राजस्थान

मेवाड़ में शिक्षा- प्रचलन एवं प्रबंधन 

अमितेश कुमार


सन् १८६३ ई. के पूर्व तक शिक्षा का संचालन समाज द्वारा किया जाता था, न कि राज्य द्वारा। परिवार, जातियाँ, धार्मिक संस्थाएँ और व्यक्ति की आत्मिक इच्छा स्वशैक्षणिक संस्था के रुप में कार्य करती थी। इन्हीं के द्वारा लौकिक, व्यावहारिक, सैद्धांतिक एवं व्यावसायिक आदि विभिन्न प्रकार के ज्ञान प्राप्त किये जाते थे। आलोच्यकाल में शिक्षा संबंधी कई सुधार हुए। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू की गई। विभिन्न शिक्षा- प्रदाय संस्थाओं का संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है ---

(अ.) परिवार

प्राचीन काल से ही परिवार प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने का प्रमुख केन्द्र रहा है। मेवाड़ी समाज में भी इसने परंपरागत संस्था के रुप में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है, जहाँ परिवार - विशेष के सदस्य व्यावहारिक, व्यावसायिक, शास्रीय तथा अन्य ज्ञान अर्जित करते रहे।

परिवार के सदस्य अपने बड़े- बुजुर्गों का आदर करते थे तथा उनके अनुभवों के आधार पर कई व्यावहारिक शिक्षाएँ ग्रहण करते थे। परिवार के माध्यम से ही बच्चों को अपनी पैतृक परंपरा, कुल- मर्यादा तथा सामाजिकता का ज्ञान होता था। स्री के ज्ञान के विकास में परिवार ही महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्था थी। यही उन्हें उत्सव- गीतों, आकृति- चित्रण, श्रृंगार- प्रसाधन, गृह साज- सज्जा, प्रसूति- कर्म तथा कुटीर औषधियों का ज्ञान प्राप्त होता था।

मेवाड़ का समाज- संस्करण मूल रुप में जाति- व्यवस्था पर आधारित था। प्रायः प्रत्येक जाति का कार्य लौकिक धर्म के अनुसार बंधनयुक्त था। जाति के परंपरागत कार्यों एवं सामाजिक नियमों का प्राथमिक ज्ञान भी परिवार द्वारा ही प्राप्त होता था। ब्राह्मण पुत्र पंचांग देखना, ज्योतिष का फलित ज्ञान, पाठ- पूजन विधि तथा पौरोहित्य कार्य सीखते थे, वही राजपूत- पुत्र अस्र- शस्र चलाना, शिकार करना, घुड़सवारी करना तथा जागीरदारी के कार्य पूर्वाभ्यास परिवार में ही करते थे। साधारण लेन- देन तथा व्यापार सीखना वणिक पुत्रों का कार्य था। इसी प्रकार कायस्थ लिखने पढ़ने की परंपरा की पितृ- परंपरा को सीखते थे, वही चारण- भाट के सदस्य कवित्त एवं पीढ़ीनामा का ज्ञान परिवार से प्राप्त करते थे।

पारिवारिक व्यावसायी ज्ञान का सर्वाधिक प्रचलन शिल्पी और दस्तकार जातियों में विद्यमान था। इन जातियों में लाख व नारियल की चूड़ियाँ बनाने वाले लखारे, मुस्लिम चूड़ीघर, बंधनी की पाग, लहरिया तथा चूंदड़ पर रंगाई का कार्य करने वाले रंगरेज, कपड़ों पर छपाई का कार्य करने वाले छीपा, अस्र- शस्र बनाने वाले उस्ता और सिकलीगर, लुहार, सुथार, गांछी, वादी आदि के साथ, उच्च वर्ग के शिल्पी में सुनार, जड़िया, पटवा, कसारा, चतारे आदि वंशानुगत ज्ञान की परंपरा को पीढ़ी प्रदान करते थे। सेवक जातियों में कंदोई मिठाई बनाने, दर्जियों में सूचिका ज्ञान, नाइयों में प्रसूति- परिचर्या, ढ़ोली द्वारा उत्सवों पर बजाये जाने वाले वाद्य- गायन आदि का ज्ञान भी परंपरागत रहा था।

