छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

सामान्य जन का मसीहा कबीर
(जनवाणी से जन संवाद तक)


जनसंवाद
सामान्य जन का मसीह कबीरीय चेतना एवं छत्तीसगढ़

 

भूमिका

दिनांक : ३० अक्टूबर ०१, दिन - मंगलवार, समय ४ बजे

दिनांक : ०३ नवम्बर ०१, दिन - शनिवार, समय ३ बजे

दिनांक : १८ नवम्बर ०१, दिन - रविवार, समय ४ बजे

दिनांक : २४ नवम्बर ०१, दिन - शनिवार, समय ३ बजे

दिनांक : ०७ सितम्बर ०१, दिन - शुक्रवार, समय ४ बजे

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भूमिका

""फूलों के भार से झुक-झुक पड़ने वाली लता सुंदर है, पर शून्य नीलिमा की ओर विस्मित बालक सा ताकने वाला ठूंठ भी कम सुंदर नहीं। अवरित जल दान से पृथ्वी को कंपा देने वाला जलद उन्नत है पर एक बूंद आंसू के भार से कम्पित तृण भी कम उन्नत नहीं।'' सुश्री महादेवी वर्मा की सजल वाणी की याद मुझे तब अनायास हो आयी थी व मैं भर उठी थी, जब प्रमोद ने अपने जिज्ञासु नेत्रों से देखते हुए अपने प्रश्नाकुल अंतर की आवेशमयी वाणी से मुझे विह्मवल कर दिया था। केवल इतना कह पायी थी - ""बच्चे तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश कर्रूंगी पर बिलासपुर में किसी बच्चे से ऐसे प्रश्नों की मुझे कल्पना भी नहीं थी।''

प्रमोद ----------------  "" कबीर हम क्यों पढ़ते हैं? जो कुछ आज हो रहा है क्या वह कबीर का प्रभाव है? क्या कहीं भी उनकी वाणी दिखाई पड़ती है? क्या हम अपने को व समाज को कबीर के अनुकूल बना रहे हैं? फिर पढ़कर फायदा? आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? कबीर का युग भी आज की तरह ठीक नहीं था, तब वह क्यों सफल हुआ? आज क्यो सफल नहीं हो रहा है? कहां क्या कमा है? हमें क्या करना चाहिए? क्या आप अपने इस अध्ययन में हमें ऐसा कोई रास्ता बतायेगी?''

पर नहीं, यह मेरी भूल थी। जहां कबीर की अंतरध्वनि वायुमंडल में अनुगूंजित हो वहां कबीरीय चेतना की अभिव्यक्ति न हो यह कैसे हो सकता है? प्रमोद तुम्हारे उमड़ते प्रश्नों ने और तुम्हारे संजीदापन ने केवल चुपके से इतना ही कहा - सब कुछ यहां भयंकर है, प्रलयकारी है। पर सघन मेघों के भीमाकाश में कोई स्वर्णिम कौंध भी विद्यमान है, हमें भूलना नहीं चाहिये। यह पर दु:ख-कातर मन, यह दर्दीला दिल, यह संजीदापन और यह चिंताकुल मनस्विता, जीवन मूल्यों और भाव सम्पदा के प्रति इस युग की बेरुखाई, प्रबुद्ध वर्ग की उदासीनता, रागात्मक संबंध का जीवन में क्षरण, आदि से संबंधित बातें जब मैंने प्रमोद में देखी तब मुझे आश्चर्य तो हुआ, पर साथ ही दिल को सुकून भी। जब तक यह दर्द और चिंता है, तब तक निराश होने की जरुरत नहीं है। बाधाओं के घटाटोप के बीज एक जीवन की संकल्पित - आभा अंधकार को आलोकित कर देगी।

कबीर के युग में सभी चीजें कबीर के प्रतिकूल थीं। जन्म से लेकर अंतिम क्षणों तक - प्रतिरोध - प्रतिरोध - प्रतिरोध। कबीर को असाध्य साधना करनी पड़ी।

१.

मानव के मन को गढ़ने का संकल्प।

२.

"सामान्य-जन' में आत्म संस्थापन।

३.

विश्वमानव के मंदिर में "इत्यादि-जन' के लिए प्रतिष्ठित स्थान बनाना तथा उसका हक दिलाना।

४.

एक वर्ग विहीन समानता मूलक समाज।

५.

धार्मिक सहिष्णुता और

६.

सह अस्तित्व

७.

मानवता की मुक्ति या वैचारिक स्वतंत्रता।

८.

मानवीय परिभाषाओं से परे एक उच्च स्तरीय विश्वजनीन नैसर्गिक नियमों को वि जीवन का आधार मानना।

९.

सर्वोपरि राग का प्रसार और

१०.

प्रेममय जीवन की आवश्यकता की बात करना।

११.

भारत की परम्परागत जन चेतना को हर स्तर पर अभिव्यक्ति देना।

१२.

जनपदीय भारत का स्वप्न देखना। लक्ष्य के साथ साधनों को पवित्र और निर्मल मानना आदि बातें। कबीर के जीवन भर के प्रयासों का सार निचोड़ है।

जब इन्हीं चीजों को मैंने फिर से अनगढ़ रुपों में बहोरन के प्रश्नों में भी देखा तब मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। साथ ही यह अहसास भी कि यहां कबीर हैं। कबीर विद्यालीय पुस्तकों में आने से पहले, जीवन के विद्यालय में पाठ्यपुस्तक बन चुके थे। मौखिक परम्परा के लिए प्रसिद्ध भारत की जनवाणी में गाये जा चुके थे।

आज कबीर-पंथ में व्याप्त जो सीमाएं दिखाई पड़ रही हैं, उसके लिए उन्हें क्षोभ है, और कष्ट है। वे उसका निराकरण चाहतें हैं। बहोरन के प्रश्नों में आशंकायें साफ झांक रही हैं। कहीं एक छटपटाहट भी है। अवांछित के प्रति एक प्रतिक्रिया भी। इससे हम आहत तो होते हैं पर ऐसा होना भी जरुरी है। संशय, प्रश्न, दुविधा, प्रतिक्रिया आदि बातें केवल नकारात्मक भूमिका ही जीवन में नहीं करतीं वरन् एक विधेयात्मक, और रचनात्मक भूमिका भी अदा करती हैं। यदि जीवन में इनका स्थान न हो तो किसी भी नये उन्मेष की परिक्लपना हो ही नहीं सकती और संसार अपनी सम्भावनाओं से वंचित रह जायेगा। क्योंकि कोई नया युग अंकुवायेगा ही नहीं।

यद्यपि कुछ भी कहने, प्रतिपादित करने और अनुमानित परिणतियां देने की स्थिति हमारी नहीं है, फिर भी कृष्ण की मुस्कान हमें चुपके से कुछ कहती है।

परीक्षित जीयेगा। अश्वस्थामा और ब्रह्मास्र उसे मार नहीं सकेंगे। वैसे ही कबीरीय चेतना, मृत्यु, सत्रांश, रक्तपात, हिंसा, अमानवीयकरण की प्रक्रिया, प्रभुता और शक्ति के अतिकेन्द्रीयकरण और प्रतिस्पर्धा के बीच मस्तमौला - फकीर- ""कबीर'' गायेगा। और उसके स्वरलय से धरती का जीवन - गीत मुखरित हो उठेगा। प्रमोद और बहोरन के मिस समय ने जो प्रश्न उठाये हैं इतिहास उनका उत्तर देगा और प्रसाद सपना देखेगा -

उषा सुनहले तीर बरसती
जय लक्ष्मी सी उदित हुई
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अंतर्निहित हुई।...

कबीर ने अपने पर विश्वास किया। अपने "इत्यादि-जन' पर विश्वास किया और अपने राम पर विश्वास किया तथा घोर प्रतिकूलताओं के बीच गा सका-

बरस्या बादल प्रेम का, हम पर बरस्या आई।
अंतरि भीगी आत्मा, हरि भई बनराई।।

इस लौह युग को अंकुवाना होगा। इन निर्जीव को धड़कना होगा। इस अंधयुग को त्रिनेत्र धारी शिव शम्भु बनना ही पड़ेगा। और कामदेव को भस्मकर अपना दिगम्बरी रुप वि को दिखाना होगा।

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दिनांक : ३० अक्टूबर ०१, दिन - मंगलवार, समय ४ बजे

१.

श्री समय ला निर्मलकर (OBC )
ग्राम - अमेरी, अकबरी (बिल्हा)
जिला - बिलासपुर (छ.ग.)

२.

श्री बहोरन मानिकपुरी (OBC )
बंधवापारा बिलासपुर (छ.ग.)

३.

श्री दिलीप गंगोत्री (OBC )
ग्राम - अमेरी, अकबरी (बिल्हा)
जिला - बिलासपुर (छ.ग.)

४.

श्रीमती काजल गंगोत्री (OBC )
ग्राम - अमेरी, अकबरी (बिल्हा)
जिला - बिलासपुर (छ.ग.)

प्रश्न : १ कबीर दास जी ने अपने नाम से कोई पंथ नहीं चलाया तो, उनके अनुयायियों ने कबीर पंथ की स्थापना क्यों की?

प्रश्न : २ कबीर पंथ को चलाने वाले कर्णधारों में क्या कबीर जैसा व्यक्तित्व, स्वभाव, फक्कड़पन, निडरता जैसी बातें हैं?

प्रश्न : ३ कबीर ने मानव समाज को जीवन जीने की क्या प्रेरणा दी थी?

प्रश्न : ४ आज संसार परमाणु शक्ति व आतंकवाद के कारण विनाश के कगार पर खड़ा है। ऐसे में कबीर के उपदेशों को समाज में कैसे फैलाया जाये, जिससे समाज सुरक्षित जी सके?

प्रश्न १ : कबीर दास जी ने अपने नाम से कोई पंथ नहीं चलाया तो, उनके अनुयायियों ने कबीर पंथ की स्थापना क्यों की?

