राजस्थान

राजस्थान के मंदिर निर्माण गतिविधियों के प्रमुख केंद्र

मारवाड़ क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ

अमितेश कुमार


प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार ८वीं- ९वीं शताब्दियों में इस क्षेत्र में वैष्णव एवं सौर संप्रदाय अधिक लोकप्रिय थे। वैष्णव धर्म का प्रचलन गुप्त युग से शुरु हो गया था। यहाँ से प्राप्त वैष्णव मूर्ति- शिल्प के सर्वाधिक प्राचीन अवशिष्ट मंडोर से प्राप्त एक वैष्णव मंदिर से मिलता है, जो गुप्तकालीन है। बाद में ,११वीं- १२वीं शताब्दी में जैन धर्म की लोकप्रियता में वृद्धि का प्रमाण मिलता है।

ओसियां

प्राचीन काल में उपकेशपुर और उकेश के नाम से जाना जाने वाला नगर ओसियां जोधपुर से ५७ किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण- पश्चिम दिशा में स्थित हैं। प्राप्त साहित्यिक तथा पुरातात्विक साक्ष्य यह बताते हैं कि यह स्थान अपने समय का बहुत ही महत्वपूर्ण तथा समृद्ध नगर था। घटियाला प्राचीन नाम रोहिन्सकूप इस नगर का प्रमुख द्वार माना जाता था।

८ वीं तथा ९ वीं शताब्दी के मध्य ओसियां हिंदू भक्तों का प्रमुख तीर्थ था। लेकिन यहाँ शैव मतावलंबी कम थे, जो यहाँ स्थित सिर्फ एक शिव मंदिर के होने के साक्ष्य से प्रमाणित होता है। बाद में यह जैन धर्मानुनायियों के लिए भी समान महत्व का तीर्थ स्थान बन गया। ओसियां में राजस्थान क्षेत्र के कुछ प्रारंभिक मंदिरों की विद्यमानता एवं ८ वीं से १० वीं शताब्दी के मध्य निरंतर मंदिर- निर्माण की गतिविधियों के कारण यह क्षेत्र मूर्तिकला एवं प्रतिमा विज्ञान की परंपराओं के उद्भव व विकास के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र के मंदिरों के अलंकरण, मूल्यांकन, विकास तथा परिवर्त्तन के क्रमबद्ध अध्ययन में भी ओसियां का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ के धार्मिक स्थलों का विवरण इस प्रकार है--

ओसियां के वैष्णव मंदिर

ओसिया के वैष्णव मंदिर यहाँ की मंदिर स्थापत्यकला के प्रारंभिक चरण का उदाहरण माना जा सकता है। सर्वाधिक प्राचीन तीन वैष्णव मंदिरों को श्री भंडारकर ने क्रमशः हरिहर मंदिर संख्या १, २ तथा ३ नाम दिया है। हरिहर मंदिर के रुप में नामाकरण इन मंदिरों में गर्भगृह के पृष्ठ भाग के प्रमुख ताख में हरिहर की संयुक्त प्रतिमा को ध्यान में रख कर किया गया है। यह दृष्टिकोण अधिक प्रमाणिक नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि अधिष्ठाता देव का निर्णय मूल रुप से उसके समपंणात्मक अंग ललाट- बिम्ब से निश्चित किया जाता है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों का मानना है कि ये सभी मंदिर वैसे तो ८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के बने है, पर इनके स्थातत्य तथा मूर्तिकला के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर (जो कुछ हद तक उड़ीसा के ७५० ई. के परशुरामेश्वर मंदिर से मिलती है), यह कहा जा सकता है कि मंदिर संख्या - १ सबसे पुरानी है तथा उसके बाद ही मंदिर संख्या २ तथा ३ का निर्माण हुआ। 

