राजस्थान

मेवाड़ में प्रचलित आहार एवं पेय

अमितेश कुमार


मेवाड़ी समाज में शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों तरह के भोजन का प्रचलन था। जहाँ ब्राह्मण जातियों में मांसाहार, यहाँ तक की प्याज और लहसुन भी वर्जित था, वहाँ राजपूत, कायस्थ और धामाई जैसी कई जातियाँ नियमित रुप से मांसाहार का सेवन करती थी। पर्यूषणों के दिनों में लिलोतरी (हरी सब्जियाँ) खाद्यान्न खाना अहिंसा के प्रति अनास्था माना जाता था। अनजाने में सुक्ष्म जीव- हत्या के डर से सायंकाल में ही भोजन कर लिया जाता था।

निर्धन, कृषक, दस्तकार एवं ग्राम्य- जन का मुख्य भोजन मक्की अथवा धान की रोटी और चटनी रहा था। ज्वार, कांगणी कोदरा तथा सामा को भी खाद्य के रुप में प्रयोग किया जाता था। मक्की से घुघरी, राब, घाट तथा पान्या भी बनाये जाते थे। पान्या मक्की के आटे की बाटी को आक के पत्तों में लपेट कर सेंक कर बनाया जाता था। इसका स्वाद मीठा होने के कारण इसे बगैर लगावन के खाया जा सकता था। दुधारु पशु- पालना लोगों का शौक था। वे प्रायः दूध, दही, लूणी (मक्खन) तथा छाछ का प्रयोग करते थे। साधारण जन पाषाण- वाटकों तथा पत्तल दोनों में खाना खाते थे।

अभिजात वर्ग का भोजन सामान्य वर्गों के भोजन से अलग प्रकार का था। उनके भोजन में साधारणतः गेहूं के आटे से बनी रोटी, पूड़ी, चावल, केशर भात, पाँच तरह की सब्जियों वाली पंचशाक, अचार, मुरब्बे, दही, खीर, घी, विभिन्न दालें, लपसी, हलवा, मोदक आदि प्रमुख रुप से प्रयोग किये जाते थे। प्रायः भोजन अधिक से अधिक एक मिष्ठान्न, चावल, पूड़ी तथा साग- दाल युक्त होता था। मांसाहारी जातियाँ प्रायः बकरे, मछली, हिरण, सुअर, तीतर तथा बत्तक का मांस तथा पापड़ का प्रयोग करती थी। भील, मीणा तथा हरिजन वर्ग के मांसाहारों में मरे हुए जानवरों का मांस खाने में भी कोई प्रतिबंध नहीं था। मिठाईयों में इलायची, बादाम, दाख, खोपरा, चिरोंजी, मिश्री, गुलाब या केवड़े का सत, केशर आदि का प्रयोग किया जाता था, वहीं सब्जियों को स्वादिष्ट बनाने के लिए लौंग, दालचीनी, कालीमिर्च, सौंफ आदि व्यवहार में लाया जाता था। पेय के रुप में अमरस (आम का बना शर्बत), ठंडाई, मट्ठा, रायता तथा दही प्रयुक्त होता था। पोदीने, आम तथा इमली की बनी चटनी, अचार व मुरब्बों में कई प्रकार की सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। इस वर्ग में पुलाव, मुरब्बा, कबूली तथा भुने हुए खाद्य बनाना खान- पान पर मुगल- आहार का स्पष्ट प्रभाव बतलाता है। शासक तथा सामंत वर्ग के परिवार बाजोट (पाटला ) पर चाँदी की थालियों और कटोरियों में भोजन करते थे। भोजन को सुपाच्य तथा मुख को सुगंधित रखने के लिए भोजनोपरंत पान- सुपारी, कपूर आदि खाने का प्रचलन था।

१९ वीं शताब्दी की पावणी बहियों में कही गई कच्चे भोज्य सामग्रियों के साथ इस बात का भी उल्लेख किया गया है। यहाँ के दरबारी सेवक तथा कर्मचारियों को माहवारी गेहूँ, चावल, दाल, घी, तेल आदि दिये जाने का प्रावधान किया गया था। इस तरह की सुविधा प्राप्त (उच्च) जातियाँ भोजन में खिचड़ी, अचार तथा यहाँ उपलब्ध डोचरा, किंकोड़ा, चील की भाजी, बथुआ, टिंडोरी आदि की सब्जियों का प्रयोग करते थे। 

नशा संबंधी वस्तुओं में शराब, अफीम, भाँग, तंबाकू, बीड़ी, हुक्के तथा चीलम का प्रचलन था। कुछ जातियाँ जैसे ब्राह्मण, वैश्य, जाट, जणवा, गाभरी आदि को छोड़कर अन्य जातियों में शराब का प्रचलन था। ब्राह्मणों तथा वैश्य जातियों में अफीम के केसूंबा तथा भांग का प्रचलन था। तंबाकू का प्रयोग खाने तथा पीने, दोनो प्रकार से किया जाता था। ब्राह्मण जातियाँ भी इसका प्रयोग करती थी। 


मेवाड़ में भोज- परंपरा

विभिन्न प्रकार के सामाजिक- धार्मिक उत्सवों जैसे विवाह, पर्व- त्योहारों तथा अशौच आदि के काल में भोज देने की परंपरा थी। आर्थिक दृष्टि से अभिजात वर्ग अग्रणी था। वे अपनी प्रतिष्ठा दिखाने के लिए प्रदर्शनात्मक खर्च करते थे। यह खर्च १० हजार से १ लाख के बीच औसत हो सकता था, वही साधारण वर्ग में भी व्यर्थ खर्च की रुढिगत परंपरा विद्यमान थी, जो उन्हें ॠणग्रस्त बना देती थी। उनके खर्चों पर राज्य - नियंत्रण था। प्रदर्शनात्मक खर्चों के लिए विशेष स्वीकृति आवश्यक थी। इनका औसत खर्च एक हजार रुपये के आसपास होता था।

