राजस्थान

मेवाड़ में काल गणना व उत्सव

अमितेश कुमार


विक्रमी चैत्र शुक्ल १
चैत्र शुक्ल ८
चैत्र शुक्ल ९
वैशाख कृष्ण १
वैशाख कृष्ण २
वैशाख शुक्ल ३
वैशाख शुक्ल १४
ज्येष्ठ शुक्ल ११
आषाढ़ शुक्ल १५
श्रावण कृष्ण १
श्रावण कृष्ण
श्रावण शुक्ल ३
श्रावण शुक्ल १५
भाद्रपद कृष्ण ३
भाद्रपद कृष्ण ८
भाद्रपद कृष्ण १२
भाद्रपद कृष्ण १४
भाद्रपद शुक्ल ४

भाद्रपद शुक्ल ७
भाद्रपद शुक्ल ११
भाद्रपद शुक्ल १२
भाद्रपद शुक्ल १४
सुखिया सोमवार
भाद्रपद
भाद्रपद कृष्ण ११ से भाद्रपद शुक्ल ४
आश्विन शुक्ल १

आश्विन शुक्ल २
आश्विन शुक्ल ३
आश्विन शुक्ल ४
आश्विन शुक्ल ५
आश्विन शुक्ल ६
आश्विन शुक्ल ७
आश्विन शुक्ल ८
आश्विन शुक्ल ९
आश्विन शुक्ल १०
आश्विन शुक्ल १५

कार्कित्तक कृष्ण १३
कार्कित्तक कृष्ण १४
कार्कित्तक कृष्ण अमावस्या
कार्कित्तक शुक्ल १
कार्कित्तक शुक्ल २
कार्कित्तक शुक्ल ३
कार्कित्तक शुक्ल १५
मार्गशीर्ष कृष्ण १
पौष शुक्ल १५
माघ शुक्ल ५
माघ शुक्ल ७
फाल्गुन शुक्ल ११
फाल्गुन कृष्ण १४
फाल्गुन शुक्ल १५

चैत्र कृष्ण १
चैत्र कृष्ण २
चैत्र कृष्ण ५
चैत्र कृष्ण ७

 

मेवाड़ में काल गणना के लिए विक्रम संवत् को आधार माना जाता रहा है। चूंकि चंद्रोदय से तिथि का ज्ञान बिना गणित की खास मदद से संभव था, अतः शुरुआत में यहाँ भी संभवतः चंद्र मास व चंद्र वर्ष की संकल्पना थी। बाद में गणित विद्या के प्रसार होने के बाद सौर मास व सौर्य वर्ष को मान्यता देने की बात आई। परंतु चंद्र मास की तिथियों पर बहुत से धर्म संबंधी कार्य नियत हो जाने से चंद्र मास का बदलना कठिन हो गया। तब गणितकारों ने सौर मास बनाकर उसको १२ लग्न अर्थात १२ संक्राति के नाम से जारी किया, लेकिन यह प्रचार कुछ वर्ग विशेष तक ही सीमित रह गया। तब चंद्र मास को ही साबित रखकर ३२* महिनों के अनंतर अधिक मास बनाकर चंद्र वर्ष को सौर्य वर्ष में शामिल कर लिया गया। दो तरहों से संवत् के प्रारंभ मानने की परंपरा रही है। साहूकारों, गणितकारों व प्रजागणों में चैत्रादि संवत्, जो चैत्र शुक्ल १ से शुरु होता है, का प्रचलन था, वही राज्य श्रावणादि संवत् को मानता था, जो श्रावण कृष्ण १ से शुरु होता था।

यहाँ मुख्य रुप से तीन ही ॠतुएँ थी- ग्रीष्म (गर्मी), वर्षा व हेमंत (जाड़ा), और इन्हीं तीन ॠतुओं के अनुसार आरोग्यता और अनारोग्यता मानने का प्रावधान था। रियासत में होने वाले हर धार्मिक मेले व त्योहार काल-गणना से प्राप्त तिथियों के अनुसार ही होते थे।

* यह कभी-कभी न्यूनाधिक होता रहता है।
** उन्नीसवीं वि. शतक के पहले इसको आषाढादिक मानते थे और आषाढ शुक्ल १ से प्रारंभ गिनते थे।

विक्रमी चैत्र शुक्ल १

यह दिन नव वर्ष का पहला दिन माना जाता था। इस दिन ज्योतिषीगण उत्तम वस्र व आभूषणों से सुसज्जित होकर महाराणा की सेवा में उपस्थित होते थे तथा नवीन पंचांग भेंट करते हुए धन्यवाद ज्ञापन करते थे। यह दिन साधारण उत्सव का दिन होता था।

