अक्षर-अक्षर अमृत

प्रोफेसर हरिमोहन झा


२३ फरवरी १९८४ । बंगाली टोलाक मोड़पर अस्त-व्यस्त जकाँ चुपचाप ठाढ़ छी । .... हरिमोहन बाबूक अन्तिम दर्शन ... अन्तिम बेरि देखलियनि भरि आँखि, .... आब नहि देखबनि .. आ विदा भऽ गेल रही । अतीतक स्मृतिमे समेटल हरिमोहन बाबूक हँसी, गप्प, सहज मुस्कान आ तकरा लागल भरल आँखि ... सामनेमे जीवन्त भऽ उठल ।

हम एहि बंगाली टोलाक मोड़ पर ठाढ़ भेल एकटा जीवन्त महागाथाक अन्तिम अध्याय पर अश्रु अर्पित कऽ रहल छी .... प्रेम आ सिनेहक चिताक मुटठी भरि राख .... घमण्ड, ईर्ष्या आ ऐश्वर्यक नशामे उन्मत्त जन-समुद्रक बीचमे एकटा निर्द्वेन्द्व दार्शनिक छवि-हँसैत-हँसबैत, सिनेहक रसमे विभोर करैत ... हरिमोहन बाबू आब नहि भेटताह । हम सड़क धयने चुपचाप जा रहल छी - कतेक चित्र, कतेक छवि - कालजयी व्यक्तित्वक कीर्तिगाथाक कतेको अध्याय-अन्तिम बेर, अन्तिम दर्शन ... आब जाउ अहाँ, अमृतलोक जाउ, जतऽसँ क्यो घुरिकऽ नहि अबैत अछि ।

१९८२ । ३० दिसम्बर । धरहराकोठी, पटना ।

- ""देखू, हम पहिने छी आदमी ... हृदय अछि, पाथर नहि  अछि । नियति हमरा पराजित कऽ देलक । चारुकात अर्थी देखा पड़ै-ए, नि:शब्द निष्प्राण शरीर देखा" पड़ै-ए। कहू, हम जितलहुं कि नियति जीतल ? .... ओ बिहुँसैत गेली, हम कनैत छी ।' .... हरिमोहन बाबू फफकि-फफकि कऽ कानऽ लगलाह ....

हमर आँखिक सामने श्रीमती सुभद्राझाक निश्छल-सरल छवि नाचि उठल-भोरक दूर्वादल पर खसल ओसबिन्दु जकाँ स्नेह-भरल आभा .... हरिमोहन बाबूक आँखिसँ अविरल अश्रुपात होइत रहनि, भरल स्वर आ भीजल नयन, बजलाह-मैथिली अकादमीक पत्रिकामे शोक-संस्मरण छपल अछि, कनेक पढिकऽ सुना देब - "पुष्पांजलि' । ... हम पढ़ऽ लगैत छी । आस्ते-आस्ते सिहकैत साँझमे एक-एकटा पाँती पढ़ैत छी आ हरिमोहन बाबू हिमखण्ड जकाँ पघिलल जा रहल छथि ।

१४ अगस्त ८२क रातिमे श्रीमती मुभद्रा झाक (हरिमोहन बाबूक धर्मपत्नीक) कैन्सरसँ देहावसान भऽ गेल रहनि । जखन पढ़न भऽ गेल तँ हरिमोहन बाबू कहलनि - ""सफरमे आब एसकरे छी - मुसाफिर, सैह बूझू - मुसाफिर भऽ गेल छी । ... हम तँ यैह कहब, जे ई हमरासँ अहाँक अन्तिम भेट थिक । .. जकरा एक बेर देखै छिऐ, होइ-ए-फेर भेट होयत की नहि ?''

