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अमीर ख़ुसरो दहलवी

 

अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। वे एक महान सूफ़ी संत, कवि (फारसी व हिन्दवी), लेखक, साहित्यकार, निष्ठावान राजनीतिज्ञ, बहुभाषी, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीत शास्री, गीतकार, संगीतकार, गायक, नृतक, वादक, कोषकार, पुस्तकालयाध्यक्ष, दार्शनिक, विदूषक, वैध, खगोल शास्री, ज्योतषी, तथा सिद्ध हस्त शूर वीर योद्धा थे। सन १२७३ ई. में खुसरो जब बीस वर्ष के थे तब ११३ वर्ष की आयु में उनके नाना एमादुलमुल्क रावत अर्ज़ का स्वर्गवास हो गया। ऐसे समय में जब कि खुसरो को इतनी अधिक लोकप्रियता मिल रही थी, उनके नाना के देहावसान से उन्हें जीवन का एक अति प्रचंड आघात पहुँचा क्योंकि उनके वालिद तो पहले ही परलोक सिधार चुके थे। अब खुसरो को अपनी रोज़ी रोटी की चिन्ता हुई। अत: अब उन्हें अपने लिए एक स्थाई रोज़गार खोजने पर विवश होना पड़ा। शीघ्र ही खुसरो को एक स्नेही और उदारचेता संरक्षक प्राप्त हो गया। ये था दिल्ली का सुलतान गयासुद्दीन बलबन का भतीजा अलाउद्दीन मुहम्मद किलशी खाँ उर्फ़े मलिक छज्जू। (सन १२७३ ई. कड़ा इलाहबाद का हाकिम) ये अपनी वीरता और उदारता के लिए विख्यात था। इसकी वीरता के चर्चे सुनकर और वर्च के दवाब के कारणवश प्रसिद्ध और शक्ति संपन्न मंगोल हलाकू ने उसे आधे इराक की गर्वनरी प्रस्ताव दिया था और उसकी स्वीकृति चाही थी। अमीर खुसरो ने उसे एक आदर्श व्यक्ति तथा शासक पाया और दो वर्ष वे उसके राजदरबार में शान बने रहे। मलिक छज्जू भी खुसरो से बड़ी कृपा और प्रेम का व्यवहार करता था। एक बार अमीर खुसरो उसके दरबार में बहुत ही देर से पहुँचे। बादशाह बहुत गुस्से में था क्योंकि कुछ चुगलखोर व खुसरो से जलने वाले दरबारियों ने खुसरो के ख़िलाफ़ बादशाह के कान भर दिए थे। इन दरबारियों ने बादशाह को भड़का दिया कि आजकल खुसरो अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की सेवा में अधिक समय व्यतीत करते हैं और राजदरबार से उन्हें कोई मतलब नहीं। बादशाह ने जरा सख्ती से खुसरो से दरबार में देर से आने का कारण पुछा। खुसरो ने अपने विनोद प्रिय, चुलबुले स्वभाव व हाज़िर जवाबी का सबूत देते हुए तुरन्त बादशाह की तारीफ़ और प्रश्न के जवाब में एक फ़ारसी का चुलबुला व हास्यजनक क़सीदा सुनाया। ये है -

"सुभा राव गुफ्तम कि खुर्शीद अद खुजास्त,
आस्मां रुहे मलिक छज्जो नमोद।"


