राजस्थान

मेवाड़ की वाणिज्य- व्यवस्था

अमितेश कुमार


वाणिज्य- व्यवस्था से वणिक- समूह प्रत्यक्ष रुप से जुड़ा था। व्यवसाय की दृष्टि से वणिकों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -

१. ग्राम्य वणिक
२. नगर वणिक तथा
३. बोहरा या साहूकार

साहूकार तथा अन्य संपन्न द्विज जाति के व्यक्ति ग्राम्य- वणिक तथा नगर- वणिक के मध्य की कड़ी होते थे। वे गाँवों में उधार लेन- देन तथा माल क्रय- विक्रय का कार्य करने थे तथा साथ - ही - साथ नगर- वाणिज्य की आवश्यकतानुसार ग्राम्य- भंडार से माल को मंडी में थोक से विक्रय करते थे। इस प्रकार दोहरा व्यापारी ग्रामीण प्रजा के लिए बैंक तथा मंडी माल के मुख्य संग्रहकर्त्ता एवं वितरक का कार्य करते थे। कुछ सौदे बोहरों के बिना, प्रत्यक्ष भी किये जाते थे। माल संग्रह प्रायः कृषक अथवा ग्राम- भंडार में ही रखा जाता था तथा आवश्यकतानुसार मंगवाया जाता था। इससे दलाली के ४ से ६ ऽ तक की बचत होती थी।

अच्छी स्थिति वाले कृषक तथा जागीरदार अथवा उपज सीधे मंडियों में बेचते थे। राज्य द्वारा दलालों को दलाली- पट्टे दिये जाते थे। दलाली का वार्षिक शुल्क आमदनी के अनुपात में लिया जाता था। शुल्कों को संग्रह करने का वार्षिक ठेका प्रत्येक वाणिज्य- व्यापार समूह के प्रमुख आढ़तिया को प्रदान कर दिया जाता था। बिना राज्याज्ञा का कोई व्यक्ति दलाली नहीं कर सकता था। राज्य की तरफ से सहणा और ढ़ाणी मंडी में राज्यहितों का ध्यान रखते थे। पट्टा पद्धति द्वारा राज्य के क्षेत्रीय वाणिज्य- व्यापार पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रहता था। व्यापारी मनमाने भाव नहीं बढ़ा सकते थे। माल की कमी हो जाने पर माल की आपूर्ति राज्य द्वारा राज्य भंडार से की जाती थी या फिर बाहर से राज्य की जमानत पर मंगवाया जाता था।

 

विषय सूची


Top

Copyright IGNCA© 2004