यहाँ स्थित तीन प्राचीन वैष्णव मंदिरों में दो पंचायन प्रकार। तथा एक एकायतन प्रकारअ का है। सभी मंदिर ऊँचे अधिष्ठान पर निर्मित है, परंतु इनके मुख्य मंदिरों तथा सम्बद्ध छोटे मंदिरों के गर्भगृह में देवता- मूर्ति उपलब्ध नहीं है।

वास्तुकला में उड़ीसा शैली के प्राचीन मंदिरों से साम्य रखने वाले इन मंदिरों के स्तंभों पर गुप्तकालीन अभिप्राय घट पल्लव अलंकरण का ही विशद रुप से अंकन है, जो गुप्तकालीन कला तथा उनके प्रकृतिप्रेम का परिचायक है। सिरदल पर नवग्रहों का अंकन है। नागवल्लरी के साथ गरुड़ का चित्रण है। द्वार- शाखाओं पर गंगा, यमुना तथा छोटे ताखों में वैष्णव अवतारों का अंकन है। ये सभी पुनः गुप्त कालीन वास्तुकला से प्रभावित हैं। 

मंदिर संख्या १ की आधार पीढिका की प्रमुख ताखों में से एक में बुद्ध प्रतिमा उत्कीर्ण थी । इससे यह प्रतीत होता है कि ८ वीं शताब्दी तक बुद्ध का वैष्णव अवतारों में समावेश हो गया था।

टिप्पणी- । पंचायतन प्रकार के मंदिर का तात्पर्य उन मंदिरों से है, जिनके चारों ओर उसी देव परिवार के चार अन्य देवताओं के आकार में छोटे मंदिर एक ही पीठ या परिक्रमा पथ द्वारा मुख्य मंदिर से जुड़े होते हैं। ये चारों मंदिर, मुख्य मंदिर के चारों कोणों पर उसी पीठिका पर बनाये जाते हैं।

टिप्पणी--अ एकायतन प्रकार के मंदिरों में मात्र एक मंदिर होता है, जिसके अंतर्गत एक गर्भगृह, सभामंडप एवं द्वार- मंडप होता है। 

ओसियां के सूर्य मंदिर

वैष्णव मंदिरों से कुछ ही दूरी पर सूर्य मंदिर बने हैं, जिसमें गर्भगृह, अंतराल, खुला प्रदक्षिणा पथ, सभामंडप तथा द्वारमंडप है। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि यह भी संभवतः पंचायतन प्रकार का ही मंदिर रहा होगा। 

वैष्णव मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी अब कोई देव प्रतिमा नहीं है। सिरदल की प्रमुख मूर्ति लक्ष्मीनारायण की है, जिसके दोनों ओर गणेश, ब्रह्मा तथा कुबेर एवं शिव की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के बाह्य तीनों दिशाओं की तीन प्रमुख ताखों में महिषमर्दिनी, सूर्य एवं गणेश की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में अंकित सूर्य प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य सभी मूर्तियाँ वैष्णव या शैव संप्रदाय से संबद्ध हैं।

सूर्य मंदिर की दक्षिण- पूर्वी दिशा में एक सरोवर है, जो अब रेत में दबा हुआ है। इसके कुंड का निर्माण वत्सराज प्रतिहार (७७८- ८०७) ई. के शासन काल में ही निर्मित महावीर मंदिर के साथ बना प्रतीत होता है। सीढ़ी युक्त कुण्ड की पूर्वी भाग के मध्य में एक कूप है। सीढ़ी युक्त दिवारों के चारों ओर स्तंभों पर टीके बरामदे बने हैं, जिन्हें 'रमणक' कहा जाता है। छोटे स्तंभों तथा अर्द्धस्तंभों पर एक समान अलंकरण हैं। शीर्ष के कोष्टकों पर भार वहन करने वाले गंधर्व युगलों का अंकन किया गया है। 

