रुहेलखण्ड

Rohilkhand


अस्थिसंचयन एवं विसर्जन

शव विसर्जन की दाह प्रथा के अंतर्गत अस्थिसंचयन एवं उनके विसर्जन का विधान ॠग्वैदिक काल से ही मिलने लगता है किंतु उस में शव के दाहोपरांत अवशिष्ट अस्थियों का संचयन करके उन्हें भूमिसात् किये जाने के संक्षिप्त उल्लेख के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में अन्य कोई आनुष्ठानिक विवरण प्राप्त नहीं होता है। इसके आनुष्ठानिक विकास का अगला चरण हमें सूत्र ग्रंथों में देखने को मिलता है, विशेषतः बौधा.पितृ.सू. में। तदनुसार अस्थिसंचयन का कार्य शवदाह के प्रथम, तीसरे, सातवें या नवें दिन किया जाना चाहिए। गरुड़ पुराण ( प्रेतखण्ड 5.15 ) इनके अतिरिक्त नवें दिन को भी मान्यता प्रदान करता है, पर द्विजों के लिए चौथा दिन श्रेष्ठ माना गया है। किंतु स्मृतिकार यम ( 87 ) प्रथम दिन से लेकर चौथे दिन तक अस्थिसंचयन के पक्ष में अपना मत प्रस्तुत करते हैं। चतुर्थ दिवस का समर्थन, विष्णु एवं कूर्म पुराण में तथा कौशिक सूत्र ( 82.29 ) में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त इनमें अस्थिसंचयन के क्रम तथा स्री- पुरुष के अस्थिसंचयन की प्रक्रिया का विवरण भी दिया गया है।

किंतु आश्व.गृ.सू. (
45 ) के अनुसार यह कार्य तेरहवें या पंद्रहवें दिन किया जाना चाहिए। अस्थिसंचयन की प्रक्रिया के संदर्भ में बौधा.पितृ.सू. ( 1.14.6 ) तथा तैत्ति.गृ.सू. में जो विवरण दिया गया है। तदनुसार सर्वप्रथम चिता की अवशिष्ट भ पर दुग्ध मिश्रित जल का अभिसिंचन करके किसी दूधिया वृक्ष की डंडी से भ में दबे हुए अस्थि खण्डों को पृथक्- पृथक् करके उन्हें एक स्थान पर एकत्र कर लेना चाहिए तथा अवशिष्ट भ को पृथक् रुप से संग्रहीत करके दक्षिण दिशा में विसर्जित कर देना चाहिए।

इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि अस्थिसंचयन के समय बोले जाने वाले मंत्रों से आर्यों के उस विश्वास पर भी प्रकाश पड़ता है, जिसके अनुसार मृतक लोकांतर में पुनः नवीन शरीर को धारण करता है तथा उस शरीर के नव- निर्माण के लिए उसके शरीर के प्रत्येक अंग की अस्थियों को उसके लिए भेजा जाना आवश्यक होता है। उनकी इस धारणा की पुष्टि उच्चार्यमाण मंत्र के जिन शब्दों से होती है, वे इस प्रकार हैं :-

""( हे प्रेतात्मा !) यहाँ से उठो और नवीन स्वरुप धारण करो। अपनी देह के किसी भी अवयव को न छोड़ो, तुम जिस किसी भी लोक को जाना चाहो, जाओ। सविता तुम्हें वहाँ स्थापित करे। यह तुम्हारी एक अस्थि है, तुम ऐश्वर्य में तृतीय से युक्त होओ। सम्पूर्ण अस्थियों से युक्त होकर सुंदर बनो, तुम दिव्य लोक में देवों के प्रिय बनो।""

उपर्युक्त रुप में सभी अवशिष्ट अस्थियों का संचयन करके उनका स्वच्छ जल में प्रक्षालन कर उन्हें एक पात्र में रखकर अथवा कृष्णमृगचर्म की पोटली में बाँधकर शमी वृक्ष की शाखा पर लटका दिया जाता था। कालांतर में नियत रुप में यज्ञानुष्ठान करने वाले याज्ञिक व्यक्ति की अस्थियों का तो पुनः दाह कर दिया जाता था, किंतु अन्य की अस्थियों का अस्थिकलश के साथ ही विधि- विधान पूर्वक भू- निखातन कर दिया जाता था।

