राजस्थान

राजस्थान में सूर्य प्रतिमाओं का रुपांकन

अमितेश कुमार


राजस्थान में अन्य देवताओं के समान सूर्य के पूजा का भी प्रचलन था जो समय के साथ यह वैष्णव धर्म के प्रभाव में आता गया।

जहाँ तक सूर्य पूजा के विकास का प्रश्न है, प्रागैतिहासिक कालीन सभ्यताओं से १० वीं शताब्दी तक इसे निम्न श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:-

क. प्राकृतिक रुपों में सूर्य-पूजा
ख. प्रतीकात्मक रुपों में सूर्य-पूजा
ग. मू रुप में सूर्य-पूजा

प्रारंभिक साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाण इस बात की पुष्टि करते है कि शुरुआत में सूर्य-पूजा का विषय उसका प्राकृतिक भौतिक रुप था अथवा विभिन्न प्रतीकात्मक चिंह जैसे - गोला, सरल गोला, स्वास्तिक, चक्र इत्यादि विभिन्न अनुष्ठानों में सूर्य का प्रतिनिधित्व करते थे।

दूसरी शताब्दी पूर्व सूर्यदेव की प्रतिमा की संकल्पना वैदिक ॠचाओं के वर्णन पर आधारित थी। ये मूर्तियाँ एक चक्रीय, चार घोड़ों से जुते हुए रथ पर आरुढ़, दो कमल पुष्प पकड़े हुए तथा सूर्यदेव का अधोभाग रथ के पीछे छिपा हुआ उत्कीर्ण है। दो स्री धनुर्धारियों-उषा व प्रत्युषा को भी सूर्य के दोनों पाश्वों में अंकित किये जाने का प्रचलन था जो प्रत्यंचा ताने हुए शरसंधान करती हुई प्रत्यालीढ़ मुद्रा में उत्कीर्ण की जाती है। उषा तथा प्रत्युषा को अन्धकार के राक्षसों का विनाश करने वाली सूर्य किरणों का प्रतीक माना गया।

सूर्य प्रतिमाओं में विदेशी तत्व तथा उनके प्रभाव का विलयन

चूकि भारत के आर्य तथा ईरानी मूलतः एक ही इन्द्रो आर्यन जाति समूह से संयुक्त थे अतः यहाँ चौथी शताब्दी तक प्रचलित सूर्य पूजा विधि तथा प्रतीकों में इरान से पर्याप्त समानता है। परन्तु जहाँ तक सूर्य के मूर्त रुप में पूजन का प्रश्न है भारत वर्ष में जहाँ यह दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में प्रचलित थी, इरान में चौथी शताब्दी के बाद प्रचलन में आया। अर्कमेनीड आक्रमणों के समय ईरानियों के साथ आये मैगी पुरोहितों के माध्यम से अवश्य ही भारतीय सूर्य-प्रतिमाओं में संक्रमण हुआ। विदेशी सम्पर्क के अभाव में दक्षिण भारत की सूर्य प्रतिमाएँ देशज विशेषताओं में ही जैसे नूपुर से अलंकृत, जूते रहित पैर, दोनों हाथों में अर्ध-विकसित सनाल कमल तथा उदरबन्ध धारण किये हुए उत्कीर्ण किये जाते रहे।

विदेशी सौर-सम्प्रदाय का सर्वाधिक प्रभाव पश्चिम भारत के विभिन्न प्रान्तों, विशेष रुप से राजस्थान, पंजाब तथा गुजरात में पड़ा। दूसरी तरफ पूर्वी भारत में सूर्य-मूर्ति के अंकन की देशज परम्परा एवं साहित्य में विदेशी तत्वों का विलयन अत्यन्त क्रमिक एवं उपेक्षित रुप में था।

सूर्य प्रतिमाओं का मूर्त रुपांकन

राजस्थान में उत्तर गुप्त कालीन सूर्य-मूर्तियाँ सामान्यतः दो प्रकार से उत्कीर्ण की जाती थी:-

१. रथ पर आरुढ़ - बैठी हुई सूर्य प्रतिमाएँ
२. सूर्य देव की स्थानक मूर्तियाँ

१. रथ पर आरुढ़ - बैठी हुई सूर्य प्रतिमाएँ

रथ पर आरुढ़ बैठी हुई सूर्य की मूर्तियाँ सामान्यतः ८ वीं - ९ वीं शताब्दी में उत्कीर्ण मिलती है, यद्यपि इस तरह की कुछ मूर्तियाँ १०वीं शताब्दी में भी बनी है जो इस परम्परा के निरन्तरता का द्योतक है। इन मूर्तियों में सूर्य की प्रतिमा सहजासन में कमल पर बैठी हुई अंकित की जाती है तथा आसन के नीचे सात अश्वों से युक्त रथ तथा अश्व पंक्ति के मध्य में सातों अश्वों की वल्गाएँ खींचता हुआ सारार्थ अरुण उत्कीर्ण किया जाता है। विदेशी प्रभाव से प्रेरित उपानह युक्त सूर्यदेव के चरण स्पष्ट रुप से अंकित मिलते हैं। सूर्य की मूर्ति कवच पहने हुए, दोनों हाथों में दो विकसित कमल लिए उत्कीर्ण होती है। दोनों पार्श्वों पर सूर्य के परिवार देवताओं की अन्य आकृतियाँ भी अंकित की जाती है।