चैत्र शुक्ल २ के दिन गणगौर का सिंयारा (दातणहेला) मानकर शहर की स्रियाँ अच्छे-अच्छे रंग बिरंगे कपड़ों में बाग-बाड़ियाँ जाती थी। राज्य में उत्सव का माहौल होता था। इसका आयोजन महाराणा की मर्जी के हिसाब से किया जाता था।

चैत्र शुक्ल ३ को प्रथम गणगौर का उत्सव होता था। राज्य तथा शहर में भारी धूम-धाम होती थी। नगाड़े बजाये जाते हैं। तीसरी बार के नगाड़े के बाद महाराणा की सवारी होती थे। १९ या २१ तोपों की सलामी दी जाती थी। बड़ी पोल से त्रिपोलिया घाट तक दोनों तरफ एक अंतराल पर खंभे गाड़ दिये जाते थे। उसमें लाल रस्सियाँ बाँधी जाती थीं। हरेक खंभे के पास पुलिस के जवान तैनात किये जाते थे। इस सीमा के भीतर सिर्फ राजकीय लोगों को ही अनुमति थी।

महाराणा की सवारी महलों से रवाना होती थी, जिसमें सबसे आगे निशान का हाथी होता था। उसके पीछे दूसरे हाथियों पर सरदार, पासवान आदि होते थे। फिर पलटनों के साथ अफसर तथा अंग्रेजी बाजा का प्रबंध होता था। इसके पीछे सोने तथा चाँदी के हौदे कसे हुए हाथी तथा ताम-झाम होता था। राज्य के प्रतिष्ठित लोग, उमराव, सरदार, चारण व अहलदार इसके पीछे-पीछे अच्छे कि के घोड़ों पर सवार होकर निकलते थे। इनके पीछे जरी के काम किये व सोने-चाँदी के गहनों से सजे हुए घोड़े तथा मुख्य घोड़े, जिसके दोनों तरफ चंवर व मोरछले होती थी, सवारी के क्रम में खड़े किये जाते थे। सवारी में युवराज (वलीअह्मद)

के चलने के लिए दो स्थानों का निर्धारण किया गया था। यह स्थान खासा हाथी-घोड़ों के आगे अथवा महाराणा साहब की पैदल जलेन के आगे रहती थी, जिसके पीछे अर्दली के सिपाही आदि होते थे।

महाराणा की पोशाक उम्दा होती थी। वे नाना प्रकार के हीरे-मोतियों के आभूषण धारण किए हुए होते थे। ऊपर अमर शाही, अरसी शादी व स्वरुप शाही पगडिंयों में से कोई एक कि की पगड़ी, जामा और डोढ़ी, जो उससे छोटी होती है, धारण करते थे। वे साथ में कमरबंद, तलवार व ढाल धारण कर अश्वारुढ़ रहते थे। दोनों तरफ से चंवर, छत्र, छहांगीर, किराठीया, अडाणी, दवा आदि की व्यवस्था होती थी, नक्कारे का हाथी सबसे पीछे होती था, सवारी के दोनों तरफ छड़ीदारों की बुलंद आवाजें और आगे से वीरता के दोहे सुनाने वाले गायक जन सवारी के आनंद को कई गुणा बढ़ा देते थे। पूरे ठाठ बाट के साथ महाराणा घोड़े से त्रिपोलिया घाट तक पहुँचते थे। वहाँ घोड़े से उतरकर नाव की सवारी होती थी। दो बड़ी नावें मजबूत जूड़ी हुई रहती थी, उसमें एक नाव पर दो फीट ऊँचा एक सिंहासन रहता था। जिसपर चारों खंभे वाली लकड़ी की छत्री लगी होती थी। छत्री व सिंहासन को कभरवाब, जर्दोजी व जरी के कामों से सजा दिया जाता था।

छत्री के चारों कोनों तथा गुंबद पर बादले के त्तुर्रे व कलगी लगे होते थे। सिहांसन के चारों तरफ, नीचे के तख्तों पर सरदार, चारण, अह्मलादार व पासवान अपने पदों की हैसियत से बैठे व खड़े रहते थे। समाज के अन्य सम्माननीय नागरिक उसे के समीप जुड़ी दूसरी नाव व किश्तियों में सवार होते थे। और तब शुरु होती थी, महाराणा की नाव की सवारी। नावें धीरे-धीरे दक्षिण की तरफ बड़ी पाल तक जाने के बाद पुनः घूमकर त्रिपोलिया घाट तक आती थी।

