कहा आश्चर्य है कि तुम्हें यह ज्ञात ही नहीं है कि बन्दर अपना कलेजा कभी भी अपने साथ फल खाने के क्रम में अथवा वृक्षों पर से फल तोड़ने के क्रम में अपने साथ नहीं रखते, अन्यथा कूँदन-फाँदन में कलेजे के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। बन्दर तो कलेजे को पेड़ों की शाखाओं पर छिपा कर लटका कर रखते हैं। मूर्ख मगर ने इस बात पर विश्वास कर लिया और बन्दर का कलेजा पाने के लालच से उसे पुन: किनारे पर पहुँचा दिया। अब बन्दर कूद पड़ा और मगर की बुद्धिहीनता पर हँसने लगा।

जातकों के अतिरिक्त यह कथा थोड़े अन्तर परिवर्तनों के साथ पंचतन्त्र में भी पाई जाती है।

महासुतसोम जातक (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१४.४३१, ००.जे.२३)३ (चित्र-१५)

इस कथा का सबसे अच्छा उदाहरण एक प्रस्तर खण्ड पर प्राप्त होता है। यहाँ एक पुरुष कंधें पर बहेंगी लिए जा रहा है जिसके दोनों छोरों से एक-एक मानव आकृति लटक रही है।

इस जातक की कथानुसार एक समय वाराणसी के किसी राजा को मानव का मांस खाने की रुचि उत्पन्न हो गई। अपनी दुष्ट इच्छा का पूर्ण करने के लिए उसने कितने ही निरीह मनुष्यों को मार डाला। जब इसका भेद खुला तब लोगों ने उसे राज्य से राजच्युत कर निकाल दिया। इसके बाद वह जंगल में पहुँचकर वहाँ पर भी आने-जाने वाले पथिकों को मार कर खाने लगा। एक बार उसके पैर में चोट लगी। अतएव उसने वृक्ष देवता की मनौती की कि उसका व्रण एक सप्ताह में ठीक होने पर वह एक सौ एक कुमारों की बलि चढ़वाएगा। संयोग से उसका पैर ठीक हो गया। अब अपनी मनौती की पूर्ति के लिए उसने एक सौ एक कुमारों को पकड़कर एक वृक्ष से लटका दिया। अन्तिम कुमार बोधिसत्व 'सुतसोम' थे जिन्हें इस नरभक्षक ने पकड़ लिया, पर बोधिसत्व के अदम्य साहस, निर्भीकता आदि गुणों से वह अत्याधिक प्रभावित हुआ और अन्ततोगत्वा उसकी सम्पूर्ण जीवन-धारा को पलट देने में 'बोधिसत्व सुतसोम' पूरी तरह सफल हो गया।

रोमक अथवा परावत जातक (म.स.मू.स. ००.आईप, चित्र-२४)४

यह जातक अपने मूल स्थान पर कई भागों में अंकित थी। इस समय अवशिष्ट शिला-खण्ड पर केवल दो भाग देखे जा सकते हैं। कथा दृश्य के ऊपर मालचारी यक्षों की पंक्ति बनी हुई थी। यहाँ हम कुछ साधु व कबूतर देखते हैं। इन साधुओं में एक दूसरे की अपेक्षा अवस्था में वृद्ध है। यह अनुमान उसकी दाढ़ी से किया जा सकता है। इस जातक की कथा का संक्षिप्त रुप इस प्रकार है-

एक समय बोधिसत्त्व ने कबूतरों के राजा के रुप में जन्म लिया था। कबूतरों का यह झुण्ड जंगल में निवास करने वाले एक साधु के यहाँ नियमित रुप से जाता रहा। यह साधु एक गुफा के पास रहा करता था। वृद्धावस्था के कारण आगे चलकर वह साधु उस स्थान को छोड़कर कहीं चला गया और उसके स्थान पर दूसरा एक तरुण साधु निवास करने लगा। कबूतरों का झुण्ड पहले की भाँति अब भी आता रहा। एक दिन इस नवीन साधु को कबूतरों का मांस खाने को मिला जो उसे स्वादिष्ट लगा। इस विषय में उसका लोभ बढ़ा और उसने इन कबूतरों के झुण्ड में शिकार करने की सोची। दूसरे दिन वह अपने कपड़ों में डण्डा छिपा कर कबूतरों की राह देखने लगा। उसकी चेष्टाओं से बोधिसत्त्व को उसके कपट व्यवहार का पता लग गया और उन्होंने अपने अनुयायियों को वहाँ जाने से रोक दिया। अब इस तरुण साधु का कपट खुल गया और अन्ततोगत्त्वा पास-पड़ोस वालों के डर से उसने वह स्थान त्याग दिया।