से, ओहि दिन दरभंगासँ पटना आ.ल रही । संगमे रहथि हमर अनुज कालीनाथ विचार भेल रहय जे हरिमोहन बाबूक दर्शन कयल जाय। ... आ तकरा बाद पहुँचल रही धरहरा कोठीक समीप । एकटा परान-सन छोटछीन किरायाक मकान-आगाँमे नेम-प्लेट Prof. H.M. Jha ... ओसाराक लागल एकटा कोठली - कोठलीमे प्रवेश करैत छी.... हरिमोहन बाबू पलंग पर पड़ल छथि -  रजाइमे लपटल .... श्याम वर्ण, उन्नत ललाट, पाकल-उड़ल केश क्रमिक दुर्बल होइत शरीर, धँसल जाइत आँखि .... मुदा रहि-रहि कऽ चमकैत शुद्ध सरल साहित्यिक भाव-कखनहु-कखनहु कऽ भय, आतंक आ विभीषिका !

हम चुपचाप पयर छूबिकऽ ठाढ़ भऽ जाइत छी ।

- ""हम विश्वनाथ दरभंगासँ .... ''

- ""ओ आउ .... आउ, कतेक दिनुका बाद ... आ ओ के छथि ? अमरनाथ जी ?''

- जी नहि, काली ।

- ""ओ ..... अहाँक छोट भाइ !

- ""जी''

- ""बैसू ने, बैसू ने .... ठाढ़ कि#ेक छी ?''

हम बैसैत कहलियनि - ""आइ हम किछु विशेष प्रायोजनसँ आयल रहिऐक ।''

- ""से की ?''

- ""यैह अपनेसँ इन्टरव्यू ...''

- ""हँ, हँ अवश्ये ... अवश्ये.... मुदा एकटा काज करु। पहिने प्रश्न सब लिखि कऽ दऽ जाउ ... दऽ जायब तँ नीक जकाँ उत्तर देब !''

हम किंचित विहुँसऽ लगलहुँ ... कहलियनि - ""हमरा कोनो प्रश्न पुठबाक नहि अछि - अपने स्वयं सवाल करियौक आ स्वयं जबाव दियौक ।''

हरिमोहनबाबू एहि बातपर हँसऽ लगलाह - ""हँ, ई बात हमरा पसिन्न पड़ल-हम यैह चाहैत छी, एहने बात चाहै छी ।''

बीचमे बहादुर आयल, चुपचाप ठाढ़ रहल आ फेर चल जाइत रहल । .....

हरिमोहनबाबू पड़ल रहथि, से उठिकऽ बैसि रहलाह । फेर साकांक्ष होइत पुछलनि - ""सुमनजीक की हाल ?'' .... मैथिली साहित्यमे रमल रहबामे हमरा मुमनजीसँ बड़ प्रेरणा भेटल अछि ।''

तकरा बाद किछु काल धरि सुमनजीक प्रसंग गप्प चलैत रहल ! हम साकांक्ष होइत पुछलियनि - ""अपने साहित्यसँ दर्शन दिसि अयलिऐक कि दर्शनसँ साहित्य दिसी ?.....''

- ""साहित्ये ने आदि छिकैक, मूल थिकैक, आधार थिकैक ... पहिने साहित्य, पहिने शब्द, पहिने भाषा, तखन दर्शन । तें साहित्यसँ दर्शन दिसि अयलिऐक ।''

- ""अपने की बनऽ चाहैत रहिऐक ? अपनेकँ की बनबाक इच्छा रहैक ?''

- ""कोनो कल्पना नहि, कोनो इच्छा नहि, सबटा स्वाभाविक रुपमे भेलैक, एहि प्रसंग एकटा रोचक बात कहै छी ।''

- ""जी कहल जाय .... ''

- ""सात आठ बरखक रही.... गाममे हमर पिताजी (कविवर जनसीदनजी) उपेन्द्र ककाक संग शतरंज खेलाइत रहथि । हम बैसल चुपचाप शतरंज देखैत रही - कखनहु काल कऽ टीप सेहो दऽ देत रहिऐक । एक बेरि टीप दऽ देलिऐक तँ उपेन्द्रककाक एकटा फील कटि गेलनि । अत्यन्त क्रोधित भऽ कऽ हमरा दिलि तकलनि - फेर खेलाय लगलाह । हम रही नेना । मानल गहि गेल, फेर टीप दऽ देलि - एहि बेर उपेन्द्रककाक फर्जी कटि गेलनि आ "शह' लागि गेलनि । ओ अत्यन्त क्रोधित होइत हमर पिताकें कहलथिन - ""हिनका एहिना खेलाइत - धुपाइत रहऽ देबनि की कतहु पढ़एबो करबनि ?''

