रुहेलखण्ड

Rohilkhand


लोक साहित्य

भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की मानवीय लालसा ने विभिन्न माध्यमों को जन्म दिया। लेखन, संगीत तथा विभिन्न प्रकार-की कलाएँ इन्हीं माध्यमों में से थीं। अपने मनोभावों , विचारों तथा समस्याओं को अभिव्यक्त करने के लिए लेखन कला एक सशक्त माध्यम के रुप में विकसित हुई। प्राचीन काल से वर्तमान काल तक की यात्रा में भारतवर्ष तथा विश्व के अन्य देशों में ऐसे असंख्य लेखक हुए हैं , जिन्होंने अनेक विषयों को आधार बनाकर साहित्य रचना में अपना अमूल्य योगदान दिया है।

भारतीय साहित्यकार शुरु से ही विश्व साहित्य के क्षेत्र में उच्च स्थान पर रहे हैं। रुहेलखण्ड क्षेत्र भी साहित्य के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। रुहेलखण्ड में ऐसे अनेक साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने विविध विषयों पर साहित्य की रचना की है। इन साहित्यकारों का परिचय इस प्रकार हैं--

1. बच्चू "सूर"
2. भक्त कवयित्री कृष्णाप्यारी "दासी"
3. पं० राधेश्याम कथावाचक
4. पं० झब्बीलाल मिश्र "हकीर"
5. पं०नारायण दास पाराशरी "शोला"
6. लाल दास
7. पं० जागेश्वर प्रसाद
8. पं० छोटे लाल दीक्षित
9.
श्री मन्नारायण

1. बच्चू "सूर"

अब से लगभग 50 वर्षों पूर्व पीलीभीत जिसे के जमुनियां ग्राम के निवासी पंडित बच्चू लाल आयु कवि " बच्चू सूर " के नाम से प्रसिद्ध थे।हाँलाकि उस समय कवि सम्मेलनों का अधिक प्रचार नहीं हुआ था, परन्तु आर्य समाज और सनातन धर्म संस्थाओं के आयोजन प्राय: अनेक स्थानों पर होते रहते थे। इन धर्म सभाओं में बच्चू सूर की कविताओं का एक पृथक कार्यक्रम रखा जाता था। बच्चू श्रोताओं की छोटी से छोटी समस्या की पूर्ति बड़ी आसानी से करते थे। बच्चू सूर जनता के कवि थे। उन्होंने अपना परिचय निम्न प्रकार से दिया है-


"खीरी जिला विच वास करे हम,मैगलगंज में पोष्ट विचारो।
नम्र को नाम जमुनियां है,तेहि मध्य में राजत धाम हमारो।
ब्राह्मण वंश में जन्म लियो शुचि छन्दन को रस प्राण से प्यारे।
सूरजी सत्य ही कहो मम यही पता हिय बीच में धरो।

एक बार उन्होंने नागरी शब्द की पूर्ति करने को दी गयी। इस पर सूर जी ने एक हरि गीतिका छंद बनाकर सुनाया।

"जेही मध्य है श्रुति चार जिनमें सुभग ध्वनी अमृत भरी।
है जिती विद्या अन्य देशन सकल मध्य उजागरी।
सो धरहु चित में पढ़हु याको सकल उपभो भरी।
कवि सूर बच्चू मति बिसारो मातृ भाषा नागरी।

सूर जी किसी भी समस्या का समाधान अपनी भाषा में बहुत आसानी से कहा करते थे।एक प्रशन कि चकोर जब-जब चन्द्र के भ्रम में अंगार खाने लगता है, तब उसकी जीभ और चोंच जल जाती होगी; फिर भी वह इस लगन को नहीं छोड़ पाता।इसका क्या कारण है? सूर जी ने इस का उत्तर घनाक्षरी छंद में इस प्रकार दिया -

