रुहेलखण्ड

Rohilkhand


हस्तकलाएं

रचनात्मकता मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति और क्षमता के बल पर मनुष्य ने अनेक कलाओं को जन्म दिया। इनमें से प्रत्येक कला की अपनी पृथक मौलिक विशेषताएं थीं। रुहेलखण्ड क्षेत्र प्रारम्भ से ही विविध हस्तकलाओं की भूमि रहा है। इस तथ्य की पुष्टि अहिच्छत्र इत्यादि पुरास्थलों के उत्खनन में प्राप्त विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों से होती है। यहाँ की कलाओं में कुछ अपने परम्परागत रुप में विद्यमान हैं। ऐसी कलाओं के केन्द्र रुहेलखण्ड के गाँव हैं। दूसरी ओर कुछ कलाओं ने समय के साथ-साथ बढ़ती हुई माँग के अनुसार वृहद् और व्यावसायिक रुप ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार की कलाओं के केन्द्र प्रायः रुहेलखण्ड क्षेत्र के नगर हैं। हालांकि परम्परागत ग्रामीण हस्तकलाएं भी व्यावसायिक रुप ग्रहण कर रही हैं, लेकिन उनका व्यावसायिक स्वरुप आस-पास के ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित है।

इस तरह रुहेलखण्ड की हस्तकलाओं को निम्नलिखित वर्गीकरण के अन्तर्गत समझा जा सकता है-

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1 ) परम्परागत ग्रामीण हस्तकलाएं
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2 ) व्यावसायिक रुप ग्रहण कर चुकी हस्तकलाएं

(1 ) परम्परागत ग्रामीण हस्तकलाएं

रुहेलखण्ड क्षेत्र के गाँवों में विभिन्न प्रकार की हस्तकलाओं के दर्शन होते हैं, जिनमें गाँव के स्री, पुरुष तथा बच्चे अत्यन्त निपुण हैं। इन कलाओं में अग्रलिखित प्रमुख हैं-

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i ) डलिया निर्माण
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ii ) चटौना निर्माण
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iii ) हाथ के पंखे
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iv ) सूप
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v ) मिट्टी के बर्तन

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i ) डलिया निर्माणः

रुहेलखण्ड क्षेत्र के गाँवों में डलिया निर्माण एक प्रमुख हस्तकला है। यह डलिया विभिन्न रंगों और डिजायनों में बनाई जाती हैं। ग्रामीण परिवार की महिलाएं इन डलियों को बनाने में अत्यन्त निपुण होती हैं। इन डलियों का निर्माण भरा नामक जंगली घास से निकली एक विशिष्ट प्रकार की छाल (बरुआ) से किया जाता है। यह जंगली घास यहाँ के गाँवों में आसानी से उपलब्ध है। सर्वप्रथम बरुआ की छाल की गोलाकार (रस्सी की आकृति के समतुल्य) बत्तियाँ बनाई जाती हैं। अब इन बत्तियों पर विभिन्न प्रकार के रंग लगाए जाते हैं। ये रंग विशिष्ट प्रकार के होते हैं तथा इनको गर्म पानी में घोलकर तैयार किया जाता है, ताकि यह पक्के बने रहें।

रंग सूख जाने के उपरान्त विभिन्न रंगों की बत्तियों को एक-दूसरे के ऊपर गोलाकृति में व्यवस्थित करके डलिया का आकार दिया जाता है। डलिया निर्मित हो जाने के उपरान्त कई बार डलिया के किनारों पर रंगे-बिरंगे कपड़ों की झल्लरें लगाई जाती हैं। प्रायः इन झल्लरों पर काँच के छोटे-छोटे टुकड़ों से भी सजावट की जाती है। इस प्रकार निर्मित डलिया देखने में अत्यन्त मोहक प्रतीत होती हैं। यह डलिया वजन में हल्की तथा बहु उपयोगी होती है।

(ii ) चटौना निर्माणः

पूजा तथा भोजन के दौरान बैठने के लिए आसन के रुप में प्रयुक्त चटौना रुहेलखण्ड की ग्रामीण कला का एक मुख्य अंग है। ग्रामीण परिवार की लड़कियाँ तथा महिलाएं चटौना बनाने में विशेष रुप से दक्ष होती हैं। इनको बनाने में भी भरा नामक जंगली घास से प्राप्त बरुआ की छाल प्रयुक्त होती है। डलिया निर्माण की भाँति चटौने को बनाने में भी सर्वप्रथम बरुआ की छाल की गोलाकार लम्बी बत्ती बनाई जाती हैं। अब इन बत्तियों पर गर्म पानी में पृथक-पृथक घोलकर तैयार किए गए विभिन्न रंग लगाए जाते हैं। रंग सूख जाने के उपरान्त उस बत्तियों को चक्राकार घुमाते हुए

तथा बत्ती की परतों को आपस में संयुक्त करते हुए चटौने को अन्तिम रुप दिया जाता है। चटौने को आवश्यकता के अनुरुप किसी भी आकार में बनाया जा सकता है। ये चटौना अत्यन्त हल्का तथा आरामदायक होता है। इसकी खूबसूरती के कारण लोग इसे अपने घरों में सजावट के लिए भी प्रयुक्त करते हैं।

(iii ) हाथ के पंखे:

रुहेलखण्ड क्षेत्र के ग्रामीण लोग हाथ के पंखे बनाने में विशेष रुप से दक्ष होते हैं। यह पंखे भी भरा से प्राप्त बरुआ की छाल से निर्मित होते हैं। सर्वप्रथम बरुआ की छाल के बारीक (लगभग
1/2 से.मी. चौड़े) तथा लम्बे टुकड़े काट लिए जाते हैं। अब इन टुकड़ों पर पृथक-पृथक विभिन्न रंग लगाए जाते हैं। इसके उपरान्त रंग-बिरंगे टुकड़ों को एक दूसरे में पिरोते हुए डिजायन-युक्त पंखा बुना जाता है। पंखे को मजबूती प्रदान करने के लिए इसके सिरों पर रंगीन कपड़ों की झल्लरें लगाई जाती हैं। यह झल्लरें पंखों को अनोखी सुन्दरता प्रदान करती हैं। तदुपरान्त पंखे के एक ओर लकड़ी का हत्था लगाकर इसे अन्तिम रुप दिया जाता है। यह पंखा झलने पर पर्याप्त हवा तो देता है साथ ही इसकी सुन्दरता भी देखते बनती है।

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iv ) सूप :

गेहूँ, दालें तथा अन्य अनाजों के साफ करने हेतु रुहेलखण्ड के ग्रामों में एक विशिष्ट प्रकार के हस्तनिर्मित सूप का प्रयोग किया जाता है। ये सूप प्रायः ग्रामीण परिवार के लोग नहीं बनाते हैं। इनकों बनाने वाले कारीगरों के पृथक समूह हैं। बदायूँ तथा बरेली जिले के गाँवों में ऐसे कारीगरों के अनेक समूह हैं। बदायूँ जिले के कुछ कारीगरों से सूप निर्माण की प्रक्रिया की जानकारी मिली। सूप का निर्माण सरकरा नामे पौधे की झाड़ियों से प्राप्त सिरकी से किया जाता है। इसके अतिरिक्त बाँस की खपच्ची, चमड़े का धागा तथा प्लास्टिक का तार इत्यादि सूप-निर्माण में प्रयुक्त अन्य वस्तुएं हैं। सर्वप्रथम सिरकियों को चमड़े के धागे, बाँस की खपच्ची तथा प्लास्टिक के तार की सहायता से आपस में सम्बद्ध किया जाता है। इसके उपरान्त बाँस की खपच्चियों की मदद से सूप के किनारों को मजबूती प्रदान की जाती है। बाँस की खपच्चियों की सहायता से सूप में हल्का सा घुमाव भी पैदा किया जाता है, ताकि अनाज साफ करने (या अनाज को फटकने) में आसानी रहे। इस सूप में पीछे की ओर लगभग चार इंच चौड़ी किनारी लगाई जाती है। यह किनारी सूप को पकड़ने तथा इसको दीवार पर टांगने में मदद देती है। इस प्रकार निर्मित सूप गाँवों के साथ-साथ शहरों में भी प्रयुक्त होते देखे जा सकते हैं। सूप निर्माण में प्रायः एक परिवार के समस्त सदस्य संलग्न होते हैं।

(v ) मिट्टी के बर्तनः

मिट्टी द्वारा बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाने की विधा अत्यन्त प्राचीन है। यह विधा देश के लगभग प्रत्येक हिस्से में किसी न किसी रुप में देखी जा सकती है। रुहेलखण्ड क्षेत्र के नगरों तथा गाँवों, दोनों में इस कला के दर्शन होते हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने का सम्पूर्ण कार्य गोल चाक पर किया जाता है, जिसको हाथ की सहायता से गति प्रदान की जाती है। कच्चे माल के रुप में प्रयुक्त मिट्टी तालाब के किनारों पर स्थित दलदली भूमि से प्राप्त की जाती है। कुम्हार चाक की सहायता से गुँथी हुई गीली मिट्टी से विभिन्न आकृतियों में पात्र बनाते हैं। सूख जाने के उपरान्त इन पात्रों को भट्टी में उच्च ताप पर पकाया जाता है। 

तदुपरान्त इन पर रंग की सहायता से चित्रकारी करके बाजारों में बिक्री हेतु भेज दिया जाता है। रुहेलखण्ड क्षेत्र में निर्मित मिट्टी के बर्तनों में मटके तथा घड़े प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त मिट्टी की अन्य वस्तुओं में गमले, कूंडे, चिलम, हुक्के तथा भोजन रखने के पात्र भी उल्लेखनीय हैं। रुहेलखण्ड क्षेत्र में निर्मित मिट्टी के बर्तनों इत्यादि के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि देश के अन्य हिस्सों में यह कला भले ही शनै: शनै: विलुप्त हो रही हो, लेकिन रुहेलखण्ड क्षेत्र में यह कला आज भी यथावत है। यह अलग बात है कि समय के साथ-साथ मिट्टी से निर्मित बर्तनों तथा अन्य वस्तुओं की कीमत में तीव्र वृद्धि हुई हो।

(2 ) - व्यावसायिक रुप ग्रहण कर चुकी हस्तकलाएं:

रुहेलखण्ड क्षेत्र में ऐसी अनेक हस्तकलाएं देखी जा सकती हैं, जो अपने प्रारम्भिक दौर में अत्यन्त संकुचित दायरे के भीतर थीं, किन्तु समय के अनुरुप उनकी मांग बढ़ती चली गई और उन्होंने व्यावसायिक रुप ग्रहण कर लिया। लेकिन व्यावसायिक रुप ग्रहण करने के उपरान्त भी इन कलाओं की अपनी एक मौलिक और क्षेत्रीय पहचान है। किसी भी अन्य क्षेत्र की कला से इनकी तुलना नहीं की जा सकती। इस प्रकार की कलाओं में अग्र उल्लिखित प्रमुख हैं-