उत्तर : कबीर की वाणी का बड़ा व्यापक प्रबाव जन-जीवन पर पड़ा। जनता में जागरण आया। पहली बार उस युग ने निम्नतम वर्ग में संतों को जन्द दिया, जिन्होंने आम-आदमी की आवाज को बुलंद किया और समाज को मानवता का पाठ पढ़ाया। सामाजिक विषमता को दूर कर सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए संघर्ष किया। कबीरदास, रैदास, धर्मदास, गुरुनानक, दादूदयाल, सुन्दरदास, मलूकदास आदि इस युग की देन हैं।

आम जनता बरजोर वर्ग से पीड़ित थी। इसलिए उसने कबीर के उपदेशों को जन जीवन में व्यापक रुप से फैलाने के लिए उनका प्रचार प्रसार किया। इस प्रयास से समय के साथ पंथ का प्रादुर्भाव हुआ। कबीर की वाणी जन-जन तक पहुंचाने के लिए अनेक केन्द्र बने। उन्हीं से कबीर के विचारों के प्रचार के समस्त प्रयास संचालित हुए। समय के साथ विभिन्न केन्द्रों में धीरे-धीरे अपने आप चौरा या आश्रम विकसित होते गये। पहले इन स्थानों पर विचार संगोष्ठियां आयोजित होती होगी और कबीर वाणी पर विचार विमर्श होता होगा। साथ ही जनता पर प्रभाव, जन जागरण और कार्यकलापों का मूल्यांकन भी होता होगा। समय के साथ कबीर की वाणी और अनेक प्रकार के साहित्य का इन केन्द्रों में संकलन हुआ होगा। धीरे-धीरे ये केन्द्र एक निश्चित आधार पर कबीर वाणी के प्रसार के लिए विकसित हो गये होंगे। समय के अंतराल से ये केन्द्र ही कबीर पंथ के आश्रम के रुप में विकसित हो गये होंगे। इस प्रकार ऐतिहासिक कारणों से इनका एक निश्चित रुप बना होगा।

ऐसी मान्यता है कि महान सम्राट अकबर की तरह एक व्यापक समावेशी मानव धर्म के प्रसार के लिए बादशाह औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने कबीर पंथ का प्रचार - प्रसार किया था। पर अभी तक विद्वानों में मत एक नहीं हो पाया है। लेकिन इतना तो असंदिग्ध है कि कबीर की वाणी का शोषित आम-जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ा। संभवत: यही आधार रहे होंगे कबीर पंथ के उद्भव के। कालान्तर में इनमें संकीर्णता आयी और रुढियों ने जन्म लिया। फिर यहां पर महंत और आचार्य लोगों की एक परम्परा चली, इसका कारण शायद यह हो कि जिन लोंगो की भूमिकायें गंभीर रही होगी उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करने के लिए लोगों ने उन्हें आचार्यों की मान्यता दी होगी। बाद में ये वंशानुक्रम में बदल गये होंगे। मेरे विचार से कबीर-पंथ की स्थापना नहीं हुई है वरन् समय के साथ वह स्वत: विकसित हुआ है।

प्रश्न २ : कबीर पंथ को चलाने वाले कर्णधारों में क्या कबीर जैसा व्यक्तित्व, स्वभाव, फक्कड़पन, निडरता जैसी बातें हैं?

उत्तर : पहिली बात कहना चाहूंगी कि व्यक्तित्व की प्रतिस्थापना नहीं होती है। बिना कबीर बने कोई कबीर की जगह नहीं ले सकता। कफन बांध मस्ती कबीर का परिचय है। फक्ड़ानापन और निडरता का गुण उसी व्यक्ति में आता है जिसने अपने व्यक्तित्व को जनजीवन में एकाकार कर दिया है और स्वयं अपने को अतिक्रांत कर व्यापक जीवन में फैल गया है।

- १

जिसको अपने मिशन पर अटूट विश्वास हो।

- २

जो अपने मिशन के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हो।

- ३

जिसका अपना कोई स्वार्थ नहीं।

- ४

जो अपने लिए नहीं वरन् व्यापक जन समाज के लिए संघर्ष करता हो और जीवन मूल्यों की स्थापना करना चाहता हो।

- ५

जिसमें संकीर्णता और साम्प्रदायिकता का तत्व एकदम न हो।

- ६

जो सभी को समानता की दृष्टि से देखता और स्वीकार करता हो।

- ७

जो सत्यनिष्ठ हो तथा सदाचारी हो और समाज में अन्याय को समाप्त कर न्याय को स्थापित करना चाहता हो।

- ८

जो अपनी सत्यनिष्ठा और उच्च आदर्शों के लिए सब प्रकार की कुर्बानी देने को तैयार हो। कभी अपने पथ से विचलित न हो।

तथा जो स्वप्नदर्शी हो। कबीर के व्यक्तित्व की इन विशेषताओं का किसी भी व्यक्ति में आना अत्यन्त मुश्किल है। अपने परिवेश के साथ जुड़े बिना, अपने को जन में फैलाये बिना और जगत की मुक्ति का स्वप्न देखे बिना, लोक के हक के लिए लड़े बिना कबीर का व्यक्तित्व नहीं आ सकता। अत: कबीर के अनुयायियों को हमें उनकी सीमा में स्वीकारना होगा। कबीर दास तो जन-जन के अराध्य थे, वंदनीय महात्मा थे अब वे केवल कबीर पंथ के प्रवर्तक हो गये। स्वंय कबीर का जन आधार भी नहीं रहा, तब फिर कबीर के व्यक्तित्व की दुर्लभ विशेषतायें किसी और में कैसे मिल सकती है। हुआ यह कि व्यापक जन-जीवन के प्रभाव के कारण पंथ बने। पर पंथ की संकुचित दृष्टि के कारण वे व्यापक जन-जीवन से अलग हो गये। इसलिए विद्रोही स्वर कबीर पंथ के अंदर ही सुनाई पड़ा।

सतनाम पंथ इस प्रकार का एक विद्रोही स्वर है। आज कबीर पंथ में ही अनेक प्रकार के विरोधी स्वर उभर रहे हैं, इसका अर्थ यह है कि कहीं कुछ सही नहीं है। और विरोधी स्वर उसे सही देखना चाहता है। यह स्थिति सान्त्वना दायक है। क्योंकि सीमा का एहसास हो रहा है और संभावना तक पहुंचने का आत्मसंघर्ष चल रहा है। यद्यपि अपनी सीमाओं में आज कबीर पंथ अपनी बड़ी भूमिका अर्थात कबीर के सपनों की भूमिका नहीं कर पा रहा है, पर कबीर के विचारणा के प्रचार-प्रसार आदि की दृष्टि से अब भी इसका महत्व है। आवश्यकता है आत्मावलोकन की। और दुराग्रह छोड़कर आत्मसुधार की। साथ ही बदलते समय में बदलती भूमिका को स्वीकार करने की। और समसामयिक परिवेश को समझने की दिशा देने की।

प्रश्न ३ : कबीर ने मानव समाज को जीवन जीने की क्या प्रेरणा दी थी?

उत्तर : मानव समाज पशुओं का झुण्ड नहीं है। इसके दो तत्व हैं - रागात्मकता और सहचेतना अर्थात् मानव समाज में रागात्मक रुप से एक अन्त: संबंध होना चाहिए और जीवन की स्वस्थ व्यवस्था के लिए एक अभिज्ञान भी -

वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जो पीर पराई जाणे रे।

कबीर ने सबसे अधिक इसी वैष्णव मन पर बल दिया। वैष्णव मन का अर्थ - दर्दीला दिल अर्थात जो अपने लोगों से भावनात्मक रुप से जुड़ा हो। सबके दु:ख-सुख का अनुभव करता हो और अपने हृदय की भावना सबको देता हो। जो प्यार करता हो वही यह सब कर सकता है।

इसलिए कबीर के सम्पूर्ण जीवन दर्शन का एक ही केन्द्र है - "प्रेम'। कबीर का यह प्रेम ऐसा है जो अपने को मिटाकर, अपने को नि कर सामाजिक जीवन के संवर्धन में लीन हो जाता है।

""यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहीं।
सिर उतारे भूँई धरे, तब पैठे घर माहीं।''

- कबीर

जब तक यह बात नहीं होगी, तब तक सामाजिक अन्याय नहीं टलेगा और समानता की स्थापना नहीं होगी। इसलिए कबीर ने कहा है -

पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भयान कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय।
पढि-पढि के पाथर भया, लिख-लिख भया जू ईंट।
ढाई आखर प्रेम का, लगि ने अंतर छींट।।

- कबीर

कबीर के अन्त:करण  की पावन करुणा धारा जान्हवी जमुना की तरह बहती है, और समस्त जीवों को भिगोकर उसकी समस्त मलीनता धो देती है -

घाव काहिं पर घालौं, जित देखो तित प्राण हमारो।ं
मैं रो यह जगत को।

- कबीर

कबीरा तभी से जार-जार रो रहा है। वह रोने के लिए अभिशप्त है। कबीर ने सामाजिक दृष्टि से केवल एक सच्चे इंसान की जिंदगी जीने की प्रेरणा दी है। और हर एक व्यक्ति को आत्म चिंतन और आत्मबोध के लिए कहा है। नैतिक सदाचार युक्त जीवन कबीर को अभीष्ट था। कहने का मतलब यह है कि भौतिक, भोगवादी और सुखोपवादी जीवन की छूट कबीर ने कभई नहीं दी। वरन् उन्होंने मानवीय, नैतिक, मूल्यवादी और सदाचार पूर्ण संवेदनशील जीवन जीने को कहा। इस प्रकार कबीर ने जो जीवनदर्शन दिया, वह "भाव में ज्ञान' और "ज्ञान में भाव' "समाज में व्यक्ति' और "व्यक्ति में समाज' को देखना चाहता है।

हेरत-हेरत हे सखि, रह्या कबीरा हिराई।
बूँद समाना समंद में, सोकत हेरिया जाई।
हेरत-हेरत हे सखि, रह्या कबीर हिराई।
समंद समाना बूंद में, सोकत हेरिया जाई।

- कबीर

जब तक "व्यष्टि में समष्टि' और "समष्टि में व्यष्टि' नहीं मिलेगी, तब तक मानवीय जीवन की हरियाली या सबूजता नहीं फैलेंगी। इसलिए केवल प्रेम की सजलता की जरुरत है।

सतगुरु हमसो रिझ करि, इक कहया प्रसंग।
बरक्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग।
बरस्या बादल प्रेम का, हम पर बरस्या आई।
अंतर भीगी आत्मा, हरि भई बन राई।

- कबीर

आज के इस मशीन युग में सबले अधिक इस जल और हरियाली की जरुरत है। क्योंकि यह दुनियां-हिरोशिमा और नागासाकी की दुनियां में बदल चुकी है और यहां पर रोबट का बोलबाला है। यंत्र दुनियाँ को कबीर ने प्रेम का, राग का, मानवपन का और आत्मीय निजी संबंधों का संदेश दिया है। अर्त युग को अनार्थिक और भावनामय जीवन दृष्टि दी है। भोगवादी वि को मूल्यवादी, नैतिक और संयमित जीनव के रुप को दिखाया है। आत्मलीन और स्व-केन्द्रित व्यक्ति चेतना को जगत की मुक्ति व समाज के कमजोरतम वर्ग की रक्षा का सामाजिक पाठ पढ़ाया है। Macro Eco से परे Micro Eco को अपनाने की सलाह दी है। विशाल के साथ लघु जीवन रुप को महत्व देने को कहा है।

प्रश्न ४ : आज संसार परमाणु शक्ति व आतंकवाद के कारण विनाश के कगार पर खड़ा है। ऐसे में कबीर के उपदेशों को समाज में कैसे फैलाया जाये, जिससे समाज सुरक्षित जी सके?

