राजस्थान

राजस्थान के मंदिर निर्माण गतिविधियों के प्रमुख केंद्र

झालावाड़ कोटा क्षेत्र के मंदिर तथा मूर्तिकार - परंपरा

अमितेश कुमार


झालावाड़ और कोटा का क्षेत्र पुरातात्विक स्मारकों से भरी पड़ी। इन स्मारकों में प्राचीनतम ७ वीं शताब्दी के हैं। इस क्षेत्र में अत्यंत प्राचीन काल से शैव एवं शाक्त दोनों संप्रदाय साथ- साथ प्रचलित थे। गंगधार से प्राप्त (४२३ ईस्वी.) अभिलेख गर्गरा नदी के तट पर डाकिनियों के एक मंदिर का उल्लेख इस प्रकार यहाँ शाक्त एवं तांत्रिक पूजा का प्रचलन पांचवी शताब्दी से मिलने का प्रमाण मिलती। इसके अतिरिक्त वैष्णव एवं शैव आदि अन्य संप्रदाय भी इस क्षेत्र में लोकप्रिय थे, परंतु इन संप्रदायों से संबद्ध मंदिरों की संख्या शैव एवं शाक्त मंदिरों की तुलना में बहुत कम थी। इन मंदिरों के विस्तृत अध्ययन से तत्कालीन समाज की सौंदर्य चेतना एवं अपने भावों एवं ईश्वर के प्रति भक्ति भावना को पाषाण में अभिव्यक्त करने की क्षमता का ज्ञान होता है।

 

झालरापाटन का वैष्णव मंदिर :-

आधुनिक झालरापाटन नगर की स्थापना चंद्रभागा नगरी के खंडहरों से अलग की गई थी एवं नये नगर के बीच स्थित वैष्णव मंदिर, जो कि जन सामान्य में सात सहेली मंदिर के नाम से विख्यात है, पहले से ही वहाँ विद्यमान था।

कालान्तर में मंदिर में कई परिवर्तन किये गये हैं। मंदिर का मुख्य भाग एवं शिखर प्राचीन है, यहाँ के खंडहरों से प्राप्त सिक्कों एवं अभिलेखों के आधार पर, संभवतः यह दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित किये गये होंगे। अभिलेख ७ वीं शताब्दी ईस्वी से १३ वीं शताब्दी ईस्वी के बीच के समय के हैं। उत्कीर्ण तोरणों से युक्त सभा मंडप, विशालकाय स्तंभ एवं प्रवेश द्वार १२ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में निर्मित प्रतीत होते हैं। मंदिर की खुली छत, छतरियाँ आदि अन्य आकार १८ वीं एवं १९ वीं शताब्दियों के प्रतीत होते हैं। शुकनासा युक्त शिखर इस मंदिर की विशेषता है।

गर्भगृह के बाह्य भाग में सूर्य एवं वैष्णव अवतारों के विग्रह उत्कीर्ण हैं। शुकनासा एवं शिखर के निचले भाग पर देव एवं देवी प्रतिमाएँ नृत्य मुद्राओं में उत्कीर्ण हैं। शिव की नृत्त- दक्षिणा मूर्ति के निचले भाग पर उत्कीर्ण है। इस फलक पर विष्णु एवं ब्रह्मा, शिव की उपासना करते हुए तथा नृत्य- दीक्षा ग्रहण करते हुए अंकित हैं, जबकि अन्य देवी, देवता एवं ॠषि नृत्य का आनंद लेते हुए एवं वाद्यवृंद पर शिव- महादेव के नृत्य के साथ संगत करते हुए अंकित किये गये हैं।

 

