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अमीर ख़ुसरो दहलवी



इसी बीच मंगोलों ने अचानक देहली पर हमला बोल दिया। अलाउद्दीन खिलजी की फ़ौज ने ख़ूब डटकर सामना किया। मंगोलों को आख़िरकार मुँह की खानी पड़ी। कुछ तो अपनी जान बचा कर भागने में सफल हुए तो बहुत से बंदी बना लिए गए। इतिहासकार अमीर खुसरो आँखों देखा हाल सुनाते हुए कहते हैं - क्या ख़बर लाए हो। हुजूर फ़तेह की। वो तुमसे पहले पहुँच चुकी है। सच-सच बताओ कितने मंगोल लश्करी मारे गए हैं? हुजूर बीस हज़ार से ज़यादा। कितने गिरफ्तार किए? अभी गिना नहीं मगर हज़ारों, जो सर झुकाएँ तौबा करें, उनके कानों में हलका टिकाओ। शहर से दस कोस दूर एक बस्ती बसाकर रहने की इजाज़त है इन नामुरादों को। बस्ती होगी मंगोल पुरी। पहरा चौकी। जिनसे सरकशी का अंदेशा हो, उनके सर उतार कर मीनार बना दो। इनके बाप दादा को खोपड़ियों के मीनार बनाने का बहुत शौक़ था और अब इनके सर उतारते जाओ, मीनार बनाते जाओ। इन्हें दिखाते जाओ। शहर की दीवार बनाने में जो गारा लगेगा, उसमें पानी नहीं, देहली पर चढ़ाई करने वालों का ख़ून डालो, लहू डालो। सुना मीरे तामीर, सुर्ख गारा (गाड़ा) खून। शहर पना की सुर्ख दीवार। अ ह ह ह हा। तैयारी की जाय। गुजरात की ओर फ़ौज रवाना हो। किसी प्रकार की कोई देरी न हो। दरबार बर्ख़ास्त।"

खुसरो आगे कहते हैं कि शाही तलवार पर मंगोलों का जो गंदा खून जम गया था सुलतान अलाउद्दीन खिलजी सिकंदर सानी उसे गुजरात पहुँचकर समुन्दर के पानी से धोना चाहता था। अपने दिल का हाल बयां करते हैं खुसरो कुछ इस तरह - "फ़ौज चली। मैं क्यों जाऊँ? मेरा दिल तो दूसरी तरफ़ जाता है, मेरे पीर मेरे गुरु की ओर, मेरे महबूब के तलवों में मैं बल बल जाऊँ।" रात गए जमुना किनारे गयासपुर गाँव के बाहर, जहाँ अब हुमायूँ का मक़बरा है, चिश्ती सूफ़ी ख़ानक़ाह में एक फ़क़ीर बादशाह, नागारों, मोहताजों, मुसाफ़िरों, फ़क़ीरों दरवेशों, साधुओं, उलेमाओं, संतों, सूफ़ियों, ज़रुरत मंदों, गवैयों, और बैरागियों को खिला पिला कर अब अपने तन्हा हुज्रे में जौ की बासी रोटी और पानी का कटोरा लिए बैठा है। ये हैं ख्वाजा निजामुद्दीन चिश्ती। ख्वाजा निजामुद्दीन उर्फ़े महबूबे इलाही उर्फ़े सुल्तान उल मशायख, जिन्होंने किंज़दगी भर रोज़ा रखा और बानवे साल तक अमीरों और बादशाहों से बेनियाज़ अपनी फ़क़ीरी में बादशाही करते रहे"। अमीर खुसरो जब भी दिल्ली में होते इन्हीं के क़दमों में रहते। राजोन्यास की बातें करते और रुहानी शांति की दौलत समेटा करते। अपने पीर से कठिन और नाजुक परिस्थितियों में सलाह मशवरा किया करते और समय समय पर अपनी गलतियों की माफ़ी अपने गुरु व खुदा से माँगा करते थे। खुसरो और निजामुद्दीन अपने दिल की बात व राज की बात एक-दूसरे से अक्सर किया करते थे। कई बादशाहों ने इस फ़क़ीर, दरवेश या सूफ़ी निजामुद्दीन औलिया की ज़बरदस्त मक़बूलियत को चैलेंज किया मगर वो अपनी जगह से न हिले। कई बादशाहों ने निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह में आने की इजाज़त उनसे चाही मगर उन्होंने कबूल न की।