उत्तर : कबीर दास जी जीवन भर एक नई दुनिया (A New World ) बनाने की जी तोड़ कोशिश करते रहे। इस दुनियां के लिए उन्होंने हमारे हाथों सबसे बड़ा आणविक बम दिया -

१.

("शब्द ब्रह्म') सबसे बड़ा सामाजिक आधार दिया।

२.

(प्रेम) सबसे बड़ा शांति का दर्शन दिया।

३.

(निरपख राम)

४.

(अविशेष-विशेष मानव) उत्कट आतंकवाद को दिया सामाजिक न्याय और मूल्यवादिता।

उसके इन प्रलयंकारी हथियारों से समय बदला और एक नये युग का जनम हुआ।

कबीर एक सजग प्रहरी की तरह हमें अगाह कर रहे हैं - सजग रहो, सतर्क रहो, मुस्तैद रहो, सोओ नहीं, कफलत मत करो।

तू जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहां जो सोवत है।
जो सोवत है वह खोवत है, जो जागत है सो पावत है।

अपनी संतानों को अपनी चदरिया सौंपते हुये कर रहे हैं - ध्यान रखना यह मैली न हो। यह तुम्हें जीवन की ऊष्मा दे, इसका ख्याल रखना। हमने कितना सुना और कितना गुना, यह तो समय ही बतायेगा। पर कबीर की रचनात्मक क्रांति में कही भी विनाश नहीं है। शंकर की तरह जीवन का जहर पीकर वह नीलकंठ बन गया पर दुनियां को उसने चन्द्रमा की चांदनी और गंगा की पवित्र धारा दी। मृत्युंजयी रुप दिया। कबीर अपने राम को दो टूक लहेजे में कहते हैं -

दोजख तो हम आंगियां, यह दुख नाहीं मुज्झ।
भिस्त न मेरे चाहिए, प्राण प्यारे तुज्झ।।

- कबीर

ंM???

अर्थात् मैंने तुम्हारे दिये हुये नर्क को स्वीकार कर लिया। अब उसी के लिए जी और मर्रूंगा पर मेरे राम उन्हें छोड़कर तेरे स्वर्ग को नहीं जा इससे बड़ा और कोई क्या सामाजिक दर्शन दे सकता है?

कबीर ने जो कुछ भी हमें दिया, हमारे अपने युग के लिए उसमें अनेक महत्वपूर्ण तत्व हैं -

१.

भोगवाद की जगह पर मूल्यवाद वर्ग संघर्ष हॉव्स एण्ड हैव नॉट्स की जगह पर सामाजिक न्याय और समानता।

२.

धार्मिक असहिष्णुता की जगह धार्मिक सहिष्णुता और सहयाग।

३.

केन्द्रीयता के स्थान पर सभी संसाधनों को अकेन्द्रीयकरण (Non-Centralization ) और अन्त्योदत।

४.

व्यापक मानववाद, प्रेमवाद, सर्वधर्म समन्वयवाद और एक जीवनधर्मी विश्व।

५.

कबीर ने जो कुछ कहा इस दुनिया के लिए कहा, इसी दोजख के लिए कहा, किसी स्वर्ग या अपर दुनिया के लिए नहीं।

६.

कबीर की वाणी की शक्ति का कारण यह लोक है। प्रत्यक्ष अनुभूति/प्रत्यक्ष जीवन और उसके प्रश्नों तथा समाधान/एकस्वस्थ समाज की स्थापना/तथा मूल्यवादी जीवन दर्शन/और एक कर्मठ मनुष्य / कबीर का इस युग के लिए यही अवदान है। वे कर्मवीर चाहते हैं वाक्वीर नहीं।

संक्षेप में कबीर (शास्र-सम्मत-दुनियां) को छोड़कर (मानव सम्मत दुनिया) को अपना लेते हैं। और इस तरह एक सीधा, सहज और सरल मार्ग अपने और अपने लोगों के लिए बना लेते हैं।

मैं कहता अँखियन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो उरझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।

कबीर दास जी अपने संदेशों द्वारा जगा रहे हैं और लिखित सभ्यता के जल-प्लावन से हमें बचाकर एक ऐसी दुनियां में पहुंचाना चाहते हैं - जहां केवल कर्म दर्शन हो वाक्-दर्शन नहीं। इस मशीन केन्द्रित दुनियां को मानवीय बनाने को कहा है। सभी प्रकार की विषमताओं का अंत कर समानता और वर्गविहीन समाज के द्वारा मानव जीवन को सुरक्षित रखने की बात कही है। सारांश में जनपदीय चेतना / शक्ति स्रोतों के अकेन्द्रीयकरण / तथा अविशेष-विशेष मानव / और अन्त्योदय / यही कबीर का आज के विश्व-जीवन को संदेश है।

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दिनांक : ०३ नवम्बर ०१, दिन - शनिवार, समय ३ बजे

१.

श्री राम सिंह ध्रुव (S.T. )
ग्राम - बख्साही
जिला - कोरबा (छ.ग.)

२.

श्री अवध राम देवांगन (O.B.C )
ग्राम - लोफंदी
जिला - कोरबा (छ.ग.)

 

प्रश्न १ : कबीर दास जी समाज सुधारक थे?

प्रश्न २ : क्या कबीर दास जी निराकार के पुजारी थे?

 

प्रश्न १ : कबीर दास जी समाज सुधारक थे?

उत्तर : जन्म से कबीरदास जी को जीवन का जीवन पीना पड़ा। उस जहर से जहां वे आत्मपीड़ा से भर गये, वहां उसके कारणों को जानने का उन्होंने विश्चय कर लिया। कारण वे सदा के लिए सामाजिक जहर को खत्म करना चाहते थे। सामाजिक विषमता, अन्याय और जुल्म तीनों का कारण ढूंढ़ते हुये वे दलित, कुचले और कमजोरतम वर्ग तक पहुंच गये। मुट्ठी भर बरजोर वर्ग द्वारा समाज के बड़े हिस्से का यह दमन, दोहन और शोषण, उन्हें मंजूर नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने मानवता के मूल अधिकार (समानता का अधिकार) की स्थापना के लिए जीवनभर संघर्ष किया। वे समाज में सभी का समान अधिकार चाहते थे। कमजोरतम वर्ग को धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी प्रकार की समानता का हक और अवसर दिलाना चाहते थे। लोगों में इतनी समझ लाना चाहते थे कि वे हर बात को सही रुप में देख सकें। रुढ़ी, अंधविश्वास, कुरीतियों, बाह्याचारों आदि का पालन जनता न करे, ऐसी उनकी कोशिश थी। उदारता, प्रेम, मानववाद, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, नैतिकता, सदाचार, अहिंसा करुणा आदि का पालन समाज में हो इसके लिए एक वातावरण बनाना चाहते थे।

कबीर दास जी के समय में विघटन, विचलन और बिखराव दिखाई पड़ता है। समाज के शक्तिशाली वर्ग या उच्च वर्ग अपनी मुट्ठी में सारे अधिकार बंद किये हुये थे। और बहुत बड़े निम्न वर्ग को मानव का दर्जा भी नहीं देना चाहता थे। अनेक प्रकार के सिद्धान्त, शास्र ज्ञान की पुस्तकें, कर्मकाण्ड आदि को बनाकर वे ज्ञान को (वेदशास्र, उपनिषद आदि को) बड़े वर्ग तक सीमित रखना चाहता थे। और उसे छोटे वर्ग तक पहुंचने नहीं देना चाहता थे। दलित वर्ग का जीवन पशु से भी बदत्तर था। कबीर दास जी महाप्राण थे। वे इसे सहन नहीं कर सके। उन्होंने कमजोरतम वर्ग को हक दिलाने का प्रयास किया। बड़े लोगों को गलती का एहसास कराया और उन्हें अपने सामाजिक कर्तव्य का ज्ञान कराया। दोनों को पास लाने का और एक स्वस्थ समाज की स्थापना का प्रयास किया।

हिन्दू, मुसलमान तथा जितने भी सम्प्रदाय थे उन सबको एकता के सूत्र में बांधकर एक शक्तिशाली समाज और एक शक्तिशाली देश की नींव डाली। कबीर जी ने वि भर के मानवों को मानवता के धागों से बांधना चाहा। हर प्रकार की विषमताओं को दूर कर सारी मानवता की मुक्ति की बात कही। उन्होंने मानव और भगवान दोनों को सब प्रकार के नामों विशेषताओं और परिभाषाओं से अलग कर दिया। मनुष्य को एहसास कराया, राम कहीं बाहर नहीं है - तेरे भीतर है। (तेरे में जो जीवन बोध है आत्मबोध है और सारे मनुष्य समाज से जो एकता की अनुभूति है उसी का नाम - राम है।) तुम्हारा भी परिचय केवल इतना ही, है - कि तुम पंच तत्व के बने हुये हो और चेतन प्राणी हो। इसलिए न कोई बड़ा है न कोई छोटा। सारे नर एक हैं और सभी में नारायण समाया हुआ है। इसलिए अपने मन को साफ करो। जो लोगों को अलग करते हैं वे गलत हैं। इस प्रकार कबीर दास न सभी को मिथ्याचार, अनाचार, अज्ञानता और अमानवीयता से मुक्ति दिलानी चाही। प्रेम और समानता के अदिकार पर ही एक स्वस्थ समाज बन सकता है। इंसान केवल बाहरी दृष्टि से भिन्न है और भीतरी दृष्टि से अभिन्न। इस बाहरी आवरण को हटाकर देखने की जरुरत है। जो पोथी की विद्या है वह गुमराह करती है। इसलिए जीवन की विद्या देखनी चाहिए। कबीर दास जी ज्ञान, तर्क आदि की भूल भुलइया में न पड़कर, अपने और अपने जैसे लोगों के लिए सीधी सरल रास्ता अपना लेते हैं और सम्पूर्ण मानवता को कुछ संदेश देते हैं जो इस प्रकार हैं -

१.

भगवान हर एक में हैं। उसे हर एक, पा सकता है।

२.

उसके लिए सभी समान है।

३.

प्रेम के द्वारा दुनिया भर के दिल जल्दी पास आ सकते हैं।

४.