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i ) लकड़ी का फर्नीचर (बरेली)
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ii ) बेंत की वस्तुएं (बरेली)
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iii ) पीतल की वस्तुएं (मुरादाबाद)
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iv ) चाकू (रामपुर)
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v ) पतंग एवं मांझा (बरेली)
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vi ) टोपियाँ (रामपुर)
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vii ) बाँसुरी निर्माण (पीलीभीत)
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viii ) लकड़ी से निर्मित बच्चों की गाड़ियाँ (बजीरगंज)
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ix ) हुक्का (भोजपुर पीपल साना, जिला - मुरादाबाद)
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x ) जरी का काम (बरेली)
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xi ) लकड़ी की वस्तुएं (अमरोहा, जिला - मुरादाबाद)
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xii ) सींग की वस्तुएं (सम्भल, जिला - मुरादाबाद)
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xiii ) हड्डी की वस्तुएं (सम्भल, जिला - मुरादाबाद)

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i ) लकड़ी का फर्नीचर (बरेली) :

जब से मनुष्य प्रकृति की गोद में आया, तभी से उसे किसी न किसी रुप में प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य धरोहर-लकड़ी का सहारा लेना पड़ा है, चाहे उसने लकड़ी को घर में प्रयुक्त किया हो या फिर आत्मरक्षा का साधन बनाया हो। प्रारम्भ में इस परम्परा को रुहेलखण्ड क्षेत्र के निवासियों ने अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपनाया। शनै: शनै: लोगों ने लकड़ी का सहारा अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए लिया। परन्तु दैनिक आवश्यकताओं की अवहेलना भी नहीं की जा सकती थी, अतः यहाँ के लोगों ने लकड़ी की मदद से ऐसी कलात्मक वस्तुएं बनानी प्रारम्भ कीं, जो उपयोगी भी थीं। ऐसी वस्तुओं में फर्नीचर का स्थान सर्वोपरि था। लकड़ी के फर्नीचर की कला ने बरेली में अपने पूर्ण यौवन को प्राप्त कर, सम्पूर्ण भारत में ख्याति प्राप्त की है।

बरेली शहर शीशम, साल, सागौन इत्यादि की लकड़ी से निर्मित फर्नीचर के कारण देश में एक विशिष्ट स्थान रखता है। देश का संभवतः कोई ही ऐसा भाग हो, जो बरेली में निर्मित फर्नीचर से परिचित न हो। बरेली महानगर के सिकलापुर, पुरानाशहर तथा आलमनगर इलाकों के हजारों कारीगर फर्नीचर निर्माण की कला से जुड़े हुए हैं। दस-बारह वर्ष की आयु के बालकों से लेकर वृद्ध वर्ग तक के लोग इस व्यवसाय में देखे जा सकते हैं। इतना अवश्य है कि उम्र की विभिन्न अवस्थाओं को पार करने के साथ-साथ कारीगरों की कुशलता में निरन्तर निखार आता जाता है। बरेली मे निर्मित फर्नीचर अपनी मजबूती के कारण सम्पूर्ण देश में प्रसिद्ध है। मजबूती के अतिरिक्त बरेली के फर्नीचर की प्रमुख कलात्मक विशेषता है - नक्काशी/फर्नीचर की यह विशेषता अन्यत्र शायद ही देखने को मिले।

कुशल कारीगर सबसे पहले लकड़ी के टुकड़ों पर पेन्सिल या स्टैन्सिल की सहायता से डिजायन अंकित करते हैं। फिर अंकित डिजायन पर छेनी और हथौड़ी की सहायता से नक्काशी करते हैं। नक्काशी का विषय सुन्दर बेल-बूटे, पशु-पक्षी, मानवाकृतियाँ इत्यादि हैं। यहाँ के फर्नीचर की एक अन्य विशेषता हैं- जालीदार पारदर्शी नक्काशी। इस नक्काशी के प्रथम चरण में भी लकड़ी के टुकड़े पर स्टैन्सिल या पेंसिल की सहायता से आकृति अंकित की जाती है। तदुपरान्त एक विशेष प्रकार की मेजनुमा मशीन (जिसमें तीव्र धार युक्त ब्लेड लगा होता है ) की सहायता से आकृति पर पारदर्शी नक्काशी की जाती है। इस तरह की नक्काशी से युक्त फर्नीचर की छटा देखते ही बनती है।

नक्काशी के उपरान्त फर्नीचर पर विशेष रुप से तैयार की गई वार्निश से पॉलिश की जाती है। बरेली में बनाए जाने वाले फर्नीचर के अन्तर्गत सोफा, मेज, कुर्सी, अल्मारियाँ, श्रृंगार मेज, पलंग इत्यादि का प्रमुख स्थान है। कच्चे सामान के रुप में प्रयुक्त होने वाले लकड़ी की आपूर्ति निकटस्थ पहाड़ी क्षेत्रों से होती है। बरेली में निर्मित फर्नीचर की मांग निरन्तर बढ़ती जा रही है। यहाँ का फर्नीचर देश के लगभग हर हिस्से में भेजा जाता है।

(ii ) बेंत की वस्तुएं (बरेली) :