चंद्रावती का शीतलेश्वर तथा अन्य मंदिर :-

चंद्रावती नामक प्राचीन नगरी झालरापाटन नगर के दक्षिण में २ किलोमीटर की दूरी पर चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित है। यह नगरी ६८९ ईस्वी सन में वोप्पक द्वारा दुर्गगण के राज्यकाल में बसाई गई थी। उसी समय में इस नगर में मंदिर आदि भवनों का निर्माण कार्य हुआ होगा। सन् १७८९ ईस्वी में झाला जालिमसिंह के नाम पर जिन्होंने इसकी स्थापना की थी। इस नगरी का नाम झालरापटन पड़ा। प्राचीन चंद्रभागा नगरी की अनेक मूर्तियाँ एवं मंदिरों के अवशेष अभी भी चंद्रभागा नदी के तट पर प्राप्त होते हैं।

चंद्रभागा नदी के तट पर बने अनेक मंदिरों में शीतलेश्वर महादेव का मंदिर सबसे बड़ा एवं प्राचीन प्रतीत होता है। मंदिर के समीप से प्राप्त एवं अभिलेख में किसी चंद्रशेखर में किसी चंद्रशेखर शिव के मंदिर का उल्लेख है तथा जिसमें शिव की विश्वमूर्ति रुप में उपासना की गई है। शीतलेश्वर मंदिर में मुख्य अधिष्ठाता देव के रुप में शिव के लकुलीश रुप की उपासना की जाती थी, जो पाशुपत संप्रदाय के जन्मदाता थे। यह राजस्थान में शिव का सर्वाधिक प्राचीन मंदिर है। प्रवेश द्वार के सिरदल पर दो भुजाओं वाले लकुलीश की प्रतिमा उत्कीर्ण है। यहाँ से प्राप्त वराह मूर्ति की चौकी के अभिलेख में पाशुपत आचार्य द्वारा लकुलीश की उपासना के उल्लेख से लकुलीश संप्रदाय की लोकप्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है। 

शीतलेश्वर मंदिर के अतिरिक्त छोटे- छोटे दो अन्य मंदिर भी हैं, जिनमें से एक शिव तथा दूसरा विष्णु को समर्पित है जैसा कि प्रदेश- द्वार के द्वारपालकों के आयुधों से स्पष्ट है। इन मंदिरों के प्रवेश द्वारों पर अत्यंत उत्कृष्ट कोटि की अंकन शैली प्राप्त होती है।

झालरापाटन से प्राप्त एक अन्य अभिलेख विक्रम संवत् ११४३ (१०८६ ईस्वी) में उदयादित्य परमार के शासनकाल में किसी जन्न द्वारा शिवायतर के निर्माण का उल्लेख करता है। इस अभिलेख के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रभागा (आधुनिक झालरापाटन) के तट पर कुछ अन्य शिव मंदिर भी थे, जिनका अब कोई चिह्म उपलब्ध नहीं होता।

एक अन्य महत्वपूर्ण मंदिर, जो कि नवदुर्गा मंदिर के नाम से प्रख्यात है, गंगधार (४२३ ईस्वी) के अभिलेख में उल्लिखित डाकिनी के मंदिर तथा इस क्षेत्र के शक्ति पूजा तथा तांत्रिक अभिचारों का केंद्र होने के तथ्य की पुष्टि करता है। इस मंदिर में चामुण्डा तथा अन्य देवी मूर्तियाँ संरक्षित है, इन मूर्तियों में नग्नता को स्पष्टता से अंकित किया गया है। इस मंदिर का आकार तथा तलच्छन्द इतना छोटा है तथा अन्दर संरक्षित मूर्तियों का आकार इतना बृहत् है कि यह अनुमान सहज है कि ये सभी मूर्तियाँ इस मंदिर का अंग नहीं हो सकतीं, अपितु कहीं और से लाकर यहाँ एकत्रित की गई हैं। अतएव यह अनुमान स्वाभाविक है कि चंद्रभागा के तट पर संभवतः एक और बड़ा मंदिर रहा होगा, जिसकी मूर्तियाँ बाद में यहाँ एकत्र की गई हैं।

 

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