हरिमोहन बाबू सहसा चुप्प भऽ गेलाह । फेर गम्भीर होइत कहलनि । - "" उपेन्द्रकका तँ क्रोधमे ई बात बाजल रहथि । ... मुदा ई घटना हमर जीवनमे मोड़ आनि देलक । सूतलसँ जगा देलक । ... तकर बाद जेना हमर जीवनक लक्ष्य भऽ गेल - पढ़ब-लिखब । आ तें हम जे किछु भऽ सकलहुँ-से भेलहुँ ।''

- ""अपनेकें अपनेक पिताजी कोन नामसँ सम्बोधित करथि ?''

- ""ननकिरबू, .. दुलारसँ ननकिरबू कहथि ... आ बचपनेसँ पिंगलशास्र रटबथि-भगण, जगण, नगण आ पूछथि - ""ननकिरबू, हरिगीतिका छन्दक वर्णन करह तँ ..... हमरा चुपचाप ओ कवि बना देलनि .... एहि प्रसंग एकटा गप्प आर कहै "छी' ।''

- "" जी कहल जाय ।''

- ""हमरा अपन कवि-जीवनक आरम्भमे बड़ व्यवधान भेल । स्कूलमे पढ़य लगलहुँ तँ एकटा शिक्षक रहथि से हमर कविताक कापीकें दराजमे बन्द कऽ देलनि ... पोयट्री बदलामे ज्योमेट्री रटऽ लगलहुँ । सिरमा तऽरमे अलजेवरा, एर्थमेटिकक किताब रहऽ लागल .... मुदा हम की मानलियनि ? बीच रातिमे जगि जाइ-कविता लीखि लैत छलहुँ आ खूब हँसी । हँसैत हँसैत फेर सूति रहि .... हम ओहि जिन्दगीकें लौटाबऽ चाहैत छी, मुदा से की भऽ सकत ?''

हरिमोहन बाबूकें खाँसीक बेग अयलनि, छाती सहलाब लगलाह, उठिकऽ बैसि रहलाह, फेर तकिया पर माथ राखि चुपचाप शून्यकें निहारऽ लगलाह, किछु विलमि कऽ बजलाह - ""काल्हि कार्डियोलॉजिस्टसँ जाँच करयबाक अछि । मुदा की जाँच करायब, आब तँ एहि पार आ ओहि पारक बिजमे छी, मझधारमे रहऽ नहि चाहैत छी ।''

हम कहलयनि - ""अपने कालसँ ऊपर भऽ गेल छिऐक, कालजयी .... अपने पर कोनो असरि नहि ।''

हरिमोहन बाबू आस्ते-आस्ते बिहुँसऽ लगलाह, कहलनि - "" दिनकरजी कहल करथि, रहैत-रहैत कोनो शब्द, कोनो दोहा, कोनो चौपाइ रहि जाइत छैक - कह "गिरिधर कविराय' वश, एतबे !''

हरिमोहन बाबूकें जेना कोनो बीतल बात मोन पड़ि गेलनि, बजलाह - ""हमरा एखनो ओहिना मोन अछि, बाँसघाट पर डा० अमरनाथ झाक चिता दहकैत रहनि आ हमरोलोकनि चुपचाप निष्प्रभ जकाँ ठाढ़ रही । बाँसघाटमे जखन डा० अमरनाथ झाक चितामे आग्नि-संस्कार कयल गेलनि तँ सहसा रायबहादुर श्यामनन्दन सहाय हाहाकार कऽ उठलाह। सामनेमे हम ठाढ़ रही, हमरा बजौलनि आ दूटा पाँती पढिकऽ चितासँ उठैत लहासकें देखऽ लगलाह । हमरा एखनहु ओ पाँती मोन अछि - 

आगाह अपनी मौत से कोई बसर नहीं

सामान सौ बरस का है कल की खबर नहीं

हम कहलयनि श्यामनन्दन सहायँ, ""अपने कहै छिऐ "कल की खबर नहीं', एतऽ तँ "पल की खबर नहीं' बला बात होइ छैक !''