बरेली में निर्मित बेंत की लकड़ी का सामान अपनी उपयोगिता और सुन्दरता के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। बेंत की वस्तुओं के निर्माण में नगर के सैकड़ों कारीगर संलग्न है। इस कला के केन्द्र नगर में स्थित पुराना शहर एवं आजमनगर क्षेत्र हैं। बेंत की वस्तुएं बनाने का अपना विशिष्ट तरीका है। सर्वप्रथम बेंत को छीलकर साफ किया जाता है। इसके उपरान्त बेंत को (यदि बेंत की मोटाई अधिक है) आँच पर गर्म करके विभिन्न आकारों में मोड़ा जाता है। कम मोटाई का बेंत बिना आँच की सहायता से मोड़ा जा सकता है। इसके उपरान्त बेंत के विभिन्न टुकड़ों को कोई विशेष आकृति प्रदान करते हुए कीलों की मदद से आपस में संयुक्त किया जाता है। अमुक वस्तु को अधिक मजबूती प्रदान करने हेतु जोड़ों पर बेंत के तारों से कलात्मक बुनाई की जाती है।

तदुपरान्त चमकीली पॉलिश करके निर्मित वस्तु को अन्तिम रुप दिया जाता है। बरेली में निर्मित बेंत की वस्तुओं में कुर्सियाँ, मेज, सोफा, रैक, गमला-स्टैण्ड, विविध प्रकार के शो पीस इत्यादि का प्रमुख स्थान है। यह बेंत की वस्तुएं वजन में हल्की, मजबूत तथा अत्यन्त सुन्दर होती हैं। बरेली नगर में बेंत की वस्तुओं की बिक्री के लिये शहर के मध्य एक बाजार भी स्थित है। बरेली के अतिरिक्त बेंत की वस्तुओं का व्यवसाय धीरे-धीरे समीपस्थ स्थानों पर भी विकसित हो रहा है। बरेली में निर्मित बेंत का सामान विभिन्न राज्यों में भेजा जाता है। कच्चे माल के रुप में प्रयुक्त होने वाले बेंत की आपूर्ति मुख्यतः आसाम राज्य से होती है।

(iii ) पीतल की वस्तुएं (मुरादाबाद) :

जब से विभिन्न धातुएं मनुष्य के सम्पर्क में आई, तब से उसने निरन्तर इनका प्रयोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और सौन्दर्याभिव्यक्ति हेतु किया है। रुहेलखण्ड क्षेत्र आरम्भ से ही धातु कला में अग्रणी रहा है। इस तथ्य की पुष्टि अहिच्छत्र इत्यादि पुरास्थलों से प्राप्त विविध प्रकार की धातु निर्मित कलाकृतियों से होती है। वर्तमान में भी रुहेलखण्ड क्षेत्र अपनी इस प्राचीन परम्परा से विलग प्रतीत नहीं होता। इस क्षेत्र में स्थित मुरादाबाद नगर पीतल द्वारा निर्मित वस्तुओं के निर्माण के कारण देश-विदेश में एक विशिष्ट कलात्मक पहचान बनाए हुए है। यहाँ निर्मित पीतल के बर्तन, शो-पीस तथा अन्य बहुउपयोगी वस्तुएं न केवल देश में, वरन् दूसरे देशों (अमेरिका, फ्रांस आदि) में भी निर्यात की जाती हैं। यहाँ निर्मित पीतल की वस्तुएं कितनी लोकप्रिय हैं, इस बात का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि मुरादाबाद को "पीतलनगरी" के नाम से भी जाना जाता है। मुरादाबाद में पीतल की वस्तुओं के छोटे-बड़े सैकड़ों कारखाने हैं।

पीतल की वस्तुएं बनाने की विधि :

पीतल द्वारा वस्तुएं बनाने के लिए सर्वप्रथम पीतल अलॉय (
Alloy) प्राप्त किया जाता है जो 67% पीतल तथा 33% जस्ता के मिश्रण से तैयार होता है। पीतल अलॉय की सहायता से विभिन्न वस्तुएं बनाई जाती हैं। इन वस्तुओं तथा कलाकृतियों का वर्गीकरण निम्नलिखित दो भागों में किया जा सकता है-

(अ) ठोस पीतल की सहायता से निर्मित वस्तुएं।
(व) पीतल की चादर द्वारा निर्मित वस्तुएं।

(अ) ठोस पीतल द्वारा नाना प्रकार की कलाकृतियों तथा वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। सर्वप्रथम जिस वस्तु का निर्माण करना है, उसका साँचा (
Pattern ) तैयार किया जाता है, जो कि लैड धातु से बनाया जाता है। अब इस साँचे की छाप गीले रेते तथा मिट्टी के गुंथे हुए मिश्रण की सतह पर ले ली जाती है। इसके उपरान्त उच्च ताप पर पिघली हुई धातु को छाप में डाला जाता है। कुछ समय उपरान्त पिघली हुई धातु जमकर साँचे का रुप ग्रहण कर लेती है। अब साँचे का रुप ग्रहण कर चुकी धातु को मिट्टी और रेते के मिश्रण से पृथक करके साफ कर लिया जाता है। अगले चरण में अमुक वस्तु को घिसकर साफ किया जाता है। इसके बाद एक विशिष्ट प्रकार की मशीन की सहायता से पॉलिश करके वस्तु को अन्तिम रुप दिया जाता है।