हम बासें भूमि पर हमारो मित्र अकाश,
हाम जन्द्र मित्र से मिलन न पायेगें।
यासे वन्हि चिनगी चबाय चारु चोंचन से
अपने शरीर से भ बनायेंगे।
बास कैहास तजि आवैं शम्भु भूमि तल,
मेरी भ हाथ लेकर सुतन लगायेंगे।
शम्भू के सुभाल बीच सोहत विशाल विधु,
भ ही होके मित्र तन लिपटायेगें।

प्रेम की प्रशंसा करने के लिए सूर जी ने बहुत ही भावुक पंक्तियों का प्रयोग किया है। एक व्याघ्र वन में वीणा बजाकर एक मृग को मोह लेता है। मृग वीणा की ध्वनी से इतना मंत्र- मुग्ध हो जाता है कि व्याध के तीर से मार दिया जाता है। मृग मरने से पूर्व एक याचना करता है कि "हे व्याध एक बार वीणा की मधुर झंकार सुना दो।" सर्वेया घनाक्षरी के माध्यम से श्री बच्चू सूर जी ने अपनी इस बात को बड़ी सहजता के साथ कह दिया --

"उत्तम कानन् पाय भली विधि व्याध ने जाय के वीणा बनाई,
प्रेम में नभ के भूलि गयो मृग ताने सुनै लगो कान लगाई।
वीणा बजावत ही धुनु तीनि क् तीर हन्थो उर लक्ष्य बनाई,
लागें विषंग कुरंग गिरेऊ महि व्याधि से दीन गिरा प्रकचटाई।"

"अमिष हितार्थ तैने लीने हमारे प्राण मांस बनवारी परिवारिन खिलाय दे।
मेरे सर श्रृंगन की अवश्य श्रंगी नाद करि मेरो तन धर्म ब्रहमचारिन गहाय दे।
ऐरे मित्र व्याध करबद्ध प्रार्थना है एक मेरी अभिलाषा यह ततक्षण पुराय दें।
जौन वीणा काज मैने आज आय दीन्हे प्राण मरत हूँ एक बार वीणा को बजाये दे।"

प्रकृति वर्णन के छन्द भी सूर जी ने रचे। बसन्त का छन्द, जिसमें श्याम बन माली की प्रतीक्षा में एक गोपी अपने दु:ख का वर्णन कर रही है, इस प्रकार है -

"आली बनमाली दिन मदन क्रुचाली यह,
करत विघती तन मेरो दीन्त है।
श्याम गयो श्याम गयो, सुखद विश्राम गयो,
सुखमय आराम गयो, दु:ख प्रगटन्त है।।
और ॠतु आबई, पियराई छोई ऐसे झूठ
मैं भी पियराई बैठि रोवत एकान्त है।
कुंज बसन्त में सुआती नाहिं कान्त हैं।

2 . भक्त कवियत्री कृष्णाप्यारी "दासी' :

19 वीं शती के अंतिम दशकों में इस कवियत्री ने संभल के एक प्रतिष्ठित और धनी सक्सेना (कायस्थ) परिवार में जन्म लिया था। इन्होंने अधिकांश भजनों में स्वयं के लिए "कृष्णा दासी" नाम का प्रयोग किया है। कवियत्री ने दो दोहों में अपना परिचय इस प्रकार दिया है -

"मैहर संभल नगर में, कोल शहर ससुराल
वर बृजमोहन लाल से दमेअशिव त्रिपुरार
पुत्री मिट्ठन लाल की कृष्णा प्यारी नाम
भागनी हीरा लाल की सविनय करति प्रणाम्।

कवियत्री कृष्णा प्यारी की एक पुस्तक "प्रेम रस मंजीर" तीन संस्करणों में छपी है। इसमें 85 भजन और होली आदि का संग्रह है। उन्होंने लोक शैली में "भजन-रामायण"और "रामकथा' को लेकर अनेक पद रचे हैं।

कवियत्री ने विविध छंदों में अपनी भक्ति भावना को प्रस्तुत किया है, इसके उदाहरण हैं-