रहि-रहिऽ हरिमोहन बाबूकें सद्य: पत्नीक मृत्युक आघात दहला दैत छनि, कखनहु चुपचाप भऽ जाइत छथि, कखनहु शून्यकें निहार लगैत छथि ।

हम वातावरण कें बदलि देबऽ चाहैत छी । साँझ बीति गेल रहैक आ ओससँ नहायल ३० दिसम्बरक राति सद्य:स्नाता युवतीक रुपचित्र जकाँ नचैत रहय। पुछलियनि - ""अपने विद्यापतिक पदावलीक अर्थ कहियासँ बूझऽ लगलिऐक ?''

- ""जहियासँ बियाहक सूरसार होबऽ लागल ।'' कहिकऽ मुस्कुराय लागल रहथि ।

- ""अपने कोन अवस्थामे शृंगार-रसक पहिल रचना कएने रहिऐक ?''

- ""पहिल शृंगार-रसक रचना सासुरमे कयने रही । अवस्था पन्द्रह । पन्द्रहे रहय। पहिने हम उर्दूक शेर खूब बनाओल करी । ओहिमे भरिछाक प्रेमक रहैक, मोहब्बत, आरजू, दिवानगी, लैला-मजनू, सलीम आ अनारकली - कोमल-कोमल भाव, रंगीन दुनियाँ, शृंगार-रस, उमड़ैत गेल, बढ़ैत गेल, झमाझम बरिसैत गेल-आ हम रसमे, साहित्यमे, दर्शनमे क्रमे-क्रमे उब-डुब करैत गेलहुँ । .... एकटा हमर बनाओल शेर सुनब.....''

- ""जी अबस्से'' ........

- ""तँ सुनू । पहिने भाव-भूमि देखिऔक ! एकटा आशिक रहथि आशिकाना मिजाजक-मोहब्बतमे मऽ मिटऽ बला । "जब प्यार किया तो डरना क्या' ... गीत गाबऽवला । एक दिन आशिक महाशयकें हृदय-गति तेज भऽ गेलनि । ... हाथ.... पैर थिरकऽ लगलनि, छाती धमकऽ लगलनि । डाक्टर कहलकनि - दिलमे दौरा पड़ल छनि । मित्र-बन्धु मिलिकऽ अस्पतालमे भर्ती कऽ देलकनि । रहथि आशिक । नर्स सब सुइया देवऽ लगलनि, ताहिपर ओ "शेर' बनौलनि, जकर दू पाँती देखिऔक -

""मेरी बाँहमे बो सुई दे रही है

रकीवों के दिलमे वही चूभती है ।''

हमरालोकनि भभा-भभा कऽ हँसऽ लगलहुँ । हरिमोहन बाबू सेहो मुसकुराय लगलाह, बजलाह - ""ए्हाँ लोकनि छी शेरो-शायरीक रसिक तँ एकटा शेर आर सुनू ।''

- ""अबस्से कहल जाय .... ''

- ""एकबेर दिल्ली गेल रही तँ ललित बाबू रातिक भोजनपर आमन्त्रित कयलनि। नियत समय, अकबर रोड, हुनक वासा पर पहुँचलहुं तँ ललित बाबूक पी. ए. बकझक करऽ लागल। .... ताहि पर हम एकटा पुर्जी देलिऐक, ललितबाबूकें देबाक लेल ! .... अन्दाज किछुए पल बीतल हेतैक कि ललित बाबू हँसैत-विहुँसैत दौड़ल अयलाह आ स्वयं हाथ पकड़ि लऽ गेलाह ।''

हम साकांक्ष होइत पुछलियनि - " ओहि पुर्जीमे की लिखल रहैक ?''

हरिमोहन बाबू हँसऽ लगलाह - "" पुर्जिए तँ रहैक असल, पुर्जीमे लीखि देने रहिऐक -

मिनिस्टर की दावत की उम्मीद कम है 

जो पीए हुए हैं वो पीए हुए हैं

हरिमोहन बाबू पड़ले-पड़ल हाक पाड़लनि - ""बहादुर ! बहादुर !!''