अर्थात - आज जब मैं घर से दरबार के लिए बाहर निकला तो मेरी सुबह से मुलाक़ात हो गई। मैंने सुबह से पूछा कि बता तेरा सूरज कहाँ है? तो आसमान ने मुझे मलिक छज्जू की सूरत दिखा दी।" यह वाक़या कसीदे के रुप में सुनकर बादशाह के चेहरे पर अचानक ही मुस्कुराहट आ गई और उसका सारा गुस्सा काफ़ेूर हो गया। दरबारियों के मुँह से भी वाह निकली। अमीर खुसरो से जलने वाले समस्त दरबारी बहुत ही मायूस हुए तथा हतप्रभ रह गए। बादशाह ने प्रसन्न होकर अमीर खुसरो को दरबार में देर से आने के लिए माफ़ ही नहीं किया बल्कि इस हास्यजनक क़िस्से को सुनाकर हँसाने के लिए इनाम भी दिया। मलिक छज्जू के राजदरबार में खुसरो केवल दो वर्ष ही टिक पाए। हुआ यूँ कि एक रात शहनशाह हिन्दुस्तान गयासुद्दीन बलबन का बड़ साहबज़ादा, 'बुगरा खाँ' मिलने आया मलिक छज्जू से। उसने तत्काल फ़रमाइश की, "मेरे अज़ीज़ भाई छज्जू तुम्हारा बड़ा नाम है। अरे एक से एक नामवर तुम्हारे सामने गर्दन झुका कर बैठता है। सूरमाँ, गवैये और शायर भी। हम भी तो ज़रा इसकी झलक देखें।" यह सुनकर मलिक छज्जू ने हुक्म दिया - "यमीनुद्दीन खुसरो अपना कलाम पेश करें, हमारे मेहमाने अजीज के सामने"। तब अमीर खुसरो ने अपनी एक ताजा फ़ारसी की गज़ल सुनाई - "सर इन खदुदु जुई न दौरत की तिदौरी। इन नरगिसी जौबई न दौलत कि तिदौरी। इ नुशते अमा जुल खबमा श्यास खरामा इन हल्केई गेसूई न दौरत की तिदौरी।"

अर्थात - तेरी इन नरगिसी आँखों और काली हसीन जुल्फों के आगे दौलत क्या चीज है। यह मधुर व कर्णप्रिय गज़ल सुनकर बुगरा खाँ बोला - "वाह ! अरे ऐसे हीरे लिए बैठे हो जाने ब्रादर। अरे ऐसे आबदार हीरे मोती तो हमारे खजाने में भी नहीं। हम बहुत ख़ुश हुए। अशर्किफ़यों का ये थाल हमारी ओर से शायर खुसरो को ससम्मान दिया जाए। खुसरो अभी तो हम सफ़र में हैं, खुद ही मेहमान हैं। कभी हमारी तरफ़ समाना आओ तो तुम्हें और भी इनाम देंगे। क्यों मेरे भाई छज्जो तुम्हें नागवारा तो नहीं गुज़रा कि तुम्हारे दरबारी शायर को हमारी सरकार की ओर से इनाम दिया जाए। और वो भी तुम्हारी मौजूदगी में तथा तुमसे बिना पूछे।" ऊपर से तो मलिक छज्जू ने कह दिया कि उसे बुरा नहीं लगा पर अंदर से उसे अमीर खुसरो पर बेहद गुस्सा आया कि उसके दरबार में बिना उसकी इजाज़त के अमीर खुसरो ने दूसरी सरकार से ईनाम लिया। कड़ा के होने वाले सूबेदार मलिक छज्जू की कड़ी नज़रें अमीर खुसरो ने पहचान ली थीं। इससे पहले कि मलिक छज्जू के गुस्से का तीर, खुसरो को निशाना बनाता, वे तीर की तरह उसकी कमान से निकल गए। और सीधे बलबन के छोटे लड़के बुगरा खाँ (सन १२७६ ई.) के यहाँ गए जो मुलतान (पंजाब) के निकट सामाना में बलबन की छावनी का शासक व संरक्षक था जो अब मौजूदा दौर में पटियाला (पंजाब) में है। बुगरा खाँ ने अमीर खुसरो को अपना 'नमीदे खास' (मित्र) बना कर रखा। बुगरा खाँ ने खुसरो को बुलबले-हजार-दास्तान की उपाधि दी। मौज़-मस्ती, शरो-शायरी, किताबखानी और शग्ले जवानी के रात-दिन चल रहे थे कि अचानक ही बंगाल से बगावत की खबर आई। बुगरा खाँ ने कहा - "सामाने शफर को रुख करो। तख्ते देहली से यह हुक्म पहुँचा है कि पंजाब की फौज ले कर बंगाल पहुँचो। हम खुद लश्कर ले कर जाएँगे। शायर खुसरो साथ जाऐगा। फिर सामाना से लखनऊ की ओर कूच करेंगे।" मैदाने जंग में भयंकर युद्ध हुआ। जितनी जबरदस्त बगावत थी उतनी ही बेरहमी से कुचली गयी। देहली और पंजाब की फौजों ने खड़े खेत जला दिए। बागियों को गधे की खाल में भरवाकर सरे बाज़ार जलाया गया। फाँसियाँ, कत्लगाहें हुई। खुद शहज़ादा बुगरा खाँ ने अपने पिता बलबन से इस बेदर्द, चीड़-फाड़ और अंधाधुंध लूटमार की शिकायत की। अमीर खुसरो ने अपनी जिंदगी में पहली बार इतने करीब से जंग को देखा तथा उसके दर्द को गहराई से महसूस किया। उन्होंने बड़े पैमाने पर तबाही को महसूस किया। एक कलाकार, शायर, लेखक के नाते उनके नाजुक व भावुक दिल को बहुत दुख हुआ। परन्तु खुसरो के होंठ सिले रहे। इस दर्दनाक मं पर खुसरो ने कुछ नहीं लिखा। उनकी लेखनी मौन रही। खुसरो जैसे प्रेमी जीव को शायरी का कहाँ होश था? इस खूनी मं में। लखनौती में विजय प्राप्त करने के पश्चात बलबन ने बुगरा खाँ को लखनौती व बंगाल का मार्शल लौ (एडमिनिस्ट्रेटर) मुकरर्र कर के वहीं छोड़ दिया। शाहजादे को सलाह और राय देने के लिए प्रसिद्ध कवि शमशुद्दीन दबीर को नियुक्त किया गया था। उसने व बुगरा खाँ ने दरबारी शायर खुसरो को बहुत रोका मगर वो हज़ार बहाने कर के शाही लश्कर के साथ दिल्ली चले आए। अपनी माँ दौलत नाज और गुरु निजामुद्दीन औलिया के कदमों में। खुसरो ने बुगरा खाँ और कलशी खाँ की शत्रुता के कारण वहाँ रहना उचित न समझा और तत्काल सरकारी सेना के साथ दिल्ली चले आए। दिल्ली में इस विजय की खुशी में घर-घर दीप जलाए गए थे। स्वंय अमीर खुसरो अपने एक दीवान में, इस विषय में विस्तार से लिखते हैं कि - "माँ की ममता, गुरु का आध्यात्मिक लगाव, और देहली की मोहब्बत, गंगा-जमुना के किनारे मुझे हर जगह से, हर एक कदरदान से खेंच लाती थी। मेरी शायरी तो उड़ी फिरती थी और मैं खुद उड़ फिर कर देहली या पटियाल चला आता था। मगर आखिर घर बढ़ा, खर्चे बढ़े, और दरबारी आना-बान व ठाट-बाट के तो कहने ही क्या?"