परंपरागत शास्रीय ज्ञानों में लिपि लेखन का ज्ञान प्रमुख था। प्रस्तर प्रशस्तियाँ तथा ब्राह्मण परिवारों संग्रहीत धर्मग्रंथ इस पैतृक शिक्षा व्यवस्था के प्रमाण है। प्रशस्तिकारों द्वारा सुंदरतम लिपि- लेखन और भाषा का शिला- लेखन का ज्ञान पीढ़ी- दर- पीढ़ी चलता रहता था। नाट्य एवं संगीत जैसी शास्रीय विद्या का ज्ञान रावल, सरगड़ा, नट, भील आदि जातियों तथा पातर, भगरण के परिवारों में गृह- शिक्षा द्वारा वंशानुगत चलता रहता है। इसी प्रकार गयात्मक लोक- नाट्य, गवदी, गेर तथा धूमर जैसे नृत्य- नाट्य तथा वाद्य- वादन अनुभव जन्म तथा पारिवारिक ज्ञान परंपरा के रुप में ही विद्यमान था। इसके अलावा ॠतु- विज्ञान संबंधी कहावते, देशी चिकित्सा विधियाँ, लोक शल्य चिकित्या, शिक्षाप्रद दोहे तथा प्रचलित कथाएँ जैसी रुढिगत ज्ञान- परंपराओं ने समाज में अंधविश्वास, जादू- मंत्र, भूत- प्रेत तथा प्राकृतिक चिकित्सा जैसी कई चीजों का जन्म दिया।

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(ब.) परंपरागत पाठशालाएँ 

सैद्धान्तिक ज्ञान प्रदान करने में इनका विशेष महत्व था। शिक्षा के केन्द्र प्रायः धार्मिक- स्थल जैसे उपासरा, मठ, मंदिर, मस्जिद आदि एवं धर्माधिकारियों में घर होते थे। उपासरों व मठों के छात्रों व आशार्थियों को साधू, साध्वियों व यतियों द्वारा धर्म, दर्शन तथा नैतिक ज्ञान के अलावा प्रारंभिक गणित व भाषा ज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। 

साधुओं के चार्तुमासों के प्रवचन की श्रवण- परंपरा का लाभ प्रौढ़ लोग भी उठाते थे। वैसे को उपासरों से विशेष रुप में जैन संप्रदाय संबद्ध था, लेकिन उनकी शिक्षा का लाभ सभी द्विज जातियाँ प्राप्त करती थी। इसके अतिरिक्त साधुजन प्राचीन व उपयोगी हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार करते थे, जो उस समय की पुस्तक- लेखन परंपरा की तरफ हमारा ध्यान इंगित करती है। मराठा अतिक्रमण काल (१७ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से १८१८ ई. ) तक तत्कालीन राजनीतिक दुर्बलता एवं असुरक्षात्मक समाज- व्यवस्था के कारण इन उपासरों की स्थिति में ह्रास आने लगा।

मठों, मंदिरों व मस्जिदों में धार्मिक व शैक्षणिक ज्ञान प्रदान करने का क्रम आलोच्यकाल के पश्चात भी चलता रहा था। यहाँ संपन्न एवं अभिजात्य वर्ग को धर्मज्ञान के अतिरिक्त अक्षर ज्ञान, गिनती (पहाड़ा) ज्ञान, सामान्य ज्ञान एवं सामाजिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। इसके बदले में धर्मगुरुओं को राज्य अथवा व्यक्ति- विशेष की ओर से धर्मार्थ भूमि जीवन- निर्वाह हेतु प्रदान की जाती थी। मठ, मंदिर तथा मस्जिदों में स्थायी रुप से निवास करने वाले यति, बाबा और काजी जन- साधारण में चिकित्सक का कार्य भी करते थे। 

धर्म- मुक्त शिक्षा- दीक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक पाठशाला, पोशाला, चोकी तथा मकतब चला कर छात्रों को शिक्षा देते थे। इनका जीवन- निर्वाह समाज द्वारा दक्षिणा प्रदान कर किया जाता था। 

