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अमीर ख़ुसरो दहलवी



अमीर खुसरो ने अपने गुरु के वचनों तथा उपदेशों को अपने एक ग्रंथ 'अफजलुल फवायिद' के नाम से संपादित किया। इसे कतिपय पृष्ठ आपने संत की सेवा में अवलोकनार्थ प्रस्तुत किए। संत ने गंभीरतापूर्वक अध्ययन करके कहा 'तूने बढिया लिखा और नामकरण भी उपयुक्त है।" आपने इसमें कुछ परिवर्तन किए और अपनी मंडली के लोगों को संबोधित करके कहा, "वास्तव में खुसरो के लिए गर्व का विषय है कि उसने इतने असंख्य व अनगिनत विषयों को याद रखा और लिपि बद्ध किया। यद्यपि यह सम्पूर्ण रुप से सदा विचारों के समुद्र में निमग्न रहता है। भगवान ने, अल्लाह ने अमीर खुसरों के शारीरिक अवयवों को ज्ञान और प्रज्ञा से मंडित किया है। वह दिन रात विचारों के समुद्र में खोया रहता है और हज़ारों क़ीमती मोती निकाल लाता है। उसके जैसी विलक्षण प्रतिभा बहुत कम लोगों में विद्यमान होती है।" गुरु के इन उद्गारों को सुनकर खुसरो नतमस्तक हुए और निवेदन किया कि 'मेरी श्रेष्ठता का श्रेय आपको ही है। आपके वरदान का ही यह दिव्य फल है।' गुरु और शिष्य के मध्य जो पारस्पिरक प्रेम और स्नेह के संबंध थे वे इतने गहरे थे कि अन्य जब भी इससे लाभान्वित होने के लिए लालयित रहते थे। संत यदि किसी से कभी-कभी रुष्ठ भी हो जाते और उन्हें मनाने के तमाम प्रयास विफल हो जाते तो वह अमीर खुसरो की सहायता से अपने अपराध की क्षमायाचना करवाता। इनमें छोटे ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े शिष्य और उत्तराधिकारी भी शामिल थे।

ऐसी ही एक बार की घटना है कि संत निजामुद्दीन चिश्ती किसी बात पर शेख़ बुराहानुद्दीन गरीब से रुष्ठ हो गए, बहुत नाराज़ हो गए। जब शेख़ गरीब संत की सेवा में उपस्थित हुए तो निजामुद्दीन चिश्ती ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। शेख़ बड़े ही चिंतित हुए क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि यदि गुरु रुठे तो कर्ता भी सहायता नहीं करता। विवश हो कर शेख़ को अमीर खुसरो की शरण में जाना पड़ा। अमीर खुसरो ने तब एक हिन्दवी दोहा सुनाकर, उनकी मदद करने का वायदा किया। यह दोहा इस प्रकार है -

'खुसरो मौला के रुठते, पीर के सरने जाय।
कहे खुसरो पीर के रुठते, मौला नहिं होत सहाय।।'

उसके पश्चात अमीर खुसरो अपनी दस्तार शेख के गले में डालकर उनको अपने पीर संत निजामुद्दीन औलिया की सेवा में लाए। दोनों को साथ देखकर संत सब कुछ समझ गए और मुस्कुराए। फिर इतमिनान से पूछा - 'क्या समाचार है? इसके पश्चात संत ने दोनों से आलिंगन किया। इस प्रकार निजामुद्दीन औलिया ने शेख़ बुराहानुद्दीन गरीब को क्षमा कर दिया। संत के गले लगने के बाद शेख बुराहानुद्दीन की आँखों से आँसू बह आए और फिर वे संत के चरणों में गिर गए और पुन: माफी माँगने लगे। पीर ने उसके शीष को हाथों से उठा लिया। इस पर अमीर खुसरो ने शेख़ बुराहानुद्दीन से कहा - 'गुरु जिस उस स्थान पर स्थित है उसकी प्राप्ति के लिए शिष्य को अपना सर्व बलिदान करना पड़ता है। गुरु प्राप्ति के पश्चात गुरु के प्रति शिष्य का प्रेम और बलिदान ही उसे गुरु के श्रेय से मंडित कर सकता है। एक आत्मा, दो शरीर की दशा इसका अंतिम उन्मेष है। खुसरो यह मानते थे कि प्रेम जितना ही महान होगा उसकी क़ीमत भी उतनी ही अधिक होगी।' फिर खुसरो ने एक दोहा इसी विषय से संबंधित कहा -

"खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
तन मेरा मन पीहू का दोउ भए इक रंग।।"

इसी समर्थन में संत कबीर दास भी कहते हैं -

"सीस दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।
रुठ गए जो गुरु तो, ईश्वरी की भी मौन जबान।।"

सूफ़ी विचार धारा ने हर धर्म, हर मज़हब और हर क़ौम के लोगों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। सूफ़ी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने फ़रमाया है कि ये इबादत ही तो है जो इस दुनिया के चक्कर को घुमाए रखती है। एक बार जमुना नदी के किनारे निजामुद्दीन चिश्ती वजू (नमाज़ के पूर्व हाथ-पाँव का प्रक्षालन (साफ़-सफ़ाई) कह रहे थे। उनकी टोपी वजू के कारण टेढ़ी हो गई थी। टोपी सीधी करने के लिए अनायास ही उनकी नज़र नदी के दूसरे छोर पर गई। वहाँ बहुत से हिन्दू नर-नारी स्नान करते हुए भजन गा रहे थे। यह देख ख़वाजा साहब को बड़ा लुफ्त आया। एकाएक उनके मुँह से निकला -


"हर कौम रास्त राहे दीने व किब्ल गाहे।
संसार हर को पूजे कुल को जगत सराहे।।"

अर्थात विभिन्न धर्मों, मजहबों और इंसान के ईश्वर प्राप्ति के या ईश्वर के पास पहुँचने के अलग-अलग तरीके हैं, रास्ते हैं।

निजामुद्दीन औलिया के सबसे प्रिय शिष्य कविराज अमीर खुसरो वहीं खड़े थे। उन्होंने फौरन इस फारसी-हिन्दवी पद को पूरा किया। 

"मन किब्ला रास्त करदम बर सिम्त ए कज कुलाहे।
मक्के में कोई ढूढें काशी को कोई चाहे।।"

अर्थात ईश्वर प्राप्ति का मेरा रास्ता उसके (गुरु) जरिए है जिसने यह तिरछी टोपी पहनी है। कोई मक्के में खुदा को ढूढ़ रहा है तो कोई काशी जाकर ईश्वर प्राप्ति के लिए मारा-मारा फिर रहा है पर ईश्वर तो हमारे भीतर है, हमारे हृदय में है।

उपरोक्त पद के माध्यम से ख़वाजा निजामुद्दीन चिश्ती साहब यह संदेश देना चाहते हैं कि दूसरे मज़हब के अवतारों, पैगम्बरों, ॠषियों-मुनियों, बुज़ुर्गों, साधु-संतों आदि को हर्गिज़ बुरा न कहना। इस ज़मीन पर खुदा ने समय समय पर पैगम्बर उतारे हैं और वो सब हमारे हैं। आमने-सामने की दोनों क़ाबिल ताक़तों, अकीदों, रस्मों, रीति-रिवाजों, के टकराव से और फिर उनके मेल से हमारी तहज़ीब, हमारी सभ्यता परवान चढ़ी है।

