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अमीर ख़ुसरो दहलवी


अमीर खुसरो ने हिन्दी साहित्य को पहेलियाँ दी है जो उनसे पूर्व संस्कृत में गौढ़ रुप में थी। भारत में पहेलियों की परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे प्राचीनतम ग्रंथ ॠगवेद में यत्र-तत्र बहुत सी पहेलियाँ हैं। ब्राह्मणों, उपनिषदों और कहीं-कहीं काव्यों तक में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेलियों के दर्शन हो जाते हैं। पहेलियाँ मूलत: आम जनता की चीज है। साहित्यिक पहेलियाँ उन लौकिक पहेलियों का ही अनुकरण हैं। खुसरो ने भी कदाचित लोक के प्रभाव से ही पहेलियों की रचना की। इतना ही नहीं लोक प्रचलित और खुसरो की दोनों ही प्रकार की पहेलियों में कुछ तो बिल्कुल एक ही रुप में मिलती हैं। लोक साहित्य में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने इस प्रकार की पहेलियाँ बनाने का रिवाज़ शुरु किया। इससे पहले संस्कृत साहित्य में पहेलियाँ बेहद गौढ़ रुप में प्रहेलिका के नाम से मिलती हैं। अमीर खुसरो ने बच्चों के लिए दो प्रकार की पहेलियाँ लिखी :

(१) बूझ पहेली (अंतर्लापिका)

यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों। जैसे -

(क) गोल मटोल और छोटा-मोटा, हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
खुसरो कहे नहीं है झूठा, जो न बूझे अकिल का खोटा।।

उत्तर - लोटा।

यहाँ पहली पंक्ति का आखिरी शब्द ही पहेली का उत्तर है जो पहेली में कहीं भी हो सकता है। इन पहेलियों का उत्तर पहेलियों में ही होता है। खुसरो की बूझ पहेलियों के भी दो वर्ग बनाए जा सकते हैं। कुछ में तो उत्तर एक ही शब्द में रहता है जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं। दूसरी पहेली में कभी-कभी उत्तर के लिए दो शब्दों को मिलाना पड़ता है। जैसे -

(ख) श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसे नारी।
दोनों हाथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री।।

उत्तर - आरी। यहाँ दूसरी पंक्ति के आखिरी शब्द 'आ' और 'री' को मिलाने से उत्तर मिलता है।

(ग) हाड़ की देही उज् रंग, लिपटा रहे नारी के संग।
चोरी की ना खून किया वाका सर क्यों काट लिया।

उत्तर - नाखून।

(घ) बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह दिया उसका नाव, अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।

उत्तर - दिया।

(ञ) नारी से तू नर भई और श्याम बरन भई सोय।
गली-गली कूकत फिरे कोइलो-कोइलो लोय।।

उत्तर - कोयल।

(च) एक नार तरवर से उतरी, सर पर वाके पांव
ऐसी नार कुनार को, मैं ना देखन जाँव।।

उत्तर - मैंना।

(छ) सावन भादों बहुत चलत है माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यूँ कहें तू बुझ पहेली मोरी।।

उत्तर - मोरी (नाली)

(२) बिन बूझ पहेली या बहिर्लापिका
इसका उत्तर पहेली से बाहर होता है। उदाहरण -

(क) एक नार कुँए में रहे, वाका नीर खेत में बहे।
जो कोई वाके नीर को चाखे, फिर जीवन की आस न राखे।।

उत्तर - तलवार

(ख) एक जानवर रंग रंगीला, बिना मारे वह रोवे।
उस के सिर पर तीन तिलाके, बिन बताए सोवे।।

उत्तर - मोर।

(ग) चाम मांस वाके नहीं नेक, हाड़ मास में वाके छेद।
मोहि अचंभो आवत ऐसे, वामे जीव बसत है कैसे।।

उत्तर - पिंजड़ा।

(घ) स्याम बरन की है एक नारी, माथे ऊपर लागै प्यारी।
जो मानुस इस अरथ को खोले, कुत्ते की वह बोली बोले।।

उत्तर - भौं (भौंए आँख के ऊपर होती हैं।)

(ञ) एक गुनी ने यह गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखा जादूगर का हाल, डाले हरा निकाले लाल।