(व) पीतल की चादर द्वारा भी अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएं बनाई जाती है। सबसे पहले पीतल को पिघलाकर बड़ी-बड़ी चादरों के रुप में ढाला जाता है। इसके पश्चात् इस चादर में से आवश्यकता के अनुरुप छोटे-बड़े टुकड़े काट लिए जाते हैं। इन टुकडों को डाई की सहायता से विभिन्न रुपों और आकृतियों में मोड़ा जाता है। इसके बाद इन आकृतियों पर छैनी की सहायता से नक्काशी की जाती है, जो अमुक आकृति की सुन्दरता में दोगुना निखार लाती है। अन्ततः चादर की सहायता से निर्मित वस्तुओं पर पॉलिश करके निखारा जाता है। पीतल की चादर द्वारा निर्मित वस्तुएं वजन में हल्की तथा अत्यन्त आकर्षक होती है।

(iv ) चाकू (रामपुर) :

धातुओं के अस्तित्व में आने के उपरान्त, मनुष्य ने इनका प्रयोग विविध प्रकार के उपकरण बनाने में किया, जो दैनिक जीवन में अत्यावश्यक थे। इन उपकरणों में चाकू भी एक था। चाकू को जहाँ एक ओर रक्षात्मक उद्देश्य से प्रयोग में लाया गया, वही अन्य अनेक आवश्यकताओं हेतु भी इसका प्रयोग किया गया। रुहेलखण्ड क्षेत्र में स्थित रामपुर नगर चाकू निर्माण के क्षेत्र में अग्रणी है। यहाँ निर्मित चाकू पैनी धार, कलात्मक बनावट तथा मजबूती के लिए सम्पूर्ण देश में प्रसिद्ध हैं। रामपुर में चाकू निर्माण में लगभग 8000 व्यक्ति संलग्न हैं।

चाकू बनाने की विधि :

चाकू बनाने में आवश्यक वस्तुओं के रुप में पीतल, एल्युमिनियम, लोहा, सींग तथा विविध रंगों का प्रयोग किया जाता है।

चाकू दो हिस्सों में विभक्त होता है-

(अ) धारदार मुख्य भाग
(व) चाकू का मूठ

चाकू का धारदार मुख्य भाग लोहे की सहायता से बनाया जाता है। इसको बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले लोहे को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है। अब इस लोहे को भारयुक्त हथौड़े की सहायता से पीटकर चाकू का आकार दिया जाता है। अन्त में एक गोलाकार मशीन की सहायता से चाकू पर धार लगाई जाती है।

चाकू का मूठ प्रायः पीतल की सहायता से बनाया जाता है। पीतल को गर्म करके मूठ की आकृति वाले साँचे में ढाल लिया जाता है। इसके पश्चात् मूठ को पुनः गर्म किया जाता है और फिर फरमे की सहायता से मूठ पर नक्काशी की जाती है। इस नक्काशी पर तरह-तरह के रंग लगाकर मूठ को खूबसूरती प्रदान की जाती है।

चाकू बनाने की अंतिम प्रक्रिया है, धारदार भाग और मूठ को संयुक्त करना। इन दोनों हिस्सों में पहले एक बारीक सूराख किया जाता है। तदुपरान्त दोनों हिस्सों को एक दूसरे के साथ इस प्रकार संयुक्त किया जाता है कि दोनों हिस्सों के छिद्र एक दूसरे के ऊपर आ जाए। अब इन छिद्रों में धातु निर्मित कील को डालकर दोनों सिरों की ओर से ठोंक दिया जाता है। रामपुर में निर्मित चाकू विभिन्न आकृतियों और आकारों में उपलब्ध हैं।

(v ) पतंग एवं मांझा (बरेली) :

जब मनुष्य का मन अत्यधिक प्रफुल्लित होता है, तब वह अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए नाना प्रकार के उद्यम करता है। इसी प्रकार का एक उद्यम है - पतंग-बाजी। भारतवर्ष में पतंगबाजी का शौक लोगों में किस सीमा तक है, इसका अनुमान इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि यहाँ विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न अवसरों पर पतंगबाजी की बड़ी-बड़ी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। पतंगबाजी में पतंग के साथ-साथ मजबूत मांझे का प्रयोग भी किया जाता है। हुई। यद्यपि देश के कई हिस्सों में पतंग एवं मांझे का निर्माण किया जाता है,

लेकिन बरेली में निर्मित पतंग एवं मांझा अपनी गुणवत्ता तथा बनावट के कारण पूरे देश में लोकप्रिय है। रुहेलखण्ड में पतंग एवं मांझा बनाने की कला को मात्र व्यवसाय के ही रुप में नहीं अपनाया गया, वरन् इसके द्वारा लोकभावनाओं को भी जागृत करने का प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरुप यह कला इस क्षेत्र में एक लोककला के रुप में विकसित हुई।

