Top

अमीर ख़ुसरो दहलवी



टिप्पणी - अंतकरी - बंद कर दो, समाप्त कर दो अथवा बंद कर दिया। लरकाई - जीवन काल के बाल्यसुलभ व्यवहार। लगन..... धराई। ..... वैवाहिक संबंध स्थिर कर दिया। बिन माँगे .... ठहराई .... किसी की इच्छा न रहते हुए भी अपरिचित के साथ विवाह की बातें निश्चित कर दी। नौशा - दूल्हा। गहेल डोलति - मैं गँवार उन्मत सी बनकर अपने आँगन में इतराती चलती थी कि आशय - इस पद में भी मरणोपरांत जीवन काल के आनंद न लूट सकने के लिए पछतावा है।
इसी पद का एक अन्य रुप भी मिलता है -


बहोत रही बाबुल घर दुलहन, चल तोरे पी ने बुलाई।
बहोत खेल खेली सखियन से, अंत करी लरकाई।
विदा करन को कुटुम्ब सब आऐ, सगरे लोग लुगाई।
चार कहार मिल डोलिया उठाई, संग परोहित और भाई।
चले ही बनेगी होत कहा है नैनन नीर बहाई।
अंत बिदा हो चली है दुलहन काहू कि कछु न बने आई।
मोज खुसी सब देखत रह गए मात पिता और भाई।
मोरी कोन संग लगन धराई धन धन तेरी है खुदाई।
बिन माँगे मेरी मँगनी जो कीनी, नेह की मिसरी खिलाई।
एक के नाम की कर दीनी सजनी, पर घर की जो ठहराई।
गुन नहीं एक औगुन बहोतेरे कैसे नोंशा रिझाई।
खुसरो चले ससुरारी सजनी संग नहीं कोई आई।


जिस प्रकार कबीरदास, तुलसीदास, रहीमदास, आदि के दोहे बहुत मशहूर हैं ऐसे ही अमीर खुसरो ने भी बहुत से सूफी दोहे लिखे। कहीं-कहीं तो कबीर और खुसरो अपने अलग-अलग दोहों के माध्यम से एक ही बात कहते न आते हैं। आइए अमीर खुसरो के कुछ सूफी दोहे पढ़ें -

(१) खुसरो दरिया प्रेम का, सो उल्टी वाकी धार।
जो उबरा सो डूब गया जो डूबा हुआ पार।।

(२) रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।

(३) खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।

(४) चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।

(५) खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।

फारसी - खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।

(६) उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।

(७) श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।

(८) पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।

(९) नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।

(१०) साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।

(११) रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।

(१२) अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।

(१३) आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।

(१४) अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।

(१५) खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।

(१६) संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।

(१७) खुसरो मौला के रुठते, पीर के सरने जाय।
कहे खुसरो पीर के रुठते, मौला नहि होत सहाय।।

(१८) खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।

आइए अमीर खुसरो की कुछ मश्हूर रचनाऐं पढें -

(१) अपनी छवि बनाई के जो मैं पी के पास गई,
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।
छाप तिलक सब छीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के
बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंग रिजना
अपनी सी रंग दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
प्रेम वटी का मदवा पिलाय के मतवारी कर दीन्हीं रे
मोसे नैंना मिलाई के।
गोरी गोरी बईयाँ हरी हरी चूरियाँ
बइयाँ पकर हर लीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
खुसरो निजाम के बल-बल जइए
मोहे सुहागन किन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
ऐ री सखी मैं तोसे कहूँ, मैं तोसे कहूँ, छाप तिलक....।

(२) बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
मैं जो गई थी पनिया भरन को
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी
निजामुद्दीन औलिया मैं तोरे बलिहारी
लाज रखो तुम हमरे घूँघट की।
लाज राखो मोरे घूँघट पट की।

(३) निजाम तोरी सूरत पे बलिहारी
सब सखियन में चुंदर मोरी मैली
देख हँसे नर नारी। 
अब के बहार चूँदर मोरी रंग दे, निजाम पिया
रख ले लाज हमारी।
सदका बाबा गंज शकर का, रख ले लाज हमारी निजाम पिया
निजाम तोरी सूरत के बलिहारी, मेरे घर निजाम पिया।
कुतुब-फरीद मिल आए बराती खुसरो राजदुलारी
ख्वाजा निजाम तोरी सूरत के बलिहारी
निजाम पिया रख ले लाज हमारी।

(४) सकल वन फूल रही सरसों
अमुवा मोरे टेसू फूले कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार मलनियाँ गढ़वा ले आई घर सों।
तरह तरह के फूल लगाए, ले गढ़वा हाथन में आए
ख्वाजा निजामुद्दीन के दरवज्जे पर, आवन कह गए आशिक रंग
और बीत गए बरसों।

(५) ऐ री सखी मोरे पिया घर आए
भाग लगे इस आँगन को
बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को।
मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए।
देख सूरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को।
जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन।
जिस सावन में पिया घर नाहि, आग लगे उस सावन को।
अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ
तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मै मन भाऊँ साजन को।

