राजस्थान

मेवाड़ी जीवन की सामाजिक समस्याएँ

डाकन प्रथा

अमितेश कुमार


मेवाड़ी दलित समाज में, विशेषकर भील, मीणा आदि रुढिवादी जातियों में डाकन प्रथा की कुप्रथा प्रचलित थी। आदिवासी जातियों में यह अंध विश्वास व्याप्त था कि मृत व्यक्ति की अतृप्त आत्मा जीवित व्यक्तियों को कष्ट पहुंचाती है। ऐसी आत्मा यदि पुरुष के शरीर में प्रवेश करती है, तो उसे भूत लगना तथा स्री शरीर में प्रवेश करने पर उसे चुड़ैल लगना कहा जाता था। चुड़ैल-प्रभावित स्री को डाकन कहा जाता था। डाकन घोषित स्री समाज के लिए अभिशाप समझी जाती थी। अतः उस स्री को जीवित जलाकर या सिर काटकर या पीट-पीटकर मार दिया जाता था। राज्य द्वारा भी डाकन घाषित स्री को मृत्यु दण्ड दिया जाता था।

१८५२ ई. में मेवाड़ भी कोर के कमाण्डर जे.सी.ब्रुक ने मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट जार्ज पैट्रिक लारेन्स का ध्यान इस कृत्य की ओर आकर्षित किया। मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट ने कप्तान ब्रुक के पत्र को महाराणा के पास प्रेषित करते हुए इस प्रथा को तत्काल बन्द करने को कहा। किन्तु महाराणा स्वरुपसिंह ने इस पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया। १८५६ ई. में मेवाड़ भील कोर के एक सिपाही द्वारा डाकन घोषित स्री की हत्या कर दी। इस पर तत्कालीन ए.जी.जी. ने पॉलिटिकल एजेन्ट जार्ज पैट्रिक लॉरेन्स को लिखा कि राज्य में इस प्रकार की घटनाएं घटित होने पर अपराधी को कठोरतम दण्ड दिया जाय।

ए. जी. जी. के निरन्तर दबाव के परिणामस्वरुप बड़ी अनिच्छा से महाराणा स्वरुप सिंह ने यह घोषित किया कि यदि कोई व्यक्ति डाकन होने के संदेह होने पर किसी स्री को यातना देगा, तो उसे ६ माह कारावास की सजा दी जाएगी। हत्या करने पर उसे हत्यारे के रुप में सजा दी जाएगी।

लेकिन महाराणा के इस घोषणा के उपरान्त भी इस तरह की घटनाएँ समय-समय पर होती ही रही। यद्यपि ब्रिटिश अधिकारियों और महाराणा द्वारा की गई कार्यवाहियों में समाज में इस कुप्रथा को पूर्णतः समाप्त तो नहीं किया जा सका, लेकिन १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में डाकनों के प्रति अत्याचारों में कमी अवश्य आ गयी थी। लेकिन अब धूर्त स्रियाँ डाकन होने का स्वांग करने लगी तथा रुढिवादी समाज, जो अब भी डाकन-भय से ग्रस्त था, ऐसी औरतों से बचने के लिए उनके द्वारा मुंह मांगी वस्तुएं देने लगा। महाराणा सज्जनसिंह ने ऐसी धूर्त औरतों का देश से निष्कासन करना आरम्भ कर दिया, फिर भी समाज में डाकन-भय समाप्त नहीं हुआ।

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