१८वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक तो शिक्षा- व्यवस्था गुरुकुल प्रणाली पर आधारित थी, जहाँ से विधिध शास्रीय व सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त होता था, किंतु मराठा उपद्रवों ने इस व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। १९ वीं शताब्दी में इस जीर्ण व्यवस्था ने अपना कार्य पुनः आरंभ किया, लेकिन इसका उद्देश्य व प्रभाव सीमित रहा। ब्राह्मण जाति का ब्रह्म ज्ञान का स्तर किंचित् मंत्र ज्ञान, धार्मिक क्रिया- निष्पादन तथा पंचांग पढ़ने तक सीमित रह गया। राजपूत पढ़ना- लिखना व्यर्थ का शौक मानते थे, वही वणिक महाजन अंक- अक्षर ज्ञान से अधिक जानना अपनी जाति- मर्यादा का उल्लंघन मानते थे। राज्य सेवा के उच्च पदाधिकारियों के शैक्षणिक ज्ञान का स्तर साक्षरता तक सीमित था। उपरोक्त स्थिति के कारण साधारण जनता की शिक्षा का स्तर उत्साहजनक नहीं था। अंततः १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत- ब्रिटिश सरकार के प्रयास से अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू किया गया।

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(स.) अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली 

राणा स्वरुपसिंह के उत्तराधिकारी राणा शंभुसिंह के अवयस्क होने के कारण मेवाड़ का शक्ति तथा व्यवस्था का कार्यभार अंततः ब्रिटिश- भारत सरकार के तत्कालीन पोलिटिकल एजेंट कर्नल ईडन को मिला। मेवाड़ में अंग्रेजी आधुनिक शिक्षा- व्यवस्था की शुरुआत करने का श्रेय इन्हें ही जाता है। मेवाड़ी सामंतों व जन- साधारण के विरोध के बावजूद भी इन्होंने इस दिशा में व्यक्तिगत प्रयास किये। फलतः उदयपुर नगर में स्थित कई धर्मार्थ पाठशालाओं को मिलाकर राणा शंभुसिंह व उनके गुरु रत्नेश्वर के नाम पर शंभु- रत्न पाठशाला की नींव रखी गई। इस पाठशाला में प्रारंभिक गणित, हिंदी, उर्दू, फारसी तथा संस्कृत की शिक्षा प्रदान की जाने लगी। १८६५ ई. में यहाँ अंग्रेजी भाषा का विषय पढ़ाना प्रारंभ किया गया। बाद में १८७३ ई. में इसमें दो विभाग स्थापित किये गये। अंग्रेजी प्राइमरी स्कूल को अलग कर, हिंदी प्राइमरी स्कूल को इसका ब्रांच बना दिया गया। १८८५ ई. में इसका नाम महाराणा हाई- स्कूल रख दिया गया तथा इसी साल संस्कृत का अलग से विभाग भी खोला गया। 

१८७२ - ७३ ई. में भीलवाड़ा तथा चित्तौड़ में हिंदी- प्राथमिक पाठशाला प्रारंभ की गई। इसके अतिरिक्त आदिवासी क्षेत्र में जैसे कोटड़ा (१८७५ ई. ) जावर (१८८३ ई. ) ॠषभदेव (१८८३ ई. ) के भी स्कूल खोले गये। इसी प्रकार १९०० ई. तक राज्य के खालसा प्रदेश में प्रत्येक बृहत- ग्राम में प्राथमिक पाठशालाएँ राज्य द्वारा चलाई जाती थी, किंतु तत्कालीन राणा फतहसिंह तथा सामंतों की सामान्तिक प्रवृतियों के कारण १९ वीं शताब्दी के पश्चात् प्रथम दशक तक भी जनसंख्या का ४ऽ भाग ही साक्षर हो पाया।