बहादुर धम-धम करैत पहुँचल । ""बहादुर .... तीन कप चाय !'' ....

बहादुर चल गेल तँ गप्पक क्रम आगाँ बढ़ल !

- "एँ औ, मधुपजीसँ भेट नहि होयत ... .बड्ड मोन लागल अछि । कोना छथि ? ... कतऽ छथि ? अन्त समयमे एकबेर हुनकासँ भेंट भऽजइतय ।''

फेर हरिमोहन बाबू उठिकऽ बैसि रहलाह, बीतल कोनो बात मोन पड़लनि, बजलाह - ""एकटा रोचक प्रसंग कहै' छी''

- ""से की ?''

- ""हमरा आ मधुपजीमे एकबैर मैथिलीक कोनो मंचपर, प्राय: सहर्षामे दंगल भऽ गेल । ... बजरम बजरा ... एकदम कुश्ती !''

हम चकित होइत पुछलियनि - "" कुश्ती ....?''

- "हँ, कुश्तिये बुझू ... ओ एकटा अपन कविता पढ़ति आ हमरा कना' जाथि आ हम एकटा सुनबियनि आ ओ झूमि-झूमि कऽ हँसऽ लागथि-क्रम बढ़ऽ लागल । श्रोता एकबेर हँस-भयंकर दंगल 'नेक टु नेक फाइट ....''

- ""अन्तमे विजयमाल ककरा भेटल ?''

- ""साहित्यमे विजयमाल की ? ..... की हरि की जीत ? हम कनलहुँ ओ हँसलाह, हम हँसलहुँ ओ कनलाह - आ फेर दुनू गोटे गला लागि गेलहुँ !''

हम किछु गम्भीर होइत पुछलियनि ""मैथिली कवितामे नवीनता अनबाक श्रेय किनका देल जयबाक चाही ?''

- ""यात्रीकें ! ... बहुत दिन भेलै' .... कतेको साल बीतल ... हमरा ओहिना मोन अछि, मिथिला मिहिरमे एकटा रचना देखलिऐक - ""गे फेकनी तों कपिलेश्वर जो !' रचना पढिकऽ चकित भऽ गेलहुँ । सुमनजी उत्तर देलनि - ""कवियेकें पठा 'दै' छी ! ... बादम यात्रीसँ भेट भेल । विचार, व्यकितत्व एवं प्रपतिभा मनकें झुमा' देलक । .... यात्रीमे बहुत परिवर्तन भेलनि-यात्रीसँ नागार्जुन भऽ गेलाह - मुदा, हमरा 'गे फेकनी तों कपिलेश्वर जो' वला रुप अत्यन्त चकित कयने रहय !''

- ""एम्हर नवीन कविताक नाम पर बहुत पाँती लिखल-जोड़ल गेल अछि, एहि प्रसंग अपनेक की मन्तव्य ?''

हरिमोहन बाबू कहलनि - "एहि प्रसंग एकटा रोचक वार्तालाप कहै' छी। एक बेर रमानाथ बाबूसँ भेट भेल, पुछलियनि - 'अहां नव कविता बुझै' छिऐक? नवीन कवि सभक प्रशंसा कोना करै' छिऐक?''

रमानाथ बाबू गम्भीर भऽ गेलाह, बजलाह - एकर उत्तर तीन अक्षरमे देब । हम कहलियनि - से की ? रमानाथबाबू कहलनि - 'मारत !' नहि लिखबैक ... .नहि प्रशंसा करबैक तँ मारत !' ....

हरिमोहनबाबू गम्भीर होइत कहलनि - ""हमरा कविता चाही । वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । हमरा रस चाही । साँप बिच्छू झाड़ैक मंत्र नहि चाही । ... देखू, एकटा कविताक पाँती, केहन ललितगर आ रसात्मक अछि -

""दोख्तरे दर्जी का सीना देखकर

मल मल दीजिए !''

"मल मल' शब्दमे केहन चमत्कार छैक-मलमल कपड़ा आ नहि तँ ...''