एक रात निजामुद्दीन चिश्ती की ख़ानक़ाह में हज़रत अमीर खुसरो हाज़िर हुए। आते ही बोले - "ख्वाजा जी मेरे सरकार, शहनशाह अलाउद्दीन खिलजी ने आज एक राज की बात मुझसे तन्हाई में की। कह दूँ क्या? ख्वाजा जी ने कहा कहो "खुसरो तुम्हारी जुबान को कौन रोक सकता है।' खुसरो ने गंभीर हो कर कहा कि "अलाउद्दीन खिलजी आपकी इस पवित्र ख़ानक़ाह में चुपके से भेष बदल कर आना चाहता है। जहाँ अमीर-गरीब, हिन्दु-मुस्लमान, ऊँच-नीच, आदि का कोई भेद भाव नहीं। वह अपनी आँखों यहाँ का हाल देखना चाहता है। उसमें खोट है, चोर है, दिला साफ़, नहीं उसका। उसे भी दुश्मनों ने बहका दिया है, बरगला दिया है कि हज़ारों आदमी दोनों वक्त यहाँ लँगर से खाना खाते हैं तो कैसे? इतनी दौलत कहाँ से आती है? और साथ ही शाहज़ादा ख़िज्र खाँ क्यों बार-बार हाज़िरी दिया करते हैं।' ख़वाजा बोले-'तुम क्या चाहते हो खुसरो? खुसरो कुछ उदास होते हुए बेमन से बोले - हुजूर, बादशाहे वक्त के लिए हाज़िरी की इजाज़त।' ख़वाजा साहब ने फ़रमाया - 'खुसरो तुम से ज़यादा मेरे दिल का राजदार कोई नहीं। सुन लो। फ़क़ीर के इस तकिये के दो दरवाज़े हैं। अगर एक से बादशाह दाख़िल हुआ तो दूसरे से हम बाहर निकल जाएँगे। हमें शाहे वक्त से, शाही हुकूमत से, शाही तख़त से क्या लेना देना।" खुसरो ने पूछा कि क्या वे यह जवाब बादशाह तक पहुँचा दें? तब ख़वाजा ने फ़रमाया - "और अगर अलाउद्दीन खिलजी ने नाराज़गी से तुमसे पूछा कि खुसरो ऐसे राज तुम्हारी ज़बान से? खुसरो इसमें तुम्हारी जान को खतरा है? तुमने मुझे यह राज आ बताया ही क्यों? खुसरो भारी आवाज़ में बोले - 'मेरे ख़वाजा जी बता देने में सिर्फ़े जान का ख़तरा था और न बताता तो ईमान का ख़तरा था।' ख़वाजा ने पूछा 'अच्छा खुसरो तुम तो अमीर के अमीर हो। शाही दरबार और बादशाहों से अपना सिलसिला रखते हो। क्या हमारे खाने में तुम आज शरीक होगे?' यह सुनते ही खुसरो की आँखों से आँसू टपक आए। वे भारी आवाज़ में बोले - "यह क्या कह रहें हैं पीर साहब। शाही दरबार की क्या हैसियत? आज तख़त है कल नहीं? आज कोई बादशाह है तो कल कोई। आपके थाल के एक सूखे टुकड़े पर शाही दस्तरखान कुर्बान। राज दरबार झूठ और फ़रेब का घर है। मगर मेरे ख़वाजा ये क्या सितम है कि तमाम दिन रोज़ा, तमाम रात इबादत और आप सारे जहाँ के खिला कर भी ये खुद एक रोटी, जौ की सूखी-बासी रोज़ी, पानी में भिगो-भिगो कर खाते हैं।' ख़वाजा साहब ने फ़रमाया, 'खुसरो ये टुकड़े भी गले से नहीं उतरते। आज भी दिल्ली शहर की लाखों मावलूखों में न जाने कितने होंगे जिन्हें भूख से नींद न आई होगी। मेरी किंज़दगी में खुदा का कोई भी बंदा भूखा रहे, मैं कल खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा? तुम इन दिनों दिल्ली में रहोगे न। कल हम अपनी पीर फरीदुद्दीन गंज शकर की दरगाह को जाते हैं। हो सके तो साथ चलना। खुसरो चहकते हुए अपनी शायराना ज़बान में बोले - 'मेरी खुशनसीबी बसत शौक़' निजामुद्दीन ने कहा 'खुसरो हमने तुम्हें तुर्क अल्लाह ख़िताब दिया है। बस चलता तो वसीयत कर जाते कि तुम्हें हमारी क़ब्र में ही सुलाया जाए। तुम्हें जुदा करने को जी नहीं चाहता मगर दिन भर कमर से पटका बाँधे दरबार करते हो जाओ कमर खोलो आराम करो। तुम्हारे नफ्ज का भी तुम पर हक है। शब्बा ख़ैर!