अस्थिपात्र के सम्बन्ध में आश्व.गृ.सू. (
4,5 ) का कहना है कि स्री मृतक का अस्थिपाल "सछिद्रएवं पुरुष मृतक का "अछिद्र' होना चाहिए। इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि इन ग्रंथों में जहाँ पुरुष मृतक के सम्बन्ध में अस्थिसंचयन करने वाले व्यक्ति के विषय में स्पष्ट संकेत दिया गया है, वहाँ स्री मृतक के संदर्भ में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। संभव है यह कार्य मृतक कर्म करने वाले के द्वारा ( पुत्रादि के द्वारा ) ही किया जाता होगा। इस विषय में सभी गृह्यसूत्रकार मौन है।

ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में दाह संस्कार के उपरांत इस प्रकार संचित की गई अस्थियों का भू- निखातन इस तथ्य का संकेतन है कि गृह्यसूत्रकालीन समाज में शव विसर्जन की ॠग्वेद कालीन भू- निखातन की प्रथा तथा गृह्यसूत्र कालीन अग्निसात् करने की प्रथा के बीच एक समन्वय की स्थापना करके दोनों के बीच एक सामंजस्य स्थापित कर लिया था। किंतु पौराणिक काल में गंगा की पावनता तथा मोक्षदायिनी महिमा के प्रचार के फलस्वरुप निखातन की प्रथा की समाप्ति हो गयी तथा उसके स्थान पर गंगा के पवित्र जल में अथवा किसी अन्य पवित्र तीर्थस्थल में विसर्जन की प्रथा अस्तित्व में आ गयी और गंगा की अतिशय महिमा के कारण गंगा में अस्थिप्रवाह को अधिकतम महत्व दिया जाने लगा। फलतः उत्तरवर्ती कालों में अस्थिविसर्जन का यही एक मात्र रुप शेष रह गया।

उल्लेख्य है कि आधुनिक युग में हिंदू समाज में अस्थिसंचयन तथा विसर्जन के सम्बन्ध में कोई स्थानगत एवं परिस्थितिगत भेद पाये जाते हैं। तदनुसार सरितटवर्ती क्षेत्रों में अर्थात् गंगा, यमुना के तटवर्ती क्षेत्रों के अतिरिक्त भी , जहाँ पर दाहक्रिया नदी तटों पर की जाती है, वहाँ पर चिताग्नि के प्रशमन के उपरांत अवशिष्ट अस्थियों को चिता के अंगारों सहित नदी के जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। अतः ऐसी स्थिति में अस्थिसंचयन एवं विसर्जन का प्रश्न ही नहीं उठता है। इसी प्रकार देवभूमि के रुप में मान्यता प्राप्त कतिपय हिमालयी क्षेत्रों में वहाँ की भूमि की पावनता की धारणा के फलस्वरुप न तो पृथक् रुप से अस्थिसंचयन किया जाता है और न पवित्र नदी या तीर्थ स्थल में उनका विसर्जन ही। इनमें दाह के समय ही प्रयत्न किया जाता है कि सारी अस्थियाँ भली- भांति भस्मीभूत हो जायें।

उत्तर भारत के अन्य हिंदू प्रधान क्षेत्रों में जहाँ पर गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी या तीर्थस्थल में अस्थि- विसर्जन की प्रथा प्रचलित है, वहाँ पर अस्थि संचयन का कार्य दाह- संस्कार के बाद तीसरे या चौथे दिन किया जाता है। एतदर्थ मृत व्यक्ति के परिजन श्मशान भूमि में जाकर चितास्थल का दुग्ध मिश्रित जल से सिंचन कर अवशिष्ट चयित अस्थियों को दूध एवं गंगाजल से धोकर एक अस्थिकलश / अस्थिघट अथवा पीतवस्र निर्मित थैली में रखकर यथा सम्भव उसी समय गंगादि पवित्र नदियों में विसर्जनार्थ ले जाते हैं। किंतु तत्काल ले जाने की सुविधा न होने पर उन्हें वहीं पर अथवा घर के निकट किसी पवित्र वृक्ष ( वट, पीपल आदि ) की शाखा पर लटका दिया जाता है तथा अनुकूल समय में उन्हें किसी तीर्थस्थल, यथासम्भव किसी गंगातटस्थ तीर्थस्थल (हरिद्वार, प्रयाग आदि ) में ले जाकर कुश, यव, तिल, अक्षत, पुष्प आदि के साथ मंत्रोच्चारण पूर्वक मृत व्यक्ति की मुक्ति एवं तृप्ति की कामना के साथ उन्हें जलांजलि में लेकर एक- एक कर अथवा थोड़ा- थोड़ा कर उस पवित्र जल में विसर्जित कर दिया जाता है।