इस दौरान अमीर खुसरो की मित्रा हसन सिज्जी देहलवी से हुई। हसन भी फारसी में किवता करता था। उसकी नानबाई की दुकान थी। वह खुसरो की तरह रईस नहीं था पर फिर भी खुसरो ने उसके नैसर्गिक गुण देख कर उससे मित्रता की। ये जग प्रसिद्ध कृष्ण और सुदामा की मित्रता से किसी भी प्रकार कम न थी। समय-समय पर खुसरो ने अपने मित्र के लिए कपट सहे। इसका ज़िक्र आगे करेंगे। पहले यह देखें कि यह मित्रता व मुलाकात कैसे हुई? हसन अपनी दुकान पर रोटियाँ बेच रहा था। तँदूर से गरम-गरम गदबादी रोटियाँ थाल में आ रहीं थीं। ग्राहक हाथों हाथ खरीद रहे थे। अमीर खुसरो दुकान के सामने से गुजरे तो उनकी दृष्टि हसन सिज्जी पर पड़ी। अमीर खुसरो बचपन से ही हँसी-मज़ाक़ व शरारत में आनंद लेने वाले बेहद ही विनोद प्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने हँसते हुए हसन से पूछा - 'नानबाई रोटियाँ क्या भाव दी हैं?' हसन ने भी बहुत सोच समझ कर तत्काल उत्तर दिया - 'मैं एक पलड़े में रोटी रखता हूँ और ग्राहक से कहता हूँ दूसरे पलड़े में सोना रख। सोने का पलड़ा झुकता है तो रोटी ख़रीददार को देता हूँ।' खुसरो ने प्रश्न किया कि ग्राहक गरीब हो तब? हसन ने बेहद ही सहजता से जवाब दिया - 'तब आर्शीवाद के बदले रोटी बेचता हूँ।' इस प्रश्नोत्तर के परिणामस्वरुप हसन और खुसरो में ऐसी घनिष्ठ व अटूट मित्रता हुई कि वे जन्म भर साथ-साथ रहे। शरीर दो थे पर आत्मा एक। इस मित्रता के लिए खुसरो को अनेक लांछन सहने पड़े पर मित्रता में किसी प्रकार की कोई कमी न आई। दोनों मित्रों को गयासुद्दीन बलबन के दरबार में उच्च स्थान मिला।