पतंग बनाने की पद्धति

पतंग बनाने में प्रयुक्त आवश्यक सामग्री में रंगीन पतंगी कागज, बाँस की खपच्ची, धागा तथा मोम सम्मिलित हैं। पतंग बनाने के लिए सबसे पहले रंगीन पतंगी कागज के छोटे-बड़े आकार में चौकोर टुकड़े काट लिए जाते हैं। अब इन कागज के टुकड़ों पर मोम की सहायता से घुटाई की जाती है, ताकि कागज में मजबूती आ जाए। इसके उपरान्त बाँस की दो बारीक खपच्चियों की सहायता से पतंग में खिंचाव पैदा किया जाता है। इन खपच्चियों को लेई की सहायता से कागज पर इस तरह चिपकाया जाता है कि यह दोनों एक दूसरे को क्रास करें। अब पतंग के चारों किनारों पर बारीक धागा खींचकर बाँधा जाता है और फिर चारों किनारों के कागज को लेई की मदद से पलटकर इस प्रकार चिपका दिया जाता है कि धागा इसके भीतर आ जाए। इससे पतंग के किनारे मजबूत हो जाते हैं। अन्त में पतंग के नीचे वाले कोने पर त्रिभुजाकार पूँछ लगाई जाती है, जो कि पतंग को नियन्त्रित करने के साथ-साथ उसे सुन्दरता भी प्रदान करती है। इस प्रकार पतंग निर्माण पूर्णता को प्राप्त होता है। पतंगें एकरंगीय तथा बहुरंगीय, दोनों ही प्रकार की बनाई जाती हैं। जहाँ तक पतंगों की आकृति का प्रश्न है, बरेली में चौकोर पतंगों के अतिरिक्त मानवाकृति, पशु-आकृति, तारा आकृति आदि में भी पतंगे बनाई जाती हैं। बरेली की पतंगों की एक अन्य विशेषता यह है कि यहाँ की पतंगे अत्यन्त हल्की एवं संतुलित होती हैं।

मांझा बनाने की विधि :

माँझा बनाने के लिए बारीक सूती धागा, सीसा, विभिन्न रंग तथा विशेष प्रकार का चिपचिपा पदार्थ आदि कच्ची सामग्री के रुप में प्रयुक्त होते हैं। सर्वप्रथम अत्यन्त बारीक पिसे हुए सीसे, रंग (रुचि के अनुसार कोई भी रंग) तथा विशेष प्रकार के चिपचिपे पदार्थ को एक साथ अच्छी तरह से मिलाकर लेप तैयार कर लिया जाता है। इसी क्रम में आमने-सामने स्थित लकड़ी की बल्लियों पर सूती धागे को एक सिरे से दूसरे सिरे की ओर अनेक बार खींचकर बाँधा जाता है। अगले चरण में तैयार लेप को कपड़े की सहायता से सूती धागों पर भलीभाँति लगाया जाता है। लेप सूख जाने के उपरान्त माँझा तैयार हो जाता है। अब इस माँझे को लकड़ी की चरखियों में लपेटकर बिक्री हेतु भेज दिया जाता है। बरेली में निर्मित माँझे की प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ का माँझा अत्यन्त बारीक तथा तीखी धार से युक्त होता है। लेकिन धारयुक्त होने के बावजूद यह माँझा पतंग उड़ाने वाले व्यक्ति के हाथों को हानि नहीं पहुँचाता।

(vi ) टोपियाँ (रामपुर) :

रुहेलखण्ड क्षेत्र का रामपुर जिला टोपी-निर्माण की कला के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। यहाँ लगभग 100 व्यक्ति टोपी बनाने की कला में रत हैं। यहाँ निर्मित टोपियों की विशेषता है - इनका हल्कापन तथा साफ - सुथरी बनावट। यह टोपियाँ न केवल रामपुर, वरन् देश के अन्य हिस्सों में भी अत्यन्त लोकप्रिय हैं। दूसरे प्रान्तों के व्यापारी स्वयं आकर यहाँ से टोपियाँ ले जाते हैं और फिर उन्हें अपने प्रान्तों के बाजारों में बेचते हैं।

टोपी को बनाने में निम्नलिखित सामग्री प्रयुक्त होती है-

(अ) गत्ता
(आ) कागज
(इ) प्लास्टिक
(ई) बैलवेट या कृत्रिम फर

कारीगर बैलवेट तथा कृत्रिम फर को मशीन पर सिलकर गोलाकार (आगे तथा पीछे की ओर नुकीली) टोपियों को तैयार करते हैं। टोपी के गोलाकार किनारों को मजबूती प्रदान करने के लिए कारीगर प्लास्टिक तथा गत्ते का प्रयोग करते हैं। यह टोपियाँ अनेक रंगों के बैलवेट तथा फर से बनाई जाती हैं। चूँकि यह टोपियाँ मुख्यतः मुस्लिम लोगों के लिए बनाई जाती हैं, अतः आकृति तथा बनावट के आधार पर टोपियाँ को दिए जाने वाले नाम भी मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। इनमें से कुछ टोपियों के नाम इस प्रकार हैं-

(अ) रजा टोपी
(आ) हामिद कैप
(इ) सरहदी कैप
(ई) ईराकी कैप
(उ) कश्मीरी टोपी

(vii ) बाँसुरी निर्माण (पीलीभीत) :

भावाभिव्यक्ति के लिए मनुष्य ने विभिन्न प्रकार की कलाओं को जन्म दिया। इन्हीं कलाओं में एक थी- संगीत कला। संगीत में हुए विकास के साथ अनेक वाद्ययंत्रों का आविष्कार हुआ, जिनमें बाँसुरी का एक विशिष्ट स्थान था। बाँसुरी एक ऐसा वाद्य है, जिसको बजाने तथा बनाने दोनों में ही कला की भूमिका है। रुहेलखण्ड क्षेत्र के पीलीभीत नगर में बाँसुरी बनाने की कला को उसके पूर्ण यौवन में देखा जा सकता है। यहाँ की बनी बाँसुरियाँ भारतवर्ष के लगभग समस्त हिस्सों में बिक्री के लिए भेजी जाती है। पीलीभीत नगर के लगभग 2000 लोग बाँसुरी बनाने की कला से जुड़े हुए हैं। 