ओसियां के शाक्त मंदिर

ओसियां के शाक्त मंदिरों में दो मंदिर प्रमुख हैं--

१. पीपला माता का मंदिर

पीपला माता का मंदिर सूर्य मंदिर के निकट स्थित है। अपने मूल रुप में इस मंदिर में गर्भगृह के अतिरिक्त सभामंडप तथा प्रवेश द्वार- मंडप रहा होगा। गर्भगृह में एक ऊँचे आसन पर कुबेर, महिषमर्दिनी एवं गणेश की प्राकृतिक आकार की प्रतिमाएँ अधिष्ठित हैं। बाह्य भित्ति पर प्रमुख ताखों में गजलक्ष्मी और महिषमर्दिनी की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है। 

२. सचियामाता का मंदिर 

यह मंदिर सचियामाता या 'सच्चिका को समर्पित है, जो महिषमर्दिनी का ही दूसरा नाम है। महिषमर्दिनी के सच्चिका के रुप में रुपांतरण के बाद से ही यह मंदिर हिंदूओं के साथ- साथ जैन धर्मावलम्बियों के बीच भी समान रुप से लोकप्रिय हुआ। यह ओसियां के निकटवर्ती पहाड़ी पर बना है तथा चारों तरफ से छोटे- छोटे अनेक वैष्णव मंदिरों से घिरा है। इसका निर्माण काल १० वीं सदी के आसपास माना जाता है। 

मुख्य मंदिर का मुख्य- द्वार पश्चिम की तरफ है तथा इसमें गर्भगृह, प्रदक्षिणापथ, सभामंडप तथा द्वार- मंडप बने है। सभामंडप का गुंबद आठ विशाल अष्टकोणीय स्तंभों पर आधारित है। मंदिर की अधिष्ठान पीढिका अलंकरणों की शैली तथा विषय- वस्तु के आधार पर अन्य भागों से पुरानी प्रतीत होती है। गर्भगृह तथा सभामंडप की पुनर्रचना एवं जीर्णोद्धार लगभग १२ वीं शताब्दी में हुआ था। अभिलेखानुसार मंदिर के गर्भगृह का अलंकरण चंडिका, शीतला, सच्चिका, क्षेमंकरी एवं क्षेत्रपाल की प्रतिमाएँ हैं। अभिलेख में उल्लिखित क्षेमंकरी की प्रतिमा गर्भगृह के बाह्य ताख में नहीं दिखता। संभवतः यही मंदिर की मूल प्रतिष्ठित प्रतिमा है।

मुख्य मंदिर के चारों तरफ बने वैष्णव मंदिरों में एक विष्णु को समर्पित है। इसमें बनी दो प्रतिमाएँ -- एक वंशीवादन करता हुआ पुरुष मूर्ति तथा दूसरी हाथ में कमल लिए हुए स्री मूर्ति राधाकृष्ण की प्रतिमाएँ मानी जाती है। मंदिर के बाह्य भाग में ताखों में गणेश एवं सूर्य की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है। देव प्रतिमाओं के प्रस्तुतीकरण की योजना ग्राम स्थित सूर्य मंदिर से मिलती- जुलती है। इस वैष्णव मंदिर का भी निर्माण के बाद जीर्णोद्धार किया गया प्रतीत होता है। इस मंदिर के निकट एक अन्य छोटा- सा मंदिर है, जिससे पुनः वैष्णव एवं सौर संप्रदायों के संश्लेषण की परंपरा की पुष्टि होती है। सचियामाता मंदिर के दायी ओर स्थित दो छोटे मंदिर एक जैसे ही बने हैं। इनके गर्भगृह के बाह्य भाग की प्रमुख ताखों में लक्ष्मीनारायण, वराह और नरसिंह की विग्रह मूर्तियाँ अधिष्ठित हैं। 

ओसियां का जैन मंदिर

ओसियां में पहाड़ी के नीचे ग्राम में एक जैन मंदिर है। अंतिम जैन तीर्थकर भगवान महावीर का यह मंदिर प्राकार भित्ति से घिरा हुआ है, जिसकी सोपान माला पर एक मंडप बना है। इसे नालमंडप के नाम से जाना जाता है। मुख्य मंदिर में एक गर्भगृह, सभामंडप तथा खुला हुआ प्रांगण है, जिसके चारों ओर कई देव कुलिकाएँ बना है।