प्रारंभिक दिनों में खुसरो ने बलबन की प्रशंसा में अनेक कसीदे लिखे। दिल्ली लौटने पर गयासुद्दीन बलबन ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। उसका बड़ा लड़का सुल्तान मोहम्मद अहमद (मुल्तान, दीपालपुर की सरहदी छावनी) भी उत्सव में सम्मलित हुआ। खुसरो को अब दूसरे आश्रयदाता की ज़रुरत थी। उन्होंने सुल्तान मुहम्मद को अपनी कविता सुनाई। उसने खुसरो की कविताएँ बहुत पसंद की और उन्हें अपने साथ मुलतान ले गया। यह सन १२८१ का वाक़या है। वहाँ सिंध के रास्ते सूफ़ियों, दरवेशों, साधुओं और कवियों का अच्छा आना जाना था। मुल्तान में पंजाबी-सिन्धी बोलियाँ मिली-जुली चलती थीं। खुसरो ने यहाँ लगभग पाँच साल शायरी और संगीत के नए-नए तजुर्बे किए। शहज़ादे की परख गज़ब की थी। हर कमाल की जी खोल कर तारीफ़ करता, दिल बढ़ाता था। सुल्तान मोहम्मद ने ईरान के प्रसिद्ध फ़ारसी कवि शेख़ सादी को अपने दरबार में आने के लिए आमंत्रित किया। शेख़ सादी ने अपनी वृद्धावस्था के कारण आने में असमर्थता व्यक्त की और कहा कि हिन्दुस्तान में अमीर खुसरो जैसा कमाल का शायर मौजूद है। उनकी जगह अत: खुसरो को बुलाया जाए। खुसरो के लिए सादी की यह सिफ़ारिश उनकी महानता का ही परिचायक है। इससे पता चलता है कि उस समय खुसरो की ख्याति व प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली थी। बीच में खुसरो प्रति वर्ष दिल्ली आते जाते रहे। अंतिम वर्ष मंगोलों के एक लश्कर ने अचानक ही हमला कर दिया। बादशाह के साथ अमीर खुसरो भी अपने मित्र हसन सिज्जी के साथ लड़ाई में सम्मलित हुए। कितनी रोचक बात है कि एक शायर युद्ध के मैदान में जंग लड़ रहा है। कहते हैं कि अमीर खुसरो जंग के मैदान में एक हाथ में तलवार तो दूसरे हाथ में किताबदान लिए बड़ी शान से निकला करते थे। खैर, इस युद्ध में दुश्मन की ताक़त का पता बहुत देर से चला। हिन्दुस्तानी फ़ौज बेख़बरी का शिकार हो गई। हवा पलट गई। शाहज़ादा जंग के मैदान में मारा गया। खुसरो और हसन भी मैदाने जंग में गिरफ्तार हुए। एक मंगोल सरदार खुसरो को घोड़े के पीछे दौड़ाता हुआ और फिर घसीटता हुआ हिरात और बलख ले गया। वहाँ खुसरो को क़िले में बंदी बना लिया गया। कारागार में रहते समय खुसरो ने अनेक शोक गीत (मर्सिये) लिखे जिनमें मंगोलों के साथ युद्ध करते समय राजकुमार सुलतान मोहम्मद की वीरतापूर्ण मृत्यु का उल्लेख था। खुसरो ने अपनी कारावास कथा बड़ी ही मार्मिक शैली में लिखी है - "शहीदों के रक्त ने जल की तरह धरती को लीप दिया। क़ैदियों के चेहरों को रस्सियों से इस तरह बाँध दिया जैसे हार में फूल गूँदे जाते हैं। ज़ीन के तस्मों की गाँठ से उनके सिर टकराते थे और लगाम के फन्दे में उनकी गर्दन घुटती थी। मुझे जल प्रवाह के समान तेज़ी से भागना पड़ा और लम्बी यात्रा के कारण मेरे पैरों में बुदबदों की तरह फफोले उठ आए तथा पैर छलनी हो गए। इन मुसीबतों के कारण जीवन तलवार की मूठ की तरह कठोर जान पड़ने लगा। और शरीर कुल्हाड़ी के हत्थे के समान सूख गया।" दो वर्ष पश्चात किसी प्रकार अपने कौशल और साहस के बल पर अमीर खुसरो शत्रुओं के चुंगल से छूट कर वापस दिल्ली लौटे। लौटने पर वे गयासुद्दीन बलबन के दरबार में गए और सुलतान मोहम्मद की मृत्यु पर बड़ा करुण मर्सिया पढ़ा। इसे सुनकर बादशाह इतना रोये कि उन्हें बुखार आ गया और तीसरे दिन उसका देहांत हो गया। (सन १२८७)।

