राजस्थान

अलवर के देवालय

राहुल तोन्गारिया


अलवर से लगभग ३८ मील दूर नीलकण्ठेश्वर का मंदिर अत्यंत सुन्दर एवं प्राकृतिक वातावरण में स्थित है जिसका निर्माण बरगू राजा अजयपाल ने संवत् १०१० में करवाया था। यहाँ पत्थरों में नक्काशी की कुछ कलात्मक प्रभावोत्पादन कृतियाँ देखी जा सकती हैं जिनसे उन दिनों की कला एवं निर्माण क्षमता का स्मरण होता है। पूर्व की ओर वृषभ चिन्ह सहित नीलकण्ठ महादेव का मंदिर है। जीर्ण - शीर्ण अवस्था में होने के बावजूद इसमें अभी तक पूजा - पाठ होता है। इसकी बाहरी भित्तियों की व्यापक रुप से मरम्मत की गई है और मंदिर व स्तम्भों का नवीकरण किया गया है। इस मंदिर के मण्डप में १६ इंच व्यास के चार केन्द्रीय स्तम्भ हैं। उन पर उत्कीर्ण नायिकाओं की मूर्तियाँ व संगीतज्ञों व नृत्यांगनाओं के भित्ति चित्र बड़े सुरुचिपूर्ण हैं। ६ फूट के वर्गाकार गर्भगृह में काले पत्थर का एक शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। 

मंदिर की दक्षिण दिशा में शिव की एक अष्टभुजा वाली मूर्ति है जिसमें उनके बायें हाथ में एक गदा, एक धनुष व बाण हैं और इनके दाहिने हाथ में से दो में से एक में निरिग, एक में डमरु है, उनका बायाँ हाथ नन्दी के सिर पर है और वे सम्पूर्ण देह पर मुण्डी की माला धारण किये हुए हैं। उनके चरणों के समीप शरणागत गणेश हैं। यह शिव का त्रिपुरातक रुप है जिसमें स्वर्ण की सी कांति और मेस सी दृढ़ता है जिसने तीन दुर्ग विनिष्ट कर दिए। एक स्वर्ण का स्वर्ग में था, दूसरा रजत का जो आकाश में था और तीसरा लोहे का जो पृथ्वी पर था। 

पौराणिक कथा है कि दैत्यों के राजा ने संसार के सभी शासकों को पराजित कर दिया और तीनों लोकों को अपने अधिकार में ले लिया और अपनी माया से उन्हें एक दूर्ग में मिला दिया और अपने योग से उसने यह सिद्धि प्राप्त की कि उसके राज्य को तभी नष्ट किया जा सकता है जबकि कोई इसे एक बाण से बाध दे पर वहाँ कोई मनुष्य व देवता नहीं दीख पड़ता था जिसमें इस अजय दुर्ग को भेदने वाले बाण को चला सकने की शक्ति हो। तब महादेव शिव ने अपना धनुष - पिनास उठाकर शर सन्धान किया जिसने उस दैत्यराज के गढ़त्रिपुर को विनष्ट कर दिया। नीलकण्ठेश्वर मंदिर की मूर्ति शिव के उसी नायक के रुप को प्रस्तुत करती है जिसमें वे मुकुट धारण किये हुए हैं। दाहिने कान में मकर कुण्डल है और उनके पैरों में नुपूर बाँधे हुए हैं। वह इस गुरु ज्ञान की उल्लासमयी मुद्रा में खड़े प्रदर्शित किये गये हैं, उनसे असपरों के राजा के गढ़ का विनास करनेवाले तरकश से बाण की दैवी शक्ति का प्रभाव मिल रहा है। मूर्ति की गर्वोन्नत मुद्रा, रामयुल मुख, सर्वज्ञानमयी मधु मुस्कान, सिंह की छाती और प्रतत दाहिना वग एक चतुरा चितरे की अभिव्यक्ति है जिसने इस रुप के निचोड़ को ग्रहण करके मनि पाषाण में परिवेष्टित बिम्ब को व्यक्त और प्रकाशित किया गया है।

इस मंदिर के ठीक पास जैन मंदिरों के भग्नावेष हैं। यहीं पर भगवान तीर्थ कर की १६ फुट ऊँची और ६ फुट चौड़ी एक प्रतिमा स्थापित है जिसे "९ गजा" कहते हैं। इसको भाईशाह महाजन ने एक बड़गू राजा सुबुद्ध बेरह के शासन काल में बनवाया था। मूर्ति का सिर एक प्रभामण्डल द्वारा घिरा हुआ है। तराशे गए हाथी और उड़नेवाले देवता जिनके हाथों में मालाएँ हैं। गाँव के आस - पास बिखरे हुए अन्य मंदिर ९वीं सदी में और कुछ मूर्तियाँ तो ७वीं और ८वीं सदी में बनी पड़ती हैं जो सम्भवत: गुर्जर और प्रतिहारों के समय की है।

पाण्डूपोल एक एक दूसरी धार्मिक स्थान है जहाँ पर हनुमान की प्रतिमा सुशोभित है और एक ऊँचे चबूतरे पर बने इस मंदिर में हजारों पर्यटक और भक्तगण आते हैं। इसकी इस रुप में ऐतिहासिक महत्ता भी है कि इन पहाड़ियों में किसी समय पाण्डवों ने अपना निवास रखा था।

 

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