महाराणा की सवारी के अलावा महलों से गणगौर माता की एक अलग से सवारी निकलती थी। इस सवारी के साथ सुदर पोशाकों व सोने-चाँदी के आभूषणों से सजी दासियों का झूंड होता था। स्रियों के सिर पर करीब ३ फीट ऊँची गणगौर माता की काष्ट की बनी प्रतिमाएँ जो सोने व चाँदी से सजी होती थी, रखी जाती थी। इसके दोनों तरफ दो दासियाँ हाथ में चंवर लिए चलती थीं। सवारी में हाथी व घोड़े होते थे, जिनपर पंडित, ज्योतिषी व जमातीड्योढ़ी के ऊंचे अह्मलकार सवार रहते थे। इस सवारी के त्रिपोलिया घाट पहुंचते ही महाराणा अपने सिंहासन से उतर कर गणगौर माता को प्रणाम करते थे। वहीं उन्हें वेदिका पर रखकर माता का पूजन किया जाता था। पंडित व ज्योतिषी महाराणा को शुभकामनाएँ व आशीर्वाद देते थे। दासियाँ प्रतिमा के दोनों तरफ खड़े होकर गणगौर माता को नमन करती हुई लूहरें (एक प्रकार का गीत) गाती थीं। पुनः उन्हें उसी प्रकार जुलूस के साथ महलों तक पहुँचा दिया जाता था। त्रिपोलिया के पूजन स्थल पर ही नाच-गानें का कार्यक्रम होता था। जिसमें ऊँचे तबके के लोग अपनी पत्नियों के साथ किश्तियों में आते थे। महाराणा की नाव के आगे-पीछे कई किश्तियाँ चला करती थी। फिर तालाब के किनारों पर तथा किश्तियों पर रंग बिरंगी आतिशबाजी का दौर चलता था। तालाब के किनारे स्री व पुरुषों की भीड़ हो जाती थी।

अन्त में महाराणा रुपघाट पर उतरकर तामजाम में सवार हो महलों में पधार जाते थे। इन दिनों महलों को भी विशेष रुप से भव्यता के साथ सजाया जाता था। यहाँ महाराणा के साथ कुछ चुनिन्दे सरदार व पासवान ही पहुँचते थे। इन लोगों से विदा लेकर महाराणा जनाना में चले जाते थे। इसी तरह प्रायः ४ दिनों तक जल्सा होता रहता था। महाराणा की इच्छा से इसे दो या चार दिन बढ़ाने का भी प्रावधान था।

इस प्रकार उदयपुर के गणगौर जल्से को पूरे राजपूताना में एक खास महत्व था। राज्य के द्वारा प्रबंध किये गये उत्सव के अलावा रियासत के अन्य जगहों पर भी गणगौर माता के पूजन की परम्परा प्रचलित थी। अन्य स्थानों पर प्रायः मिट्टी की बनी गणगौर माता व साथ-साथ अन्य देवताओं की छोटी प्रतिमाएँ भी साथ-साथ निकाली जाती थीं। यह उत्सव राजपुताना के अन्य रियासतों में भी उत्साह से मनाया जाता था। स्रियों के सबसे बड़े उत्सव के रुप में इसे सम्मान प्राप्त है। यहाँ महादेव को ईश्वर व पार्वती को गणगौर माना जाता है।

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चैत्र शुक्ल ८

इस दिन शतचण्डी का पाठ, होम और देवी का पूजन होता था।

चैत्र शुक्ल ९

इस तारीख को रामचन्द्र का जन्मोत्सव मनाया जाता था। इस उपलक्ष्य में मध्यान्ह के समय राजकीय तोपखाने से गोले बरसाये जाते थे। मंदिरों में राग, रंग, नाच-गान आदि का आयोजन होता था। दूसरे दिन पुजारी लोग महाराणा व दरबारी सेवकों के घर पंजेरी, पंचामृत व प्रसाद पहुंचाते थे।

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वैशाख कृष्ण १

इस तिथि को राज्य में श्री एकलिंगेश्वर का प्रागट्योत्सव (जन्मदिन का उत्सव) मनाया जाता था। मान्यता थी कि इसी दिन एक लिग जी दर्शनार्थ दरबार पधारते हैं। इस उत्सव में शाम के वक्त महाराणा का दरबार लगता था जिसमें मिष्ठान्न भोजन बाँटे जाते थे। बाद में हाथियों की लड़ाई व तोपों की सलामी कराई जाती थी।

वैशाख कृष्ण २

इस दिन धींगा गणगौर का त्योहार मनाया जाता था। जिसमें चैत्री गणगौर की तरह के जलसे होते थे। इस त्योहार के साथ एक बात यह है कि इसे उदयपुर के सिवा राजपुताना की दूसरी रियासतों में नहीं मनाया जाता था। राजपूताना में धींगाई जबर्दस्ती को कहा जाता है। चूंकि उदयपुर के महाराणा राजसिंह अव्वल ने अपनी छोटी महाराजी (महारानी) के प्रसन्नार्थ रीति के विरुद्ध इस त्योहार को प्रचलित किया था अतः इसे धींगा गणगौर कहा गया।