बाँसुरी को बनाने में बाँस, तुर अरहर की लकड़ी तथा रंग आदि प्रयुक्त होते हैं। कच्चे माल के रुप में प्रयुक्त बाँस का आयात मुख्यतः आसाम राज्य से किया जाता है।

बाँसुरी को बनाने के लिए कारीगर सबसे पहले बाँस के टुकड़े के भीतरी तथा ऊपरी भाग की सफाई करते हैं। इसके बाद बॉस के एक सिरे को ठीक उसी प्रकार काटा जाता है, जिस प्रकार कलम का सिरा छीला जाता है। बाँस के आड़े छिले हुए सिरे को और तुर अरहर की लकड़ी से निर्मित एक आड़ा कटा हुआ विशेष प्रकार का टुकड़ा इस प्रकार से लगाया जाता है कि इसके तथा बाँस के मध्य में एक पतली सी दरार बनी रहें। अगले चरण में बाँस में अनेक गोलाकार छिद्र बनाए जाते हैं, जिनकी सहायता से सुरों को नियन्त्रित किया जाता है। अन्त में बाँस पर चमकीला रंग लगाकर बाँसुरी को पूर्णता प्रदान करी जाती है। पीलीभीत में निर्मित बाँसुरियाँ काले तथा पीले रंगों में होती है। यह बाँसुरियाँ सुरीला स्वर तो उत्पन्न करती ही हैं, साथ ही साथ यह देखने में भी अत्यन्त मनोहर होती है।

(viii ) लकड़ी से निर्मित बच्चों की गाड़ियाँ (बजीरगंज) :

बदायूँ जिले के बजीरगंज नामक स्थान पर बच्चों के खेलने के लिए प्रयुक्त लकड़ी की गाड़ियाँ बनाई जाती हैं। इन गाड़ियों को बनाने में आम की लकड़ी, रंग तथा कीलें इत्यादि आवश्यक सामग्री के रुप में प्रयुक्त होती हैं। इन गाड़ियों को बनाने का तरीका सरल तथा सीधा सा है। सबसे पहले लकड़ी की सहायता से लम्बी छड़ें, छोटे-छोटे पहिए तथा क्रास की आकृति वाले चक्र बना लिए जाते हैं। अब इन समस्त टुकड़ों पर रुचि के अनुसार रंग लगा दिए जाते हैं। अगले चरण में लकड़ी की छड़ के निचले सिरे की ओर कील की सहायता से पहिया और क्रांस की आकृति वाला चक्र लगा दिया जाता है।

यह समस्त चीजें इस प्रकार व्यवस्थित की जाती है कि जब बच्चा इस गाड़ी को जमीन पर रखकर भागता है, तब पहिए को घूमने के साथ-साथ चक्र भी घूमता है। यद्यपि बजीरगंज में निर्मित बच्चों की गाड़ियों का व्यवसाय अत्यन्त उन्नत अवस्था में नही है, फिर भी कारीगर लोग विभिन्न मेलों के अवसर पर इन्हें बेचकर अपनी जीविका आसानी से कमा लेते हैं।

(ix ) हुक्का (भोजपुर पीपल साना, जिला - मुरादाबाद) :

मुरादाबाद जिले में स्थित भोजपुर पीपल साना नामक स्थान हुक्के के सुन्दर पाइप को बनाने की कला के कारण आस-पास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। यहाँ पर बने हुए हुक्के के पाइप देश के कुछ बड़े शहरों में भी भेजे जाते हैं। यह पाइप अपनी सुन्दर बनावट के कारण किसी का भी मन अपनी ओर मोह लेने की क्षमता रखते हैं।

हुक्के के पाइपों को बनाने में निम्नलिखित सामग्री प्रयुक्त होती है-

(अ) बेंत
(आ) कपड़ा
(इ) ताँबे का तार
(ई) चमकीली पन्नी
(उ) सूती धागा

कच्चे माल के रुप में प्रयुक्त बेंत की आपूर्ति आसाम प्रान्त से की जाती है। हुक्के के पाइप को बनाने की प्रक्रिया के अग्रलिखित चरण हैं -

सर्वप्रथम बेंत की दो खोखली छड़ें काटी जाती हैं। इनमें से एक छड़ का आकार दूसरी छड़ की तुलना में
1/4 होता है। तदुपरान्त बड़ी छड़ पर रंगीन कपड़ा लपेटा जाता है। कपड़े से युक्त इस छड़ पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चमकदार सुनहरी पन्नी के टुकड़े लगाए जाते हैं। अब इस छड़ के ऊपर ताँबे का बारीक तार घुमावदार आकृति में लपेटा जाता है। यह तार छड़ पर लिपटे कपड़े और पन्नी को स्थायित्व तो प्रदान करता ही है, साथ ही छड़ की सुन्दरता को भी बढ़ाता है। दूसरे चरण में छोटी वाली छड़ पर भी उपर्युक्त उल्लिखित विधि से कपड़ा और तार लपेटा जाता है। तीसरे चरण में इन दोनों छड़ों को कपड़े की एक विशेष प्रकार की गाँठ द्वारा एक तीसरी छड़ से जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार हुक्के का पाइप अपना पूर्ण आकार प्राप्त करता है।

भोजपुर पीपल साना में निर्मित हुक्के के इन पाइपों की कीमत
10 रुपये से लेकर 30 रुपये तक होती है।

(x ) जरी का काम (बरेली) :