(६) जो मैं जानती बिसरत हैं र्तृया
जो मैं जानती बिसरत हैं र्तृय्या, घुँघटा में आग लगा देती,
मैं लाज के बंधन तोड़ सखी पिया प्यार को अपने मान लेती।
इन चूरियों की लाज पिया रखाना, ये तो पहन लई अब उतरत न।
मोरा भाग सुहाग तुमई से है मैं तो तुम ही पर जुबना लुटा बैठी।
मोरे हार सिंगार की रात गई, पियू संग उमंग की बात गई
पियू संत उमंग मेरी आस नई।
अब आए न मोरे साँवरिया, मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
घर आए न तोरे साँवरिया, मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
मोहे प्रीत की रीत न भाई सखी, मैं तो बन के दुल्हन पछताई सखी।
होती न अगर दुनिया की शरम मैं तो भेज के पतियाँ बुला लेती।
उन्हें भेज के सखियाँ बुला लेती।
जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या।

(७) अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया,
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया
बेटी तेरा बाई तो बाला री कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो जी कि सावन आया
बेटी तेरा मामू तो बाँका री कि सावन आया।

(८) दैया री मोहे भिजोया री शाह निजम के रंग में।
कपरे रंगने से कुछ न होवत है
या रंग में मैंने तन को डुबोया री
पिया रंग मैंने तन को डुबोया
जाहि के रंग से शोख रंग सनगी
खूब ही मल मल के धोया री।
पीर निजाम के रंग में भिजोया री।

(९) मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल।
कैसे घर दीन्हीं बकस मोरी माल।
निजामुद्दीन औलिया को कोई समझाए, ज्यों-ज्यों मनाऊँ
वो तो रुसो ही जाए।
चूडियाँ फूड़ों पलंग पे डारुँ इस चोली को मैं दूँगी आग लगाए।
सूनी सेज डरावन लागै। बिरहा अगिन मोहे डस डस जाए।
मोरा जोबना।

(१०) जो पिया आवन कह गए अजहुँ न आए, अजहुँ न आए स्वामी हो
ऐ जो पिया आवन कह गए अजुहँ न आए। अजहुँ न आए स्वामी हो।
स्वामी हो, स्वामी हो। आवन कह गए, आए न बाहर मास।
जो पिया आवन कह गए अजहुँ न आए। अजहुँ न आए।
आवन कह गए। आवन कह गए।

(११) हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल, बाइस ख्वाजा मिल बन बन आयो
तामें हजरत रसूल साहब जमाल। हजरत ख्वाजा संग।
अरब यार तेरो (तोरी) बसंत मनायो, सदा रखिए लाल गुलाल।
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल।

(१२) ऐ सरवंता मवा, मोरी ला, सब बना। खेलत धमाल ख्वाजा मुइनुद्दीन
और ख्वाजा कुतुबुद्दीन। शेख फरीद शकर गंज मुलतान मशायाख नसीरुद्दी
औलिया ऐ सरवंता।

(१३) औलिया तेरे दामन लागी, पौढियो मेरे ललना।
खाजा हसन को मैं गुजरें मिली, पौढियो मेरे ललना।
खाजा कुतुतबुद्दीन को मैं मुजरे मिली, पौढियो मेरे ललना।

(१४) परदेसी बालम धन अकेली मेरा बिदेसी घर आवना।
बिर का दुख बहुत कठिन है प्रीतम अब आजावना।
इस पार जमुना उस पार गंगा बीच चंदन का पेड़ ना।
इस पेड़ ऊपर कागा बोले कागा का बचन सुहावना।

(१५) आ घिर आई दई मारी घटा कारी। बन बोलन लागे मोर दैया री
बन बोलन लगे मोर। रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी छाय री चहुँ ओर।
आज बन बोलन लगे मोर। कोयल बोल डार-डार पर पपीहा मचाए शोर।
ऐसे समय साजन परदेस गए बिरहन छोर।

(१६) हजरत निजामुद्दीन चिश्ती जरजरी बक्स (बख्श) पीर।
जोई-जोई ध्यावै तेई तेई फल पावै।
मेरे मन की मुराद भर दीजै अमीर।

(१७) बन के पंछी भए बावरे, ऐसी बीन बजाई सांवरे।
तार तार की तान निराली, झूम रही सब वन की डाली। (डारी)
पनघट की पनिहारी ठाढ़ी, भूल गई खुसरो पनिया भरन को।

(१८) बहुत दिन बीते पिया को देखे, अरे कोई जाओ, पिया को बुलाय लाओ
मैं हारी वो जीते पिया को देखे बहुत दिन बीते।
सब चुनरिन में चुनर मोरी मैली, क्यों चुनरी नहीं रंगते?
बहुत दिन बीते। खुसरो निजाम के बलि बलि जइए, क्यों दरस नहीं देते?
बहुत दिन बीते।