यद्यपि अमीर खुसरो दरबारों से संबंधित थे और उसी तरह का जीवन भी व्यतीत करते थे जो साधारणतया दरबारी का होता था। इसके अतिरिक्त वे सेना के कमांडर जैसे बड़े-बड़े पदों पर भी रहे किन्तु यह उनके स्वभाव के विरुद्ध था। अमीर खुसरो को दरबारदारी और चाटुकारिता आदि से बहुत चिड़ व नफ़रत थी और वह समय समय पर इसके विरुद्ध विचार भी व्यक्त किया करते थे। उनके स्वंय के लिखे ग्रंथों के अलावा उनके समकालीन तथा बाद के साहित्यकारों के ग्रंथ इसका जीता जागता प्रमाण है। जैसे अलाई राज्य के शाही इतिहासकार अमीर खुसरो ने ६९० हिज्री (१२९१ ई.) में मिफताहुल फुतूह, ७११ हिज्री (१३११-१२ ई.) में खजाइनुल फुतूह, ७१५ हिज्री (१३१६ ई.) में दिवल रानी खिज्र खाँ की प्रेम कथा ७१८ हिज्री (१३१८-१९ ई.) में नुह सिपहर, ७२० हिज्री (१३२० ई.) में तुगलकनामा लिखा। इसके अलावा एमामी ने रवीउल अव्वल ७५१ हिज्री (मई १३५० ई.) ४० वर्ष की आयु में 'फुतूहुस्सलातीन', फिरदौसी का शाहनामा, (एमामी ने अमीर खुसरो के ऐसे ग्रंथ भी पढ़े थे जो इस समय नहीं मिलते। उसने अमीर खुसरो की कविताओं का अध्ययन किया था। जियाउद्दीन बरनी का तारीख़ें फ़ीरोज़शाही ७४ वर्ष की अवस्था में ७५८ हिज्री (१३७५ ई.) में समाप्त की। चौदहवीं शताब्दी ई. के तानजीर का प्रसिद्ध यात्री अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद इब्ने बतूता (७३७ हिज्री / १३३३ई.) में सिंध पहुँचा। भारत वर्ष लौटने पर उसकी यात्रा का वर्णन इब्बे-तुहफनुन्नज्जार फ़ी गराइबिल अमसार व अजाइबुल असफार रखा गया। मेंहंदी हुसैन ने इसका नाम रेहला रखा। (
REHLA (BARODA १९५३) अनुवाद में केवल अनाइबुल असफार रखा गया है। मुहम्मद कासिम हिन्दू शाह अस्तराबादी जो फ़रिश्ता के नाम से प्रसिद्ध है सोलहवीं शती का बड़ा ही विख्यात इतिहासकार है। उसने अपने ग्रंथ 'गुलशने इब्राहीमी' (जो तारीख़ें फ़रिश्ता के नाम से प्रसिद्ध है) की रचना १०१५ हिज्री (१६०६-०७ ई.) में समाप्त की। आदि।

 

आदि गुरु ग्रंथ साहिब
सिक्खों के इस धार्मिक ग्रंथ में सूफियों की वाणी का संकलन उनके द्वारा रचित गीतों, पदों, दोहों, फुटकल छंदों के रुप में हैं। साथ ही बंदिशों के रागों का भी पूरा विवरण है। इसमें अमीर खुसरो द्वारा रचित राग भी हैं, जैसे - राग कल्याण, बसंत आदि।

 

 

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