राजस्थान

मारवाड़ में मुद्राएँ

प्रेम कुमार


जब से मानव सभ्यता का उदय हुआ है, उसे विनिमय के साधनों की आवश्यता महसूस हुई। शुरुआत में वस्तु विनिमय हुआ करती थी। समय के साथ-साथ विभिन्न वस्तुओं का विनिमय के रुप में प्रयुक्त होने लगा। वैदिक काल में गाय भी विनिमय का एक महत्वपूर्ण माध्यम थी। फिर विनिमय के लिए धातुओं की उपयोगिता मनुष्य को अधिक व्यवहारिक एवं श्रेष्ठ लगी। लेकिन जब किसी विनिमय के लिए धातुओं की मात्रा एवं शुद्धता का सवाल आया तो सिक्कों के रुप में वे सामने आए। प्राचीन साहित्य में मुद्राओं के उपयोग का वर्णन आता है। लेकिन भारत में मौर्यकाल के पहले की कोई मुद्रा अधावधि प्राप्त नहीं हुई है। मौर्य काल की जो मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। उन्हें आहत मुद्रा कहते हैं। आहत मुद्राएँ भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त हुई हैं। उस काल में उनके निमार्ण का कार्य श्रेणियाँ किया करती थीं। श्रेणियों के अपने व्यापारिक केन्द्र हुआ करते थे। मारवाड़ के इलाके में इस प्रकार की आहत मुद्राएँ नहीं मिली हैं।

मारवाड़ में प्राप्त होनेवाली प्राचीनतम मुद्राओं में राजा रुद्रदमन के सिक्के हैं, जिन्हें ट्रम्भ मुद्रा कहते हैं। शक महाक्षत्रपों ने राजस्थान के प्रदेशों को जीता था। इसका वर्णन रुद्रदमन के गिरनार शिलालेख में है। सिक्के के अग्र भाग में राजा का अर्द्ध चित्र है। पृष्ठ भाग में तीन चाप का चैत्य है। नीचे वक्र रेखा, बिन्दु व तारे हैं, जिसपर लिखा है-

राज्ञो क्षत्रपस जयदाम पुत्रस राज्ञो महाक्षत्रपस रुद्रदामस

रुद्रदामन का राज्यकाल १३०-१५० ई. है। इसी काल में कुषाणों व ससेशियन राजाओं का प्रभाव था। किदार कुषाणों के सिक्के मारवाड़ में काफी प्राप्त हुए हैं। साथ ही ससेशियन सिक्के भी प्राप्त होते हैं।

प्राचीन काल में यहाँ के सिक्के चौकोर बनते थे, जो बाद में गोल भी बनने लगे। उन पर कोई नाम नहीं, किन्तु वृक्ष, पशु, धनुष, सूर्य, पुरुष आदि के अनेक भिन्न-भिन्न चिन्ह अंकित होते थे।

गुप्त काल में यह प्रदेश उनके आधीन न था। अतः गुप्त सिक्के मारवाड़ में नहीं पाए जाते हैं। केवल एक-दो मोहरें मिली हैं। ऐसा ही एक सोने का सिक्का, जो सिरोही से प्राप्त हुआ था, परवत्तीं गुप्त नरेश का है।

राजपूत कालीन सर्वाधिक प्रचलित सिक्के गदेहा सिक्के हैं। ये सिक्के बहुत से प्रदेशों में पाए जाते हैं। ये सिक्के ससेशियन सिक्कों का विकृत रुप है। ये सिक्के भिन्न-भिन्न बनावट व आकार के हैं। ये तांबे और चांदी के होते थे। बहुत संभव है कि इन्हें राजपूत राजाओं ने चलाया था। इन सिक्कों के अग्रभाग पर मनुष्य का उपहास चित्र व पृष्ठ भाग पर यज्ञ कुण्ड बना हुआ है।

मारवाड़ में प्रतिहार शासकों के सिक्के भी प्राप्त होते हैं। प्रतिहारों की राजधानी पदक भीनमाल थी। हर्ष की मृत्यु के उपरांत प्रतिहारों ने उत्तर भारत में फैली अराजकता का लाभ उठाकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उस जमाने में कन्नौत का अधिकारी सारे उत्तर भारत का स्वामी माना जाता था, लेकिन कसक्के ढालने के मामले में वे गंभीर नहीं थे। भोजदेव प्रथम (८३६-८४ई.) के सिक्के राजस्थान से प्राप्त हुए हैं। उन्हें आदि वराह द्रम्भ्भ कहते हैं। सिक्के के अग्र भाग पर वराह-अवतार(विष्णु) की आकृति है। वराह को पृथ्वी की रक्षा करते हुए अंकित किया गया है। दाहिना पैर उठा हुआ है व बाऐं पैर के नीचे चक्र है। पृष्ठ भाग पर नागरी में श्री मदादि वराह लिखा हुआ है। ये सिक्के चांदी के हैं।