उत्तर - पान।

(च) एक थाल मोतियों से भरा, सबके सर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।
उत्तर - आसमान

(३) दोहा पहेली



कुछ पहेलियाँ अमीर खुसरो ने ऐसी भी लिखीं जो साथ में आध्यात्मिक दोहे भी हैं। 

उदाहरण -

(क) उज्जवल बरन अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान।
देखत मैं तो साधु है, पर निपट पार की खान।।

उत्तर - बगुला (पक्षी)

(ख) एक नारी के हैं दो बालक, दोनों एकहि रंग।
एक फिर एक ठाढ़ा रहे, फिर भी दोनों संग।

उत्तर - चक्की।

(ग) आगे-आगे बहिना आई, पीछे-पीछे भइया।
दाँत निकाले बाबा आए, बुरका ओढ़े मइया।।

उत्तर - भुट्टा

(घ) चार अंगुल का पेड़, सवा मन का फ्ता।
फल लागे अलग अलग, पक जाए इकट्ठा।।

उत्तर - कुम्हार की चाक

(ञ) अचरज बंगला एक बनाया, बाँस न बल्ला बंधन धने। 
ऊपर नींव तरे घर छाया, कहे खुसरो घर कैसे बने।।

उत्तर - बयाँ पंछी का घोंसला

(च) माटी रौदूँ चक धर्रूँ, फेर्रूँ बारम्बर।
चातुर हो तो जान ले मेरी जात गँवार।।

उत्तर - कुम्हार

(छ) गोरी सुन्दर पातली, केहर काले रंग।
ग्यारह देवर छोड़ कर चली जेठ के संग।।

उत्तर - अहरह की दाल।

(ज) ऊपर से एक रंग हो और भीतर चित्तीदार।
सो प्यारी बातें करे फिकर अनोखी नार।।

उत्तर - सुपारी

(झ) बाल नुचे कपड़े फटे मोती लिए उतार।
यह बिपदा कैसी बनी जो नंगी कर दई नार।।

उत्तर - भुट्टा (छल्ली)

अमीर खुसरो के नाम पर प्रचलित कुछ पहेलियाँ जो कई विद्वान साहित्यकारों द्वारा संदिग्ध दृष्टि से देखी जाती हैं -

(क) अग्नि कुंड में घिर गया, और जल में किया निकास।
परदे परदे आवना, अपने पिया (प्रियतम) के पास।।

उत्तर - हुक्के का धुँआ

(ख) नयी की ढीली पुरानी की तंग।
बूझो तो बूझो नहीं तो काना हो जाए।।

उत्तर - चिलम

(ग) हात में लीजै देखा कीजै।

उत्तर - आइना (शीशा)

(घ) एक नार वो ओखद खाए, जिस पर थूके वो मर जाए।
उसका पिया जब छाती लाए, अंधा नहीं तो काना हो जाए।।
(निशाना लगाते समय एक आँख बंद कर लेते हैं।)

उत्तर - बंदूक

(ञ) चटाख-पटाख कब से, हाथ पकड़ा जब से।
आह ऊह कब से, आधा गया तब से।
वाह-वाह कब से पूरा गया जब से।

उत्तर - शीशे की चूड़ी।
वस्तुत: हुक्का, चिलम, शीशा, बन्दूक आदि का प्रचार खुसरो के बाद में हुआ।

इसके अलावा साहित्यकार अमीर खुसरो ने आम लोगों को मनोरंजन, शब्द ज्ञान और साधारण जानकारी हेतु हिन्दी साहित्य में कुछ नई विधाऐं ईजाद की। ये पूर्णत: शुद्ध पहेलियाँ तो नहीं हैं परन्तु इनमें भी कुछ पहेलियों की भाँति बुझौवल की प्रकृति विद्यमान है। ये नवीन विधाएँ उनके पूर्व अनयत्र कहीं नहीं मिलती। ये इस प्रकार है -

(१) निस्बतें

यह अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है संबंध या तुलना। यह भी एक प्रकार की पहेली या बुझौवल कही जा सकती है। इसमें दो चीजों में संबंध, तुलना या समानता ढूढ़नी या खोजनी होती है। निस्बतों का मूल आधार है एक शब्द के कई अर्थ। उदाहरण :-