व्यक्ति आमंत्रण के आधार पर भोजों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता था। परिवार या व्यक्ति द्वारा गाँव की संपूर्ण स्वजाति को दिया जाने वाला भोज, साधारण भोज माना जाता था। स्थानीय स्वजाति के साथ चौखला की जाति को खिलाया जाना, बड़ा भोज माना जाता था। स्वजाति के अतिरिक्त अन्य जातियों का भी आमंत्रण वाला भोज, प्रतिष्ठित भोज की श्रेणी में गिना जाता था। इन भोजों में कुलीन वर्ग के लोग विशिष्ट प्रकार के व्यंजनों का प्रयोग करते थे। उनमें प्रायः शक्कर का प्रयोग किया जाता था। साधारण वर्ग की जनता भोज में प्रायः गुड़ से बनी सामग्रियाँ जैसे लपसी, लड्डू, पूड़ी अथवा बाटी का प्रयोग करती थी, वही आदिवासी तथा अछूत जातियों में ज्यादातर मक्की या धान की बाटी का प्रचलन था। आतिथ्य और उद्देश्य की दृष्टि से यहाँ के भोज को पाँच श्रेणियों में बांटा जा सकता है-- 

क. प्रसादी
ख. उज्जेणी
ग. वास्तु
घ. गोठ
ड़. जीमण


क. प्रसादी

प्रायः तीर्थयात्राओं से लौटने के बाद, देवताओं से मन्नत तथा अभिलाषा की प्राप्ति पर, बच्चों के मुण्डन संस्कार के क्रम में, रात्रि- जागरण तथा अन्य धार्मिक - सामाजिक पर्वों के अवसर पर किया जाने वाला भोज "प्रसादी' कहलाता था। आर्थिक स्थितिनुसार कुटुंब- परिजन या स्वजाति सदस्यों को आमंत्रित किया जाता था। 


ख. उज्जेणी

यह भोज परंपरा अधिकतर साधारण - वर्ग के लोगों में प्रचलित थी। कृषि- आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण जन- जीवन में वर्षा का बहुत महत्व था। वर्षा के लिए इंद्र- अर्चना हेतु कौटुंबिक सदस्यों का सहभागी भोज या एक ही परिवार द्वारा अपने रिश्तेदारों को दिया जाने वाला भोज उज्जेणी कहलाता था। 

अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि, दोनों ही स्थितियों में इंद्र के प्रसन्नार्थ परिवार - समूह बस्ती के बाहर खेतों या धार्मिक - स्थलों पर खाना बना कर इंद्र नैवेद्य के प्रतीकात्मक प्रसाद के रुप में भोज का आयोजन करती थी, जिसमें प्रायः गुड़- निर्मित व्यंजनों का प्रयोग किया जाता था।

आज भी वर्षा नहीं होने पर यहाँ की स्रियाँ कई प्रकार के टोटके करती हैं। वे लौकिक विरोध प्रकट करने के क्रम में रोड़ी का कचरा तथा पशुओं का गोबर मटकों में भर कर वणिक बनिये की दुकानों के सम्मुख फोड़ती है, क्योंकि अकाल की स्थिति में उन्हें वणिक लाभ मिलता है।


ग. वास्तु

गृह- निर्माण के पश्चात् किसी शुभ मुहू पर गृह - प्रवेश एवं गृह- शांति के लिए किया जाने वाला सामाजिक भोज "वास्तु' कहलाता था। वैसे तो यह भोज- परंपर केवल द्विज जातियों में प्रचलित थी, किंतु अन्य जातियाँ गृह- प्रवेश के दौरान नांगल- भोज करती थी, जिसमें घर में सुख- शांति बनाये रखने के लिए देव- अर्चनार्थ नैवेद्य के रुप में ब्राह्मणों, संतों तथा भोपों को खिलाया जाता था। कभी- कभी स्वजाति के लोग भी आमंत्रित किये जाते थे।


घ. गोठ

सामाजिक उत्सवों पर या किसी प्रकार की खुशी दर्शाने के क्रम में समान स्तर व विचार के लोगों के बीच किया जाने वाला भोज "गोठ' कहलाता था। इसी प्रकार विवाह के पश्चात घर लौटते हुए मार्ग में भोजन की परंपरा को बींद गोठ कहा जाता था।

यह भोज प्रक्रिया मूल रुप से सामाजिक- आर्थिक प्रतिष्ठा, पद तथा प्रदर्शन को व्यक्त करने के साधन रही थी, जिसमें औसतन एक हजार से २० हजार रुपये तक का खर्च हो जाता था। निर्धन तथा निम्न वर्गों के बीच इस प्रकार के भोज नहीं होते थे। 


ड़. जीमण

विभिन्न सामाजिक - धार्मिक संस्कार जैसे विवाह, मृत्योपरांत, गोरणी, श्राद्ध, नारायण बली आदि के अवसर पर किया जाने वाला जातिगत एवं सामाजिक भोज "जीमण' कहलाता था।

सामान्तिक घरानों में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर भोजन के साथ- साथ रंगारंग कार्यक्रमों का प्रचलन था। भोजन के दौरान ढ़ोलनियों द्वारा गायन- वादन तथा भगतणों द्वारा नृत्य तथा भोजनोपरांत मुजरे सुनना मेवाड़ी सामंत - समाज पर स्पष्ट मुगल प्रभाव दर्शाता है।


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