बुचकला

बुचकला जोधपुर से ५१ किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ जीर्ण- शीर्ण स्थिति में विद्यमान दोनों मंदिर ९ वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में माण्डव्यपुर के प्रतिहारों के आश्रय में निर्मित हुए थे। वैसे तो यह पार्वती एवं शिव के मंदिरों के नाम से प्रख्यात है, परंतु गर्भगृह के पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में प्रतिष्ठित मूर्ति में प्रमाणित करते हैं कि मूलतः ये विष्णु एवं शिव के मंदिर है। प्राप्त विष्णु मंदिर (पार्वती मंदिर) का निर्माण कार्य केंद्रीय प्रतिहार शाखा के नागभ ।। के राज्यकाल ८१५ ई. (वि.सं. ८७२) में हुआ था। 

दोनों ही मंदिर अलंकरण रहित है। शैव मंदिर के शिखर का आमलक और कलश जीर्णोद्धार के बाद पुनः स्थापित किये गये हैं। वैष्णव मंदिर का ऊपरी हिस्सा ध्वस्त हो चुका है। अब केवल रंगमंडप के अवशेष बचे है। 


मंडोर (माण्डव्यपुर)

यह स्थान गुर्जर प्रतिहार नरेशों की राजधानी हुआ करती है। इस क्षेत्र में ८ वीं से १० वीं शताब्दी के मध्य इन्हीं नरेशों द्वारा निर्मित मंदिरों को महामरु वास्तु शैली या प्रतिहार शैली के रुप में जाना जाता है। लेकिन समयान्तर में सन् ८३६ ई. तक गुर्जर प्रतिहार नरेशों की इंपीरियल शाखा के जालौर से कन्नौज स्थानान्तरण हो जाने पर, इस शैली के मंदिरों के निर्माण की गति में ठहराव आ गया। चाहमान शासकों के क्रमिक अभ्युदय एवं अधिकार क्षेत्र में दिनानुदिन बढोतरी, इसका प्रमुख कारण था। 

पहाड़ी पर स्थित यहाँ का एक प्रतिहार कालीन विष्णु मंदिर से प्राप्त अवशेष व स्तम्भ मंडोर के सर्वाधिक प्राचीन माने जाते हैं। संभवतः कृष्णलीला युक्त दोनों स्तंभ कुषाण कालीन है तथा दुबारा प्रतिहार काल में प्रवेश तोरण के रुप में पुनः काम में लाये गये प्रतीत होते है।

यहाँ के अधिकांश द्वयंग तथा त्रयंग प्रकार की रचनाएँ ७ वीं- ८ वीं सदी की हैं। बाद में विशद रुप से अलंकृत मंदिर भी बनने प्रारंभ हो गये थे।

मंडोर रेलवे स्टेशन के पास अंग्रेजी वर्णमाली के आकार की एक बानड़ी पहाड़ी को काट कर बनाई गई है। इसका निर्माण ७ वीं सदी के उत्तर्रार्द्ध में हुआ था। वापी की भित्ति की मूर्तियाँ प्राचीनता एवं प्रारंभिक प्रतिहार कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पहली सप्तमातृका की मूर्तियों के साथ गणेश एवं शिव की नटराज मूर्ति है। प्रत्येक मूर्ति १.५' ऊँची है।

मंडोर की पहाड़ी पर पीछे की ओर एक प्रतिहार कालीन विशाल मंदिर के अवशेष है। दो विशाल वेदिकाओं युक्त मंदिर की जगत के अवशेषों के आलंकारिक अभिप्रायों में वेदी बंध की गढ़ने तथा विभिन्न स्तंभ है।