हरिमोहन बाबू क्रमिक साहित्यक रसमे डूबल जा रहल छथि । बजलाह - ""देखू, हम सत्यकें सत्य कहैत छिऐक, जे स्वाभाविक छैक तकर वर्णन करैत छिऐक ... बनाबटि आ कृत्रिमतासँ हमरा घोर विरोध अछि । .... एकटा रोचक प्रसंग सुनू .....''

- ""जी, कहल जाय .....''

- ""एकबेर हम बनारस गेल रही ... एकटा हमर अत्यन्त प्रिय मित्र सेहो संगमे रहथि । हमरालोकनिकें पता चलल जे गंगाक घाट पर "ज्ञानवती' देवीक प्रवचनमे सम्मिलित भऽ गेलहुँ । .... किछु काल धरि ओ प्रवचन दैत रहलीह नीति-अनीति पर, धर्म-अधर्म पर - देखबामे अत्यन्त सुन्दर, रसमे डूबल शरीर ... मांसल ! प्रवचनक अन्तमे ओ बजलीह जे सब श्रोता लोकनि हमरा ध्यानस्थ भऽ कऽ देखू - हम ध्यानमग्न भऽ जाइत छी ।

हरिमोहन बाबू पड़ल छलाह से उठिकऽ बैसि रहलाह, पुन: मुस्कुराइत कहलनि - ""हम ध्यानमग्न की होयब, हमरा तं विद्यापति गीत-कविता मोन पड़ऽ लागल-

मेरु उपर दुइ कमल फुलायल

नाल विना रुचि पाई

मनिमय हार धार बह सुरसरि

तें नहि कमल सुखाई

किछु कालक बाद ज्ञानवती देवीक ध्यान टुटलनि । ओ एक-एकसँ पुछलथिन-ध्यानमग्न अवस्थामे अहाँलोकनि की सोचैत छलहुँ ? क्यो बाजल धर्मक प्रसंग, क्यो भक्ति, क्यो ज्ञान । हमर मित्र कहलथिन - अध्यात्मक प्रसंग । हमर बारी आयल तँ हम निर्भीकतापूर्वक कहलियनि - ""मैं तो आप का उन्नत उरोज देख रहा था ।'' एहि उत्तर पर हमर मित्र सकपका गेलाह । बजलाह - भागो-भागो  ! आपको भ कर देंगी !....

मुदा ज्ञानवती हमर मित्रकें धूसऽ लगलथिन - "आप सभी लोग मक्कार हैं, झूठे हैं, सच बोलने का साहस सिर्फ इसी में है !'

- ""अपनेक साहित्य पर अश्लीलताक आरोप लगाओल जाइत अछि, एहि प्रसंग अपनेक की प्रतिक्रिया ?''

- ""हमर साहित्ये हमर उत्तर थिक । खट्टर ककाक तरंग जखन बहरायल तँ मिथिलामे बड़का हो-हल्ला मचल - खट्टरकककें बन्द कएल जाय - पण्डित सब छड़ी-छाता चमकाबऽ लगलाह - अनेतिक अछि, अश्लील अछि आ बैह पण्डितसब बीच रातिमे लालटेन जराकऽ चुपचाप चोर जकाँ खट्टरकका पढ़ल करथि । एकटा आलोचक कहलनि जे भोलबबाक ई गप्प जे पहिलुका युवक कंचनजंघाक विजय करैत छला मुदा आबक युवक तँ कुचबिहारसँ कटिहार अबैत-अबैत थाकि जाइत छथि - घोर अश्लील अछि । आब कहू एहिमे कोन अश्लीलता .... जे रककें चखि नहि सकथि, जे साहित्यक धारामे चुभकी नहि लगा सकथि, तनिका प्रसंग की कहल जाय ? एहन अरसिक दूरहिसँ प्रणम्य छथि -''

""अरसिकेषु कवित्त निवेदनम्

शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख ! ''

तकर बाद प्रसंग बदलि गेलैक । मैथिली आन्दोलनक प्रसंग चर्चा चलऽ लगलैक ।

हम साकांक्ष होइत पुछलियनि - ""मैथिली आन्दोलनक सबसँ पैघ दुर्बल पक्ष की रहलैक ?''

