राजस्थान

मेवाड़ में प्रचलित प्रमुख लोक-संस्कार

मेवाड़ में मृतक संस्कार

अमितेश कुमार


समाज में मृतक संस्कार भी एक महत्वपूर्ण सामाजिक क्रिया थी। हिन्दुओं की मान्यतानुसार मनुष्य

परलोक में मृतक संस्कार की शुद्धता द्वारा ही सुख भोगता है और जब तक उसका मोक्ष नहीं हो जाता, उसकी आत्मा भटकती रहती है तथा जीवित प्राणियों को कष्ट देती है। भील, मीणा व ग्रामिया जाति में भी यह मान्यता थी कि अच्छी और बुरी आत्मा द्वारा जीवित व्यक्तियों को लाभ और हानि दी जा सकती है। अतः अलग-अलग जातियों में मृतक संस्कार के पृथक-पृथक रिवाजों की परम्परा होते हुए भी संस्कार की शुद्धता, सभी जातियों में महत्वपूर्ण मानी जाती थी। मेवाड़ी समाज में इस संस्कार का पालन करना अनिवार्य था, अन्यथा समाज इसके लिए व्यक्ति अथवा परिवार को बाध्य करता था।

किसी व्यक्ति की मृत्यु निकट प्रतीत होने पर उसे खाट या पलंग से उतार कर गोबर पुते फर्श पर सुलाया जाता था। उसके संबंधी गीता अथवा रामायण का पाठ सुनाते हुए मुंह में गंगा जल या तुलसी पत्ता डालते थे। साथ ही शास्रानुसार दस दान - गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण, घृत, वस्र, धान, गुड़, रजत व नमक का आर्थिक स्थिति के अनुसार संकल्प कराते थे। मृत्यु के पश्चात् समृद्ध मृतक को अर्थी के साथ-साथ उसके सम्बन्धी रुपया, पैसा, मोती, कौडिया तथा अन्न उछालते थे और आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवार वाले नारियल के टुकड़े (गिरी) साथ कौडिया उछालते थे। श्मशान घाट में मान्यतानुसार मृतक को जलाया अथवा गाड़ा जाता था। मेवाड़ में अभिजात वर्ग का श्मशान घाट महासत्या कहलाता था। मेवाड़ में यह परम्परा रही है कि किसी महाराणा की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी स्वर्गीय महाराणा की दाह क्रिया में सम्मिलित नहीं होता था। जन साधारण में १२ दिन का अशौच रखा जाता था।

द्विज जातियों में १० वें दिन मृतक के ज्येष्ठ पुत्र द्वारा पिण्ड दान किया जाता था और मृतक के पुरुष रिश्तेदार, जो उम्र में मृतक से छोटे होते थे, सिर क बाल, दाढ़ी और मूंछ मुण्डवाकर भदर होते थे। १२ वें दिन मृतक भोज का आयोजन किया जाता था तथा पगड़ी की र अदा की जाती थी। समाज में मृतक भोज का आयोजन महारोग के समान व्यापक था। सामाजिक दबाव और लोक भय के कारण निर्धन लोगों को कर्ज लेकर भी मृतक भोज का आयोजन करना पड़ता था और वे जीवन भर ॠण नहीं चुका पाते थे। राज्य के उच्चाधिकारी अथवा कृपा पात्रों को मृतक भोज के लिए राज्य की ओर से द्रव्य एवं नकद सहायतार्थ दिया जाता था। मृत्यु के एक वर्ष बाद श्राद्ध कर्म किया जाता था। अभिजात एवं संपन्न वर्ग द्वारा यह श्राद्ध कर्म हरिद्वार, गया अथवा बनारस में किया जाता था अथवा फिर कभी तीर्थ यात्रा के अवसर पर इसे पूर्ण किया जाता था। श्राद्ध कर्म के अवसर पर दान-पुण्य का प्रचलन था। आदिवासी जातियों में श्राद्ध कर्म की परंपरा नहीं थी।

 

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