वंदना गणेशः

ॠद्धि सिद्धि सागर गुणज्ञान बुद्धि आगर
त्रैलोंक में उजागर तुम नाशत भ्रम भारी है
मंगल शुभकरण हार विध्न के हरन हार
दाता उदार सोतो हारयो भंडारी है
सेवत ॠद्धि सिद्धि सार ठाढ़े मुनिदेव द्वार
महिमा अपार आदि वेदन उचारी है
आनंद के कन्दन पड़े पुष्प धुप चन्दन
ऐसे पार्वती के नंन्दन को वन्दना हमारी है।

चेतावनी :

जिस गाड़ी में जाना तुमको
एक पल छिन में वो आती है।
कुछ देर नहीं बाँधे बिस्तर
घंटी उपदेश सुनाती है।
कर संट और अंजन गरजत
धर-धर जियरा मोरा लरजत है
कर्क-तर्क वतन उस देश चली
जहाँ से नहीं आने पाती है
जिस गाड़ी में जाना तुमको
एक पल छिन में वो आती है।

3 . पंडित राधेश्याम कथावाचक :

पंडित राधेश्याम कथा वाचक अपनी बाल्यावस्था में अपने पिता के साथ जगह-जगह कथा करने जाते थे। कथावाचक जी जब लगभग आठ वर्ष के थे, तब एक बार अपने पिता के साथ "रुक्मणी मंगल कथा" कहने चन्दौसी गये। इस कथा के बीच-बीच में उन्होंने अपने कुछ स्वरचित गीत भी गाये, जिनको चन्दौसी की जनता ने बहुत पसंद किया। फलस्वरुप राधेश्याम जी जब बरेली वापस आये, तो उन्होंने नाटकों के गाने की तर्ज पर अनेकों भजन बना डाले। इसी मध्यान्तर में रामकथा के कई अंशों पर कथावाचक जी ने स्वरचित छन्दों को निरुपित किया, जिन्हें रुकमणी की मंगल कथा के बीच में गाया जाता था। इन्हीं छन्दों को राधेश्यामी छन्द कहा जाने लगा। छन्दों की लोकप्रियता को देखते हुये सम्पूर्ण रामायण की रचना की गयी।

राधेश्यामी छन्द मात्र पंडित राधेश्याम कथावाचक तक ही सीमित न रहे, राधेश्यामी छन्दों की लोकप्रियता को देखते हुये अन्य समकालीन बुद्धिजीवियों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। इनमें बनारस के माधव शुक्ल जी, बरेली के निवासी रामसहाय "तमन्ना", चन्दौसी के "रामरुप', पीलीभीत के ज्वाला प्रसाद, राधेश्याम कथावाचक के अनुज मदन मोहन शर्मा इत्यादि कवियों के नाम प्रमुख रुप से आते हैं। इनमें माधव शुक्ल जी ने सम्पूर्ण महाभारत का राधेश्यामी छन्दों में अनुवाद प्रस्तुत किया।

राम सहाय "तमन्ना" ने ध्रुव चरित्र की रचना राधेश्यामी छन्दों में की। इनकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -

"कारण क्या आज चाँदनी में, इस भाँति मलिनता मिलती है,
आश्चर्य दिवाकर प्रस्तुत है, फिर भी न कमलिनी खिलती है,
आँखों को सुख देने वाली, आँखें क्यों विकल हो रही हैं,
काजल से कजराली काली, क्यों जल से सजल हो रही हैं।

चन्दौसी निवासी लाला रामस्वरुप ने भी श्री राधेश्यामी छंदों में सम्पूर्ण महाभारत को प्रस्तुत किया है। इसमें इनके द्वारा रचित "कीचक बध" प्रसंग बहुत ही प्रशंसनीय रहा है-

"दे दिया हुक्म मैमारों को एक नाच भवन सजवाने को।
कन्डील लैम्प फानूश झाड़ बिजली लाईट, लटकाने को।
सेदरी दुबारी चौबारे सब रंग रंगीले रंगवाय।
हर किस्म-कि के कमरों में कालीन मखमली बिछवाये।