हरिमोहनबाबू उत्तेजित होइत कहलनि - "निखि लियऽ  लिखि देबैक-ब्रह्माक शाप ... परपस्पर इर्ष्या, परस्पर द्वेष, एक उद्देश्य, एक नीति, एक कार्यक्रम, मुदा दू टा संघ .... दूटा संस्था । संस्थाक भीतर संस्था । जहाँ कोनो संस्थाक जन्म भेल कि बस, शुरु भेल गोलैसी । पहिने एक गोल-तखन दू गोल-बादमे बमगोल ! हम तँ पहिने लिखि देने छिऐक - पद्मा आ कमला तँ एक्के अर्थक वाचक थिकीह तखन दुनूमे एतेक अन्तर किएक ? बंगाल आ मिथिलामे यैह अन्तर ?'

- ""अपने कखन अधिक आनन्दित होइत छिऐक ?''

- ""जखन पाठक अथवा श्रोता हमर रचना पर झुमैत छथि तँ हमहूँ आनन्दित होइत छी । अहीं गामक (शुभंकरपुरक) देवेन्द्रबाबू हमर अभिनन्दग्रन्थ छापि रहल छथि - हमरा हुनकासँ कोनो परिचयो नहि, हम एहने आत्मीयतामे डूबल रहय चाहैत छी ।''

- ""अपनेकें उगैत सूर्य नीक लगैत छथि की डुबैत सूर्य ?''

- ""हरिमोहन बाबू मुस्कुरा उठलाह, फेर आस्ते-आस्ते विहुँसऽ लगलाह - ""दुनू नीक लगैत छथि - कर्मकाण्डीक लेल उगैत सूर्य आ कोहवरक यात्रीकें डुबैत सूर्य-सभक अपन-अपन महत्त्व !''

- ""अपनेकें फूल नीक लगैत अछि कि काँट ?''

- ""कोन फूल अंग्रजीक कि हिन्दीक?''

हरिमोहनबाबूक सहज विनोदी-स्वभाव पर हम मुग्ध भऽ गेल रही । कहलियनि - "काँटवला फूल !'

-""ओ ... '' हरिमोहनबाबू मुस्कुरा उठलाह । साकांक्ष होइत बजलाह -

गुलशन अजीज है मगर गुल भी अजीज है

ये खारों से भी निवाह किए जा रहा हूँ मैं !

जे फूल बनैत अछि तकरा काँटोक भार सहऽ पड़ैत छैक !''

- ""यैह नियति थिकैक !''

- ""कातमे कतहु आस्ते-आस्ते पाकीजाक गीत सुना पड़ैत रहय ! हम पुछलियनि - ""वेश्याक प्रसंग अपनेक की मन्तव्य ?''

- ""वेश्याक प्रसंग हम किछु भिन्न विचार रखैत छी । लोक वेश्याकें नचैत देखै' छ्े' - बिकाइत देखै' छै' । मुदा हम तँ ओकर मजबूरी, लाचारी आ विवशताके देखै' छी । ... एकबेर हम कोनो राजदरबारमे गेल रही - ओतऽ वेश्याक नाच होइत रहैक । लोकसब ओकर अदा पर, नाज-नखरा पर मुग्ध होइत रहय । मुदा हम तँ सोलह-सत्रह बरखक ओहि वारांगनाक 'साइक्लॉजी' बूझऽमे लागल रही ... असलमे हमर वैह दृष्टिकोण अछि जे शरतबाबूक छनि । शरतबाबूक श्रीकान्तक राजलक्ष्मीक चित्र-चरित्र हमरा बड़ प्रभावित कएने रहए ।''

- ""सिनेमाक प्रसंग अपनेक की दृष्टिकोण ?''

- ""सिनेमा तँ हम खूब देखैत रही, आब की देखब ? ... आब तँ अपने जीवन सिनेमाक रील जकाँ घुमैत बुझा पड़ै - ए ! एकबेर सिनेमा हॉलमे तेहन दृश्य उपस्थित कऽ देलनि जे मुश्किल-मुश्किल भऽ गेल । रोमान्स-गोमान्स करैत सिनेमा हॉलसँ घिचने-तिरने बाहर लऽ अनलनि। हमरा सबसँ नीक सिनेमा "अछूत कन्या' लागल रहय - अशोक कुमार आ देविकारानी-बम्बइ टाकीजक अछूत कन्या - सिनेमा देखैत रही आ आस्ते-आस्ते आँखिसँ नोर बहैत चल जाइत रहय !''