(क) आदमी और गेहूँ में क्या निस्बत है? अर्थात दोनों में क्या चीज एक समान है। उत्तर - बाल। आदमी के सर पर केश को बाल कहते हैं और वहीं दूसरी ओर खेत में उगे गेहूँ की भी बाल होती है।

(ख) मकान और पायजामें में क्या निस्बत है? उत्तर - मोरी। मकान में नाली को मोरी कहते हैं और पायजामें में भी मोरी होती है। यानि पायजामे की मोहरी को भी मोरी कहते हैं।

(ग) कपड़े और नदी में क्या निस्बत है? उत्तरी पाट। कपड़े और नदी दोनों की ही चौड़ाई को पाट कहते हैं।

(घ) आम और जेवर में क्या निस्बत है? उत्तर - कीरी। कीरी उस आम को कहते हैं जिस पर पत्ते का दाग लगने से कुछ भाग काला हो जाता है । दूसरी ओर कीरी एक गहने का भी नाम है जो हाथ में पहना जाता है। पंजाब प्रांत में इसका रिवाज है।

(ञ) जानवर और बन्दूक में क्या निस्बत है? उत्तर - घोड़ा। घोड़ा जानवर है तो वहीं बन्दूक का एक भाग भी।

(च) बादशाह और मुर्ग में क्या निस्बत है? उत्तर - ताज। बादशाह के मुकुट को ताज कहते हैं और मुर्गे की लाल कलगी को भी जो उसके सर के ऊपर लगी होती है।

यों तो पहेलियों से शब्द के प्रति खुसरो की रुचि का पता चलता है किन्तु निस्बतों में वह रुचि और भी स्पष्ट है। आइए अब खुसरो द्वारा अविष्कृत दोसखुन देखें।

(२) दो सखुन

सखुन फारसी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ कथन या उक्ति है। अमीर खुसरो के दोसखुन में दो कथनों या उक्तियों का एक ही उत्तर होता है। इसका मूल आधार भी शब्द के दो-दो अर्थ हैं। 
उदाहरणार्थ - 

(क) दीवार क्यों टूटी? राह क्यों लूटू? उत्तर - राज न था।
दीवार बनाने वाला राजमिस्री या राजगीर नहीं था। अत: दीवार टूटी रह गई। राज्य (राज) व्यवस्था नहीं थी अत: राह लुट गई।

(ख) जोगी क्यों भागा? ढोलकी क्यों न बजी? उत्तर - मढ़ी न थी। रहने के लिए झोंपड़ी (मढ़ी) या कुटी न थी और ढोलकी चमड़े से मढ़ी हुई नहीं थी।

(ग) गोश्त क्यों न खाया? डोम क्यो न गाया? उत्तर - गला न था। मांस कच्चा था, गला हुआ नहीं था, अत: खाया नहीं गया। गाने के योग्य अच्छा गला नहीं था, अत: डोम गाया न गया।

(घ) पथिक प्यासा क्यों? गधा उदास क्यों? उत्तर - लोटा न था। पथिक (यात्री) के पास पानी पीने के लिए कोई लोटा (बर्तन) न था। अत: वह प्यासा रह गया। गधे की जन्मजात आदत होती है ज़मीन (मिट्टी) में लोट लगाना। गधा मिट्टी में लोटा नहीं था अत: वह भी नीरस और उदास था।

(ञ) रोटी जली क्यो? घोड़ा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यो? उत्तर - फेरा न था। रोटी को फेरा (पलटा) नहीं गया था। अत: वह जल गई। घोड़े की पैदाइशी आदत होती है, एक जगह खड़े होकर फेरा लगाना। न लगा सकने की स्थिति में वह चलता नहीं और एक जगह पर ही अड़ जाता है। पानी में पड़े पान के पत्तों को पनवाड़ी बार-बार फेरता रहता है। इससे पान का पत्ता सड़ता नहीं। न फेरो तो सड़ जाता है।