वैशाख शुक्ल ३

इस दिन अक्षय तृतीया का त्योहार होता है। इस दिन महाराणा द्वारा जगान्नवास महल में पधारकर गोठ होती थी। शुरुआत में जलसे में प्रयुक्त वस्रों को केसर रंग में रंगा जाता था लेकिन बैकुण्ठवासी महाराणा सज्जन सिंह ने इस परम्परा को बदलकर केसर व कुसुम्में के छींटों से बसंती बना देने का हुक्म दे दिया। दिन के जलसे के बाद महाराणा सायंकाल में जुलूसी नौका पर सवार होकर तालाब की सैर करते थे जहाँ राग-रंग की व्यवस्था रहती थी।

वैशाख शुक्ल १४

इस तिथि को नृसिंह जयन्ती के रुप में मनाया जाता था।

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ज्येष्ठ शुक्ल ११

यह दिन निर्जला एकादशी होती थी। निर्जल उपवास छोटे-बड़े सभी हिन्दू लोग बड़ी श्रद्धा भाव से करते थे। मंदिरों में उत्सव का आयोजन होता था।

आषाढ़ शुक्ल १५

यह तिथि गुरु पूर्णिमा होती थी। इस दिन पठन-पाठन करने वाले बालक अपने गुरु का पूजन करते थे। एकलिंगेश्वर की पुरी तथा सवीनाखेड़ा में महन्त सन्यासियों का पूजन होता था। कभी-कभी महाराणा भी सवीने खेड़े पधारते थे।

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श्रावण कृष्ण १

इस तिथि को भी नवीन वर्ष का उत्सव मनाया जाता था। इस दिन प्रधान की तरफ से दावत व राग-रंग का प्रबंध होता था।

श्रावण कृष्ण

इस दिन हरियाली अमावस्या मानकर प्रजागण उत्सव करते हैं। इसी दिन महाराणा अपने सभ्यगणों सहित बड़े पुरोहित के मकान पर पधारकर भोजन करते थे। शहर के आम लोग देवाली के पहाड़ पर नीमच माता के दर्शन के लिए जाते थे।

श्रावण शुक्ल ३

इस दिन काजली तीज का त्योहार मनाया जाता था। यह त्योहार भी पूरे राजपूताने में लोकप्रिय है जिसमें राजा, प्रजा सब भागीदार होते थे। इस दिन महाराणा जगन्निवास महल में पधारकर दावत करते थे। रंगीन रस्सों के झूलों पर वेश्याएँ झूलती व गायन करती थी। शाम के समय जुलूस के साथ नाव की सवारी होती थी। वहाँ से बाजार होते हुए महल चले आते थे। इस दिन भी महलों को विशेष रुप से वैसे ही सजाया-संवारा जाता था जैसा गणगौर के उत्सव में सजाते थे।

श्रावण शुक्ल १५

इस तिथि को रक्षा बंधन का त्योहार मुहू के अनुसार मनाया जाता था। इस दिन राज्य के कुल ब्राम्हण, सरदार, चारण व अह्मलदार महाराणा के दाहिने हाथ में राखी बाँधते थे। और फिर आपस में राखी बाँधने का प्रचलन था। ब्राम्हण हर एक के यहाँ जाते थे और राखी बाँधकर दक्षिणा लेते थे। बहन और बेटियाँ भी पिता व भाइयों को राखी बांधती थी। इसके एवज में वे लोग पूहली का दस्तूर देते थे। इस उत्सव में नारियल की अच्छी खपत हो जाती थी।

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भाद्रपद कृष्ण ३

इस तिथि को बड़ी तीज का त्योहार मनाया जाता था। वैशाख कृष्ण ३ को मनाये जाने वाले धींगा गणगौर की तरह बड़ी तीज भी उदयपुर तथा आसपास के क्षेत्र में ही प्रचलित है। कहा जाता है कि महाराणा राजसिंह ने अपनी छोटी महारानी को खुश करने के लिए ही श्रावण शुक्ल ३ को छोटी और भाद्रपद कृष्ण ३ को बड़ी तीज का प्रचलन शुरु किया था। इस तीज को भी श्रावणी तीज की तरह ही मनाया जाता है।

भाद्रपद कृष्ण ८

इस दिन कृष्ण जन्माष्टमी मनाया जाता था। मंदिरों में धूमधाम होती थी। लोग उपवास करते थे। दूसरे दिन पुजारी लोग राज्य के तथा नगर के प्रतिष्ठित लोगों के यहां प्रसाद भेजते थे। इसी दिन दधिकर्दम का उत्सव भी होता था।

भाद्रपद कृष्ण १२

इस तिथि को वत्सद्वादशी होती है। इस दिन स्रियाँ गाय तथा बछड़े का पूजन करती है तथा उस वक्त लड़के व लड़कियाँ अपनी माता की साड़ी (ओढ़नी) का पल्ला पकड़ते थे। माताएँ अपने बच्चों को खोपरा देती है। महल के जनाना में भी ऐसा करने का रिवाज था।