पीलीभीत के ज्वाला प्रसाद कवि ने राधश्यामी छंदों में "महिषापुर बध" की रचना की-

"संसार एक मायामय की, माया का दृश्य दिखाता है।
जिसमें पड़ ज्ञान-वान नर भी, मूरख सा चक्कर खाता है।
है देवि महामाया हरि की, जो सृष्टि जगत की करता है।
फिर पालन उसका करके बह, अपने ही में लय करती है।
संसार उसी की माया में, पड़कर भूला सा फिरता है।
मानव उसके ही कारण से, यों मोहकूप में गिरता है।

राधेश्याम कथावाचक के अनुज मदन मोहन शर्मा ने भी राधेश्यामी छन्दों में विभिन्न रचनायें रचना कीं। इनमें से एक है -

"जन्म क्यों व्यर्थ लिया, सरकार ?
लिया जन्म ही था तो जग का संकट देते टार
मधुर बाँसुरी बजा प्रेम की फैलाई गोआर।
फिर यह डायन फूट रही क्यों, बोलो नन्द कुमार ?
कंस और शिशुपाल के वध से, हरण हो गया भार ?
उनके तुल्य यहाँ फिरते हैं, कितने दैत्य अपार।
अन्न नहीं है, वस्र नहीं, छाये प्लेग बुखार।
"जन्माष्टमी' तुम्हारी का फिर, कैसे हो त्यौहार ?
नहीं हरा है भार भूमि का फिर से हो अवतार,
इसीलिये तक रहे एक हक, "मोहन" कारागार।

झब्बी लाल मिश्र "हकीर' -

मुरादाबाद का नाम याद आते ही पिछली शताब्दी की अनेक संस्कृति टीकाएं, तंत्र शास्र के ग्रंथ और नाटक याद आने लगते हैं। इन तीनों ही विधाओं के लिये मुरादाबाद के विद्वानों की सेवाएं विशेष हैं। पं० झब्बीलाल मिश्र "हकीर" का जन्म मुरादाबाद के दीनदारपुरा मुहल्ले में सन्
1860 के लगभग हुआ था। सन् 1925 से पूर्व इनका निधन हो चुका था। हकीर जी उर्दू कवि के रुप में प्रसिद्ध रहे हैं। इनकी कविताओं को पं० बल्देव प्रसाद मिश्र ने अपने एक संग्रह "महामनमोहनी' में दिया है। हकीर जी "बुलबुल" और "प्रेमसखी" नाम से भी कविता करते थे। बुलबुल नाम से की गई अधिकांश कविताएं श्रृंगार परक हैं। गोपियों और कृष्ण की पनघट की छेड़छाड़ और ऊधो गोपियों के संवाद जैसे विषय ही मुख्य रुप से इन्होंने बुलबुल नाम से लिखे। "महामनमोहनी" के संग्रह से प्राप्त इनका राग जोगिया में दिया एक पद यहाँ भी दिया जा रहा है। इसमें एक नायिका अपने प्रियतम के परदेश जाने पर अपने दु:ख कहती है -

"आलीरी अब कैसे जिऊँगी
मेरे पिया परदेश सिधारे यह दुख कैसे भर्रूंगी।
मन में मेरे ऐसो आवै जहर का प्याला पिऊँगी।
कटारी खाय मर्रूंगी
तैन मुझे नित आन सतावै, विरहा अगन में जर्रूंगी
सुनीसेज डरावन लागी, मैं बैठी तडफूंगी
हाय मैं तो रो रो मर्रूंगी
फागुन के दिन आये संखीरी का संग होरी खेलूंगी
सब सखियां पिया के संग सोवत, मैं किसके गले लगूंगी
पिया पिया किससे कहूंगी
बुलबुल कहै त्याग के वस्तर अंगाविभूति मलूंगी
करमें ले तुलसी की माला पियको नाम जपूंगी जोगन को वेष कर्रूंगी।