वेस्सन्तर जातक (म.स.मू.स. ००.जे ४ पृष्ठ भाग)५

इस जातक कथा का अंकन कलाकारों का प्रिय विषय रहा। भरहुत और सांची की कलाकृतियों में भी यह प्रचुर रुप से अंकित है। मथुरा में यह कई भागों में दिखलाया गया था। संग्रहालय में प्रदर्शित वेदिकास्तम्भ के पिछले भाग पर इसके कुछ दृश्य मुख्यत: कुमार वेस्सन्तर और याचक ब्राह्मण, कुमार द्वारा ब्राह्मण को अपने दोनों पुत्रों का दान तथा एकाकिनी स्रीमूर्ति कदाचित् वेस्सन्तर की पत्नी अंकित है। उस समय बोधिसत्त्व ने आदर्श दानी के रुप में कुमार वेस्सन्तर के नाम से जन्म लिया था। उन्होंने अपना श्वेत वर्ण का मंगल-गज, ब्राह्मणों को दान में दे दिया। फलस्वरुप उन्हें पत्नी और पुत्रों के साथ देशत्याग करना पड़ा। रास्ते में उन्होंने ब्राह्मण के माँगने पर अपना रथ और घोड़ा भी दे दिए। अब यह कुटुम्ब एक पर्वत पर निवास करने लगा, पर यहाँ भी 'पूजक' नाम का एक ब्राह्मण आ पहुँचा जिसने कुमार से उसके दोनों पुत्रों की याचना की। पत्नी की अनुपस्थिति में भी कुमार ने ब्राह्मण की प्रार्थना स्वीकार की। वस्तुत: यह ब्राह्मण कुमार वेस्सन्तर की परीक्षा लेने आया था। बाद में शुक्र देवता के प्रभाव से कुमार का सारा कुटुम्ब और उसका पुराना ऐश्वर्य सब कुछ उसे पुन: प्राप्त हो गए।


पाद-कुशल माणव जातक (म.स.मू.सं. १२.१९१)६  (चित्र-१६)

एक वेदिका स्तम्भ के मध्य में यह कथा दृश्य अंकित है। यहाँ हम एक अश्वमुखी यक्षी को एक तरुण पुरुष के कंधे को छूते हुए देखते हैं।

जातक कथा हमें बतलाती है कि किसी समय वाराणसी की एक रानी ने झूठी शपथ ली, जिस पाप के कारण वह घुड़मुँही यक्षी बनी। उसने तब तीन वर्षों तक वैश्रवण कुबेर की सेवा की और यह वर प्राप्त किया कि एक निश्चित परिशर के भीतर प्रवेश करने वालों को वह खा सकेगी। एक दिन एक सुन्दर और धनवान ब्राह्मण युवक उसके चुंगल में फँस गया। परन्तु यक्षी उसके सौन्दर्य पर लुब्ध हो गई और उसने उसे अपना पति बना लिया। परन्तु वह कहीं भाग न जाए इस भय से वह उसे सदा एक गुफा में कैद किए रहती थी। उससे इस यक्षी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो बोधिसत्त्व था। बोधिसत्त्व ने पैरों की चाप को सुनकर मनुष्य को पहचानने की कला में कुशलता प्राप्त की और इस विधा की सहायता से अपने पिता को घुड़मुँही यक्षी की कैद से मुक्त करा लिया।

कच्छप जातक (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-००.जे.३६)७  (चित्र-२३)