भाद्रपद कृष्ण १४

इस दिन महाराणा श्री एकलिंगेश्वर तथा बाणनाथ के अर्पित हुए पवित्रे अपने हाथों से सम्माननीय प्रजाजनों को देते थे। सबसे सम्माननीय पवित्रे सुनहरी होती थी। उसके बाद रुपहरी तथा रेशमी पवित्रे भेंट की जाती थी। इनका मिलना राज्य के लोगों के लिए सम्मान की बात मानी जाती थी।

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भाद्रपद शुक्ल ४

यह तिथि गणेश चौथ का उत्सव दिवस होता था। इस दिन नगर के बच्चे दंडा बजाते हुए पूरे शहर में घूमते थे तथा दरबार में भी जाते थे। रात्रि के समय महाराणा महलों के बड़े चौक में रुपये, नारियल व लड्डू लुटाया करते थे जिनको प्रजागण बड़ी उत्साह से लूटते थे। इस दिन महाराणा गणपति के प्रसिद्ध स्थानों में दर्शनार्थ पधारते हैं।

इसी दिन शहर के धनवान लोग अपने पड़ोसियों के घरों पर भी नारियल व लड्डू फेंकते थे। इसके विरुद्ध प्रायः पड़ोसी उन्हें पत्थर फेंका करते थे। कहा जाता है इस दिन गालियाँ खाना अच्छी बात थी।

भाद्रपद शुक्ल ७

इस दिन नागणेची का पूजन होता था। इस पूजन का कारण यह माना जाता है कि जोधपुर के राव मालदेव के साथ मंगनी की हुई सालाजैत सिंह की कन्या को महाराणा उदयसिंह ब्याह लाये, जिनके साथ राठौड़ों की कुलदेवी का डिब्बा चला आया था।

भाद्रपद शुक्ल ११

इस तिथि को देवझूलनी एकादशी का उत्सव होता है। राजा तथा प्रजा दोनों समान रुप से इस उत्सव में भाग लेते थे। पुजारी लोग विष्णु की धातु की या पाषाण (पत्थर) की प्रतिमा अथवा चित्र की रेवाड़ी (विमान) में बिठाकर जलाशय से ले जाकर स्नान करवाते थे। साथ में हजारों में लोग गीत गाते हुए विमान के साथ जाते थे इस दिन महाराणा खुद भी पिताम्बर की रेवाड़ी के साथ पिछोला झील तक जाते थे। इस दिन सब लोग उपवास करते हैं।

भाद्रपद शुक्ल १२

इस तिथि को वामनद्वादशी भी कहा जाता है। इस दिन वामनावतार का जन्मोत्सव मनाया जाता था।

भाद्रपद शुक्ल १४

इस दिन अनन्त चतुर्दशी मनाई जाती थी। महाराणा व अन्य लोग अनन्त का पूजन करते थे तथा सिर्फ एक बार भोजन (एक मुक्त) करते थे। फिर महाराणा १४ सूत्र के धागों में चौदह गांठ देकर बनाये गये रेशमी अनन्त अपने सभी समीपवर्तियों को देते थे। अनन्त का मिलना भी सम्मान की बात मानी जाती थी।

भाद्रपद शुक्ल १४ से आश्विन कृष्ण अमावस्या इस अवधि को श्राद्ध पक्ष माना जाता था। इस समय हिन्दू अपने पूर्वजों (प्रायः पिता व दादा) का श्राद्ध, तपंण व ब्राह्मण भोजन करते थे। इस बीच मांस व मदिरा का पूर्णतया त्याग कर दिया जाता था। मुसलमान आदि दूसरे धर्मावलम्बियों को भी जीव हत्या की मनाही थी।

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सुखिया सोमवार

श्रावण महीने में आने वाले सोमवार को सुखिया सोमवार कहते हैं। प्रत्येक श्रावणी सोमवार को यहाँ के स्री-पुरुष का आभूषणों से सुसज्जित होकर बाग-बगीचे में जाने का प्रचलन था। वहाँ स्रियाँ आनन्द के साथ गायन करती थी और सोमवार का व्रत खोलती थी। सज्जन निवास बाग में विशाल मेले का आयोजन होता था, सड़कों पर भी बाजार लगाये जाते थे। झूले व डोलर की व्यवस्था होती थी। हर जगह उत्साह का माहौल होता था।

भाद्रपद

इस महीने में देवझूलनी एकादशी मनाया जाता है। कभी-कभी इसी दिन मुस्लिम लोग मुहर्रम का ताजिया भी निकालते थे। ताजिये व रामरेवाड़ी के एक दिन ही निकलने पर फसाद की सम्भावना हुआ करती थी, परन्तु कहा जाता है कि अन्य शहरों से अलग उदयपुर में कभी कोई फसाद नहीं हुआ। यहाँ के प्रसिद्ध ताजियों में भीम पल्टन का ताजिया सबसे बड़ा माना जाता है।