प्रेम सखी के नाम से भी कृष्ण भक्ति की कविताएं हकीर जी ने लिखी। इनकी हिन्दी कविताएं लोक साहित्य में रखे जाने योग्य हैं। उन्नीसवीं शती में जनरुचि की सरल रचनाएं रचने की अभिरुचि लगभग सभी कवियों में थी। भारतेन्दु ओर पं० प्रताप नारायण मिश्र ने ऐसी अनेक लोक रुचि की कविताएं लिखी, जिनका संग्रह "महामनमोहनी" में विशेष है। हकीर जी का एक बारहमासा देखें। इसमें गोपियां कृष्ण के विरह में डूबी ऊँधों से अपने बारह मासों का कष्ट बता रही हैं -

कातिक आया सजे सब मंदिर अगन लिपाय सखी चंदन से रे।
भई है न हरि विन दीपमालिका ब्रज में ब्रजवालन में रे।
यमुनाजल स्नान करतही ब्रजवनिता सब आगहनमें रे
इक दिन चीर है मनमोहन आय गये किस से छिन मरे।
पूष में रुष गये हरि जब से फिर नाहिं आये ब्रजवनितन में रे।
आप न आये अपने बदले में पठयों ऊँधों को योग वियोगन मेरे।
माघ वसंत धरै सब्रके शिर अतर अगावै सब वस्र मैं मेरे।
हमरों बसन्त हरो कब जाने मोहिलिये हरिसेनन में रे।
फगुआ फीको रंग लाले बिन उड़त गुलाल न ग्वालन में रे।
रोम रोय नयन भये पिचकारी होरी भई ऐसी फागुन मेरे।
वारह मास व्यतीत भये मन लाग रहो हरि दर्शन में रे।
प्रेम सखी की यही पर दीजौ राखिलेहुमोहि चरणन में रे।
छोड़ गयो हरि वारी उभर में मन की रही ऊधों मन में रे।

पं० झब्बीलाल मिश्र मुरादाबाद के प्रसिद्ध लेखक पं० कन्हैया लाल मिश्र के ताऊ थे। इनके पिता का नाम पंडित शिवदयाल मिश्र था। पं० झब्बीलाल जी ने सरल हिन्दी में कुछ काव्य रचे थे जो अपने समय में लोकप्रिय रहे। इनके द्वारा रचित लोक काव्यों में संगीत हीरापारी व लाल शहजादा, सब्जपारी महरु शहजादा, सनोवर परी व गुल शहजादा, परीरु व गुलरु, राजा परीक्षित, अधर जोगन आदि प्रमुख है।

इनकी रचना, "प्रेम सरिता' को वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई ने प्रकाशित किया था। सन् १९२६ में प्रकाशित "प्रेम सरिता' में दान लीला, गेंद लीला, मुरली लाल, रास पंचाध्यायी, मुकुर लीला, रुपधारण लीला, हिंडोर लीला, और उद्वव वृन्दावन गमन लीला नाम के आठ अध्याय हैं। पूरे ग्रंथ में चौबीला छन्द का प्रयोग किया गया है एक चौबीला इस प्रकार है -

एक समय घनश्याम ने कियो मेरो सिंगार
निज करसों चोटी गुंथी मोतिन मांग संवार
मोतिन मांग संवार श्याम बैंदी बैना पहिराये
नाक बीच नथ और कान में करन फूल लटकाये,
ऊधों जी शिर औदनी उतार मुझे सारी पहिराई
उनहीं श्याम ने ऊधों हाथ भभूत पठाई
पहुँची हाथ पांच में नुपूर सुन्दर चीन चढ़ाए
उन्हीं श्याम माटी के मुद्रा ऊधों हाथ पठाये।

मिश्र जी ने "प्रेम सरिता' में गद्य का भी यत्र तत्र प्रयोग किया। भाषा का यह उदाहरण अपने में पर्याप्त रोचक है। यह पंडिताऊ भाषा पुराने संस्कृत के टीकाकारों द्वारा प्रयोग में लाई जाती थी। एक अंश देंखें -