प्रतिहार कालीन मंदिर के सम्मुख बनी तोरणद्वार के दो स्तंभों पर कृष्ण लीला के दृश्य अंकित है, जिन्हें गुप्तकाल का माना जाता है। कुछ विद्धान शैली के आधार पर इसे कुषाणकाल का भी बतलाते है।

गोठ मांगलोद

गोठ और मांगलोद नामक गाँव नागौर जिले के उत्तर पूर्व में ४० कि. मी. दूरी पर जायल तहसील में स्थित है। इन्हीं गाँवों की सीमा पर दधिमति माता का विख्यात मंदिर बना है। प्राप्त अभिलेखानुसार 'दाहिमा' ब्राम्हण इस मंदिर को अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित किया गया मंदिर मानते हैं।

इस मंदिर के निर्माण काल के बारे में विभिन्न विद्धानों के अपने- अपने मत है। यहाँ से प्राप्त एक तिथियुक्त अभिलेख, जो अब उपलब्ध नहीं है, में तिथि के रुप में वि. सं. ६६५ (६०८ ई.) अंकित की गई है, जिसके अनुसार इस मंदिर के लिए दधिब्राह्मणों की गोष्ठिका द्वारा दान किया गया था, जिसका प्रधान अविघ्न नाग था। कुछ विद्वान इसे अभिलेख- लिपि के अक्षर, अंकों के अभिव्यक्ति की विधि तथा राजस्थान में गुप्त राजाओं का शासन क्षेत्र के आधार पर उल्लेखित तिथि से पुराना गुप्त शासन काल के अंतिम दिनों का मानते हैं।

कुछ विद्वानों उपरोक्त तिथि से असहमत होते हुए, इसे ९ वीं शताब्दी का मानते हैं। उनके मतानुसार मूर्तियों की भास्कर्य शैली तथा शिखर की वास्तुगत एवं शास्रीय विशेषताओं के अनुसार यह उतनी पुरानी नहीं है।मंदिर का शिखर नागर शैली का सप्त भौम नाटा शिखर है, जिसके कर्ण और आमलक थोड़े गोलाकार हैं। यह शिखर बुचकला के शैव मंदिर ८१५ ई. से थोड़ा अधिक विकसित, परंतु खेड़ के रणछोड़ जी १००० ई. के शिखर से पहले का है। इन विद्वानों के विचारानुसार अभिलेख में उल्लेखित संवत् की तिथि गुप्त संवत् की न होकर हर्ष संवत् की हो सकती है। इन विभिन्न मतों के निष्पक्ष विवेचना से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्त्तमान मंदिर के जगती का भाग ७ वीं सदी में हो चुका था तथा इसका पुननिर्माण ९ वीं सदी में हुआ। मंदिर के मूल आधार की भित्ति, जो पहले दिखाई पड़ती थी, जीर्णोद्धार में संगमरमर की शिलाओं से ढ़क दी गई है।

दधिमति माता मंदिर की वास्तुपरंपरा एवं वास्तु योजना पश्चिम भारत के मध्यकालीन मंदिरों पर आधारित 'वास्तुविद्या' नामक ग्रंथ के अनुसार ही बनाया गया है। इस ग्रंथ के निर्देशानुसार मंदिरों की कटि पर चंडिका उत्कीर्ण की गई है, वहीं दिक्पाल मूर्तियाँ जंघा पर कर्ण की रथिकाओं में दिशा को ध्यान में रखते हुए उत्कीर्ण हैं। शिखर की भूमि भी विषम है।

मूर्तिकला की दृष्टि से मंदिर की वरण्डिका के अंतपं पर बना वाल्मीकिय रामायण महत्वपूर्ण है।

आवा

मारवाड़ जंक्शन से १६ कि. मी. दूरी पर, पाली जिले में आवा ठिकाने के अन्तर्गत कामेश्वर शैव मंदिर है। यह मंदिर पश्चिम मुखी है। इसका मूल प्रासाद आयताकार है। इसके अलावा इसमें नवाण्डक शिखर, रंगमंडप, मुख चतुष्की तथा कुंभ और कलश बने है।