(१९) जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर।
ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया।
हक्का इलाही क्या किया आँसू चले भर लाय कर।
तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है,
तुझ दोस्ती विसियार है, ए शब मिलो तुम आय कर।
जाना तलब मेरी कर्रूँ दीगर तलब किसकी करुँ।
तेरी जो चिंता दिल धर्रूँ। एक दिन मिलो तुम आय कर।
मेरो जो मन तुमने लिया। तुम उठा गम को दिया। तुमने मुझे ऐसा किया।
जैसा पतंगा आग पर। खुसरो कहे बातें गजब दिल में न लावे कुछ अजब।
कुदरत खुदा की है अजब। जब जिव दिया गुल लाय कर।

(२०)(क) काहे को ब्याही बिदेस रे लखि बाबुल मोरे।
हम तो बाबुल तोरे बागों की कोयल, कुहकत घर घर जाऊँ
लखि बाबुल मोरे। हम तो बाबुल तोरे खेतों की चिड़िया चुग्गा चुगत उड़ि जाऊँ
जो माँगे चली जाऊँ लखि बाबुल मोरे, हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गइया।
जित हॉको हक जाऊँ लखि बाबूल मोरे लाख की बाबुल गुड़िया जो छाड़ी।
छोड़ि सहेलिन का साथ, लखि बाबुल मोरे। महल तले से डोलिया जो निकली
भाई ने खाई पछाड़, लखि बाबुल मोरे, आम तले से डोलिया जो निकली।
कोयल ने की है पुकार लखि बाबुल मोरे। तू क्यों रोवे है, हमरी कोइलिया।
हम तो चले परदेस लखि बाबुल मोरे। तू क्यों रोवे है, हमरी कोइलिया।
हम तो चले परदेस लखि बाबुल मोरे। नंगे पाँव बाबुल भागत आवै।
साजन डोला लिए जाय लखि बाबुल मोरे।

इसी का दूसरा रुप।

(ख) काहे को ब्याही विदेस रे लखि बाबुल मोरे।
भइया को दी है बाबुल महला-दुमहला, हम को दी है परदेस,
लखि बाबुल मोरे। मैं तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़िया
रात बसे उड़ि जाऊँ, लखि बाबुल मोरे। ताक भरी मैने गुड़िया जो छोड़ी,
छोड़ दादा मियां का देस, लखि बाबुल मोरे। प्यार भरी मैंने अम्मा जो छोड़ी,
बिरना ने काई पछाड़, लखि बाबुल मोरे, परदा उठा कर जो देखा
आऐ बेगाने देस लखि बाबुल मोरे।

डॉ. गोपी चंद नारंग, अध्यक्ष, साहित्य कला परिषद,
डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी, अध्यक्ष, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र और संसद सदस्य

तो आइए फिर लौटते हैं हम अमीर खुसरो की जिंदगी की ओर। यह अलाउद्दीन खिलजी का दौर चल रहा है। एक रोज राजकुमार खिज्र खाँ चुपचाप रात के सन्नाटे में अमीर खुसरो के घर आए। खुसरो ने देखते ही कहा 'अरे खिज्र खाँ मेरे नौजवान दोस्त। इतनी रात आ गए और तन्हा।' खिज्र खाँ ने कहा, "मेरे बाप की जिंदगी का हाल तो तुमने लिखा और खूब नाम कमाया।" मेरी तुम्हारी इतनी गहरी दोस्ती। ख्वाजा निजाम के हम दोनों चेले। तुम मेरे राजदार। अरे कुछ मेरा दर्दे दिल भी तो सुनो खुसरो? मेरी अपनी कलम से मेरी रुखी-सूखी मोहब्बत को भी अमर कर दो। लो ये रेशमी रुमाल। इसमें ये चिठ्टठियाँ हैं, ये पुर्जे, मेरे और देवलदी के, लड़कपन से अब तक के मोहब्बत नामे। इनमें सब कुछ है। अब मैं चलता हूँ मैंने अपनी राम कहानी तुम्हें सौंपी बचपन से अब तक की।"

अमीर खुसरो ने अपने मित्र और सुल्तान अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और गुजरात के राजा कर्ण की बेटी देवल देवी के प्रेम कथा खिज्र खाँ वा देवल रानी के नाम से ६२ वर्ष की उम्र में ७१५ हिज्री यानि सन् १३१५ में लिखी। यह मसनवी 'इश्किया' या 'खिज्रनाम' या मुन्शर शाही के नाम से भी मशहूर है। इसमें भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन भी है तथा संगीत के भारतीय पारिभाषिक शब्द भी हैं। खुसरो लिखते हैं - "इस बीच गुजरात की फतेह के बाद रानी कँवल देवी ने अपनी बेटी देवल देवी  को भी शाही महल में बुलवा लिया। खिज्र खाँ और देवल देवी दोनों बचपन से एक साथ पले बढ़े थे।'

 

पिछला पृष्ठ | अमीर ख़ुसरो दहलवी   अगला पृष्ठ

अमीर खुसरो द्वारा लिखित फारसी ग्रंथ | कव्वाली


Top

Copyright IGNCA© 2003