सभी समान हैं, इसलिए सभी को जीने का और बराबरी का दर्जा पाने का पूरा हक है। जो अपने को कमजोर मानते हैं उन्हें अपनी शक्ति पहचाननी चाहिए और ऊपर उठना चाहिए।

इस प्रकार जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव से ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति मुक्ति पा सकता है। यहां मुक्ति से आशय (सब प्रकार की अज्ञानताओं के बंधन से मुक्त होना है) -

गुरु बिन मिले न ज्ञान, गुरु बिन मिले न मोक्ष।
गुरु बिन न मिले न सत्य, गुरु बिन मिटे न दोष।

चाहे वैदिक मार्ग हो या अवैदिक पर कबीर के लिए दोनों झूठे थे। उन्होंने दुनिया के दो रुप देखे थे - एक शास्र-सम्मत और दूसरा मानव-सम्मत।

शास्र सम्मत दुनिया को उन्होंने छोड़ दिया। कारण सभी प्रकार की गलतियां, उसमें उन्होंने पाई। वही सबसे अधिक मानव को गुमराह करने वाला पक्ष है। इसलिए उन्होंने मानव सम्मत दुनियां अपने लिए अपना ली।

वेद कुरान सब झूठ है, हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीर। घट का परदा खोल देखा।

- कबीर

और इस पथ पर चलकर उन्होंने अपने "आम-आदमी' को मानवीय हक और गौरव दिलाना चाहा।

इस प्रकार कबीरदास जी ने धर्म, समाज, राज्य आदि किसी में सुधार करने का प्रयास नहीं किया। वरन् लोगों में सुधार लाना चाहा और उनके मन को गढ़ना चाहा, जो गिरे हुये थे उन्हें ऊपर उठाया, जो बरजोर वर्ग था उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। सामान्य जन में नव जीनव आया। पहली बार कुचले हुये उत्पीड़ित वर्ग में संत पैदा हुए। इन महात्माओं की वाणी में इतनी ताकत थी कि शक्तिशाली वर्ग को झुकना पड़ा। सभी में एक व्यापक चेतना आयी, समाज, धर्म आदि में एक उदारता दिखाई पड़ी। मध्य युग में विद्रोह का सबसे ऊंचा स्वर कबीर का था। युग दहल उठा। इतिहास ने करवट ली और एक नई जीवन दृष्टि विकसित हुई। महान सम्राट अकबर ने अपने "दीन-ए-इलाही' में कबीर के इस मानववाद से प्रेरणा ली। और अपने राज्य को सुदृढ़ करने के लिए, सभी वर्गों और धर्मों को पास लाने के लिए कबीर की क्रांति-चेतना से रचनात्मक दृष्टि ली। कबीर से औरंगजेब के बड़े भाई "दारा शिकोह' प्रभावित थे। ऐसी मान्यता है कि दारा शिकोह "सत्ता की लड़ाई' के दौरान जब मध्यभारत के जंगलों में आत्मरक्षा के लिए छुपते फिर रहे थे, वे कबीर - पंथ के संपर्क में आये थे। इससे प्रभावित भी हुये थे और उसके प्रचार के लिए सहयोग भी दिया था। कबीर और इन महान संतों की भूमिका का परिणाम हमारा आधुनिक भारत हैं। प्रजातंत्रात्मक गणराज्य / सहिष्णुता / सर्वधर्म - समन्वय / विविधता में एकता / आदि बातें इन्हीं संतों की देन हैं। यद्यपि कबीर निषेध के कवि थे, विद्रोह के कवि थे, क्रांति के कवि थे पर उनका अंतर सभी के लिए प्रेम और करुणा से भरा हुआ था। यही कारण है कि आज सामाजिक क्रांति से आतंकवादी और नक्सलवादी पैदा होते हैं पर उनकी सामाजिक क्रांति से व्यापक मानवधर्म (अकबर, दारा शिकोह व महात्मा गांधी: और शांति तथा प्रेमपूर्ण सह-अस्तित्व का जन्म होता है -

कबीर खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोसती, ना काहू से बैर।।

- कबीर

प्रश्न २ : क्या कबीर दास जी निराकार के पुजारी थे?

उत्तर : कबीरदास जी सत्य के खोजी थे। सत्य की खोज में जितने पंथ और मार्ग हो सकते थे, उन्होंने अपनाया। न तो वे निराकार को मानने वाले थे और न निर्गुण के, न तो साकार के और न ही सगुण के। वे न तो ज्ञानमार्गी थे और ना ही प्रेममार्गी। न तो वेदों को मानते थे और ना ही वेद विरोधी सिद्धांतों को। इसलिए हम कबीर जी को सगुण-निर्गुण, निराकार-साकार आदि में बांध नहीं सकते। सत्य का विभाजन नहीं होता। कबीर दास सत्य की खोज कर सबको परखते हैं, और अंत में सभी को छोड़कर अपने (निरपख भगवान) के पास पहुंच जाते हैं। उनका निरपख राम है -

जाके मुख माथा नहीं, नाही रुप कुरुप।
पुहुप वास तो पातरो, ऐसो तत्व अनूप।

- कबीर

तेरा सांई तुझमें बसे, ज्यों पुहुपन में बास।
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर-फिर सूंघे घास।

- कबीर

जोगी गोरख-गोरख करे, हिन्दु राम नाम उच्चरै।
मुसलमान कहै एक खुदाई, कबीर का स्वामी घट-घट रहा समाई।

- कबीर

पाँणी ही तै पातला, धुंवा ही तै झींण।
पवनाँ बेगि उतावला, सो दोसत कबीर कीन्ह।।

- कबीर

मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहिं।
अब मन रामहिं है रह्या, सीस नवावौं काहिं।।

- कबीर

नैनन की कोठरी, पुतली पलंक बिछाय।
पलकन की चिक डारि के, पीव को लिया रिझाय।

- कबीर

इस प्रकार कबीर के राम का कोई स्वरुप नहीं है। सारी सृष्टि उसमें समाई हुई है और वह सारी सृष्टि में व्याप्त है। राम, कबीर और संसार तीनों एक हैं - अद्वेैत है। इसलिए कबीर अपने राम की तरह मानव की भी परिभाषा करते हैं। यदि उनका राम निपरख है, फूल की सुगंध से भी अधिक झीना है तो कबीर केवल एक पंचतत्व का पुतला है।

पंच तत्व ब्रह्मांड में व्याप्त है। जिस पंचतत्व में राम सुगंधी के रुप में फैले हुये हैं, उन्हीं का मानवीय रुप है - कबीर। इसलिए कबीर का मानव भी निरपख है -

हिन्दू मैं हूं नहीं, मुसलाम भी नाहीं।
पंचतत्व का पुतला, गैबि खेले माहीं।

- कबीर

अपनी बात को जनता में स्पष्ट करने के लिए साफ शब्दों में कहते हैं -

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना, यह तथ कथ्योगियानी।

यहां पर कबीर ने घड़ा और जल के उदाहरण के द्वारा राम और कबीर के अभेद रुप को बताया है। और अपनी मस्ती में गाते हैं -

""का जानी कछु करम गति, कछु पुरबला लेख।
देखो भाग कबीर का, दोसत किया अलेख।''

- कबीर

अपने राम को अपना दोस्त बना लेने के बाद कबीर अपनी फक्कड़ाना मूस्ती में झाड़-झूड़ कर सबको अलग कर देते हैं और डंके की चोट पर ऐलान करते हैं -

सुर नर मुनि जल औलिया, ये सब बैले तीर।
अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर।।

- कबीर

अत: कबीर दास जी अद्वेैती थे। मैं ऐसे समझाना चाहूंगी - कबीर दास जी "एकलव्य' थे। जैसे "एकलव्य' ने "गुरु द्रोण' की माटी की मूरत बनाकर धनुर्विद्या चुरा ली थी, स्वयं गुरुजी को पता नहीं चल पाया था, ठीक उसी प्रकार कबीर ने राम शब्द को अपने "गुरु रामानंद' से चुरा लिया। प्रश्न उठता है यह सब कैसे हुआ है? यह संभव है कि "गुरु द्रोण', मिट्टी की मूरत, धनुर्विद्या और एकलव्य चारों, अद्वेैत हैं, अभिन्न हैं। अत: न किसी ने लिया और न किसी ने दिया। अर्जुन अलग रहा। इस अद्वेैत रुप को समझ नहीं पाया। इसलिए एकलव्य से हार गया।

कबीर ने सारे धार्मिक कर्मकाण्डों को नकार दिया है। केवल "नाम स्मरण' को माना है - "औंकार' को माना है। एक-अद्वेैत ध्वनि को माना है। इस अखण्ड ध्वनि से संसार की सारी ध्वनियां निकली हैं। हमारे यहां अद्वेैत ध्वनि की कल्पना की गई है। जिसे ओंकार कहते हैं। सरस्वती की वीणी, कृष्ण की बाँसुरी, और शंकर के डमरु नाद इसके प्रतीक हैं। अत: बाहर जितनी भाषायें और बोलियां है वे मूल रुप से अद्वेैत ध्वनि हैं। नामस्मरण के द्वारा हम उस अद्वेैत ध्वनि का अनुभव करते हैं।

कबीर जी ने इसके माध्यम से अपनी समानता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। तथा अपनी सामाजिक क्रांति पूरी की है। इस तरह उस संत ने मानव समाज की सारी विसंगतियों और विभिन्नताओं को मिटाकर और सारे भेदों को मिटाकर उन्हें मानव के रुप में पास लाने की कोशिश की। संघर्ष को मिटाया। शांति की स्थापना की। दिलों को पास लाये और दिमागों को एक दिशा दी और विश्वशांति की स्थापना का मार्ग सुझाय -

उड़ा बगुला प्रेम का, तिनका उड़ा आकाश।
तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पास।।

- कबीर

 

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दिनांक : १८ नवम्बर ०१, दिन - रविवार, समय ४ बजे

प्रश्नकर्ता -

१.

गंगाराम निर्मलकर (O.B.C. )
दगोरी, बिल्हा

२.

रामफल यादव (O.B.C. )
मोहतरा, बिल्हा

३.

छवि लाल कौशिक (O.B.C. )
दगोरी, बिल्हा

प्रश्न १. : कबीर की जन क्रांति आज के संदर्भ में?

प्रश्न २. : कबीर का अर्थ दर्शन क्या है?

प्रश्न ३. : वर्तमान संदर्भ में कबीर की प्रासंगिकता?

 

प्रश्न १. : कबीर की जन क्रांति आज के संदर्भ में?