भाद्रपद कृष्ण ११ से भाद्रपद शुक्ल ४

इन तिथियों के बीच जैन सितम्बरी मनबालों का पर्यूषण (पजूसन) होता था। राज्य के कसाई लोगों को जानवर मारने से भी मनाही कर दी जाती थी।

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आश्विन शुक्ल १

इस तिथि से नवरात्रि का प्रारम्भ माना जाता है। पहला दिन प्रातः काल में पलटन, बाजा, हाथी-घोड़े वगैरह के साथ जुलूस महलों से खड्ग लेकर कृष्णपोल दरवाले के भीतर सज्जन निवास बाग के पास खड्ग स्थापना मुकाम तक पहुँचती थी। खड्ग को प्रतिष्ठित लोग मंदिर के भीतर ले जाते थे, वहाँ पर लादूवास का आयस (नाथ महन्त) और पंडित ज्योतिषी व सभ्यगण एक गवाक्ष (गोखड़े) में खड्ग स्थापित का एक स्वनिर्वाचित नाथ को उसके सामने बिठा देते थे, जो अष्टमी पर्यन्त निर्जल व निराहार वहीं बैठा रहता था। हजारों की संख्या मे वहाँ हिन्दू-धर्मावलम्बी दर्शनार्थ आते रहते थे। महलों के भीतर अमरमहल के नीचे की चौपड़ में देवी पूजन की व्यवस्था होती थी। महाराणा अम्बिका भवानी के दर्शन के लिए वहाँ पधारते थे। सायंकाल में वे सवारी के साथ खड्ग स्थापन के दर्शनार्थ पधारते हैं।

इस तिथि से प्रायः देवी भक्त लोग नौ दिन तक एक युक्त व उपवास करते हैं। इस व्रत में मेघ मास निषेध नहीं होता।

अश्विन शुक्ल २

इस तिथि को महाराणा पूरी तरह सज-धजकर घोड़े पर सवार होकर तीसरे नक्कारे की आवाज के साथ ही।, तोपों की सलामी व बैंड-बाजे के साथ अपनी जुलूसी सवारी से निकलते थे तथा हाथी पोल दरवाजे के बाहर चौगान पहुँचते थे। वहाँ महाराणा सरदारों के साथ घाड़े दौड़ाते थे, फिर विशेष रुप से बने दरबार में पधारते थे, जहाँ कई प्रकार के मनोरंजक खेल-तमाशा जैसे हाथियों की लड़ाई, पहलवानों की कुश्ती, खरगोश, सियार व लोमड़ियों का कुत्तों से सामना, परिन्दों का बाजों से मुकाबला आदि दिखाया जाता था। हर दिन वहाँ एक महिष (भैंस) की बलि दी जाती थी। अन्त में हाथियों की लड़ाई के बाद सवारी महलों में पहुँच जाती थी, जहाँ दो बकरे व पाँच भैंसों की बलि दी जाती थी।

* पहली बार का नक्कारा बजना महाराणा के जाने के इरादे की सूचना देता था। दूसरे नक्कारे में कुल रियासती लोग बिन बुलाए इकट्ठा हो जाते थे तथा तीसरा नक्कारा महाराणा के सवार होते समय बजता।

अश्विन शुक्ल ३

इस तिथि को चौगान में कुछ मामूली रस्में अदा की जाती थी। शाम के समय महाराणा हरासिद्धि देवी (हस्तमाता) के दर्शन को पधारते थे, जहाँ पुनः दो बकरे व पाँच भैंसों की बलि दी जाती थी।

अश्विन शुक्ल ४

इस तिथि को महाराणा द्वारा हाथी पर सवार होकर तीर से भैंस के सिर छेदन की प्रथा, जो महाराणा भीमसिंह तक चली, अतः इस दिन को मल्का चौथ भी कहा जाता था।

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अश्विन शुक्ल ५

महाराणा की सवारी प्रातः काल चौगान जाती थी तथा शाम को अन्नपूर्णा देवी के दर्शनार्थ पधारते थे। यहाँ बलि करने का रिवाज नहीं था।

अश्विन शुक्ल ६

इस दिन महाराणा द्वारा प्रातः काल में चौगान की सवारी होती थी।

अश्विन शुक्ल ७

महाराणा चौगान के बाद श्यामल बाग में करणी माता के दर्शनार्थ पधारते थे जहाँ बलि दी जाती थी।

अश्विन शुक्ल ८

इस तिथि को महाराणा देवी विसर्जन का दर्शन कर महाराणा प्रताप के ऐतिहासिक तलवार के साथ बाहर चौक पर पधारते थे। वहाँ से किश्तियों में सवार होकर भवानी के दर्शन को जाते थे।

