छत्तीसगढ़

Chhattisgarh


छतीसगढ़ की संस्कृति और उससे जुड़ी हुई गतिविधियाँ

सुशील यदु, साहित्यकार, छत्तीसगढ़ के बारे मे चर्चा कर रहे है

अर्चना पाठक का वक्तव्य:
राजेन्द्र ओझा, कलाकार, कवि का वक्तव्य:

राजेन्द्र ओझा उनकी बेटी के साथ

मिर्जा मासुद के साथ एक साक्षातकार
बद्रीसिंह कटारिया के साथ एक साक्षातकार

जाफर जी, जो छत्तीसगढ़ के अस्मिता को अच्छी तरह पहचानते है, उनका कहना है
इन्दिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के.के साहु के साथ साक्षातकार

छत्तीसगढ़ की संस्कृति और रुपान्तर :

इलिना सेन - 

मेरा नाम इलिना सेन है, मैं रायपुर में रुपान्तर में काम करती हूँ।

छत्तीसगढ़ के संस्कृति का संगमिश्रन हम संस्था के काम में कैसे करते है, उसी पर मैं बोलना चाहुंगी। ये सवाल वैसे हमारे साथ, जबसे हमने संस्था का काम शुरु किया, तबसे है।

रुपान्तर के शुरुआद के पीछे भी कुछ एक हिसाब से छत्तीसगढ़ की संस्कृति, छत्तीसगढ़ की अस्मिता, छत्तीसगढ़ की मान्यताये, ये सारी चीज़े सामने आये, उभर के आये और जो भी विकास के कार्यक्रम हम साथ में मिलकर रचे, या जिनमें हम काम करे वह सभी चीजो इन्ही मुद्दो पे या इन्ही मुल्यों पे आधारित हो यानी छत्तीसगढ़ की संस्कृति पे, छत्तीसगढ़ की आम व्यक्ति की आवाज़ पे, और छत्तीसगढ़ की अस्मिता पे, ये शुरु से हमारी इच्छा रही है।

यहाँ आने से पहले, याने रुपान्तर में काम के शुरु करने से पहले, मैं में पाँच छे साल शंकरगुहा नियोगी के साथ छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ एक मज़दूर संघठन है, उसमे काम किया। वहाँ काम करते करते कई सारे वैसे मेरे सीख है लेकिन एक प्रमुख सिख है कि विकास के बारे में जो बात है, जो चर्चा है, वह चर्चा बहुत ही सुन्दर तरीके से वहाँ के मजदूरों ने - जिसे अंग्रेजी में (कनटेक्सचुआलाइस) कहते है - वह किया था, और अपने सन्दर्भ में विकास के पूरे चर्चे को उन्होंने डाला था और डालके, उसका फिर निचोड़ निकालकर बाकी आम समाज में बाँटा था। उदाहरन के रुप में वहाँ पे खदान है, लोहा के खदान है, और खदान मजदूर है जो काम करते है, लेकिन वहाँ की महिलायें, उनका जो रहन सहन, सोच समझ - उलका झलक। पूरे संगठन में, संगठन के सारे प्रक्रियाओं में, हर पहलू पे, महिलाओं के सोच का झलक रहता था। फिर वहाँ के संस्कृति का, वहाँ के मान्यताओं का, उनके तीज त्यौहारों का, खास करके वहाँ की बोलचाल की जो भाषा है, और वहां रहते रहते, तीन सालों में मैंने महसूस ही नहीं किया कि बहुत सारे गम्भीर चर्चाये, जो आमतौर पे बहुत किल्षृ हिन्दी में होती है, या किल्षृ अंग्रेजी में होती है, वह बहुत ही सहज ढंग से वहाँ के मजदूरों ने अपनी भाषा में, अपने उपमाओं को देकर समझाते थे, समझते ते।