उत्तर : कबीर का जो संघर्ष था वह आम आदमी को प्राकृतिक और मानवीय हक दिलाने के लिए था। यह बरजोर वर्ग को मंजूर नहीं था। दलित वर्ग भी मानवीय गरिमा से दीप्त है। प्रकृति और ईश्वर ने उसे मानवीय व्यक्तित्व और जीवन से वंचित नहीं रखा है। यह अनुचित कार्य बरजोर वर्ग ने अपने हर प्रकार की व्यवस्था के माध्यम से किया है। मां वसुन्धरा की सभी संतानें मां की गोद पर बराबरी का हक रखती हैं।

कबीर ने जीवन भर सामाजिक अन्याय और अत्याचार को दूर कर एक समानता पूर्ण मानवीय समाज की स्थापना का कार्य किया। इस समाज में सभी को समान अधिकार और अवसर मिलता है। केवल जन्म के कारण किसी को किसी चीज से वंचित नहीं किया जा सकता है। उच्च वर्ग में इस दलित वर्ग के लिए कोई भी सम्मानपूर्ण स्थान नहीं था। इस सामाजित विषमता के कारण कबीर दास जी को बचपन से जहर ही पीना पड़ा था। मानवता के लिए यह एक कलंक की बात थी। अत: आम आदमी को उसका मानवीय हक दिलाने के लिए कबीर दास जी ने धर्मयुद्ध छेड़ दिया। वे विश्व-मानवता के मंदिर में इस "जन' की मूर्ति को स्थापित करना चाहते थे। साथ ही किस प्रकार पाखण्ड, झूठ, कर्मकाण्ड गलत नियम-कानून आदि के द्वारा सारे बड़े लोग एक साथ मिलकर इस कमजोर वर्ग को उसके प्राकृतिक अधिकार से वंचित रखते हैं, इसका भी वे पर्दाफाश करना चाहते थे। वे जनता को जगाना भी चाहते थे। उनमें आत्म संस्थापना करना चाहते थे, अर्थात् वे जनता को महसूस कराना चाहते थे कि वह मानव है केंचुआ नहीं, जिसे कोई भी कुचल दे। वह किसी प्रकार बरजोर वर्ग से कमजोर नहीं है।

राम को पाने का उसे उतना ही हक है जितना पंडित मुल्ला आदि को। यदि इन दोहरे व्यक्तित्व वाले लोगों के घर से राम को पाने का रास्ता निकलता है तो वह रास्ता इन सच्चे, सहज, निर्मल लोगों के घर से और भी ज्यादा निकलता है। मुक्ति का अधिकार केवल पंडित, मुल्ला आदि को नहीं है। हर इंसान को अधिकार है औऱ उसमें तथाकथित गिरे हुये लोग भी शामिल हैं। साथ ही कबीर दास जी ने बड़े लोगों को भी नहीं बख्शा। उनकी असलियत का ज्ञान जितने नंगे व बेबाक रुप से करा सकते थे, करा दिया।

सांच कहौं तो सब जग खीजे। झूठ कहा न जाई।

 

संतों बोले तो जग मारे।
अनबोले ते कैसक बनि है? शब्द कोई न बिचारे।

- कबीर

उन्होंने साफ कह दिया कि यदि तुम्हें हम मंजूर नहीं हैं, तो तुम भी हमें मंजूर नहीं।

जो मोहि जाने ताहि मैं जानौ। लोक वेद का कहा न मानौ।।

- कबीर

इसलिए उन्होंन दुनियां को दो भागों में बांटकर देखा -

एक तो उन निक्कमे लोगों का समाज जो शास्रों का नाम लेकर सारी मानवता को गुमराह करते हैं।

और दूसरे वे कमजोर और कुचले लोग जो जीवन भर शोषित, उत्पीड़ित और प्रताडित रहते हुए भी हमेशा सच्चे रहते हैं।

कबीर ने शास्रों की दुनिया छोड़ दी और अपने लिए मानव सम्मत दुनियां चुन ली। यह दुनिया सीधी है, सरल है, निर्मल है, तथा इसमें पाखंड और अत्याचार नहीं है। इसमें दूसरों को मारकर खुद जीने की पद्धति नहीं है।

कबीर दास तो उनके साथ सदा रहते हैं -

दीन गरीबी बंदगी, साधन सो आधीन।
ताके संग मैं यों रहूँ, ज्यों पानी संग मीन।।

- कबीर

मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरै, कहत कबीर - कबीर

- कबीर

जेते औरत-मरद उपानी सो सब रुप तुम्हारा।
कबीर पोंगरा अलह राम का सो गुरु पीर हमारा।।

- कबीर

दिल में खोजि दिलहि माँ खोजो, इहै करीमा रामा।

- कबीर

मृगा की नाभि कस्तूरी, मृग ढूँढ़े बन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया जानत नाहिं।।

- कबीर

कबीर से बहुत पहले सिद्ध, योगी आदियों ने छुआछूत, जांत-पांत आदि का विरोध किया था। कबीर दास जी ने उसी सामाजिक क्रांति को अधिक तीव्र कर दिया। मध्ययुग में विद्रोह का सबसे ऊंचा स्वर कबीर का था। कबीर ने सबको बुला-बुलाकर पुकार-पुकार कर डंके की चोट पर अपने विद्रोह का ऐलान किया था और उसने अकेले ही इतिहास को नई दिशा दी।

जनता जी उठी। संतो का आविर्भाव हुआ। हमारे आज की धार्मिक-सहिष्णुता, सर्वधर्म - समन्वय, जनतांत्रिक - चेतना और प्रजातांत्रिक गणराज्य और सर्वोपरि एक स्वतंत्र सार्वभौम राष्ट्र इस कबीर की जनक्रांति की देन हैं। क्योंकि कबीर ने उस युग में जब सब कुछ भ हो गया था - घृणा और नफरत का बोलबाला था, और मनुष्य मनुष्य के संघर्ष से, युग जीवन में विभ्राट आ गया था, तब कबीर ने जनता-जनार्दन को जगाकर उस दानवी परिस्थिति को फाड़ डाला। फिर से एक वैचारिक क्रांति उपस्थित की, फिर से एक नवीन संस्कृति दी। गांधी जी की वैचारिक स्वतंत्रता और कबीर की वैचारिक क्रांति एक है। यही वि मानवता की मुक्ति है। अंग्रेजी में एक कहावत है -

""मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है पर वह सर्वत्र बंधनों से जकड़ा रहता है।''

कबीर ने बंधन काट दिये। मानव की आत्मा का पंछी अनंत आकाश को नापने उड़ चला न जाने कहं - अछोर - अपरम्पार।

 

प्रश्न २. : कबीर का अर्थ दर्शन क्या है?

उत्तर : कबीर ने हमें एक साम्यवाद दिया जो प्लेटो और माक्र्स के साम्यवाद से भिन्न है। प्लेटो का साम्यवाद वंश पर आधारित है और माक्र्स का साम्यवाद अर्थ पर। कबीर का साम्यवाद जीवन मूल्यों पर आधारित है और मानव को जीने का समान अधिकार दिलाता है। इस साम्यवाद में मनुष्य साध्य है, और अर्थ साधन। और यह साधन मानव कल्याण के लिए प्रयुक्त होता है।

आधुनिक युग में गांधीजी का अर्थ दर्शन कुटीर उद्योग व ट्रस्टी शिप माइक्रो एण्ड अन्त्योदय अथवा सर्वोदय आदि सभी में हम कबीरीय चेतना की एक आधुनिक वैज्ञानिक अभिव्यक्ति पाते हैं।

कबीर दास जी ने जीवर के सभी रुपों की स्वीकृति दी है। केवल एक शर्त है कि उसका कमजोरतम वर्ग पर बुरा प्रभाव न पड़े। व्यक्ति और समाज को समानधर्मी तथा दायित्व - सम्पन्न होना चाहिए, वे आर्थिक संसाधनों का इस प्रकार वितरण चाहते हैं कि व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। क्योंकि इसके बिना मनुष्य का - जीवन संभव नहीं है। अत: समान रुप से यह अधिकार - सबको मिलना चाहिए। वे मनुष्य के आराम देह (Comforts) और (Luxry ) विलासी आवश्यकताओं की छूट नहीं देते हैं। कबीर बुनियादी जरुरतों (Bare necessities) की बात करते हैं। कबीर एक सरल, सहज और समता मूलक व्यवस्था चाहते हैं। साथ ही वे स्वावलम्बी और सादगीपूर्ण जीवन की बात भी करते हैं। कबीर के अर्थ दर्शन के दो प्रमुख तत्व हैं -

१.

आर्थिक चिन्तन का आधार मानव हो, पूँजी नहीं।

२.

सादा जीवन उच्च विचार

अर्थ - दर्शन का आधार अर्थ नहीं, जीवन मूल्य ही हो सकता है। और पूँजी नहीं मानव ही हो सकता है। समाज के और प्रकृति के आर्थिक संसाधनों पर सभी मानवों का हक है। वह किसी एक वर्ग का नहीं है। इसलिए गांधी जी का अन्त्योदय ही कबीर को अभीष्ट था। किसी भी राष्ट्र और समाज का विकास हाव्स एण्ड हाव - नाट्स के रहते नहीं हो सकता। जिस वर्ग की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है, उस वर्ग में कला, संस्कृति, आदर्श की कल्पना करना बेमानी है।

भूखे भजन न होय गोपाला, ले, ले अपनी कण्ठी माला।

- कबीर

कबीर क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग।
याको टुकड़ा डार दे, भजन करो निसंक।।

- कबीर

२१वीं सदी के अर्थदर्शन को कबीर की दृष्टि एक नया क्षितिज देती है। इस व्यापारिक युग में मानव का जीवन और उसका सब कुछ केवल मात्र बिकने वाली सामग्रियां है। चारों ओर भोगवाद का बोलबाला है। लोभ का अंत नहीं। रावण की लंका जल चुकी है। उसका मृत शरीर धराशायी है। साधन - हीन राम विजयी हैं। भालू वानरों आदि को सफलता मिली है। जिस मशीन को इंसान ने बनाया था उसी ने उसको भकस लिया है। इस धरती पर उसी का फैलावा है। मानव निष्कासित वह अपनी धरती मशीन को सौंपकर आकाश में अपने लिए आश्रय ढूंढ रहा है। कबीर का अर्थ दर्शन २१वीं सदी के वि के लिए एक नवीन दिगंत खोलता है। इस युग को चुनाव करना है -

१.

क्या वह सोने की लंका को जल जाने देगा?

२.

क्या वह अपनी बेटी को स्वर्ण प्रतिमा बनने देगा? या फिर मुनियां की किलकारियों से २१वीं सदी के आकाश को भर देगा? चुनाव हमारा है?

 

प्रश्न ३. : वर्तमान संदर्भ में कबीर पंथ की प्रासंगिकता क्या है?