(च) सितार क्यो न बजा? औरत क्यों न नहाई? उत्तर - परदा न था। सितार के डाँड पर स, रे, ग, म आदि बजाने के लिए धातु के मोटे तार या ताँत से बँधे रहते हैं। इनकी संख्या प्राय: १३, १६, या १९ होती है। इन्हें परदा कहते हैं। इसके बिना सितार नहीं बज सकता। औरत के संबंध में पर्दा का अर्थ है, शरीर ढकने के लिए कपड़े का पर्दा। खुसरो के समय में आजकल की तरह स्नान घर नहीं होते थे। उन दिनों लोग नहाते समय, कपड़े का पर्दा लगाया करते थे।

(छ) न घर अधिंयारा क्यों? फकीर बिगड़ा क्यों? उत्तर - दिया न था। घर में दिया यानि दीपक होने से अंधेरा था और फकीर को कुछ दान में दिया नहीं था, सो वह बिगाड़ गया।

(३) कहमुकरियाँ या मुकरियाँ (पहेली नुमा गीत)

अमीर खुसरो हिन्दी के पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने पहेलीनुमा गीत लिखे। इन्हें विभिन्न रागों में बाँधकर आज भी गाँव में, शहर में औरतों, युवतियों, बच्चों आदि आम लोगों से ले कर विभिन्न संगीत घराने के लोग गाते हैं। जैसे रामपुर सहसवान, आगरा, किराना, पटियाला, ग्वालियर, सैनिया आदि। कहमुकरियों का अर्थ है कि किसी उक्ति को कह भी दिया और मानने से भी मुकर गए। यह चार पंक्तियों में होती है। तीन या उससे अधिक में पहेली होती है और चौथी या आखिरी पंक्ति में पहले तो खुसरो 'ए सखी साजन' के रुप में पहेली का उत्तर देते हैं। इनमें से अधिकांश पहेलीनुमा गीतों का जवाब साजन है यानि प्रियतम और साथ में एक दूसरा जवाब भी है - जो इस उक्ति का आखिरी शब्द है। इसमें अमीर खुसरो ने बच्चों, गाँव की गोरियों और दैनिक जीवन से जुड़े विषयों को लिया है जैसे सावन, बसंत, बरखा, हिंडोला, आम, बाल, बंदर, भंग, पानी, पान, पंखा (हाथ), नैंन, तोता, टेसु के फूल, खेत में उगी पीली सरसों, तेल, कोल्हू का तेल, जोगी, चंदा, चोर, चौखट, ढयोड़ी, चूड़ा, चौसर, हुक्का, ढोल, राग, सुनार, गगरी, कुत्ता, घोड़ा, गर्मी, लोटा, मक्खी, मच्छर, मोर, मोती, हार, हाथी, सोना, चाँदी, मैंना, गधा, बकरी, दीवार, गोश्त, ढोलक, तबला, सितार, पखावज, रबाब, मढ़ी, पायजामा, चुनरी, चोली, बाल, गेहूँ की बाल, कपड़े, भौं, पिजड़ा, कोयल, मोर, मुकुट आदि। उदाहरण -

(१) बरसा-बरस वह देस में आवे, मुँह से मुँह लाग रस प्यावे।
वा खातिर मैं खरचे दाम, ऐ सखी साजन न सखी आम।।

(२) सगरी रैन मोरे संग जागा, भोर भई तब बिछुड़न लागा।
वाके बिछुड़त फाटे हिया, ऐ सखी साजन न सखी दिया।।

(३) नित मेरे घर आवत है, रात गए फिर जावत है।
मानस फसत काऊ के फंदा, ऐ सखी साजन न सखी चंदा।।

(४) आठ प्रहर मेरे संग रहे, मीठी प्यारी बातें करे।
श्याम बरन और राती नैंना, ऐ सखी साजन न सखी मैंना।।

(५) वो आवे तब शादी होवे, उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे वाके बोल, ऐ सखी साजन न सखी ढोल।।

(६) सगरी रैन गले में डाला, रंग रुप सब देखा भाला।
भोर भई तब दिया उतार, ऐ सखी साजन न सखी हार।।

कुछ मुकरियाँ छ: पंक्तियों की भी अमीर खुसरो ने लिखीं -

(७) घर आवे मुख घेरे-फेरे, दें दुहाई मन को हरें,
कभू करत है मीठे बैन, कभी करत है रुखे नैंन।
ऐसा जग में कोऊ होता, ऐ सखी साजन न सखी तोता।।