लाम्बा

लाम्बा स्थित शैव मंदिर वास्तु शैली में ओसियाँ के हरिहर मंदिर के समान है। गुलाबी बालुकाश्म से निर्मित यह मंदिर ८ वीं शताब्दी में बना है। इसका जगती है, आयताकार है। इस मंदिर के पश्चिम में प्रवेशद्वार पर मुख चतुष्की कर सुंदर मंडप तथा त्रयंग मूल प्रासाद और रंगमंडप बने है। मूल प्रासाद के तीनों ओर प्रदक्षिणापथ है। सम्मुख में अंतराल और मंडप बने हैं। स्तंभों एवं वितानों का अलंकरण आकर्षक है। इसमें विविध प्रकार के कीर्तिमुख और लहरवल्लरी के रुपांकन बने हैं।

मंडोवर की बाह्य भित्तियों पर गजलक्ष्मी, नरसिंह, रेवंत आदि का अंकन है, वही रंगमंडप के सिरदलों (लिंटल) पर विभिन्न पौराणिक कथाएँ एवं आलंकारिक अभिप्राय अंकित है।

केकींद (जसनगर)

केकींद का आधुनिक नाम जसनगर है। यह नागौर जिले के मेड़ता तहसील में पड़ता है। मध्यकालीन हिंमू एवं जैन अभिलेखों के अनुसार यही स्थान किष्किंधा के रुप में जाना जाता है। केकींद उसी का अपभ्रंश नाम है।

गुलाबी तथा लाल बालुकाश्म से निर्मित यहाँ का नीलकंठेश्वर महादेव का मंदिर यहाँ के चाहमान नरेशों के उत्कर्ष काल का उदाहरण माना जाता है। मंदिर के निर्माण काल से संबद्ध कोई अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है। प्राप्त कई दान अभिलेख १२ वीं सदी की तिथियों का उल्लेख करते हैं। भंडारकर के अनुसार यह मंदिर १० वी. सदी की है। यह तिथि वास्तुगत विशेषताओं तथा प्रतिभा शास्रीय भास्कर्य शैली की विवेचना के आधार पर भी प्रमाणित लगती है। यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है, जिसमें प्रदक्षिणा पथ का अभाव है। गर्भगृह के अलावा रंगमंडप तथा मुख चतुष्की बने हैं। रंगमंडप के मध्य की छत आठ लंबे मिश्रक स्तंभों पर टिकी है, जो नीचे भद्रक फिर अष्टकोणीय तथा अंत में गोलाकार हो जाते हैं, इन स्तंभों की अलंकरण योजना में रुप पट्टिका पर युगलों तथा युद्ध के दृश्यों का अंकन है। गजमुंडा के नीचे मंडप के अन्दर की ओर रामकथा के दृश्य अंकित हैं। वहीं गोलाकार मंडप की रुप पट्टिका पर विविध अलंकरणों के साथ कृष्ण- लीला तथा दशावतारों का अंकन भी अत्यंत मनोहारी है। तोरण ध्वस्त हो चुका है, जबकि उसके स्तंभों का आधार यथास्थिति बना हुआ है।

मंदिर का गर्भगृह त्रयंग प्रकार का तथा शिखर लतिन शैली का है। तीनों अंगों, कर्ण, प्रतिरथ तथा भद्रा के बीच की कड़ी सलिलान्तर कहलाती है। जगती का अभाव है। मण्डोवर की जंघा पर देवी- देवताओं तथा अप्सराओं की अत्यंत सुंदर मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई है तथा बीच के सलिलान्तरों पर विविध रुपों में शार्दूल दिये गये है। यह अलंकरण परंपरा, इस काल के मंदिरों में नीरसता नष्ट करने के लिए प्रयुक्त की जाती थी। अप्सराओं के विविध रुप किन्नरो, गणों तथा विकृत आकृतियाँ, नृत्यरत युगल तथा जन- जीवन के अंकन का यही उद्देश्य था। वैसे तो अधिकांश मूर्तियाँ टूट चुकी हैं, लेकिन यहाँ के मूर्तिकला की उत्कृष्टता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