- ""अपनेक कोनो एहन इच्छा अछि जकर पूर्ति नहि भेल हो ?''

हरिमोहन बाबू छटपटा कऽ रहि गेलाह-पुन: निर्द्वेन्द्व भावसँ कहलनि - " हँ, मकान बनयबाक इच्छा '

- ""से किएक ?''

- ""से, अर्थशास्र गड़बड़ा गेल - मकान बनयबाक अर्थशास्र .... जखन पटना आयल रही .... दस कट्ठा जमीन खरीदने रहितहुँ आ एखन पाँच कट्ठा जमीन बेचिकऽ पाँच कट्ठा पर मकान बना' लितहुँ - से तँ रही दार्शनिक - ई अर्थशास्र बुझबामे नहि आयल !''

- ""अपने अपन जीवनक विराट अनुभूतिक आधार पर की प्राप्त कयल ?''

हरिमोहनबाबूक मुखमुंडल थाकल "मुसाफिर' जकाँ अस्त-व्यस्त भऽ उठलनि, बजलाह - 

शम्मा ने आग रखी सर पै कसम खाने

या खुदा मैंने नही जलाये परवाने को

पुन: हरिमोहनबाबू साकांक्ष भऽ गेलाह, गम्भीर होइत कहलनि - ""जखन पढ़ैत रही तँ बुझैत रहिऐक - सर्वे ब्रह्ममयं जगत !''

- ""जखन लिखैत रही, लोककें हँसबैत रहिऐक, अपने हँसैत-झुमैत रही तँ बुझैत रहिऐक - सर्वे हास्यमयं जगत !''

मुदा १९७६ क बाद हम टुटि गेलहुँ । ऐकटा "मासूम मुस्कुराहट' हमरासँ छिना गेल । "दमन' जी हास्पीटलक बेड पर पड़ रही गेलाह, फेर घर घूरिकऽ नहि आबि सकलाह - तकर बाद फेर कैन्सर, मृत्युक भयानक रुप - हुनकर देहान्त ! हमर जीवनक दशाकें बदलि देने अछि । ... आ आब बुझैत छिऐक - सर्वे अश्रुमयं जगत !

राति बहुत बीति गेल रहैक । दूर बहुत दूर रेलक इन्जिन सीटी दैत भागल जाइत रहैक - पटनाक कुहेस लागल राति ... हम चुपचाप मैथिलीक मनीषीक सोझाँ नतमस्तक छी। एकटा हँसी ... एकटा लहरि... एकटा क्रन्दन । हँँसैत रहथि हरिमोहन बाबू .. .कनैत छथि हरिमोहनबाबू - हास्य आ करुणाक एहि मिलन-विन्दुकें की कहल जाय ? हरिमोहन बाबूसँ पुछबनि तँ कहताह - नियति, कहताह - चलैत-चलैत आब थाकि गेल छी ... कहताह - आब मोह ककर, माया ककर ... आब तँ हम मंजिल-दर-मंजिल चलैत जीवनक अन्तिम विन्दु पर ठाढ़ छी !

- ""अपने जीवनक एहि अन्तिम विन्दु पर ठाढ़ भ.ञ कऽ दुनियाक नाम की संदेश देबऽ चाहै छिऐक?''

हरिमोहनबाबूक आनन कोनो तापस ॠषि जकाँ चमकि उठलनि । कहलनि - ""प्रेमक संदेश कहै छी, रसक संदेश कहै छी ... रोशनी जकाँ चमसैत रहू, फूल जकाँ गमकैत रहू  !''

हरिमोहनबाबूक आँखि चमकि उठलनि, बजलाह - दू घड़ीक जिन्दगी रस चखैत जाउ, रस बँटैत जाउ !!

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© Copyright आशुतोष कुमार, राहुल रंजन   2001

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