इसके पश्चात खुसरो दिल्ली में नहीं रहे। अपनी माँ के पास पटियाली ग्राम चले गए। वहाँ कुछ समय चिंतन में बिताया। स्वंय खुसरो लिखते हैं-"मैं इन्हीं अमीरों की सोहबत से कट कर माँ के साए में रहा। दुनियादारी से आँख मूँद कर गरमा गरम गजल लिखी, दोहे लिखे। अपने भाई के कहने से पहला दीवान तोहफतुस्सिग्र तो तैयार हो चुका था। दूसरा दीवान वस्तुल हयात (जिंदगी के बीच का भाग - ६८४ हिज्री सन १२८४) पूरा करने में लगा था। एक तरफ किनारे पड़ा हुआ दिलों को गरमाने वाली गजलें लिखता रहता था। राग-रगानियाँ बुझाता था।" वसतुल हयात में १८-२४ वर्ष और बत्तीस से तैंतीस साल की उम्र तक का कलाम है। कसीदे ज्यादातर सुलतान मोहम्मद, ह. निजामुद्दीन औलिया, कशलू खाँ, बलबन, कैकुबाद, बुगरा खाँ, शमशुद्दीन दबीर तथा जलालुद्दीन खिलजी की तारीफ में हैं। सुल्तान मोहम्मद पर मर्सिया भी है। कसीदों में खाकानी और कमाल अस्फहानी की काव्य शैली को अपनाने की कोशिश की गई है।