मंदिर के मण्डोवर की बाह्य भित्ति पर अष्ट मातृकाओं की मूर्तियाँ स्थापित है, अतः नि:संदेह यह मूल रुप से देवी को समर्पित रहा होगा। १२ वीं शताब्दी में अधिष्ठित इस मंदिर के मुख्य देव गुणेश्वर थे, जिन्हें संभवतः इसी समय गर्भगृह के मध्य में स्थापित किया गया था। वर्त्तमान में यह नीलकंठ महादेव का मंदिर के रुप में जाना जाता है।

शैव मंदिर क अतिरिक्त यहाँ एक प्राचीन जैन मंदिर भी है, जिसका पुनरुद्धार १५ वीं शताब्दी में कराया गया है।

किराडू

किराडू का प्राचीन नाम किराटकूप है। मूर्तिकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह स्थान मारवाड़ क्षेत्र के बाड़मेर इलाके में खदीन रेलवे स्टेशन से ५ कि. मी. की दूरी पर पहाड़ी पर स्थित है। प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि एक समय में यह स्थान व्यापार संस्कृति तथा कला का समृद्ध केंद्र था। यहाँ मिले मंदिर आबू के परमार और सोलंकी नरेशों की कला परंपराओं का समन्वय प्रस्तुत करते हैं। कक्कसूरि द्वारा १३३८ ई. में रचित नाभिनंदन जिनोद्वार प्रबंध तथा सकलतीर्थ स्रोत नामक ग्रंथों के अनुसार १३ वीं शताब्दी में यह जैन धर्म का केंद्र भी बन गया था।

यहाँ पाँच मंदिरों का समूह है, जिसमें से एक वैष्णव तथा अन्य शैव हैं। यहाँ के इन मंदिरों के अवशेष ओसियां के परवर्तीकाल के हैं। मंदिर की निर्माण शैली तथा प्राप्त अभिलेखों के आधार पर इसका निर्माण काल ११ वीं- १२ वीं शताब्दी में निश्चित किए जा सकते हैं।

यहाँ के इस मंदिर समूह में सोमेश्वर मंदिर, जिसे मंदिर संख्या १ कहा जा सकता है, सर्वाधिक अच्छी स्थिति में है। यह मंदिर उच्च कोटि की तक्षण शैली, उत्कृष्ट गुप्त शैली एवं क्षेत्रीय परमार एवं सोलंकी शैली का अपूर्व मिश्रण प्रस्तुत करता है। इसमें मूल प्रासाद, गर्भगृह, गूढ़मंडप तथा सभामंडप है। सभामंडप की छत अष्टकोणीय लंबे आठ स्तंभों पर आधारित है, जो उत्कृष्ट कोटि के अलंकरणों से सुसज्जित हैं। यद्यपि सभामंडप की छत गिर गई है, परंतु गर्भगृह सुरक्षित हैं। गुप्तकालीन मंदिरों के समान अनेक द्वार शाखाओं से युक्त द्वार पर गंगा- यमुना की मूतियाँ तथा पत्र शाखा, रुप शाखा आदि अनेक अलंकरण उत्कीर्ण हैं। द्वार शाखाओं के दोनों ओर के अलंकृत अर्द्धस्तंभों पर शिवगणों तथा द्वारपालों की मूतियाँ उत्कीर्ण हैं।

सोमेश्वर मंदिर के दक्षिण दिशा में एक दूसरा छोटा शैव मंदिर है, जिसे मंदिर संख्या २ कहा जाता है। यह मंदिर पश्चिमोभिमुखी है तथा इसकी योजना एकायतन प्रतीत होती है, जिसमें सभामंडप मुखालिंद तथा दो पार्श्वलिंद हैं। वर्त्तमान में गर्भगृह के अतिरिक्त अन्य भाग खंडहर बन गये हैं। मूल प्रासाद के वेदी बंध की गढ़नों में रामायण तथा महाभारत के दृश्य अंकित है।