उत्तर : कबीर दास जी ने कोई पंथ नहीं चलाया, वह पंथ के खिलाफ थे। क्योंकि वे जानते थे कि पंथ स्थापित हो जाने के बाद संकीर्णता आ जायेगी, और कुछ लोक अपना हक जताने का प्रयास करेंगे। कबीर का जो कहना था -

""सिंह के लँहेड़ नहीं, हँसन की नहीं पांत।
लालो की नहीं बोरियां, साधु न चले जमात।।''

- कबीर

न तो उन्होंने किसी को शिष्य बनाया, न उपदेश दिया। वे अपने भावों में डूबे अपनी मस्ती में गाते जाते थे। उसका जो जन-जीवन पर प्रभाव पड़ा, उसी प्रभाव ने समय के साथ कबरी-पंथ का रुप ले लिया। इसके समर्थकों ने उनकी वाणी के प्रचार-प्रसार के लिए तथा जन-जागरण के उन  मिशन को पूर करने के लिए संगठित रुप से कोशिश की। तथा केन्द्रों की स्थापना की। इन्हीं केन्द्रों ने आगे चलकर पंथ के केन्द्रों का रुप ले लिया और कबीर चौरा, कबीर आश्रम के रुप में विकसित हुये। पंथ का अर्थ है मार्ग। कबीर के उपदेशों के आधार पर एक वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की पद्धति को अपनाना कबीर पंथ का लक्ष्य है। कबीर के उपदेशों का सार निचोड़ है - सदाचार पूर्ण, सत्यनिष्ठ, सहज-सरल-नैतिक-जीवन। इसलिए कबीर पंथ में संकीर्णता और दिखावा नहीं होना चाहिए।

ऐसी मान्याता है कि अकबर के "दीन-ए-इलाही' की प्रेरणा भी कबीरीय चेतना रही है। औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने भी हिंदू मुसलमान एकता के आधार पर एक व्यापक मानव धर्म को चलाना चाहा जिसका नाम था -

""मजूम-उल-बहेरिन''

उसका भी आधार कबीरीय चेतना थी। समय के साथ कबीर-पंथ में साम्प्रदायिकता का तत्व आ गया। कबीर दास जी ने जिन बातों का विरोध किया था वे सारी बातें कबीर-पंथ में मौजूद हैं। कबीर-पंथ की उस संकीर्णता का विरोध सतनाम पंथ ने किया। खैर इतिहास के विकास में इस प्रकार के उतार-चढ़ाव आते हैं। पर मैं कबीर-पंथ को इसका श्रेय अवश्य दूंगी कि उसने कबीर दास जी से संबंधित विषय सामग्री को सुरक्षित रखा अन्यथा आज हमारे लिए ये अलम्य वस्तुएं हो जातीं। २१वीं सदी के व्यक्ति को ५०० वर्ष पहले के व्यक्ति से जोड़ने का कार्य कबीर पंथ रुपी कड़ी करती है। पिछले ५०० वर्षों से जो भी कम या ज्यादा कबीर वाणी का जनता में प्रचार हुआ उसका बहुत बड़ा श्रेय कबीर पंथ को जाता है#ै। जो सीमायें आ गई हैं दूर की जा सकती है। पर कबीर पंथ की महान भूमिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

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दिनांक : २४ नवम्बर ०१, दिन - शनिवार, समय ३ बजे

प्रश्नकर्ता

१.

प्रमोद कुमार सिंह (S.T. )
भैसमा, जिला - कोरबा

२.

कार्तिक टोण्डर (S.C. )
भवालपुर, जिला - कवर्धा

३.

सोहन कुमार पटेल (O.B.C. )
तिफरा, जिला - बिलासपुर

४.

सुरेश कुमार (S.C. )
भुवालपुर, जिला - कवर्धा

१.

कबीर हम क्यों पढ़ते हैं? भविष्य में इसका क्या योगदान है?

२.

कबीर दास आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितना कल थे? केवल समय के अंतराल में फर्क आया है? हम पढ़ते हैं पर जीवन में उन बातों को नहीं कर पाते। कबीर के उपदेश आज और भी जरुरी हो गये हैं। हम क्या करें? जो उनकी वाणी जीवन में सच्चे अर्थों में प्रतिफलित हो सके?

३.

आप कबीर पर खोज क्यों कर रही हैं और इसके लिए छत्तीसगढ़ क्यो चुना?

४.

आज वि के सामने सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद और भारत ने इसका समाधान पोटो के माध्यम से ढूंढने का प्रयास किया है। आब कबीर को सामने रख कर क्या समाधान देने चाहेंगी?

 

प्रश्न १. : कबीर हम क्यों पढ़ते हैं? भविष्य में इसका क्या योगदान है?

प्रश्न २. : कबीर की वाणी की आज भी उनती प्रासंगिकता है जितनी कल थी। केवल समय के अंतराल से उसमें फर्क आया है। हम पढ़ते हैं पर जीवन में उन बातों को नहीं कर पाते हैं। कबीर के उपदेश आज और भी जरुरी हो गये हैं। हम क्या करे जो उनकी वाणी रुपों से जीवन में प्रतिफलित हो?

उत्तर : कबीर का अध्ययन केवल प्राचीन साहित्य की जानकारी के लिए नहीं होता है, वरन् वर्तमानजीवन की समस्याओं के समाधान के लिए होता है। विद्यार्थी जो अपने जीवन के निर्माण में लगा है, उसके लिए वह और भी अहम् बात है। वह जो कुछ पढ़े, वह उसके जीवन बनाने के काम आये तथा साथ ही साथ उसे एक अच्छा जीवन प्राप्त हो सके। आज का विद्यार्थी कल का नागरिक है। सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण सदस्य है। देश और समाज का भविष्य उसी के कंधों पर है। उसके अध्ययन से प्राप्त ज्ञान-दिशा और संकेत उसके जीवन को सार्थक और सुंदर बनाने के लिए हैं। कबीर विद्यार्थियों को मार्ग दर्शन देते हैं -

१.

राम तुम्हारे भीतर है, अर्थात तुम्हारे पास जो अंतर्निहित शक्ति या जीवन बोध है वही राम है। वही तुम्हारा निर्देशन करेगा। उस शक्ति को पहचानो और अपने अध्ययन के द्वारा उसका विकास करो। तुम्हारा यही आत्मबोध ही आगे चल कर व्यापक जीवन में विश्व-जीवन-बोध के रुप में प्रकट होगा। अपने अध्ययन के दौरान हर प्रकार से इसे पूर्ण विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए।

२.

कबीरदास जी ने विद्यार्थी को भी जन के साथ जोड़ना चाहा है, क्योंकि भविष्य का समाज उनका है। यदि वह जन या आम-आदमी शक्तिशाली नहीं होगा तो समाज कमजोर हो जायेगा। विद्यार्थी चूंकि ज्ञानार्जन करता है, इसलिए उसका यह दायित्व हो जाता है कि समाज में कमजोरतम वर्ग को पहचाने और उसके प्रति अपना कर्तव्य करे। तभी वह राष्ट्र और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा सकेगा।

३.

विद्यार्थी सामाजिक विषमता को समझे अन्यथा वह भविष्य में एक स्वस्थ समाज नहीं बना पायेगा। अत: समानता और मानवीय हक सबको मिले इस पर विद्यार्थी को विचार करना चाहिए और अपने कार्यों में ढालना चाहिए।

४.

कबीरदास जी ने विद्यार्थियों का भारतीय जीवन की ओर ध्यान खींचा है जिसे हम अनेकता में एकता नाम देते हैं। सच तो यह है कि यह विशेषता, विशेषता नहीं है, वरन् इस भारत भू-खण्ड की अपनी प्रकृति है। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि भारतीय संस्कृति जीवन को अनेकता में संभव पाती है। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि बिना अनेकता के जगत का अस्तित्व संभव नहीं है। प्रारंभ से ही यहां अनेक प्रकार की जातियां-प्रजातियां और शक्तियां आती रही हैं। पर ये शक्तियां अलग न रह कर यहां के जीवन में एकाकार हो गई हैं। और स्थानीय जीवन को अपना लिया है। अत: हर प्रदेश की अपनी विशेषता है और साथ ही अखण्ड भारत रुपी भू-खण्ड की अपनी विशेषता है। इसलिए भारतीय संस्कृति को वृक्ष और शाखा की उपाधि न देकर उसे मिश्रित बहुरंगी (Mosaic ) कहना ज्यादा ठीक होगा।

विद्यार्थी को भी यह याद रखना होगा कि भारत एक संपूर्ण-देश है, वह केवल भूखण्ड नहीं है। वह अलग नहीं है। वह लघु वि है। वह "मिनी वर्ल्ड' है।

क्योंकि अनादि काल से यहां सभी एक दूसरे से मिलकर एक प्राण होकर रहते आ रहे हैं। विद्यार्थी जब भारत की इस प्रकृति को समझेगा और उसे जीवन में अपनायेगा तभी आज की विषमता दूर होगी। एक समता मूलक और सर्वधर्म-समन्वय मूलक समाज की स्थापना हो सकेगी। जब विद्यार्थी भारत के इस मोजाइक (Mosaic ) रुप को समझ लेगा, तब अपने सब प्रकार के संसाधनों को जन-जन तक पहुंचाने की सोचेगा।

तभी वह कबीर को समझ सकेगा। और अपना सकेगा। तब उन विद्यार्थियों में कबीर का सपना पूरा होगा। भारत का प्रजातंत्रात्मक गणराज्य सफल होगा। आज की विषमतायें और विसंगतियां दूर होंगी। तभी हम सिर ऊंचा करके कह सकेंगे कि हमारा राष्ट्र वि का सबसे बड़ा प्रजातंत्रात्मक गणराज्य है।

 

प्रश्न ३. : आप कबीर पर खोज क्यों कर रही हैं और इसके लिए छत्तीसगढ़ क्यों चुना?

उत्तर : मैं कबीर पर खोज इसलिए कर रही हूं कि आज कि परिस्थितियों में फिर से किसी कबीर को चाहती हूं। मध्ययुग को विभ्राट के बीच कबीर ने सम्भाला। २०वीं शताब्दी में गांधी जी ने वि के सामने उसी चेतना का पुनर्नवा रुप प्रस्तुत किया। और युग के सामने एक बहुत बड़ा आदर्श रखा। २१वीं सदी में मुझे कबीर की सबसे अधिक जरुरत महसूस हो रही है।

१.

जो फिर से वैचारिक क्रांति उपस्थित कर दे।

२.

जो भोगवाद के सामने मूल्यवाद को रखे। जो भौतिकवाद के सामने मानवतावाद को दे।

३.

जो पैसा, बाजार और मशीन (Money, Market : Machine ) तीनों के खिलाफ अंतहीन संघर्ष शुरु करे और मनुष्य के जीवन मूल्य और मानवयीता का पक्ष प्रस्तुत करे।

४.

जो इस वि को फिर से प्रेम, सत्य, सदाचार, सादगी, करुणा, सामाजिक न्याय और अन्त्योदय का मार्ग दिखा सके।

५.

सब प्रकार के अलगाव, विभेद, असमानता आदि को दूर करने का प्रयास करे।

६.