इसके बाद सन १२८६ ई. में खुसरो अवध के गवर्नर (सूबेदार) खान अमीर अली सृजनदार उर्फ हातिम खाँ के यहाँ दो वर्ष तक रहे। यहाँ खुसरो ने इन्हीं अमीर के लिए 'अस्पनामा' नामक पुस्तक लिखी। खुसरो लिखते हैं - "वाह क्या सादाब सरजमीं है ये अवध की। दुनिया जहान के फल-फूल मौजूद। कैसे अच्छे मीठी बोली के लोग। मीठी व रंगीन तबियत के इंसान। धरती खुशहाल जमींदार मालामाल। अम्मा का खत आया था। याद किया है। दो महिने हुए पाँचवा खत आ गया। अवध से जुदा होने को जी तो नहीं चाहता मगर देहली मेरा वतन, मेरा शहर, दुनिया का अलबेला शहर और फिर सबसे बढ़कर माँ का साया, जन्नत की छाँव। उफ्फो ओ दो साल निकल गए अवध में। भई बहुत हुआ। अब मैं चला। हातिमा खाँ दिलो जान से तुम्हारा शुक्रिया मगर मैं चला। जरो माल पाया, लुटाया, खिलाया, मगर मैं चला। वतन बुलाता धरती पुकारती है। अब तक अमीर खुसरो की भाषा में बृज व खड़ी (दहलवी) के अतिरिक्त पंजाबी, बंगला और अवधी की भी चाश्नी आ गई थी। अमीर खुसरो की इस भाषा से हिन्दी के भावी व्यापक स्वरुप का आधार तैयार हुआ जिसकी सशक्त नींव पर आज की परिनिष्ठित हिन्दी खड़ी है। सन १२८८ ई. में खुसरो दिल्ली आ गए और बुगरा खाँ के नौजवान पुत्र कैकुबाद के दरबार में बुलाए गए। कैकुबाद का पिता बुगरा खाँ बंगाल का शासक था। जब उसने सुना कि कैकुबाद गद्दी पर बैठने के बाद स्वेच्छाचारी और विलासी हो गया है तो अपने पुत्र को सबक सिखाने के लिए सेना ले कर दिल्ली पहुँचा। लेकिन इसी बीच अमीर खुसरो ने दोनों के बीच शांति संधि कराने में एक महत्वपूर्ण भूमिक निभाई। इसी खुशी में कैकुबाद ने खुसरो को राजसम्मान दिया। खुसरो ने इसी संदर्भ में किरानुस्सादैन (दो शुभ सितारों का मिलन) नाम से एक मसनवी लिखी जो ६ मास में पूरी हुई। (६८८ हिज्री। सन १२८८ उम्र ३५ वर्ष, मूल विषय है बलबन के पुत्र कैकुबाद का गद्दी पर बैठना, फिर पिता बुगरा खाँ से झगड़ा और अंत में दोनों में समझौता। उस समय के रहन सहन, तत्कालीन इमारतें, संगीत, नृत्य आदि कि चित्रण। इसमें दिल्ली की विशेष रुप से तारीफ है। अत: इसे मसनवी दर सिफत-ए-देहली भी कहते हैं। शेरों की भरमार है। अमीर खुसरो अपनी इस मसनवी में लिखते हैं कि कैकुबाद को उनके गुरु निजामुद्दीन औलिया का नाम भी सुनना पसंद नहीं था। खुसरो आगे लिखते हैं - "क्या तारीखी वाकया हुआ। बेटे ने अमीरों की साजिश से तख्त हथिया लिया, बाप से जंग को निकला। बाप ने तख्त उसी को सुपुर्द कर दिया। बादशाह का क्या? आज है कल नहीं। ऐसा कुछ लिख दिया है कि आज भी लुत्फ दे और कल भी जिंदा रहे। अपने दोस्तों, दुश्मनों की, शादी की, गमी की, मुफलिसों और खुशहालों की, ऐसी-ऐसी रंगीन, तस्वीरें मैंने इसमें खेंच दी है कि रहती दुनिया तक रहेंगी। कैसा इनाम? कहाँ के हाथी-घोड़े? मुझे तो फिक्र है कि इस मसनवी में अपनी पीरो मुरशिद हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन का जिक्र कैसे पिरोऊँ? मेरे दिल के बादशाह तो वही हैं और वही मेरी इस नज्म में न हों, यह कैसे हो सकता है? ख्वाजा से बादशाह खफा है, नाराज हैं, दिल में गाँठ है, जलता है। ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने शायद इसी ख्याल से उस दिन कहा होगा कि देखा खुसरो, ये न भूलो कि तुम दुनियादार भी हो, दरबार सरकार से अपना सिलसिला बनाए रखो। मगर दरबार से सिलसिला क्या हैसियत इसकी। तमाशा है, आज कुछ कल कुछ।" खुसरो को किरानुस्सादैन मसनवी पर मलिकुश्ओरा की उपाधि से विभूषित किया गया। सन १२९० में कैकुबाद मारा गया और गुलाम वंश का अंत हो गया।

