छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

जन्त्रारुढ़ वि का जीवन गीत


कबीरीय संगीत

 

""प्रभु

जितने गीत मैंने गाये, वे तुम्हें समर्पित हो चुके हैं। पर प्रभु मैं न गा सका - मेरे वे अनगाये गीत खत्म नहीं हुये हैं - वरन्म वायुमंडंल में तरंगित हैं। अज नहीं तो कल मेरी आने वाली पीढियों के मुख से वे मुखरित होंगे और तुम तक पहुंचेंगे।''

- रवीन्द्र नाथ टैगोर

 

व्यष्टि ध्वनि को समष्टि में मिला देना ही तो संगीत है। जीवन-लय ही सृष्टि-लय है। वि के प्रत्येक कण-कण में एक ताल है। प्रत्येक परमाणु के मिलने में एक लय है। पत्तों की मर्मर, सरिता की कलकल-छलछल, विहग वृन्दों की चह-चह, भौंरों की गुनगुन, पीकी की कुहूकुहू की ध्वनि में सृष्टि - संगीत झंकृत है। विश्व-वीणा में अपना स्वर मिला देना ही संगीत है।

तुम जिनि जानों गीत यह, यह निज ब्रह्म विचार।
केवल कहि समुझाइया, आतम साधन सार रे।

- कबीर

अमराई से एक मादक स्वर लहरी सुनाई पड़ती है। कूऽऽऽ कूऽऽऽ कूऽऽऽऽऽऽऽऽऽ

कितनी कोमल? कितनी आर्द्र? कितनी प्राणस्पर्शी? एक रम्य प्रभात। एक संगीतमय सुनहला सकाल। जीवन्त रमणीयता में आत्म-विस्मृत दुनिया, कण-कण में वही मूच्र्छता व्याप्त है। पर यह क्या आर्केस्ट्रा की आवाज? जंत्रारुढ़ वि की आवाज यंत्र में आबद्ध है। स्थावर जंगम प्रकृति "डिजनी-लैंड' में अपनी यंत्र सत्ता का इजहार कर रही है। रिकर्डेड म्यूजिक-धरती औऱ आसमां को अपनी शमं में बांधे हुये हैं। फिर जीवन की गत पर गायेगा कौन? मानव या रोबट?

मानव की रागात्मकता यांत्रिक हो उठी है। कृष्ण की बांसुरी आज मौन है। सरस्वती की वीणा के तार टूट चुके हैं। ॠषियों का सामगान स्पेस क्राप्ट में किसी नये दिगन्त की खोज में चल पड़ा है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त अनंत विस्तार में। नदियां जीवन संगीत की रचना नहीं कर रही हैं, वरन यांत्रिक दुनिया के लिये बिजली बना रही हैं। सभी का व्यापारीकरण हो चुका है। सभी वि बाजार में विक्रय की वस्तुएं हैं।

शायद यह मान्यता सही है कि यह गीतों का जमाना नहीं है। जब मानव नहीं, जीवन का ताल लय नहीं, फिर भला गीत कहां? कम्प्यूटर म्यूजिक के लिये इनकी जरुरत भी नहीं है। उसकी भाषा, ताल लय और सरगम सभी भिन्न है। जब प्रकृति, इंसान व जीवन सभी में मशीनी सत्ता का काफी आधिपत्य हो चुका है, फिर संगीत में क्यों नहीं? रोबट, मानव समान हो या न हो, पर मानव रोबट के समान हो चुका है। उसे चाहिए ""कम्प्यूटर म्यूजिक''। कोयल आरण्यक संस्कृति की मूच्र्छना है। भारत की पहचान। जब चारों और कम्प्यूटर कलचर का बोलबाला है, तब कोयल को कोई कैसे समझाये कि अब उसे मौन हो जाना चाहिए। उसकी कूक बेतूकी है। हो सकता है कल कोई यंत्र - कोयल उसका स्थान ले ले। पर क्या तब आम्र मंजरी फूलेंगीे? वसुधा रसवन्ती होगी? अमराई झूमेगी? रागात्मकता से सचराचर जगत स्पन्दित हो उठेगा?

आज वायुमंड्ल से प्राचीन ध्वनियां पकड़ने की कोशिश हो रही है। पर क्या उसमें स्पन्दित जीवन चेतना भी मुट्ठी में आयेगी? पर यह जिद्दी, नासमझ कोयल सभी बातों से बेखबर, अपनी ही धुन मैं डूबी कूके जा रही है।

 


पीकी गाती
मधु बरसाती
तपन मिटाती
फाल्गुनी हंसती
पीका गाती।

मंजरी झूमती
अमिया महकती
पुरवैय्या सरसती
पीकी गाती।

जलती दुपहरी
झुलसती लू
सूखी नदिया
प्यासी चिड़िया
स्तब्ध हवा
एक सन्नाटा
एक खामोशी
कृ कूहू कूहू
से गूंज उठती
जिन्दगी अंगड़ाई लेती
जब पीकी गाती।

ओ अन्तरिक्षवासी
मेरी करुण मूच्र्छना
तुम्हें खींच लायेगी
माटी धरती की पुकार
तुम्हें बांध-बांध जायेगी।

सोन पाखी गायेगी
सोन पाखी नाचेगी
चांद तारों से कहेगी
मैं माटी धरती से आई हूं
जीवन गीत लाई हूं
प्रकृति की हरीतिमा हूं
नन्हीं हरी दूबी की
शबनमी बुलावा लायी हूं।

पलभर झूमूंगी
एक पल हंसूंगी
धरती मां की गोद मेंंगी।
लौट-लौट जा

 

नीड़ को सजा
गन्धवाही बनंगी।
अग-जग को महका

 

और बुला चांद तारों को,
धरती गीत गाने,
कन्हैया के साथ
रासलीला करने।

 

मैं भी उसके साथ गा
मैं भी उसके साथ,
चैताली नाचूंगी,
और वेणु-गीत बन ंगी
लहरा
कु कुहू कुहू कु कुहू
कु कुहू कुहू कु कुहू

 

१.

महापात्र, डॉ. शिवप्रिया : प्रसंगिक अप्रसंगिक : शुभदा प्रकाशन दिल्ली : पृष्ठ : ८४, ८५ एवं ८६

पिछला पृष्ठ | विषय सूची | अगला पृष्ठ


Top

Copyright IGNCA© 2003