आधुनिक हिन्दी के जनक बाबू भारतेन्दु हरीशचन्द्र तो अमीर खुसरो से इतना प्रभावित थे कि खुसरो की ही शैली में उन्होंने उन्हीं का अनुकरण करते हुए, नए जमाने की, मुकरियाँ रच डाली। उदाहरण -


(१) सब गुरुजन को बुरा बतावे, अपनी खिचड़ी अलग पकावे।
भीतर तत्व न झूठी तेजी, क्यों सखि सज्जन? नहि अंगरेजी।।

(२) तीन बुलाए तेरह आवे, निज निज बिपता रोई सुनावै।
आँखों फूटे भरा न पेट, क्यों सखि सज्जन? नहिं ग्रेजुएट।।

(३) रुप देखावत सरबस लूटै, फन्दे में जो पड़े न छूटै।
कपट कटारी हिय में हूलिस। क्यों सखि सज्जन न सखि पुलिस।।

(स्रोत: भारतेन्दु ग्रंथावली, दूसरा खंड - पृ. ८१०-८११)


अमीर खुसरो की कुछ कहमुकरियाँ ऐसी हैं जो केवल किसी और पर तो लागू होती है किन्तु साजन पर नहीं। हाँ वे साजन के किसी अंग पर अवश्य लागू होती हैं। इसी कारण इनमें से कुछ में अशलीलता की झलक आ गई है। ये अशलीलता का पुट वास्तव में लोक साहित्य के कारण है। उदाहरण -


आठ अंगुल का है व असली, वाके हड्डी न वाके पसली।
लटाधारी गुरु का चेला, ऐ सखी साजन न सखी केला।।


अमीर खुसरो की कुछ मुकरियाँ ऐसी भी हैं जो केवल किसी और पर लागू होती हैं किन्तु साजन पर बिल्कुल नहीं और न ही साजन की किसी अंग पर। केवल अन्यों के सादृश्य पर उनमें भी 'ऐ सखी साजन 'जोड़' दिया गया है। जैसे यह निम्नलिखित मुकरी केवल मोर पर ही लागू होती है, साजन पर बिल्कुल नहीं -


"नीला कंठ और पहिरे हरा, सीस मुकुट नीचे वह खड़ा।
देखत घटा अलापै जोर, ऐ सखी साजन न सखी मोर।।"


इस अर्थ का अथवा अनुमान का कुछ विद्वान भाषाविदों एवं साहित्यकारों ने कड़ा खंडन भी किया है। वे तर्क देकर कहते है कि यह मुकरी साजन व मोर दोनों पर ही खरी उतरती है। मुकरी में मोर का जो विस्तृत वर्णन किया गया है वह रुप एक स्री अपने प्रेमी या प्रियतम के लिए भी कल्पना कर सकती है। हिन्दी के प्रख्यात भाषाविद् डॉ. भोलानाथ तिवारी का कहना है कि अमीर खुसरो के नाम से मिलने वाली बहुत सी मुकरियाँ कुछ बाद की रचित लगती हैं। उदाहरण -

"आप जले औ मोय जलावे, पी पी कर मोहे मुँह आवे।
एक मैं अब मार्रूँ मुक्का, ऐ सखी साजन न सखी हुक्का।।

हँसन हँसाने और मनोरंजन के लिए चुटकुले, किस्से, गप्पें, ढींगे मारने आदि का पुराना रिवाज है जो सदियों से ग्रामीण अंचल के माध्यम से लोक साहित्य में चला आता है। अनूठी, मनोरंजक व समय गुजारने की इन्हीं ग्रामीण परम्पराओं में अमीर खुसरो ने भी अपना योगदान दिया है। उन्होंने आम लोगों की जरुरत को ध्यान में रखते हुए लोक मनोरंजन हेतु बच्चों व बड़ों दोनों के लिए हिन्दी साहित्य में एक नवीन विधा का पर्दापर्ण किया। यह है ठकोसले।

 

 

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अमीर खुसरो द्वारा लिखित फारसी ग्रंथ | कव्वाली


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