वहाँ से हटकर जब मैं रायपुर आई, रायपुर में मै एक ऐसा माहौल पाया, जिसमें सीरियस बात करना है, कोई मुद्दे पे काम करना है, कोई प्रयोग करना है, रचनात्मक कुछ करके दिखाना है तो दूसरे भाषा की, दूसरे लहजों की, दूसरे उपमाओं का शरन लेते है - ऐसा क्यों - शुरु से मेरे मन में ये भावना थी। यहाँ जबसे हम ने काम शुरु किया, हमने कोशिश किया कि स्थानीय मान-मर्यादो को, भाषा को, संस्कृति को हमारे काम के हर स्टेज पे हम शामिल करे।

रुपान्तर में काम के वैसे तो कई पहलु है - एक अहम पहलू शिक्षा का है - हम बुजुर्गों के साथ भी शिक्षा का काम किये है, बच्चों के साथ किये है, अलग-अलग समुहों के बच्चों के साथ किये है। आदिवासि बच्चों के साथ, शहर के जो काम काजि बच्चे है, उनके साथ और इसमें भी हर पल हमने यह प्रयास किया कि बच्चों की जो अपनी संस्कृति है, उसका झलक हमारे कारिग्रम में रहे। केवल इतना ही नहीं कि हमने जो स्थानीय गीत है, बाल गीत है, स्थानीय खेल है, कहानी है, पहली है, उनको हमारे पाठ्यक्रम में, और गतिविधियों में शामिल किया।

ये तो है ही है पर उससे ज्यादा जो एक पुरा जो विचारधारा है, वह हमने कोशिश कि है कि वही से और इससे हमें सफलता भी मिली है - बच्चे परीक्षायें पास करते है - हमारे यहाँ तो खैर परीक्षा होती नहीं है, हमारे अपने ढाँचे में - लेकिन हम बच्चों को प्राथमिक शाला या माध्यमिक शाला या उच्चतर माध्यमिक शालायें की जो परीक्षायें होती है, उनमें हम बच्चों को बिठाते है। बच्चे हमारे ढाँचे में भी परीक्षायें पास करते है और दूसरे ढाचों में भी करते है। जो बहुत ही थोपा हुआ ढाचा है, उसमें भी बच्चों पास करते है। लेकिन हमारे जो शाला है, उनमें बच्चे जो एक बार आते है, उससे जो जुड़ाव बनता है, जो रिश्ते बनते है, वह रिश्ते, कारिक्रम समाप्त होने के बाद भी, बच्चे बड़े हो जाते है। बहुत सारी बच्चियाँ है जिनकी शादियाँ हो गई है। लेकिन आज भी तीज़ा मनाने घरों पे आते है, तो उन बातों को याद करते है। हमारे कारिक्रम को याद करते है। जो दिन हम लोगों ने साथ में मिलकर जीया है, उसको याद करते है।

मैं समझती हूं कि ये सब बहुत महत्वपूर्ण चीज है हमारे लिये। बहुत बड़ी हमारी उपलब्धि भी है।

शिक्षा का क्षेत्र है। स्वास्थ का भी क्षेत्र है - स्वास्थ में भी हमने यह कोशिश की कि यहाँ कि जो परम्परा है, यहाँ के संस्कृति की जो बाते है, भले ही उसमें कुछ बातें ऐसे हो जिससे हम सहमत नहीं हो लेकिन उन चीजों को हम लेके चले। उनको हम कभी अलग न करे। कभी ऐसी मान्यता का सृजन न करे जिसमें हम एक जगह पे खड़े है और भाषण दे रहे है कि आपको स्वास्थ कि उपलब्धी चाहिये। तो आप को ये ये ये छोड़ना है और ये ये करना है। आप हमारे लाईन पे आइये। हम आपको बतानेवाले है। हमने कोशिश की है कि ऐसी भावनायें हमारे कारिक्रम में न रहे। और हम धरती से, वहाँ के सोच के साथ, वहाँ के मान्यताओं के साथ बहस करते हुये, जीन चीज़ों के साथ हम सहमत नही है उनको बहस किया - उदाहरन के लिये - यहाँ पे एक परम्परा है, कि जचकी के बाद, पहले तीन दिन मा को या बच्चे को खाने या पिलाने के लिये कुछ नहीं दिया जाता है - और अपने शिक्षा-दीक्षा संस्कार से मैं समझती हूँ कि ये स्वस्थ परम्परा नहीं है लेकिन इसपे भी हमने कतई नहीं चाहा कि हमारे छत्तीसगढ़में जो भाई-बहन जिनके साथ हमारा रोज़मररा का रिश्ता है, उनकी मान्यताओं को हम दबाके बात करे। एक बहस जरुर चली है समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन भी हुआ है इस क्षेत्र में बहुत सारे लोग आज ये समझते है कि ऐसा करना ठीक नहीं है। क्यों ठीक नहीं है। और एक समझ के साथ समाज में, परम्पराओं में जब परिवर्तन आता है, वह ज्यादा मजबूत परिवर्तन होता है।  