इस प्रकार की सूर्य प्रतिमाएँ चितौड़ (आठवीं शताब्दी), टूस (उदयपुर, नवीं शताब्दी) तथा अनादरा (सिरोही, प्रारंभिक दसवीं शताब्दी) के सूर्य मंदिरों से प्राप्त होता है।

२. सूर्यदेव की स्थानक मूर्तियाँ

सूर्य देव की स्थानक मूर्तियाँ ९ वीं से १० वीं शताब्दी के बीच प्राप्त होती है जो उस समय व्याप्त ईरानी प्रभाव को स्पष्ट रुप से अंकित करता है। इन मूर्तियों में सूर्य कमल की चरण चौकी पर खड़े, कवच तथा कटि से चरण तक चोलक पहने हुए, दो पूर्ण विकसित कमल या कमल कालिकाओं के गुच्छे लिए हुए उत्कीर्ण किये जाते हैं। साथ ही साथ सूर्य के परिवार-देवता भी अंकित रहते हैं जिनकी कुल संख्या निर्धारित नहीं है।

राजस्थान के विभिन्न स्थानों ओसियां (९वीं शताब्दी), सीकर (१०वीं शताब्दी), अजारी (१०वीं शताब्दी) की स्थानक सूर्य-मूर्तियाँ उपरोक्त विशेषताओं से युक्त हैं। आबानेरी से प्राप्त ९वीं शताब्दी की मूर्ति तथा उसी के समकालीन एक अन्य सूर्यनारायण की प्रतिमा भी इसी लक्षणों को व्यक्त करती है अन्तर सिर्फ यह है कि आबानेरी की मूर्तियों के हाथ में कमल पुष्प के स्थान पर कमल कलिकाओं के गुच्छे हैं।

उपरोक्त स्थानक मूर्तियों में रथ का अंकन जो देशज परम्परा की प्रमुख विशेषता थी छोड़ दिया गया है। बाद में इस तरह के उदाहरण कम मिलते हैं जैसे भरतपुर (९वीं शताब्दी) के संयुक्त शिवलिंग पर उत्कीर्ण सूर्य की मूर्ति जिसमें सात अश्व तथा सारथि का अभिप्राय अत्यन्त लघु रुप में कमल की चौकी पर अंकित किया जाता है।

इन स्थानक मूर्तियों के अंकन के साथ-साथ अत्यधिक आभूषणों से भरी हुई सूर्य की मूर्ति की अंकन परम्परा का भी शुरुआत ९वीं शताब्दी से विकसित होने लगी। अत्यधिक आभूषणालंकृत होने के कारण इनमें चोलक स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर नहीं होता जबकि कमल-पुष्प, कवच तथा परिवार-देवताओं का अंकन अन्य स्थानक मूर्तियों के समान ही प्राप्त होता है।

पूर्ण अलंकृत सूर्य मूर्तियों में सीकर से प्राप्त मूर्ति यहाँ की सर्वश्रेष्ठ मूर्तियों में मानी जा सकती है। इसमें चोलक पूर्णतः विलुप्त हो गया है। हाथों में कमल-कलिकाओं के साथ एक-एक पूर्ण विकसित कमल भी अंकित है। दोनों पार्श्वों में दो-दो परिवार देवता को खड़े हुए अंकित किया गया है। उषा तथा प्रत्युषा की आकृतियों को स्कन्धों के पास दोनों पार्श्वों में अंकित करके प्रतिमा में संतुलन लाने की कोशिश की गई है।

राजस्थान की सूर्य-प्रतिमाओं के अध्ययन से एक बात स्पष्ट है कि यहाँ के मूर्तिकार उदीच्यवेश युक्त सूर्य-प्रतिमाओं को उत्कीर्ण करने में भली-भांति सक्षम थे। अधिकांश प्रतिमा-वैज्ञानिक लक्षण ग्रंथ ने इस विषय पर पूर्ण

अभिप्राय तथा निर्देश स्पष्ट रुप से लक्षित नहीं किया है फिर भी विदेशियों ( मग-ब्राम्हणों) के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने के कारण ऐसा संभव हो पाया। चूंकि सूर्य-प्रतिमाओं को उत्कीर्ण करते समय इन मूर्तिकारों ने बृहत्संहिता और विष्णुधर्मोत्तर पुराण में उपलब्ध लक्षणों का भी प्रयोग किया । अतः उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों को तरह राजस्थान में भी विदेशी तथा देशज तत्वों से मिश्रित सूर्य-प्रतिमाओं का अंकन संभव हो पाया।

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