अस्थि विसर्जन के उपर्युक्त इतिहास से स्पष्ट होता है कि गंगादि पवित्र सरिताओं में विसर्जन की यह प्रथा भी हमारे पौराणिक युग की देन है, क्योंकि पुराण पूर्व साहित्य में इसका इस रुप में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।

एकादशाह :-

अंत्येष्टिकर्ता के द्वारा चौदह वेदियों पर संपादित किया जाने वाला एकादशाह अर्थात् ग्यारहवें दिन का आनुष्ठानिक कृत्य सबसे अधिक विस्तृत एवं जटिल होता है। इस दिन श्राद्ध कर्म के अतिरिक्त मृतक के निमित्त शय्या का दान तथा वृषोत्सर्ग भी किया जाता है। यहाँ पर हम श्राद्ध सम्बन्धी आनुष्ठानिक विवरणों में न जाकर केवल वृषोत्सर्ग के ऐतिहासिक एवं आनुष्ठानिक पक्ष पर ही विचार करना चाहेंगे। श्राद्ध सम्बन्धी आनुष्ठानिक विवरणों को अंत्येष्टि सम्बन्धी संस्कार पद्धतियों में देख लेना चाहिए।

वृषोत्सर्ग :-

यह हिंदुओं के मृतकानुष्ठान का एक महत्वपूर्ण अंग है। वृषभोत्सर्ग का अर्थ है मृतक के नाम पर एक वृषभ ( सांड ) का छोड़ा जाना, जिसका विधान अनेक गृह्यसूत्रों, गरुड़ पुराण एवं धर्मसूत्रों में पाया जाता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसका विधान हमें गृह्यसूत्रकाल से मिलने लगता है। पार.गृ.सू. के अनुसार मृतक के नाम पर किया जाने वाला यह अनुष्ठान मृत्यु के बाद आने वाली प्रथम कार्तिकी पौर्णमासी के दिन अथवा आश्विन मास में रेवती नक्षत्र वाले दिन किया जाता था। विष्णु. ध. सू. (
86.1- 20 ) भी इसी का अनुमोदन करता है।

एतंदर्थ सर्वप्रथम गोष्ठ में पंचभू- संस्कार पूर्वक अग्नि की स्थापना करके उसमें यजुर्वेद के
6 मंत्रों ( 8.51 इह रति. इत्यादि ) से हवन किया जाता था पूषन् देवता के निमित्त चरु की आहुति दी जाती थी। तदनंतर गायों के झुण्ड में से एक ऐसे वृषभ का चयन किया जाता था, जो केवल लाल रंग का हो या किसी एक या दो रंगों वाला हो, जो उस झुण्ड में सबसे बड़ा, सुंदर, बलिष्ट एवं सर्वांग परिपूर्ण हो अर्थात् अंग न्यूनाधिक न हो, जो जीवितवत्सा गौ का बछड़ा हो, जिसका मुंह, पूँछ और पैर श्वेत वर्ण के हो। तदनंतर उसे नहलाकर एवं वस्र, माला से अलंकृत कर उसके गले में घुंघरु लटकाकर उसके एक पुटठे पर चक्र से तथा दूसरे पर त्रिशूल से दाग कर और साथ में चार स्वस्थ युवा बछियाओं को भी सजाकर उन सबको ले जाकर जंगल में उत्तर की ओर छोड़ दिया जाता था। उन्हें छोड़ते समय "एनं युवानं.' मंत्र का उच्चारण किया जाता था, जिसका अर्थ था - हे गायों ! मैं इस युवा वृषभ को तुम्हें पति के रुप में देता हूँ। इस प्रेमी के साथ आनंद पूर्वक विचरण करो। हे सोमराजन् ! हमें संतति का अभाव न हो और शारीरिक सामर्थ्य में कमी हो और न शत्रु से पराजित हों। इस अवसर पर पुरोहित को सुवर्ण एवं कांस्यपात्र के साथ- साथ वस्रों का एक जोड़ा दान में देना चाहिए तथा तीन ब्राह्मणों को घृतप पकवान का भोजन कराना चाहिए।