ऊपर वाले जातक के समान यह भी एक वेदिका स्तम्भ के पिछले भाग पर अंकित है। यहाँ एक कछुए को दो पुरुष लकड़ियों से पीटते हुए दिखलाई पड़ते हैं।

बात यह थी कि एक बकवादी कछुए और दो हँसों में मित्रता हो गई। हंसों ने कछुए को अपने देश चलने का निमन्त्रण दिया। कछुए को बात जच गई। हंसों ने एक छड़ी ली और कछुए को उसे बीचो-बीच अपने मुँह में पकड़ने को कहा। उसका ऐसे करने पर दोनों हंस अपनी चोंच में उस छड़ी को पकड़ कर उड़ चले। गाँव के बच्चों ने जब यह विचित्र दृश्य देखा तब उन्होंने कछुए की हँस उड़ाना प्रारम्भ कर दिया। बकवादी कछुआ उसे न सह सका। जैसे ही उत्तर देने के लिए कछुए ने मुँह खोल, वह भूमि पर आ गिरा और मर गया।

उलूक जातक (सं. सं. ००. जे ४११ चित्र २२)८

इसका अंकन भी एक वेदिका संतंभ के पृष्ठभाग पर किया गया है। यहां हम एक उल्लू को आसन पर बैठे हुए देखते हैं। दो बन्दर अगल-बगल खड़े होकर उसका अभिषेक कर रहे हैं। कथा के अनुसार पक्षियों ने एक समय उल्लू को अपना राजा चुना। उसका अभिषेक होने ही जा रहा था कि कौवे ने इस बात का विरोध किया और वह स्वयं आकाश में उड़ गया। उल्लू भी उसका पीछा करने के लिए आकाश में उड़ चला। इधर पक्षियों ने एक सुनहले हंस को अपना राजा चुना।

दीपंकर जातक (स. सं. ००. एच १०, लखनऊ संग्रहालय संख्या बी २२)९

इस जातक का सम्पूर्ण अंकन अब तक माथुरीकला में नहीं मिला है, परन्तु महत्त्वपूर्ण बातों का अंकन अवश्य है जैसे दीपंकर को फूल चढ़ाना तथा उनके सम्मुख सुमति का भूमि पर अपने कश फैलाना। जातक की पाली तथा संस्कृत कथाओं में कुछ अन्तर है। कथा का साधारण रुप निम्नांकित है :

सुमति नामक एक वेदज्ञ ब्राह्मण को एक राजा से दान में कई वस्तुएं मिलीं। इनमें एक कन्या भी थी। सुमति ने कन्या को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह आजन्म ब्रह्मचारी रहना चाहता था। कन्या सुमति पर मुग्ध हो चुकी थी, परन्तु उसके द्वारा अस्वीकार किये जाने पर वह दीपावती नामक नगरी में जाकर ईश्वर सेवा में समय बिताने लगी। इधर सुमति को कुछ विचित्र स्वप्न हुए जिनका अर्थ समझने के लिए उसे दीपावती नगरी में जाकर वहां पधारने वाले दीपंकर बुद्ध से मिलने का आदेश हुआ। सुमति को चाहने वाली वह कन्या भी दीपंकर का पूजन करना चाहती थी। इधर दीपावती के राजा ने अपने यहां आने वाले दीपंकर की पूजा के लिए नगर के सम्पूर्ण पुष्पों पर अधिकार कर लिया। फलत: कन्या को पूजन के लिए फूल न मिल सके। अतएव उसने अपनी तपस्या के प्रभाव से सात कमलों के विकसित कराया। यही कठिनाई सुमति के सामने भी थी। एकाएक उसने इस कन्या को फूल ले जाते हुए देखा। उसने फूलों की याचना की। पहले तो कन्या ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी, पर बाद में एक शर्त पर उसे पांच पुष्प देना स्वीकार किया। शर्त यह थी कि दीपंकर को पुष्प समपंण करते समय सुमति अपने मन में उस कन्या को अगले जन्म में पत्नी रुप में पाने की कामना रखे। सुमति ने इसे स्वीकार किया और दोनों दीपंकर का दर्शन करने के लिए चले। सुमति ने दीपंकर को जो पांच फूल चढ़ाये वे भूमि पर तो नहीं गिरे अपितु बुद्ध के मस्तक के ऊपर एक माला के रुप में स्थिर हो गये। उसी प्रकार कन्या के द्वारा समर्पित पुष्प भी दीपंकर के कानों पर स्थित हो गये। वर्षा के कारण इस समय रास्ते में कीचड़ हो रहा था। दीपंकर को चलने में कठिनाई हो रही है यह देखकर सुमति ने अपना मस्तक पृथ्वी पर झुकार दिया और अपने केश बिछाकर बुद्ध को चलने के लिए मार्ग बना दिया। बुद्ध ने उसके केशों पर पैर रखे और भविष्यवाणी की कि अगले जन्म में सुमति शाक्य मुनि के रुप में उत्पन्न होंगे।

