राजस्थान

मेवाड़ के पोशाक

अमितेश कुमार


पुरुषों के पोशाक
स्रियों के पोशाक
विधवा स्रियों की पोशाक
राजसी पोशाक
पहनावे में बदलाव

 

मेवाड़ में लोगों का पहनावा राजपूताने के अन्य राज्यों से मिलता जुलता है। व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, समाज में प्रतिष्ठा तथा किसी जाति या धर्म विशेष से जुड़ा होना, यहाँ के लोगों के पहनावे को प्रभावित करता रहा है। नि:संदेह समय के साथ-साथ पहनावों में भी परिवर्तन आने लगा है, लेकिन समाज के बुजुर्ग एवं ग्रामीण लोग अभी तक अपनी परम्परा को जीवित रखे हुए हैं।

पुरुषों के पोशाक

मेवाड़ी पुरुषों की सामान्य पोशाक कुर्ता, लंबा अंगरखा, धोती तथा पगड़ी होती है। शुद्ध राजपूती पगड़ी पतली व लंबी (३७ फुट लंबी तथा ६ इंच चौड़ी) हुआ करती थी। ग्रामीण तथा भी आदि जंगली क्षेत्र में निवास करने वाले लोग पगड़ी के स्थान पर पोतिया बाँधते हैं, जो प्रायः मोटे कपड़े का बना होता है। पहले के राजकीय कर्मचारी पायजामा और अंगरखा पहनकर कमर बांधते थे तथा अंगरखे के ऊपर झूलता हुआ कोट

पहनते थे। जो बाद में राजपूत व मुसलमानों के सामूहिक प्रभाव से एक लंबा घेरादार व तानीदार कोट में बदल गया। साथ ही साथ आवश्यकतानुसार चादर, शाल, दुशाला आदि भी पहनने का रिवाज था। यही पहनावा धीरे- धीरे शहर तथा बड़े कस्बों के धनाढ़य लोगों में प्रचलित हो गया। बोहरे तथा मुसलमान प्रायः पायजामा पहनते हैं।

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स्रियों के पोशाक

प्राचीन मेवाड़ में उत्तम घराने की औरतें प्रायः हर एक तरह के उपलब्ध कपड़े पहना करती थी। उनका घाघरा (लहंगा) ३०० फुट तक का घेरदार होता था। उनके ओढ़ने की साड़ी १२ फुट तक लंबी होती थी। लेकिन पिछड़ा वर्ग इतने लंबे वस्रों का उपयोग नहीं करते थे।

मेवाड़ी समाज की स्रियों की पोशाक में घाघरा, साड़ी, दुपट्टा, आढ़नी (ओढ़नी), चादर, चोली, अंगिया, लहंगा, झुगली और कांचली (कंचुलिका) मुख्य है। कुछ औरतें कुरती, अंगरखी या बास्लट भी पहनती हैं। ग्रामीण किसान तथा भील स्रियों के घाघरे कुछ ऊँचे होते हैं। मुसलमानों की स्रियों में बहुधा पाजामे पहनने का रिवाज है। बोहरों की स्रियाँ घर से बाहर निकलने पर प्रायः लहंगा ही पहनती है, लेकिन मुंह पर नकाब डाले रहती हैं।

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विधवा स्रियों की पोशाक

विधवा स्रियों में प्रायः साधारण, सफेद या पक्के रंग के वस्र पहनने का प्रचलन है।

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राजसी पोशाक

ठिकाना के ठाकुरों और राजाओं की पोशाकें महंगी तथा बारीक होती थी। उनके सिर पर प्रायः रत्नजड़ित या गोटेदार पगड़ी, मालवेद या रत्नजड़ित पट्टी होती थी।

वैष्णव परम्परानुसार बारह कसों की अंगरखी का पहनावा पुरुषों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता था। लेकिन इसे राज दरबार के मुखिया ही धारण कर सकते थे।

१६ वीं सदी के बाद पहनावे में परिवर्तन आया। महाराणा करणसिंह का शाहजहाँ के पगड़ी बदल भाई बनने पर पगड़ी पर मुगल प्रभाव आने लगा। जगतसिंह प्रथम, राजसिंह एवं जयसिंह के राज्यकाल में शाहजानी पगड़ी चलती रही। अमरसिंह द्वितीय ने पगड़ियों की नई शैली अपनाई, जो आकार में छोटी थी। यह महाराणा राजसिंह द्वितीय तक चली। इस प्रकार की पगड़ी को अमरशाही पाग के रुप में जाना गया। महाराणा अरसी की पगड़ी, बूंदी शैली के निकट है, जो महाराणा भीमसिंह एवं जवानसिंह के राज्यकाल तक चलती रही। जवानसिंह के बाद पगड़ी के रुपों में बहुत अधिक परिवर्तन आये। महाराणा स्वरुपसिंह ने जो पगड़ी में परिवर्तन किया उसे स्वरुपशाही पगड़ी नाम से जाना गया।

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पहनावे में बदलाव

वर्तमान समय के पहनावे रियासती काल से अलग न आते हैं। कुछ ग्रामीण तथा जंगली क्षेत्रों में रहने वाले मेवाड़ियों को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि समाज का प्रायः सभी वर्ग आधुनिकता से प्रभावित है। समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का बड़ा हिस्सा, चाहे वे विद्यार्थी हो या मुलाजिम प्रायः कमीज और पतलून का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन लोगों के बीच परंपरागत वस्रों का इस्तेमाल प्रायः किसी उत्सव-त्योहार में या अन्य प्रयोजन से ही किया जाता है।

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