किंतु गरुड़ पुराण (
2,5.40 एवं 44- 45 ) तथा उत्तरकालीन पद्धतियों ( वृषोत्सर्गपद्धति आदि ) के अनुसार इस अनुष्ठाना को "एकादशाह' श्राद्ध के अंत में ग्यारहवें दिन ही किया जाना चाहिए। कहीं यह अंत्येष्टि के अंतिम दिन अर्थात् द्वादशाह के दिन ही किया जाना चाहिए। वृषोत्सर्ग सम्बन्धी पद्धतियों के अनुसार इस समय उस सांड के साथ एक गाय को भी चुनकर उन दोनों को अलंकृत किया जाना चाहिए। उस समय संस्कार कर्ता बैल के कान में कहता है,""भगवान् धर्म को स्वयं चतुष्पाद वृष के रुप में माना जाता है। मैं भक्ति पूर्वक ( पूजार्थ ) उनका वरण करता हूँ। वे सदा मेरी रक्षा करें। इसके बाद उन दोनों के ऊपर अंचल के रुप में एक कपड़ा डालकर उनका प्रतीकात्मक विवाह करते हुए कहा जाता है - ""हे गौ ! यह सर्वश्रेष्ठ पति मेरे द्वारा तुम्हें दिया गया है। हे वृषभ पत्नियों में सर्वाधिक आकर्षक यह युवती गौर मेरे द्वारा तुम्हें पत्नी के रुप में दी जा रही है।'' इसके अनंतर एक त्रिशूल या लोहे के टुकड़े से उन्हें बायें पैर की पिंडली पर दाग कर उन्मुक्त विचरण के लिए दक्षिण दिशा में छोड़ दिया जाता है।

इसके ऐतिहासिक विकास क्रम को देखने पर सहज ही पाया जा सकता है कि पौराणिक काल में गृह्यसूत्रों में विहित चार गायों के स्थान पर एक गाय का विधान किया जाने लगा था, किंतु उत्तरकालीन पद्धतियों में केवल वृष का विधान ही अवशिष्ट रह गया था। आधुनिक काल में तो अब यह अनुष्ठान केवल अति समृद्ध लोगों तक ही परिसीमित रह गया है। इसके व्यय साधन होने के कारण अब सर्वसामान्य व्यक्ति वैकल्पिक रुप में पुराण विहित दर्भ, मृत्तिका अथवा चूर्ण ( आटा ) का वृषभ बनाकर तथा वृषभ के निष्क्रय के रुप में पुरोहित को दक्षिणा देकर "वृषभोत्सर्ग' की इस औपचारिकता को पूरा कर लेता है। कतिपय मध्यकालीन निबंधों- रुद्रधरकृत श्राद्धविवेक, निर्णयसिंधु, शुद्धिप्रकाश, अंत्येष्टि पद्धति आदि में इसका विस्तृत विवेचन पाया जाता है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि स्री मृतक की स्थिति में "वृषोत्सर्ग' अनुष्ठान में वृषभ नहीं, अपितु एक अचिंहित सवत्सा गौ को अलंकृत करके पुरोहित को दान कर दिया जाता है।