बीच में कुछ समय के लिए शमशुद्दीन कैमुरस बादशाह बना पर अंतत: सत्तर वर्षीय जलालुद्दीन खिलजी सन १२९० में दिल्ली के तख़त पर आसीन हुआ। खुसरो से इसका संबंध पहले से ही था। इन्होंने भी अपने दरबार में खुसरो को सम्मान दिया। ये प्रेम से खुसरो को हुदहुद (एक सुरीला पक्षी) कह कर पुकारते थे। इन्होंने अमीर की पदवी खुसरो को दी। अब अबुल हसन यमीनुद्दीन 'अमीर खुसरो' बन गए। इनका वज़ीफ़ा १२,००० तनका सालाना तय हुआ और बादशाह के ये ख़ास मुहासिब हो गए। जलालुद्दीन सत्य, निष्ठा, साधु प्रकृति, विधा एवं कला प्रेमी तथा पारखी था। फ़ारसी कवि ख़वाजा हसन, संगीतज्ञ मुहम्मद शाह, इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी, संगीतज्ञाएँ फुतूहा, नुसरत नर्तकी, शम्शा खातून और तुर्मती आदि का उनके दरबार से संबंध था। जालालुद्दीन की तारीफ़ में अमीर खुसरो ने कसीदे लिखे जो गुर्रतुल कमाल में हैं। खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध मसनवी मफ्ताहुल फ़तूह (विजयों की कंजी) (६९० हिज्री/ सन १२९० ई., उम्र ३७ में जलालुद्दीन की चार विजयों का वर्णन, मलिक छज्जू की बगावत और उसको सजा, अवध की जीत, मुगलों को हराना, छाइन की विजय आदि का वर्णन है। इसमें शेरों की भरमार है। जलालुद्दीन खिलजी ने खुसरो को मुसहफदार (प्रमुख लाइब्रेरियन) और क़ुरान की शाही प्रति का रक्षक बना दिया। जलालुद्दीन ने अपनी इस अधिक आयु में भी अपनी रुचियों को नहीं बदला था। खुसरो हर शाम उसकी महफ़िल में एक गज़ल प्रस्तुत करते और जब साक़ी जाम भर देता, सुन्दर किशोरी ललनाएँ नृत्य करने लगती तो अमीर खुसरो की गज़लें मधुर स्वर लहरियों पर उच्चारित हो उठतीं। लेकिन इसके बावजूद भी खुसरो अपनी सूफ़ी वाले पक्ष से पूर्णत: न्याय करते। खुसरो अपेक्षाकृत एक धार्मिक व्यक्ति थे। उन्हीं के एक कसीदे से यह विदित होता है कि वे मुख्य-मुख्य धार्मिक नियमों का पालन करते थे, नमाज पढ़ते थे तथा उपवास रखते थे। वे शराब नहीं पीते थे और न ही उसके आदि थे। बादशाहों की अय्याशी से उन्होंने अपने दामन को सदा बचाए रखा। वे दिल्ली में नियमित औलिया साहब की ख़ानक़ाह में जाते थे फिर भी वे नीरस संत नहीं थे। वे गाते थे, हँसते थे, नर्तकियों के नृत्य एवं गायन को भी देखते थे और सुनते थे, तथा शाहों और शहजादों की शराब-महफ़िलों में भाग ज़रुर लेते थे मगर तटस्थ भाव से। यह कथन खुसरो के समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी का है। खुसरो अब तक अपने जीवन के अड़तीस बसंत देख चुके थे।

इस बीच मालवा में चित्तौड़ में रणथम्भोर में बगावत की ख़बर बादशाह जलालुद्दीन को एक सिपाही ने ला कर दी। बगावत को कुचलने के लिए बादशाह स्वंय मैदाने जंग में गया। बादशाह ने जाने से पूर्व भरे दरबार में ऐलान किया-'हम युद्ध को जाएँगे। तलवार और साज़ों की झंकार साथ जाएगी। कहाँ है वो हमारा हुदहुद। वो शायर। वो भी हमारे साथ रहेगा साये की तरह। क्यों खुसरो?' खुसरो अपने स्थान से उठ खड़े हुए और बोले-"जी हुजूर। आपका हुदहुद साये की तरह साथ जाएगा। जब हुक्म होगा चहचहाएगा सरकार। जब तलवार और पायल दोनों की झंकार थम जाती है, जम जाती है तब शायर का नगमा गूँजाता है, कलम की सरसराहट सुनाई देती है। अब जो मैं आँखों देखी लिखूँगा वो कल सैकड़ों साल तक आने वाली आँखें देखेंगी हुजूर।" बादशाह ख़ुश हुए और बोले-शाबाश खुसरो। तुम्हारी बहादुरी और निडरता के क्या कहने। मैदाने जंग और महफ़िलें रंग में हरदम मौजूद रहना। तुम को हम अमीर का ओहदा देते हैं। तुम हमारे मनसबदार हो। बारह सौ तनगा सालाना आज से तुम्हारी तन्ख्वा होगी।

 

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अमीर खुसरो द्वारा लिखित फारसी ग्रंथ | कव्वाली


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