"ऐसे कहि श्री कृष्णचन्द्र वृषभान सुता को साथ ले अंतर्धान भये और एक वृन्दावन की कुंज में जाय पतन को बिछौना कर श्री राधा सहित विश्राम कियों फिर राधिकासों हरि कही कि, हे प्यारी। मैं तेरो श्रृंगार कर्रूं। यह कहकर फिर श्रृंगार करने को उपस्थित भये और जब प्रथम चोटी गुहन बैठे तब प्यारी के मुख देखन में अंतर हुआ। इससे हरि व्याकुल हो गये। तब प्यारी प्रीतम को विकल जान दपंण अपने हाथ में लिया और अपने चन्द्रमुख हरि को दिखायों। फिर हरि प्रियों को देखिवे लगे।"

5. नारायण दास पाराशरी "शोला' :

बदायूँ के लोक कवियों में पं० नारायणदास पाराशरी जी प्रसिद्ध रहे हैं। ये कविता में अपना नाम "शोला' लिखते थे। शोला जी द्वारा रचित रामायण गाँव-गाँव में प्रचलित रही है। "शोला" जी की रची हुयी आला खड़ी बोली में थी, जिस पर बदायूँनी भाषा का पूरा-पूरा प्रभाव था। इनके समकालीन अन्य कवि मुंशी त्रिलोक चंद, मुंशी दयाशंकर, पं० खैराती लाल "निंदा', ठाकुरी सिंह "अख्तर' और मुंशी कल्याण राय आदि थे।

पं० राम गुलाम मिश्र जो कि पाराशरी जी के ही समकालीन थे, ने ये पंक्तियाँ शोला जी के बारे में लिखीं -

"बानी रस सानी सुनि शारदा सिंहानी
                  इस सृष्टि की कहानी चौबोला में वखानी है
काव्य रस प्यासे जो फिरत हैं निरासे
                  पी कविता के बताशे बुद्धि, तिनकी छबानी है
कविवर अनमोला प्रथम गावै बंभोला रामा
                  गुणचौबोला करि मुक्ति की निसानी है।
कृपा करै भोला और जीवै शौला
                  देखि इनके चौबोला बुद्धि कबिनु की बिकानी है।


6. लालदास :

लालदास जी बाँस बरेली के कवि थे, हांलाँकि बाँस बरेली के लाल दास के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, किन्तु भरत की बारामासी के अंतिम छंद में उनकी सामान्य चर्चा है-

"नब्बे साल लोंद की भादों
अगहन गहन परयो
बांस बरेली के लाल दास ने
राम नाम उचर यो
भरत की यह बारामासी
गावैं सुनें परम् पद पावैं
कहे यम की फांसी
वैदहि मिलि ऐसे ही गाई
करम लेख नहीं मिटे
करां कोई लाखन चतुराई।

लालदास की "बारहमासा भरत का" नामक रचना सन् 1870 में बरेली से प्रकाशित हुई थी जिसकी एक प्रति "इंडिया हाउस" लन्दन में सुरक्षित है। यहाँ इसकी दो प्रतियां उपलब्ध हैं। पहली प्रति में 8 पृष्ठ हैं और वह लीथो पद्धति से मतबअ जहांगीरी में छपी थी। दूसरी प्रति मुल्ताजमल प्रिंटग प्रेस नीमच से प्रकाशित "बड़ा सूर्य पुराण" में है। इसका रचना काल सन् 1833 है।

इस जन कवि की छंद योजना भी उत्तम श्रेणी की है। यहाँ उसे सम्पूर्ण दिया जा रहा है-

"चैत पीछले पाख राम नौमी को जन्म लियो,
अवधपुरी सुख धाम सखिन मिलि मंगल चार कियो
खबर जब दशरथ ने पाई,
दिये दान गज वाज गऊ दिन थोरे की ई
सभा सब प्रफुलित व्हे आई
कर्म लिखी जा मिटै करो कोई लाखो चतुराई