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सरदार कक्षा  

सन् १८७७ ई. में राणा सज्जनसिंह ने सामान्तिक राजपूत वर्ग के पुत्रों की शिक्षा के लिए शंभु- रत्न पाठशाला के अंतर्गत सरदार कक्षा खोलने की आज्ञा प्रदान की। इस कक्षा को चलाने का मुख्य लक्ष्य राजपूत जाति के अभिजात्य वर्ग के बालकों को सर्वसाधारण जन के बालकों से अलग शिक्षा प्रदान करना था। इस कक्षा के विद्यार्थियों के लिए पुस्तक व्यवस्था का प्रबंध 'महकमाखास' द्वारा किया जाता था। इस प्रबंध में छात्रों को शुल्क तथा मुफ्त पुस्तकें देने का प्रावधान किया गया था, किंतु फिर भी शिक्षा के प्रति राजपूतों में कोई खास जागृति उत्पन्न नहीं हो सकी। नियमित छात्रों की संख्या कम होने के कारण इस कक्षा को १८८३ - ८४ ई. में बंद कर दिया गया। ठाकुर- पुत्रों को पढ़ाने के लिए यह व्यवस्था की गई कि इच्छित छात्र अलग से महाराणा स्कूल के हेडमास्टर से पढ़ेगें।

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स्री -शिक्षा  

सन् १८६६ ई. में कर्नल ईडन के उत्तराधिकारी जे. पी. विक्सन के प्रयत्नों से उदयपुर में एक कन्या पाठशाला प्रारंभ की गई। इस पाठशाला में अ ब स द तथा गणित पाटी के साथ- साथ, सिलाई- बुनाई तथा कसीदाकारी सिखाने का कार्यक्रम रखा गया था। लेकिन बाल- विवाह, पर्दा- प्रथा, जातिवादी रुढियों तथा सामान्तिक नियंत्रण के कारण स्री- शिक्षा के प्रति जनरुचि ज्यादा नहीं थी। 

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मिशन स्कूलों का प्रचलन

यूनाईटेड प्रेस्विटेरियन मिशन ने १८८५ ई. में उदयपुर नगर में एक मिशन स्कूल स्थापित किया था। इसमें केवल धर्म- परिवर्तित ईसाइयों तथा रेजीडेंसी के ईसाई- बालकों के अध्ययन की व्यवस्था थी। शिक्षा को धर्म- प्रचार का एक प्रमुख साधन मानते हुए मिशनरियों ने आदिवासी क्षेत्रों, जैसे खेखाड़ा, कोटड़ा, देवली आदि स्थानों में कई चर्चों के माध्यम से शिक्षा- प्रचार किया। सन् १९०० ई. के अंत तक मिशन स्कूलों की संख्या १४ हो गयी थी, जिसमें ८ आदिवासी क्षेत्रों में तथा ६ उदयपुर तथा उसके आसपास के क्षेत्र में चलते थे।

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अध्ययन -विषय एवं पद्धति

परंपरागत ज्ञान जैसे शिल्प, दस्तकारी, औषध-ज्ञान, पशु चिकित्सा, गायन- वादन, ज्योतिष, तंत्र- मंत्र, हिसाब- किताब लेखन, शिकार, घुड़सवारी, गृह- परिचर्या, गृहस्थ धर्म आदि, पिता अपने पुत्र को अपने अनुभव के आधार पर मौखिक रुप में अथवा प्रयोगात्मक पद्धति द्वारा देते थे।

भारतीय शिक्षा पद्धति में ज्ञानार्जन के लिए अध्ययन विषयों का कोई सीमित क्षेत्र नहीं था। संस्कृत, अवधी, बृज, मेवाड़ी कई भाषाओं का माध्यम के रुप में प्रयोग होता था। विषयों में धर्म तथा न्याय दर्शन-, ज्योतिष, वैद्यक, साहित्य, नीति, व्याकरण, इतिहास, संगीत, शिल्प आदि प्रमुखता से पढ़ाये जाते थे।

अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत लोआ प्राइमरी में अ ब स द तथा गणित पाटी, अपर प्राइमरी में हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा गणित का साधारण ज्ञान कराया जाता था। मिडिल व हाई स्कूल में भाषा और गणित के साथ, इतिहास, भूगोल एवं सामान्य विज्ञान के विषय सम्मिलित किये जाते थे, लेकिन इसका उद्देश्य प्रशिक्षित सेवक बनने तक ही सीमित था, विद्धान बनाने के लिए नहीं। इस शिक्षा के प्रति जन- जागृति का अभाव का एक कारण यह भी था। अध्यापक प्रायः प्राचीन पद्धति के अनुसार ही उच्चारण तथा मौखिक पाठन करवाते थे। लिखने के लिए लकड़ी की पाटियाँ होती थीं, जिन पर खड़िया मिट्टी द्वारा लिखा जाता था। कागज के अभाव के कारण लिपि व चित्रकारी की शिक्षा के लिए पहले पाटी पर ही अभ्यास कराया जाता था। तत्पश्चात् कागज का प्रयोग किया जाता है। १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लिथो प्रेस की स्थापना होने के पश्चात् राज्य में पुस्तकें छपनी शुरु हो गई थी। 

१८ वीं- १९ वीं सदी तक मेहता, सहीवाला, कोठारी आदि के परिवार व विद्या- प्रेमी सामंतों के यहाँ निजी- पोथीखाने का प्रचलन शुरु हो चुका था। 

सन् १८८४ - ८५ ई. से पहले तक स्कूलों में अध्यापक परंपरागत पद्धति से ही पढ़ाते रहे, लेकिन बाद में राणा सज्जनसिंह के सत्प्रयासों से "एज्यूकेशन कमेटी' की सिफारिश पर अध्यापकों के प्रशिक्षण का कार्य शुरु कर दिया गया।

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शिक्षा शुल्क व वेतन

देशी शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु, मंदिर के आचार्य व पुजारी, उपासरों व मठों के यति, साधु, मकतब के मौलवी आदि छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करते थे। इसके बदले में उन्हें राज्य- समाज द्वारा पुण्यार्थ भूमि या द्रव्य दान भेंट किया जाता था। १८ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अनुपयुक्त राजनीतिक वातावरण के कारण शिक्षण- संस्थाओं का ह्रास हुआ। पुनः १९ वीं सदी में प्राचीन पाठशालाओं का पुनर्जागरण होने लगा। १८६३ ई. में प्राचीन पाठशालाओं का पुर्नजागरण होने लगा। १८६३ ई. में स्कूली शिक्षा प्रारंभ होने के पश्चात् निर्धन छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी। १८८० ई. में भू- बंदोबस्त वाले क्षेत्रों में काश्तकारों पर उपज के १ रुपये का १/२ आना "स्कूल लागत' के रुप में प्राप्त किया जाता था। उनके बच्चों से अलग से शुल्क नहीं लिया जाता था। मिशनरी स्कूल पूरी तरह नि:शुल्क था। 

देशी शिक्षालयों के अध्यापकों का वेतन धर्मार्थ भूमि तथा सामाजिक- धार्मिक पर्वों के दान- पुण्य के साथ- साथ प्रति फसल पर यजमानी अंश एवं छात्रों द्वारा प्रदत्त गुरु दक्षिणा होता था। १९ वीं सदी में अध्यापकों का वेतन निर्धारण होने लगा। प्रायः हिंदी तथा संस्कृत भाषा के अध्यापकों की तुलना में फारसी व अंग्रेजी भाषा के अध्यापकों को अधिक वेतन देने का प्रावधान था। इसका उद्देश्य स्पष्टतः राज्य में नौकरशाही स्थापित करना था, लेकिन जनता की शिक्षा के प्रति अरुचि के कारण १९ वीं सदी के पश्चात् भी कुल जनसंख्या का ९६ऽ भाग निरक्षर था।

उपरोक्त बातों पर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है कि अध्ययनकालीन मेवाड़ में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सामाजीकरण करना, जीवन- धर्म समझाना, मानव- व्यवहार सिखलाना तथा आर्थिकोपार्जन था, वही १९ वीं सदी में आंग्ल शिक्षा पद्धति ने इसे केवल अर्थ प्राप्ति के साधन के रुप में विकसित करने का असफल प्रयास किया।

 

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