शिबि जातक १०

मथुरा से प्राप्त एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर यह जातक कथा अंकित है। इसे शिबि जातक के नाम से पुकारा गया है पर यहां दिखलाई पड़ने वाले दृश्य पाली जातक कथा से मेल नहीं खाता। संभवत: यह ब्राह्मण संप्रदाय में प्रचलित राजा शिबि की कथा है जिसने एक कबूतर को बचाने के लिए अपने शरीर का मांस देना स्वीकार किया था।

व्याघ्री जातक (सं. सं ०० जे. ५; ३२.२२८०) ११

दोनों कलाकृतियों में यह जातक-दृश्य बड़े ही घिसे हुए हैं।

उपरोक्त जातक कथाओं के अतिरिक्त मथुरा कला में अधोलिखित दो अन्य जातकों का अंकन भी मिलता है, पर ये कलाकृतियां मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में नहीं है।

(क) वलाहस्स जातक१२

(ख) महिलामुख जातक१३

 

 

 

 

१. वासुदेवशरण अग्रवाल, CATALOGUE OF THE MATHURA MUSEUM, JUPHS , खण्ड २४-२५, पृ. ३९-३९।

२. यह जातक कथा मथुरा से प्राप्त एक अन्य वेदिका स्तम्भ पर भी अंकित है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में विद्यमान है। देखिए - लोझेन, डी. ले फ्यू जे. वी. TWO NOTES ON MATHURA SCULPTURES, INDIA ANTIGUA , फोगल स्मृति ग्रंथ, लीडन, १९४७, पृ. २३५-५९।

३. वासुदेवशरण अग्रवाल, CATALOGUE OF MATHURA MUSEUM, JUPHS , खण्ड-२४-२५, पृ.१५।

४. वासुदेवशरण अग्रवाल, CATALOGUE OF MATHURA MUSEUM, JUPHS , खण्ड २३, पृ. १२८।

५. वासुदेवशरण अग्रवाल, CATALOGUE OF THE MATHURA MUSEUM, JUPHS , खण्ड २४-२५, पृ. ५।

६. आनन्द कौसल्यान, जातक (हिन्दी) खण्ड ४, पृ. १६३।

७. ई.बी. कावेल, THE JATAKAS संख्या-२१५, जे. फोगल THE MATHURA SCHOOL OF SCULPTURE, ASIR , १९०६-९, पृ. १५९।

८. वही, संख्या २७०, वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, FUPHS. ,
खण्ड २४-२५, पृ. १९।

९. दिव्यावदान, १८ धर्मरुच्यावदान, पृ. १५२-५५, जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR ., १९०९-१०, पृ. ७२ ।

१०. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, FUPHS. , खण्ड २४-२५ पृ. १९; कावेल, ई. बी., The Fatak. , संख्या ४९९।

११. वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खण्ड २५-२५, पृ. ५०।

१२. जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR. , १९०९-१०, पृ. ७२, फलक २६ सी.। 

१३. इसकी पहचान लेखक द्वारा ही सर्वप्रथम की जा रही है। यह कलाकृति इस समय कलकत्ते के संग्रहालय में है : जे. फोगल, La Sculpture de Mathura फलक २० ए; काबेल, ई. बी., The Fataka, भाग २ संख्या २६, १९६



 

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