अपने पूज्य श्रध्देय और आदरणीय गुरु के लिए पता नहीं खुसरो ने कितने बलिदान किए। एक बार अमीर खुसरो कहीं से यात्रा करके देहली लौट रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर विश्राम के लिए रुके तो खुसरो ने अनायास ही कहा - "बूये शेख मी आयद"। अर्थात "मुझे अपने गुरु की सुगंध आती है।" सेवकों ने कहा - "हुजूर, यहाँ गुरु कहाँ? इस सुनसान, विरान और उजाड़ रेगिस्तान में।" पर खुसरो नहीं माने। वे अपने ऊँट से उतर गए और दौड़ते हुए बार-बार यह कहते रहे कि मुझे सुंगध आती है। इस पर सेवकों ने चारों तरफ़ काफ़ी खोज की लेकिन अमीर खुसरो के गुरु का कहीं पता नहीं चला। अन्त में एक अजनबी व्यक्ति को अत्यंत दीन अवस्था में वहाँ सोते हुए पाया। अमीर खुसरो के पूछने पर उसने बताया कि वह देहली से संत निजामुद्दीन औलिया से मिल कर आ रहा है। कारण है उसकी पुत्री का विवाह। अपनी दीनता के कारण वह अपनी बेटी की शादी के लिए संत के पास सहायतार्थ गया था। प्रथम रोज़ संत ने कहा - "इस वक्त तो अल्लाह का नाम है ठहर जाओ, कल मेरे पास जो कुछ हो लेते जाना।" दुर्भाग्यवश दूसरे दिन भी कुछ नहीं मिला। अंत में संत ने अपनी खड़ाऊँ देकर कहा - "सिर्फ़े यही है तुम्हारे लिए। ले जाओ। इससे तुम्हारी आवश्यकता की पूर्ति हो जाएगी।" वह उदास हो गया यह कहकर। फिर बोला इतने बड़े दरबार से यह दान? कैसे होगी मेरी बेटी की शादी? किस मुँह से घर वालों के पास वापस जाऊँ? आश्चर्य है? बड़ा नाम सुना था ख़वाजा साहब का। मेरी ही किस्मत खोटी है। ख़ैर फिर भी संत की खड़ाऊँ ले आया हूँ एक छोटी सी उम्मीद पर कि क्या पता अच्छी दामों बिक ही जाए। आ इतने बड़े सूफ़ी संत की ज़बान है उनके मुँह से निकला वचन है। खुसरो बोले कि अच्छा मेरे पीर की खड़ाऊँ है तुम्हारे पास। तभी उनकी गंध मुझे बड़ी देर से सता रही थी। अब बताओ - मुझे बेचोगे खड़ाऊँ? उसने हामी भरी। यह सुनकर खुसरो ने तुरन्त बादशाह सुलतान मोहम्मद द्वारा अर्पित व भेंट की रकम - पाँच लाख रुपये उस फ़क़ीर को दे दिए और उसके बदले अपने गुरु के पैर की जूतियाँ या खड़ाऊँ ले ली। फिर वे खड़ाऊँ को गर्व से सर पर उठाए संत निजामुद्दीन की सेवा में उपस्थित हुए और उनके सम्मुख सम्पूर्ण घटना का उल्लेख किया। संत ने यह सुनकर कहा "बसियार अरजाँ ख़रीदी।" अर्थात बहुत सस्ते में ख़रीदी। उस पर खुसरो ने बहुत ही विनीत भाव से कहा - "यदि वह मेरे प्राण और समस्त धन भी माँगता तो भी मैं ख़ुशी से उसे समर्पित करता। (स्रोत : सफीमतुल औलिया - शाहज़ादा दाराशिकोह) त्याग और आत्मसमपंण की इस भावना ने संत की दृष्टि में खुसरो को श्रेष्ठ बना दिया था। खुसरो को संत का वियोग असाद्य था। आत्म परिशोधन के हेतु संत की संगति परम आवश्यक है पर जब विवश हो कर खुसरो यात्रा या युद्ध पर जाते थे तो गुरु स्मरण और गुरु ध्यान सतत उनके साथ रहता। खुसरो ने इस प्रेम के दृष्टि में रखकर ही संत ने कहा था कि खुसरो को मेरी क़ब्र पर आने न देना। कहीं ऐसा न हो कि क़ब्र फट जाए और शरीयत के रहस्य की अवहेलना हो।

 

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