यह युग पूंजी और मशीन का युग है, इसलिए व्यापारिक युग है। माक्र्स कहते हैं कि - मनुष्य पदार्थ में बदल गया है। वह बाजार में केवल एक बिकाऊ सामग्री है। मशीन अपरिमित उत्पादन करती है। उसे बाजार चाहिये, इसलिए साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की जरुरत है। इन सबके पीछे केवल पैसा, पैसा ह और केवल पैसा है।

इसलिए कबीर दास जी के आगमन की फिर से जरुरत है। जो मार्केट, मशीन और मनी से आज के दिशाहीन मानव को मुक्त कर सके और सही दिशा दिखा सके।

यहां मैं कहना चाहूंगी कि कबीर दास जी भारतीय जीवन, चेतना, भारतीय सामाजिक दर्शन और भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति हैं।

अत: कबीर दास जी ने अलग से कोई बात नहीं कही है। वरन् भारत की जो बातें उनके जमाने में भुला दी गई थीं, केवल उन बातों की याद दिला दी। अत: आज पुन: भारत को एक कबीर की जरुरत है।

प्रश्न ४. : आज वि के सामने सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद है और भारत ने इसका समाधान पोटो (घ्दृद्यदृ) के माध्यम से ढूंढने का प्रयास किया है। आप कबीर को सामने रख कर क्या समाधान देना चाहेंगी?

उत्तर : कबीर ने बड़ा परिवर्तन किया, इतिहास बदल डाला। इतना विकट संघर्ष किया पर कहीं पर भी आतंकवाद और नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ। कबीर के पथ कर अनुकरण कर हमारे गांधी जी ने भी बहुत बड़ी अहिंसक क्रांति की और असंभव को संभव कर दिया। दुनिया को इसकी कल्पना भी नहीं थी। केवल भारत ही स्वतंत्र नहीं हुआ वरन् एक-एक करके अंग्रेजी सल्तनत के आधिपत्य वाले सभी राष्ट्र स्वतंत्र हो गये। तब भी कोई आतंकवाद और नक्सलवाद दिखाई नहीं पड़ता है। क्योंकि उनकी क्रांति रचनात्मक थी। जीवन मूल्य, मानव मूल्य, मानव आदर्श और व्यापक जीवन दृष्टि पर आधारित थी।

आज जो कुछ हो रहा है यह केवल पैसों के लिए हो रहा है। मानव के लिए, वि के लिए और जीवन के लिए कुछ नहीं हो रहा है। इस वि का केन्द्र भोगवाद, लोभवाद और शक्ति की प्राप्ति की होड़ है। इनमें सर्वोपरि तथ्य यह है कि अति केन्द्रीयकरण की प्रतिक्रिया भी उनती ही उग्र होती है। इसे आतंकवाद नाम दिया जाता है। ये तीनों बातें इस वि जीवन को खत्म कर रही है। यही आज के आतंकवाद, नक्सलवाद के कारण है। यह कुछ नहीं पैसा और केन्द्रीयकरण की देन है। निश्चित रुप से माक्र्स के (हाव्स : हैव्स नाट्स) सिद्धांत की बहुत बड़ी भूमिका है, पर अन्ततोगत्वा यह कहना चाहूंगी कि यह सब मूल्यहीनता के कारण है। यहीं पर कबीर की जरुरत है। ताकि मूल्यवाद, मानववाद और समानता की स्थापना हो सके। और साथ ही आम-आदमी को उसके जीवन के अधिकार मिल सके। जिससे आम-आदमी और विश्व-मानव दोनों मिलकर एक नये वि को बना सके। जहां -

१.

सर्वसम्पन्न और सर्वहरा (हाव्स : हैव्स नाट्स) न हो।

२.

जहां आतंकवाद को पनपाने के लिए असीमित हथियारों का उत्पादन न हो।

३.

जहां पर घृणा, हिंसा, हत्या आदि की छूट न हो।

४.

भोगवाद पर अंकुश हो और मूल्यवाद की स्थापना हो।

५.

कबीर के अनुसार आज के वि को एक ""वैष्णव-मन या दर्दीले-दिल'' की जरुरत है, जो नक्सलवाद और आतंकवाद से विश्व जीवन को मुक्त कर सके।

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दिनांक : ०७ सितम्बर ०१, दिन - शुक्रवार, समय ४ बजे

१.

श्री जे.एस. भारस्कर (S.C. )
ग्राम - ठाकूरकांपा (कोरसरा)
मुंगेली, जिला - बिलासपुर

२. श्री एस.के. टण्डन (S.C. )
राजपालपुर, पो.आ. - फास्टरपुर
तहसील - मुंगेली, जिला - बिलासपुर

 

प्रश्न १. : कबीर का उपदेश क्या वि शांति व बन्धुत्व की भावना के विकास करने में सहायक है?

प्रश्न २. : क्या कबीर दास जी के उपदेशों से संबंधित रचनाओं का पाठ्यपुस्तक में अधिककाधिक समावेश है? क्या छात्रों के विचारों में क्रांति लाई जा सकती है?

प्रश्न ३. : कबीर साहेव का उपदेश निरक्षर व अनपढ़ लोगों को किस तरह प्रभावित कर सकता है?

प्रश्न १. : कबीर का उपदेश क्या वि शांति व बन्धुत्व की भावना के विकास करने में सहायक है?

उत्तर : मेरी राय में हम केवल कबीर को अपनाकर ही एक नई दुनिया गढ़ सकते हैं, जहां शांति और बंधुत्व की स्थापना हो सकती है। कबीर ने अपने सम्पूर्ण जीवन और दर्शन का केन्द्र "जन' को बनाया। वह "जन' विश्वभर में सभी जगहों पर एक है, वहां पर कोई फर्क नहीं है। इस वैज्ञानिक वि के लिए कबीर ने साफ शब्दों में कहा कि निरपेक्ष ज्ञान मनुष्य के लिए अभिशाप है, मनुष्य सापेक्ष होने के लिए उसे भावनामय और रागमय होना पड़ेगा। विज्ञान ने मनुष्य को इतर जगत से राग के स्तर पर काटा। और मशीन ने उसे निर्जीव यंत्र बना दिया। यह मशीनी दुनियाँ पूँजी और भोग पर आधारित है। उसने मानव को पदार्थ बनाकर वि बाजार में बिकाऊ बना दिया।

१.

अति बौद्धिकता, राग रहितता और मानव निरपेक्ष ज्ञान ही इस वैज्ञानिक और मशीनी दुनिया की देन है।

२.

इसकी दूसरी देन है मनुष्य की आवश्यकताओं में अपरिमित वृद्धि।

३.

इसकी तीसरी देन है विशाल उत्पादन और उपबोग-वाद को बढ़ावा देना।

४.

इसकी चौथी देन है अमानवीयकरण की प्रक्रिया और मूल्यहीनता। फलत:- सांस्कृतिक संकट।

५.

इसकी पांचवी विशेषता है, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के कारण पूंजी का विस्तार और बाजार की आवश्यकता।

६.

प्रतिस्पर्धा और शक्ति की होड़।

७.

इसकी सातवीं विशेषता है यांत्रिक और भौतिक शक्ति के अनियंत्रित विकास और मनुष्य की असहायता। फलत: युद्ध, विभीषिका, घृणा, हिंसा, आतंकवाद आदि।

८.

संहारक शक्ति में अपरिमित विकास तथा इस ग्रह का सर्वसंहार की कगार पर पहुंच जाना।

ऐसे वि को कबीर का संदेश है -

१.

प्रेम का -

उड़ा बगुला प्रेम का, तिनका उड़ा आकाश।
तिनका-तिनके से मिला, तिनका तिनके पास।

- कबीर

सारा संसार एक दूसरे के पास चुम्बकीय शक्ति से खींचा चला आएगा।

२.

निरपख भगवान -

औगुन को तो ना गहे, गुन ही के लो बीन।
घट-घट महकै मधुप ज्यौं, परमातम ले चीन।।

- कबीर

जो घट-घट में व्याप्त है जिसकी महक से दुनिया की बगिया गमक उठी है - उसे पहचान व अपने प्राणों में भर ले।

३.

अविशेष-विशेष मानव -

हद छाँड़ि बेहद गया, रहा निरंतर होय।
बेहद के मैदान में, रहा कबीरा सोय।।

- कबीर

४.

सर्वधर्म - समन्वय -

जेते औरत-मरद उपानी, सो सब रुप तुम्हारा।
कबीर पोंगरा अलग राम का, सो गुरु पीर हमारा।।

- कबीर

कबीर ने स्पष्ट देखा है कि दुनिया दो भागों में बंटी है -

१.

शास्र-सम्मत और

२.

मानव-सम्मत।

समस्त विडम्बनायें, शास्र दुनियां की देन है। इसलिए कबीर ने उनके खिलाफ आवाज उठाई।

मैं कहता अँखियन की देखी, तू कहता कागद की लिखि।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यों उरझाई रे।।

- कबीर

५.

सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विषमता दूर किये बिना - शांति और बंधुत्व की स्थापना कहीं भी नहीं हो सकती। यह अर्थ युग है। सम्पूर्ण वि जीवन की धुरी है- पैसा। कबीर अपना साम्यवाद हमारे सामने रखते हैं। बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। अन्यथा असंतोष उत्पन्न होता है और विकृति जन्म लेती है। कबीर ने श्रम को पर्याप्त स्थान दिया है। श्रम के आधार पर आर्थिक प्रगति होनी चाहिए, पूंजी के आधार पर नहीं। जहां जन हमारे चिंतन का आधार है। वहां उसका लक्ष्य अन्त्योदय ही होता है। इसे ही हम अन्त्योदय अथवा सर्वोदय कहते हैं।

उदर समाता अन्न लै, तनहिं समाता चीर।
अधिक संग्रह ना करै, ताको नाम फकीर।।

- कबीर

सांईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाय।।

- कबीर

श्रम ही ते सब होत है, जो मन राखै धीर।
श्रम ते खोदत कूप ज्यौं, थल में प्रकटै नीर।।

- कबीर

६.

सामाजिक समानता -

एक समाना सकल में, सकल समाना ताहि।
कबीर समाना बूझ में, जहां दुतिया नाँही।
एकै त्वचा हाड़ मल मूत्रा, रुधिर एक गुदा।
एक बुंद से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूद्र।

- कबीर

इसलिए कबीर दास हमारे इस अति पण्डिताऊ आधुनिक दुनिया को दो टूक लहेजे में कहते हैं -

पोथि पढ़-पढ़ जग मुंवा, पण्डित भया न कोय।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।

- कबीर

पढि-पढि के पाथर भया, लिख-लिख भया जू ईंट।
ढाई आखर प्रेम का, लगी न अंतर छींट।

- कबीर

अंत में कबीर इस यांत्रिक दुनिया को प्रेम के आधार पर जीवनमय और सुजलाम-सुफलाम देखाना चाहते हैं। वे इस बं धरती को मानव के लिए हरित-निकेत बनाना चाहते थे।

बरस्या बादल प्रेम का, हम पर बरस्या आई।
अंतर भीगी आतमा, हरि भई वणराई।।

- कबीर

पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया शरीर।
सतगुरु दाँव बताइया, खेलै दास कबीर।।

- कबीर

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को हिशियारी क्या?
रहे आजाद या जग में, हमन दुनियां से यारी क्या।

- कबीर

प्रश्न २. : क्या कबीर दास जी के उपदेशों से संबंधित रचनाओं का पाठ्यपुस्तक में अधिककाधिक समावेश है? क्या छात्रों के विचारों में क्रांति लाई जा सकती है?