पिण्डदान :-

हिंदू समाज में किसी मृत व्यक्ति के निमित्त किये जाने वाले और्ध्वदेहिक कृत्यों में "पिण्डदान' का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। "पिण्ड' शब्द का अभिधेयार्थ होता है "किसी वस्तु का संघातित या गोलाकृतिक रुप', किंतु प्रतीकात्मक रुप में शरीर को भी पिण्ड कहा जाने के कारण इसका लक्ष्यार्थ होता है "मानवशरीर'। मृतक कर्म के संदर्भ में इसके ये दोनों ही अर्थ संगत होते हैं, अर्थात् इसमें मृतक के निमित्त अर्पित किये जाने वाले पदार्थ अर्थात् जौ या चावल के आटे को गूँथ कर अथवा पके हुए चावलों ( भात ) को मसल कर तैयार किया गया गोलाकृतिक "पिण्ड' तथा "दान' का अर्थ है मृतक के पाथेयार्थ एवं लोकांतर में मृतक के भस्मीभूत शरीरांगों का पुनर्निमाण।

मृतक संस्कारों से सम्बन्ध पद्धतियों में कहा गया है कि मृतात्मा के परलोक गमन के पाथेय के लिए शवयात्रा के प्रारम्भ से लेकर उसके चिताधिरोहण तक पाँच पिण्डदान किये जाने चाहिए। तदनुसार शवयात्रा की तैयारी कर लिए जाने पर प्रमुख संस्कारकर्ता अपनी मध्यमा अंगुली में कुशा की "पवित्री' धारण कर यव, जल, पुष्प आदि के साथ संकल्पपूर्वक जौ / चावल के आटे के पाँच पिण्ड तैयार करता है, जिन्हें उनके पृथक्- पृथक् नामों से निम्नलिखित रुपों में मृतक को अर्पित किया जाता है। इन में से प्रथम पिण्ड को, जिसे "भृतिस्थान' पिण्ड कहा जाता है, शव की अर्थी पर रखने से पूर्व उसकी मृत्यु के स्थान पर उसके पेड़ू ( कटि प्रदेश ) में रखा जाता है। द्वितीय पिण्ड, जिसे "पाथनिमित्तक' कहा जाता है, शव की अर्थी पर रखने के उपरांत उसके उदरस्थल पर रखा जाता है। तृतीय पिण्ड, जिसे "खेचर निमित्तक' कहा जाता है। इसी प्रकार "भूत निमित्तक' अथवा विश्रान्ति निमित्तक पिण्ड को श्मशान भूमि में शव में शव को भूमिस्थ करने के उपरांत उसके वक्षस्थल पर रखा जाता है और पाँचवें ( अंतिम ) "वायुनिमित्तक' नामक पिण्ड को शव के चितारोहण के उपरांत उसके सिर के नीचे रखा जाता है। किन्ही पद्धतियों में इनके अतिरिक्त अस्थिसंचयन के समय छठे पिण्डदान का भी विधान पाया जाता है। वाराणसी संप्रदाय के अनुसार शवदाह के समय
4.5 अथवा 6 पिंडों का तथा मिथिला संप्रदाय के अनुसार केवल एक पिण्ड दिये जाने का भी विधान पाया जाता है। अंत्येष्टिपरक और्ध्वदेहिक कृत्यों से संबद्ध पद्धतियों में प्रथम दिन से लेकर बारहवें दिन तक पिण्डदान का विधान करते हुए कहा गया है कि विभिन्न दिनों में प्रदत्त इन पिण्डों से प्रेतात्मा की भूख- प्यास की तृप्ति के अतिरिक्त उसके शरीर के विभिन्न अंगों का पुननिर्माण होता है। यथा प्रथम दिन के पिण्ड से रक्तनलिकाओं का, द्वितीय दिन के पिण्ड से उसके श्रवण, नेत्र और प्राण का, तृतीय दिन के पिण्ड से ग्रीवा, कण्ठ, कंधे, बाहु और वक्षस्थल का, निर्माण होता है। इसी प्रकार नौ दिनों तक दिये गये पिण्डों से उसके शरीर के संपूर्ण अवयवों का निर्माण पूरा हो जाता है। इसके बाद दसवें दिन दिए जाने वाले पिण्ड से प्रेतात्मा की प्रेत दशा से मुक्ति हो जाती है। इस दिन मृतक के अतिरिक्त यम के लिए भी पिण्ड दिया जाता है। ग्यारहवें दिन पिण्डदान के अतिरिक्त उसके निर्मित्त "वृषोत्सर्ग' भी किया जाता है। (शर्मा, डी० डी० हिन्दू संस्कारों का - ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समीक्षण)

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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