तीसरा हमारा अहम पहलु जो है वह है खाद्य सुरक्षा। इसमें खास करके हमने देशी बीजों के साथ काम किया। छत्तीसगढ़ में धान के बहुत से प्रजातियाँ पाये जाते है। एक हिसाब के अनुसार कुछ बीस हजार यहाँ देसी धान के प्रकृतियाँ है - और देसी धान के बीज खोजते खोजते, बीज को हमने खोजा जमा भी किया, हमने लगाया भी, पर उससे भा ज्यादा रोचक पहलु है कि किसानों के साथ आदान प्रदान में, जिन क्षेत्रों में हमने काम किया, वहां के किसान अपनी बीजो की जानकारी हमको दी, और साथ साथ बीज के आदान प्रदान से हमें जो एक सम्बृद्ध परंपरा की ओर हमें ले गये, वहाँ से हमने बहुत कुछ सीखा। और बीज के बारे में बात करते, या बीज का काम करते करते हमने किसानी से सम्बन्धित जो सारी परम्परा है, सारे जो रीति रिवाज है, सारी जो हमारी ग्रामीण संस्कृति है, उसको करीब से देखने का समझने का मौका मिला और हमारे जिन्दगी को बहुत सम्बृद्ध की है। सही जो समझ है, क्योंकि यहाँ के लोगों से ही हमने सीखा है। और छत्तीसगढ़ के जनजीवन में जो सारे तीज त्यौहार है, कही न कही हमारी जो ग्रामीण जीवन है, हमारे खेती किसानी है, उससे हर लेबेल पे जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिये, कल का दिन जो है, वह पोला का त्यौहार था। पोला में यहाँ हम बैलों की पूजा करते है, और गाँव में, या शहर के आस-पास बी बैल दौड़ आयोजित की जाती है। वास्तव में इस त्यौहार का सम्बन्ध किया गया है। सम्बध मैं सोचती हूँ यह है कि बैल ने शुरु से हमारा खेत, हमारा साथ दिया, खेत को जोता, खेत को धान बोने के लिये तैयार किया - पोला, ऐसे समय पे पोला का त्यौहार हम मनाते है जब खेत किसानी का काम लगभग एकचरन पे पहुँच गया। बुआई हो गई, निदाई हो गई, हमारे खेत पे धान के जो फसल है, वह खड़ा है। तो बैलों को हम अपने सहयोग के लिये धन्यवाद देते है। बैलों के पूजा करते है और साथ साथ लड़कियाँ उस दिन चुल्हा चौका से भी खेलती है - बर्तनो से खेलती है - तो बैलों का यह उपदान, हमारी खेती किसानों का सारी चीजो का जो नजदीक रिश्ता है, वह इस त्यौहार के माध्यम से उभरके आता है। और ट्राकटर वाली खेती को अगर हम देखेंगे या खुद ट्राकटर खोती करेंगे तो ये सारी जो बातें है, इसको हम कभी समझ नहीं पायेंगे।

छत्तीसगढ़ की संस्कृति हमें जीवन के बारे में, अपने काम के बारे में, जीने के बारे में बहुत सिखाती है। जितना ज्यादा इसको ग्रहण कर पायेंगे, उतना ज्यादा हमारी सीख बढ़ेगी। और उतना ज्यादा ही हम काम को लोगों के करीब ला पायेंगे। इसी प्रयास में हम लगे हुये थे और आज भी लगे हुये है। 

  | विषय सूची |


Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 

Copyright IGNCA© 2004

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है।