अश्विन शुक्ल ९

इस तिथि को घोड़ों व हाथियों का पूजन होता था। फिर महाराणा नगीनावाड़ी में दरबार लगाते थे, जहाँ खड़गधारी नाथ को बड़े सम्मान से लाया जाता था। महाराणा उनसे खड़ग व आश्रिका लेकर विदा देते हैं। वहाँ से वे अन्य महन्तों के साथ रसोई (कर्ण महल का चौक) में जाते थे जहाँ धर्माध्यक्ष सम्मान पूर्वक उनको भोजन कराकर विदा करते थे।

अश्विन शुक्ल १०

इस तिथि को दशहरे का बड़ा त्योहार मनाया जाता था। सभी दरबार, उमराद, सरदार व जागीरदार उदयपुर हाजिर होते थे। छोटे जागीरदार अपने-अपने जिलों के प्रमुख के पास हाजिर होते थे। शाम में महाराणा खेजड़ी (शमी) का पूजन करने को पधारते हैं। पूजन के बाद चारों दिशाओं के दरवाजों पर एक-एक तीर भेज दिया जाता है, जो वर्ष भर के लिए पूर्व निश्चित मुहू को बतलाता है। दरबार में दरोगा सभी दरबारियों व सरदारों को उनके ओहदे के क्रम में बिठाता था। यहाँ चारणों द्वारा महाराणाओं की वीर गाथा गायी जी थी। बाद के दरबार में उन्हें घोड़े व हाथियों से नवाजा जाता था। दशहरा और शरद की पूर्णिमा के बीच में एक दिन फौज की हाजिरी के लिए नियत किया जाता था। इस दिन की सवारी भी दशहरे की तरह सजी होती थी। महाराणा साहब इस दिन दिल्ली दरवाजा के रास्ते से सारणेश्वरगढ़ पहुंचते थे। वहीं तोपखाने तथा फौज की हाजिरी होती थी।

अश्विन शुक्ल १५

इस तिथि को शरद पुर्णिमा की खुशी मानी जाती हैं। महाराणा इस दिन की शाम को सवारी के साथ हाथीपोल से होते हुए चौगान पहुँचते थे। वहाँ हाथियों की लड़ाई का आयोजन किया जाता था। वहाँ से वे वापस महल पहुँचते थे, जहाँ ऊपर वाले प्रासाद के सजावट व वस्रों में सफेद रंग का इस्तेमाल किया जाता था। इस दिन देव मंदिरों में भी जलसे का आयोजन किया जाता था।

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कार्कित्तक कृष्ण १३

यह दिन धन तेरस के रुप में मनाया जाता था। इस दिन आम लोग अपने घर के कुल नकद व जेवर रखकर उसका पूजन करते थे, जिसे वे लक्ष्मी पूजन कहते थे। आने वाले तीन दिनों तक अपने घर से मुद्रा का खर्च होना अच्छा नहीं माना जाता था। मुद्रा का आना शुभ शकुन माना जाता था।

कार्कित्तक कृष्ण १४

इस तिथि को रुप चतुर्दशी होती थी। यह दिन शुभ माना जाता था। इस दिन जुआ खलने का दस्तूर था।

कार्कित्तक कृष्ण अमावस्या

इस दिन को दीपमालिका के नाम से जानते थे। घर-घर में दीपक जलाए जाते थे। शाम में महाराणा नगीनाबाड़ी में अपना दरबार लगाते थे।

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कार्कित्तक शुक्ल १

इस दिन को खेंखरा कहा जाता था। इस दिन चौगान के पास ही जरंधर दैत्य की एक विशाल मूर्ति बांसों व लकड़ियों से बनाई जाती थी, जिसमे रंग व पटाखे भरकर कागज से मढ़ दिया जाता था। शाम में हाथियों की लड़ाई होती थी, घोड़े दौड़ाए जाते थे तथा दैत्य के शरीर में आग लगाई जाती थी।

इस तिथि को सबसे बड़ा उत्सव नाथद्वारा में मनाया जाता था, जिसे अन्नकूटोत्सव कहा जाता था।

कार्कित्तक शुक्ल २

यह तिथि यम द्वितीया के नाम से जाना जाता है। इसी दिन दवातपूजन का भी प्रचलन था।

कार्कित्तक शुक्ल ३

इस तिथि को राज्य में दवात पूजा का उत्सव होता था। दीपमालिका से इस तिथि तक अदालतें स्थगित कर दी जाती थी।

कार्कित्तक शुक्ल १५

इस तिथि को देव दीवाली कहा जाता था। मंदिरों में अन्य दिनों की तुलना में अधिक रौशनी की जाती थी। अंतिम रात को स्री व पुरुष श्रद्धालु एकमुक्त (दिन में एक बार भोजन) कर रात मे जलाशय में स्नान करते थे।