तीन मंदिरों का दूसरा समूह कुछ दूरी पर सड़क के पार है, जिसे मंदिर संख्या ३, ४, ५ के नाम से संबोधित किया जा सकता है। इनमें से मंदिर संख्या ३ और ४ अत्यंत छोटे हैं तथा शिव को समर्पित हैं। मंदिर संख्या ३, जो पंचरथ प्रकार का है, में केवल गर्भगृह ही अवशिष्ट है। मंदिर संख्या ४ का सभामंडप तथा मुखमंडप पूरा ध्वस्त हो चुका है, केवल मुखमंडप के दो स्तंभ शेष हैं। गर्भगृह की द्वार शाखा पर शिव के द्वारपाल उत्कीर्ण हैं तथा साथ ही वाराही, वैष्णवी, रुद्राणी तथा अन्य मातृकाएँ और गणेश की मूर्तियाँ अंकित हैं।

मंदिर संख्या ५, जो दोनों शिवालयों से थोड़ा हटकर है, एक वैष्णव मंदिर है। यह मंदिर, जो अपने तलच्छंद में सोमेश्वर मंदिर से साम्यता रखता है। पंचरथ प्रकार का यह प्रासाद कभी अत्यंत विशाल तथा महत्वपूर्ण रहा होगा, वर्त्तमान में खंडहर के रुप में विद्यमान है। मंदिर की योजना में गूढ़मंडप और सभामंडप भी थे। सभामंडप अष्टकोणीय तथा आठ ऊँचे स्तंभों पर आधारित था, जिसकी छत पूर्णतया भंग हो चुकी है। स्तंभों का अलंकरण तथा भास्कर्य शैली सोलंकी शैली के अनुसार है। पृष्ठ भाग की भद्रा में गरुड़ पर बैठे विष्णु की प्रतिमा, इसे वैष्णव मंदिर के रुप में सत्यापित करती हैं।

किराडू के इन मंदिरों की मूर्तिकला, इस तथ्य का स्पष्ट संकेत करती हैं कि १२ वीं सदी तक मूर्तिकला पूर्णतः वास्तुकला के अधीन हो गयी थी।

 

चौहटन

बाड़मेर जिले में चौहटन तहसील में तीन शैव मंदिरों के अवशेष पहाड़ी पर स्थित हैं। इन मंदिरों में एक, जिसका जीर्णोद्धार किया गया है, में गर्भगृह, सभामंडल तथा दो सोपान मंडल (अर्द्धमंडप) बने हुए हैं।

दूसरा मंदिर लकुलीश का है। मंदिर के द्वार पर ललाट बिंब पर सप्त फणों के छत्र से युक्त एक शीर्ष उत्कीर्ण है। इसका स्तंभ तथा शिखर ११वीं सदी का प्रतीत होता है।

तीसरा मंदिर, दूसरे मंदिर का ही समकालीन प्रतीत होता है। इसमें तीन अर्द्धमंडप हैं, परंतु शिखर तथा सभामंडप की छत नष्ट हो चुकी है। ललाट बिंब पर एक विचित्र मूर्ति उत्कीर्ण है, जो संभवतः लिंग का आलंकारिक रुप है।

खेड़

बालोतरा तहसील से कुछ किलोमीटर दूर, यह स्थान राठौड़ नरेशों का प्राचीन नगर है। यहाँ वैष्णव, शैव तथा जैन मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं।

वैष्णव मंदिर को अब रणछोड़ जी के मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण १२ वीं सदी के आसपास लाल बरलुकारम द्वारा किया गया। इसके द्वार पर गरुड़ की प्रतिमा उत्कीर्ण है। समीप में ब्रह्मा एवं भैरव के देवालय हैं। एक शैव मंदिर भी १२ वीं शताब्दी का ही है।

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