सल्तनत युग में विभिन्न सुलतानों के सिक्के प्रचलित रहे। इनमें फिरोजशाही सबसे ज्यादा प्रचलित थे। इस दौरान सिंध व पंजाब पर कई बाहरी हमलावर भी आए तथा उन्होंने भी सिक्के जारी किए।

मुगल काल में मुगलों के सिक्के चलते थे। अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब व परवर्ती मुगलों के सिक्के अधिकांशतः शाहआलम द्वितीय के सिक्के मिलते हैं। लगभग बारहवीं शताब्दी से लेकर औरंगजेब की मृत्यु (१७०७ ई.) तक मारवाड़ में कोई सिक्के ढाले नहीं गए। मुगलों ने अपने अधीनस्थों को सिक्के ढालने की अनुमति प्रदान नहीं की थी। परन्तु मुगल साम्राज्य के कमजोर होने पर अन्य शासकों की भांति जोधपुर में भी सिक्के ढाले जाने लगे। वैसे तो सबसे पहले अजीत सिंह ने अपने नाम का सिक्का चलाया था, लेकिन नियमित टकसाल शाह आलम द्वितीय (१७५९-१८०६) के समय शुरु हुई। विजय सिंह ने शाह आलम के नाम से सर्वप्रथम सिक्के ढाले थे, जो विजयशाही सिक्के कहलाते थे। चांदी का सिक्का विजयशाही रुपया व तांबे का विजयशाही पैसा कहलाता था। सन् १८०० के लगभग भीम सिंह के काल में विजयशाही पैसे का वजन बढ़ा दिया गया। तब से भीम शाही पैसा कहलाने लगा, लेकिन इसके वजन व आकार के कारण ढब्बू पैसा कहलाने लगा। उम्मेदसिंह जी व हनुवन्त सिंह जी के काल तक तांबे के सिक्के काफी हल्के हो चुके थे।

जोधपुर की मुद्राओं को जिन चिन्हों से पहचाना जाता है, वह है झाड़ की पत्ती व तलवार। इसके अतिरिक्त इस राज्य में टकसाल के दरोगा देवनागरी लिपि में कुछ शब्द अंकित कर देते थे। जैसे गो, ब, म आदि।

मुद्रा का प्रचलन सिक्के में धातु की विशेष मात्रा के अनुसार हुआ करता था। जनता वही मुद्रा पसंद करती थी जिसमें मिश्रण कम किया गया हो। अतः यह जरुरी नहीं था कि किसी राज्य में उसी राज्य की मुद्रा चले। व्यापारिक विनिमय में आस-पास के राजाओं की मुद्राएँ भी प्रचलित थी। जोधपुर राज्य की सीमा में जैसलमेर राज्य की अखेशाही मुद्रा, जो चाँदी की है, खूब चलती है। ये सिक्के मोहम्मदशाह व रानी विक्टोरिया के नाम से ढाले गए थे। इन सिक्कों पर शकुन चिड़ी व छत्र का निशान बना हुआ है।

सन् १८१८ ई. में मारवाड़ राज्य (जोधपुर) की ब्रिटिश सरकार से संधि हो गई। १८५८ ई. के बाद के सिक्के रानी विक्टोरिया व सम्राटों के नाम से हैं, लेकिन १८५८ ई. के पहले तक के सिक्के शाह आलम के नाम तक ढलते रहे।

महाराजा जसवंतसिंह जी द्वितीय के काल में भयंकर अकाल पड़ा। सरकार पर राज भार बढ़ गया। अतः चाँदी के सिक्के ढलने बंद हो गए। इसके बाद चांदी का रुपया जोधपुर में कभी नहीं ढला। यद्यपि सोने व तांबे के सिक्के ढलते रहे। चाँदी के सिक्कों की जगह ब्रिटिश कलदार रुपयों न ले ली, जो सन १९४७ तक चलते रहे।

 

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