इसी पूर्णिमा का पुष्कर (अजमेर) में बहुत बड़ा मेला लगता था।

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मार्गशीर्ष कृष्ण १

इस तिथि को शिकार का मुहू कहा जाता था। महाराणा सेवकों को अमव्वा रंग के रुमाल देते थे तथा जुलूसी सवारी के साथ मुहू के अनुसार निश्चित दिशा में शिकार करने निकलते थे। इसी दिन से सूअर का शिकार शुरु होता था।

पौष शुक्ल १५

इस तिथि को फूसगज का तमाशा होता था। बड़े महल के चौक में फूस का हाथी बनाया जाता था, जिसपर बनावटी महावत भी बिठाया जाता था। लड़ाई का हाथी आकर उस हाथी को बिखेर डालता था।

इन्हीं दिनों मकर-संक्रान्ति का प्रवेश होकर उस दिन यह त्योहार मनाया जाता था। इस दिन महाराणा दान पुण्य करने के बाद बगीचे में गेंद खेलते थे। नगर के लोग हाथीपोल के बाहर चौगान में गेंद खेलते थे।

माघ शुक्ल ५

यह तिथि बसंत पंचमी है, जिस दिन महाराणा बसन्ती पोशाक धारण कर दरबार करते थे। मंदिरों में रंग व गुलाल का उत्सव होता था।

माघ शुक्ल ७

इस दिन नागणेची देवी का पूजन तथा जलसा होता था।

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फाल्गुन शुक्ल ११

इस तिथि को आँवली एकादशी कहते हैं। इस दिन आँवली का पूजन व उपवास होता था। शहर से दूर गंगोद्भव नामक स्थान पर भीलों का मेला लगता था।

फाल्गुन कृष्ण १४

इस तिथि को शिवरात्रि कहते हैं, जिसमें आम लोगों में उपवास तथा शिवपूजन होता था।

फाल्गुन शुक्ल १५

यह होली का त्योहार होता था, जिसे हुताशनी भी कहते हैं। प्रातः काल महाराणा गोट अरोगकर सभ्यजनों के साथ गुलाल से फाग खेलते थे। फिर हाथियों की सवारी पर जाकर गुलाल उड़ाया जाता था। सवारी बाजार से होकर सज्जन निवास या सर्वॠतुविलास पहुँचती थी, जहाँ से सायंकाल में महाराणा स्वच्छ वस्रालंकार धारण कर सायं काल में महल में आ जाते थे तथा नगीना वाड़ी में दरबार में राजसेवकों को काष्ठ के खांडे और नारियल देते थे। मुहूर्त्तानुसार जनानी ड्योढ़ी के चौक तथा बाहरी चौक पर होली जलाई जाती थी। कभी-कभी तालाब में भी नौका की सवारी कर फाग का आयोजन किया जाता था।

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चैत्र कृष्ण १

इस दिन को धूलहरी कहते हैं। इस दिन आम आदमी अपने समाज व अपनी बिरादरी मे फाग का उत्सव मनाता था। शुरु में तो बदमाश लोग, लोगों को उत्सव के बहाने तंग किया करते थे। धीरे-धीरे यह प्रचलन कम हो गया। इस दिन लोग सालभर के अन्दर पैदा हुए लड़के-लड़कियों को ढूंढते थे तथा हाथ में लकड़ी के डंडे लेकर बच्चे के ऊपर उसे परस्पर बताते हुए आशीर्वाद देते थे।

चैत्र कृष्ण २

इस तिथि को जमरा बीज (यमद्वितीया) कहते हैं। शाम के वक्त औरतें गालियों वाली गीतें गाती हुई, होली की भ लाकर उसके पिंडोले बनाकर पूजती हैं। महाराणा शाम में स्वरुप विलास महल में दरबार करते थे तथा नाचने-गाने वालों को इनाम से नवाजा जाता था।

चैत्र कृष्ण ५

इस दिन महलों के चौक पर हाथी, घोड़े, भैंस, सूअर, सांभर, हरिण आदि की लड़ाईयाँ होती थी।

चैत्र कृष्ण ८

इस तिथि को शीतला अष्टमी के रुप में माना जाता है। आम तौर पर हिन्दुओं में इसका रिवाज सप्तमी के दिन है, लेकिन महाराणा भीम सिंदे के जन्मदिन होने के कारण इसके जलसे का दिन अष्टमी कर दिया गया तथा यह हमेशा अष्टमी को ही होने लगा। इस दिन महाराणा जुलूस की सवारी के साथ शीतला देवी के दर्शन करने जाते थे। राज की दासियाँ व शहर की स्रियाँ गीत-नाद के साथ शीतला देवी के पूजन के लिए आती थी। इस दिन से मेला का आयोजन होता था। फूल छावड़ी का मेला गनगौर तक लगा रहता था।

 

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