आकर्षक वस्र धारण करना मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। आकर्षक वस्रों में जरी की कढ़ाई से युक्त परिधान विशेष स्थान रखते हैं। बरेली जिला जरी की कढ़ाई के लिए न केवल सम्पूर्ण देश में वरन् दूसरे देशों में भी लोकप्रिय है। बरेली में जरी की कढ़ाई मुख्यतः दुपट्टों, चुन्नियों तथा साड़ियों पर की जाती है। सर्वप्रथम कारीगर कपड़े पर स्टन्सिल की सहायता से डिजायन छाप लेते हैं। इसके बाद कपड़े को लकड़ी से निर्मित एक चौकोर अड्डे (फ्रेम) पर खींचकर तान दिया जाता है। अगले चरण में कारीगर एक नुकीली सुई में धागा डालकर डिजायन के ऊपर कढ़ाई करते हैं।

प्रायः एक डिजायन में कई रंगों के धागों का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए कारीगर को एक ही डिजायन पर अलग-अलग रंग के धागों से अनेक बार कढ़ाई करनी पड़ती है। कढ़ाई के लिए प्रयुक्त धागों में रेशम के धागे प्रमुख होते हैं।

चूँकि जरी का यह कार्य अत्यन्त बारीक काम है, इसलिए इस कला में प्रायः युवा कारीगर ही संलग्न देखे जाते हैं। बरेली के अतिरिक्त जरी की कढ़ाई का काम आॅवला (बरेली जिले की तहसील) तथा रामपुर में भी देखा जा सकता है।

(xi ) लकड़ी की वस्तुएं (अमरोहा, जिला - मुरादाबाद) :

मुरादाबाद जिले में स्थित अमरोहा नामक स्थान लकड़ी से बनाई जाने वाली विभिन्न वस्तुओं के कारण प्रसिद्धी के चरम शिखर पर है। यहाँ पर बनाई जाने वाली लकड़ी की वस्तुओं में निम्नलिखित अत्यन्त लोकप्रिय हैं -

(अ) ढोलक
(आ) छड़ी
(इ) चकला-बेलन
(ई) बैठने में प्रयुक्त पिढियाँ

यद्यपि उपरोक्त वस्तुएं देश के अन्य हिस्सों में भी बनाई जाती हैं, परन्तु अमरोहा में निर्मित लकड़ी की वस्तुओं की सर्वोपरि विशेषता है - उनकी नक्काशी (छड़ी के संदर्भ में) अमरोहा में निर्मित लकड़ी की वस्तुओं में ढोलक की प्रसिद्धी दूर-दूर तक है। यहाँ बनाई जाने वाली ढोलकों की देश के अनेक हिस्सों में माँग है। अमरोहा में निर्मित लकड़ी की वस्तुएं सुन्दरता तथा मजबूती दोनों ही में अग्रणी हैं। नगर के सैकड़ों व्यक्ति इस कला से जुड़े हुए हैं तथा अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं।

(xii ) सींग की वस्तुएं (सम्भल, जिला - मुरादाबाद) :

मुरादाबाद जिले में स्थित सम्भल तहसील सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न स्थान है। जहाँ एक ओर यहाँ का विशेष धार्मिक महत्व है, वहीं दूसरी ओर हस्त-निर्मित वस्तुओं के कारण संभल की एक अलग पहचान है। यहाँ निर्मित सींग की वस्तुएं देश के लगभग समस्त हिस्सों में तो भेजी ही जाती है, साथ ही यह वस्तुएं दूसरे देशों को भी निर्यात की जाती है। इन देशों में अमेरिका तथा जापान प्रमुख हैं। यह वस्तुएं सम्भल के मोहल्ला सराय तरीन में व्यापक रुप में बनाई जाती हैं। यद्यपि इस कार्य में पुरुषों की प्रधानता है लेकिन स्रियों ने भी इस कार्य में अपनी भागीदारी को बखूबी समझा है। वह घर में रहकर ही कार्य करती है।

कच्चे माल के रुप में प्रयुक्त पशु सींग मृत पशुओं से प्राप्त होता है। कारीगर लोग सींग को विभिन्न प्रकार की सजावटी वस्तुओं में परिवर्तित करते हैं। कुछ वस्तुएं उपयोगिता के आधार पर भी बनाई जाती हैं। इनमें कंघी, सिगरेट-केस, चूड़ी रखने के डिब्बे, श्रृंगार दानी, पर्स इत्यादि प्रमुख हैं। सुन्दरता बढ़ाने के लिए इन वस्तुओं पर सीप, मोती, लकड़ी तथा हड्डियों की मदद से नक्काशी की जाती है।

(xiii ) हड्डी की वस्तुएं (सम्भल):

सम्भल नगर यहाँ निर्मित पशु की हड्डियों से निर्मित वस्तुओं के कारण भी प्रसिद्ध है। यह हड्डियाँ मृत पशुओं से प्राप्त की जाती है। सम्भल का सराय तरीन मोहल्ला हड्डियों द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं का केन्द्र हैं। यहॉ निर्मित कलाकृतियों में आवश्यकता तथा सजावट की विभिन्न वस्तुएं सम्मिलित होती हैं। लेकिन स्रियों की रुप सज्जा के लिए प्रयुक्त हाथ का कंगन हड्डियों द्वारा बनाई जाने वाली कलाकृतियों में प्रमुख हैं। सम्भल में निर्मित हड्डी की वस्तुएं अपनी लोकप्रियता के कारण देश-विदेश में बिक्री के लिए भेजी जाती हैं।

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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