उत्तर : कबीर की क्रांति चेतना सामाजिक विषमता और अन्याय से उत्पन्न जनचेतना है। यह भोगवाद या पूंजीवाद पर आधारित नहीं है। इसलिए कबीर की क्रांति-चेतना, रचनात्मक और मूल्यवादी है। वह पूंजीवादी, नाशवादी, वर्गवादी, हिंसक व मूल्यहीन नहीं है। वस्तुत: कबीर की क्रांति-चेतना उसकी वैचाहिक क्रांति की देन है। अत: कबीर की क्रांतिचेतना की बात हम तभी सोच सकते हैं जब सभी प्रकार की विषमताओं को दूर कर वि में एक समानता मूलक मूल्यवादी दुनिया की स्थापना करे। मौजूदा स्थिति इसके विपरीत है। अत: कबीर की वाणी को शिक्षा और अध्ययन के माध्यम से फैलाकर हम विद्यार्थियों में वैचारिक क्रांति ला सके और दुनियां को मानवीय और मूल्यवादी बना सके, तभी हम कबीर की रचनात्मक क्रांति को अपना सकते हैं नहीं तो आज का रक्तपात, आतंकवाद, नक्सलवाद, हिंसकवाद आदि की तरह वह कोई विध्वंसक क्रांति हो सकती है।

मेरी समझ में कबीर की सामाजिक क्रांति भी उसके रचना संसार में एक फोकट का माल है। बाय प्रॉडक्ट है क्योंकि कबीर क्रांति नहीं वरन् मनुष्य के मन को गढ़ने का दुरुह कार्य करते हैं।

एक मन को साध लेने पर सभी कुछ साधा जा सकता है। कबीर की गर्वोक्ति यहां तक पहुंच जाती है।

""मन ऐसा निर्मल भया, जैसा गंगा नीर।
पीछे-पीछ हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर।।''

- कबीर

यदि हम ""विश्व-मन'' को निर्मल कर पायेंगे तभी हम क्रांति की बात कर सकते हैं।

मन के मते न चालिए, छांड़ि जीव के बानी।
ताकू केरे सूत ज्यूं, उलटि अपूठा आँणि।।

- कबीर

मन गोरख मन गोविन्द, मन ही औघड़ होई।
जे मन राखै जतन करि, तौ आपौ करता सोई।

- कबीर

काया कसूं कमांण ज्यूं, पंचतत्व करि बांण।
मारौ तो मन मृग कौ, नहीं तो मि जांण।

- कबीर

प्रश्न ३. : कबीर साहेब का उपदेश निरक्षर व अनपढ़ लोगों को किस तरह प्रभावित कर सकता है।

उत्तर :

१.

मसि कागद छुवौ नाहीं, कलम गहयो नहिं हाथ।

२.

पंडित मुल्ला जो लिख दिया, छाँड़ि चले हम कछु न लिया।

३.

मैं कहता अंखियन की देखि, तू कहता कागद की लेखि

- कबीर

कबीर ने दुनियां को दो भागों में विभक्त देखा - विद्वानों की शास्रर-सम्मत और "सामान्य जनों" की मानव-सम्मत दुनिया। कबीर अपने लिए मानव-सम्मत दुनिया चुन लेते हैं। सीधा सरल, अनुभव पर आधारित सहज ज्ञान और सरल उपासना। डंके की चोट पर ऐलान करता है।

वेद कुरान सब झूठ है, हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीर, घट का परदा खोल देखा।

- कबीर

कबीर तथा कबीर की सारी बातें केवल निरक्षर और अनपढ़ जन के लिए हैं। ऐसा लगता है कि कबीर ने रोम-रोम से इस जन को पहचाना था और अनुभव किया था। इस विशाल जन समुद्र में एक बुलबुले की तरह आया और फिर फटकर समुद्र बन गया। उसी की जन-तरंगे इतिहास के पन्नों के रुप में फड़फड़ा उठीं। कबीर ने जीवन भर आम-आदमी को वि मानवता के मंदिर में स्थापित करना चाहा। उसने उसके हक़ के लिए लड़ाई की। उसके साथ होने वाले अन्याय के लिए जेहाद छेड़ा। उसने सामान्य-जनों में आत्म संस्थापन का काम किया। समस्त विशेषताओं के खिलाफ क्रांति की और मुक्ति दिलाने की कोशिश की।

इस प्रकार कबीर ने उस जन के रुप को रखा, जो जनता जनार्दन है, नरसिह अवतार है। जिसे छेड़ने पर हिरण्यकश्यप बच नहीं सकता। अत: कबीर ने हमें बताया कि जब तक यह निरक्षर आम-आदमी क्रांतिकारी बन कर जीवन की विद्रूपताओं अन्यायों व विसंगतियों पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगता है, तब तक वि मानवता की आत्मा मुक्त नहीं हो सकती है। अत: कबीर ने आम-आदमी और विश्व-मानव को मिलाकर अर्थात Microcosm और Macrocosm को एक कर अपना जीवनदर्शन दिया। चूंकि कबीर ने अनपढ़ लोगों के लिए लिखा है, इसलिए कबीर के उपदेशों से अनपढ़ लोगों में जागरण आ सकता है और उनमें मनीषियों, संतों, महात्माओं, चिंतकों आदि का ठीक उसी तरह आगमन हो सकता है जैसा कि मध्ययुग में हुआ था।

मध्ययुग में यह जन आंदोलन इतना तूफानी था कि समूचा वायुमंडल दोलायमान हो उठा। सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सभी प्रकार की व्यवस्थायें चरमरा उठी थीं। भारत की चेतना का आकाश झलमले सौन्दर्य से भर गया था। ये संत अनपढ़ थे, निरक्षर थे। अत: अपने लोगों की बात सबसे अधिक मुखर करते रहे। जन जीवन प्रभावित होता रहा। अत: यही वर्ग इस अति बौद्धिक अमानवीय दुनियां को मानवीय बना सकता है। चाहे इस कथन को हम स्वीकार करें या न करें। पर जो कुछ भी हमारी परम्परा, प्राचीनता, मूल्यवादिता और संबंधों की सुकुमारता, आज वर्तमान है, वह इन्हीं इत्यादि जनों के पास है।

कबीर ने पंडितों की दुनिया को "पोथी पढि-पढि' की संज्ञा दी है। उनका "आम-आदमी' गंवार है, निरक्षर है, पर पंडित है।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।

- कबीर

बोल तो अनमोल है, जो कोई जानै बोल।
हिये तराजू तोलिके, तब मुख बाहर खोल।।

- कबीर

 

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निष्कर्ष -

- जनसंवाद -

१.

आज लोक कबीर को ईश्वर, देवदूत, चमत्कारी पुरुष, धर्मावतार या योगी के रुप में नहीं देखते, वरन् उन्हें एक क्रांतिकारी, समाज सुधारक और एक जन नायक के रुप में देखते हैं। कबीर का युगपुरुष, तत्वदर्शी और महात्मा का रुप लोगों को प्रिय और ग्राह्य है।

२.

आज वे कबीर से कोई आध्यात्मिक या दार्शनिक गुत्थी नहीं सुलझाना चाहते, वरन् प्रत्यक्ष जीवन के उन ब्याघ्रमुखी बुनियादी प्रश्नों का हल चाहते हैं, जो व्यक्ति व संस्कृति दोनों को नष्ट करने पर तुल गये हैं। और जिनके रहते मानवीय जीवन का कोई अन्य पक्ष उभर नहीं पा रहा है।

३.

वे कबीर के समान एक ऐसा जन नेता चाहते हैं, जो जन के प्रति समर्पित हो और जन जिसके समस्त चिंतन और क्रियाकलापों की धुरी हो। साथ ही जो सत्यनिष्ठ, निडर, साहसी प्रखर बौद्धिक, हर गलत चीछ के विरुद्ध बोलने वाला और संकल्पवान व्यक्ति हो। जो अपने घोर आत्म विश्वास में इतिहास की धारा को बदल सकता हो।

४.

वे कबीर के आज के मूल्यहीन, मिथ्याचारों वे अमानवीय स्थितियों का निराकरण चाहते हैं। साथ ही प्रेम, अहिंसा, नैतिकता व मानवीयता की उच्चभूमि का परिचय युगानरुप में चाहते हैं। जो आज व कल की युगीन जरुरतों, मांगों, चाहों तथा आकांक्षाओं को पूरा कर सके।

५.

एक बिन्दु पर सभी सहमत हैं। और वह है - कबीर के महान व्यक्तित्व के प्रति परिपूर्ण श्रद्धा। कबीर को एक महाप्राण संत, तत्व-दृष्टा महात्मा, क्रांतिकारी नेता के रुप में सभी सम्मान देते हैं, कहीं कोई मतभेद नहीं, भले ही वे कबीर पंथी हों या न हों।

६.

लोग, व्यक्ति, राष्ट्रीय व वि के स्तर पर एक उत्थानशील मानवीयता देखना चाहते हैं। साथ ही आज के कदाचारों व जटिलताओं से दूर सदाचार व सरल जीवन युक्त एक नया समाज चाहते हैं। इसमें मानववाद, प्रेम, अहिंसा, सत्य व जन चेतना के आधार पर नवयुग का आगमन चाहते हैं जिसके प्रवर्तक कबीर हैं।

७.

विश्वशांति की स्थापना और संहारक शक्ति से मानव की रक्षा के लिए वे कबीर से दिशा निर्देश चाहते हैं। वे कबीर को युगान्तकारी पथ प्रदर्शक के रुप में देखते हैं।

८.

कबीर पंथ की आज की दिशा-हीनता व सीमाओं को दूर करना चाहते हैं। साथी ही पारंपरिक रुढ़ीवादी ढ़ंग से अलग ऊर्जावान कबीर पंथ चाहते हैं, जो जनता की आकांक्षाओं और सपनों को पूरा कर सके।

९.

सारांश में वे कबीर के दैवीय, प्रतिभावान व्यक्तित्व, कवि व पंथीय रुप से परे एक मानवीय, जनपदीय-व्यक्तित्व के रुप में देखना व दिखाना चाहते हैं।

१०.

शिक्षा, सरकारी, गैर सरकारी और जनसंचार-माध्यम आदि सभी के जरिये कबीर वाणी का प्रचार व प्रसार चाहते हैं, जिससे वर्तमान सुधर सके, भविष्य का आश्वासन अगली पीढ़ी को मिल सके।

""हम न मरै, मरिहै संसारा, हमको मिला है, सिरजन हारा।।''

- कबीर

१.

प्रसाद जयशंकर : कामायनी

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