लागत ही वैशाख केतकी वावरि करि डारी
भरत कहै धृक हमरो भई जब तुम सी महतारी

दु:ख सब नगरी को दीये,
तीन लोक के नाथ राम तैने वन वासी कीये
कूरमति कैसी वनि आई
कर्म लिखी न मिटे करो कोई लाखो चतुराई

जैठ जुरे सब पंच भरत को गद्दी बैठारो
भरत धरत कानन पै हाथ नाथ मोहि गरदन क्यों मारो
सरे जहिं इन वातज काजा
तीन लोक के नाथ नाम वे अयुध्या के राजा
बात यह सबके मन भाई
कर्म लिखी ना मिटे करो कोई लाखे चतुराई"


7. पंडित जोगेश्वर प्रसाद :

जोगेश्वर प्रसाद जी चन्दौसी में होने वाली कवि गोष्ठियों में नियमित भाग लेते थे और यहाँ पर दी जानी वाली समस्याओं की पूर्ति करते थे। पं० जोगेश्वर प्रसाद कृत एक छंद -

"काम की जो पाई देह रामनाम ही के हेतु
रतन लगावे अब क्यों न हरिनाम की
नाम रटन ही ते कलेश दु:ख भाग जाय
प्राप्त हो तोय खानि अमित आराम की।
राम की कृपालुता से भव सिन्धु पार होय
सीधे तू पहुँचगाये शरण राम की
श्याम जी की जो छवि अभिराम न बिलौकी जोपै
व्यर्थ गयो जीवन तो ये आँखें कौन काम की।"


8. पंडित छोटे लाल दीक्षित "द्विज दास' :

ये भी चन्दौसी के प्रतिभाशाली कवि थे। पं० छोटे लाल दीक्षित के एक भाई कर्ण बास की दुष्टों के द्वारा गंगा में डुबोकर हत्या कर दी गई। दीक्षित जी की आत्मा को इस घटना से अपार कष्ट हुआ और उससे दु:खी होकर जो उन्होंने छंद रचे, वे साहित्य की निधि हैं। इनमें से कुछ छंद इस प्रकार हैं -

"मौन क्यों हो कर्णवास के निवासी सब
मेरी अरजी को नैक चित में धरो नहीं
"द्विज दास" आरत पुकारत है बार-बार
द्वार-द्वार डौले दीन दु:ख के हरो नहीं
अंध के सहारी प्राण धारो जैनारायण
कैसो गयो मारो सो बतावो सो डरो नहीं"
"कौन से कसाईन नसाई मोर आशा लता
माहिर सबै हो ताहि जाहिर करो नहीं
सिंह के सम्हारो खड्ग खप्पर त्रिशुधारी
वेगि ही पधारो द्विजदास प्रति पातिका
मौन क्यों सभी हो फिरि कौन पै फिराउ जाय
वेगि ही संहार करो शत्रु कुल सालिका
मारि-मारि दुष्टन के वंश निरवंश करो
राकहु वयै ना नरनारि बाल-बालिका
जौन-जौन जानि के हुबायो जै नारायण
तौब दुख देवा को कलेवा करो कालिका।"


9. श्री मन्नारायण :

श्री मन्नारायण चन्दौसी के प्रतिष्ठित और प्रतिभावान कवि रहे हैं। इनके अनेक कवि शिष्य भी थे। श्री मन्नारायण द्वारा रचित "संगीत सुदामा चरित्र" ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ, जिसमें कृष्णा की शोभा पर छंद लिख गए हैं -

"मारे पच्छवारो स्वच्छ माथे पे मुकुट सोहे
श्री मनु सु सोहे मन कुण्डल हिलोर है।
पति पर अंग लसे काछनी विचित्र करने
मन्द-मन्द हँसे चित चो बर जोर है।
अति छवि बारी अरी। गुजमाला न्यारी
चल देख उठ प्यारी। माल केसर की खारे है
मुख में तमोल मनो खूबी के खजाने खोल
ढाढ़ों नन्दजू की धौरि नन्द को किशोर हैं।

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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