परिव्राजक की डायरी

साधक


डॉ. आशुतोष दास के साथ हमारा घनिष्ठ परिचय सन् १९३० में हुआ । उस समय सत्याग्रह चल रहा था । वैसे उसके पहले भी हमारी बातचीत हो चुकी थी, परन्तु उस समय मैं उनसे मानों अंतरंग भाव से नहीं सिल सका था । जिस समय की बात मैं बता रहा हूँ, उस समय विधि की अवमानना के फलस्वरुप बंगाल के बहुत से कारर्यकर्त्ता गिरफ्तार   हुए थे । वास्तव में विभिन्न जिलों के ग्रामांचल में इस आंदोलन के फैलाव नहीं हुआ था । ऐसी स्थिति में आशुतोष दास दो-तीन मित्रों के साथ वीर भूम होते हुए पैदल ही मेदिनीपुर की ओर रवाना हो गए । उनकी इस यात्रा का उद्देश्य था कि जितने गाँवों मे सम्भव हो कांग्रेस और सत्याग्रह   की वाणी पहुँचा दी जाए ।

इस समय में मैं उनके साथ था । मनुष्यों को तीर्थयात्रा के समय मुक्त आकाश के नीचे या धूप से दग्ध दुपहरी की क्लान्ति एवं परिश्रम में जिस प्रकार से खोजा जा सकता है, वैसे अन्य जीव किसी भी प्रकार नहीं मिलते । हो सकता है मिलते भी हों । मनुष्य जब अपने हृदय में मृत्यु की अचूक पदचाप सुनता है, तभी उसके जीवन के सभी झूठे आवरण झाड़ियों के समक्ष धूल-बालू के समान उड़ जाते हैं और उसकी सत्यमय मूर्ति प्रकाशित हो जाती हैं । परन्तु आशु भाई की मृत्यु के पहले जिस उज्जवल भयशून्य मूर्ति का आविर्भाव हुआ थे, उसके दर्शन का सौभाग्य मुझे नहीं मिला, क्योंकि उनहोंने किसी को भी अपने अस्वस्थ होने की सूचना देने से मना किया था । जिस प्रकार एक आहत सिंह अपनी शक्ति खोकर मृत्यु के साथ पर्वत की अंधकारपूर्ण गुफा में एकान्त में रहना चाहता है, उन्होंने भी वैसा ही किया था । इसीलिए मुझे कोई क्षोभ नहीं है, क्योंकि यह तो मेरे भाग्य में ही नहीं था ।

वीरभूम ज़िल से जब हम लोग वर्धमान की ओर रवाना हुए, तब भी गर्मी बहुत थी । आशु भाई की तबीयत भी अच्छी नहीं थी, परन्तु शरीर की दुर्बलता उनके मन पर तनिक भी हावी नहीं हो पाती थी । वे मन को और ज़ोर से ही चलाने लगते थे । रास्ते में जितने गाँव पड़ते, उनमें कहीं-कहीं कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्त्ताओं ने सभा का आयोजन किया, परन्तु आशु भाई के पास हम एक चीज़ हमेशा देखते कि किसी भी गाँव में डॉक्टरों से मुलाकात होने पर वे वहाँ उनसे गम्भीरपूर्वक बातचीत करते और पूछते कि गाँव के लोग मुख्यत: किन-किन रोगों के शिकार होते हैं ? चिकित्सा की व्यवस्था कैसी है ? उनके लिए कोई सुधार सम्भव है या नहीं ? इन्हीं सारे विषयों पर वे बातचीत करते । मैंने देखा कि गाँव के डॉक्टर जिस बात से सेवा-धर्म के लिए अनिप्राणित हों, वे बार-बार उसी को कहने का प्रयास कर रहे थे ।

वास्तव में आशु भाई का अपना जीवन भी इसी आदर्श से आरम्भ हुआ था । भारतवर्ष के गरीब निवासियों तक उनका रोग-पीड़ा में सोवा पहुँचना उनके जीवन का सर्वोत्तम व्रत था ।

उनके अंत:करण में यही कामना थी कि देश स्वतंत्र हो, परन्तु बारह वर्षों में एक दिन भी मैंने उन्हें अंग्रेज़ जाति के प्रति विद्वेष की भावना से आक्रांत होते नहीं देखा । वे स्वाधीनता को जकड़े नागपाश को छुड़ाने के लिए उद्यत थे । क्यों न हों, इसी नागपाश के कारण ही तो हमारे गाँवों की गरीबी का विकराल रुप दिखाई पड़ रहा था । रोग और शोक से भारतवर्ष की जनता पंगु हो गई है । उनके संकट को हरने के लिए उन्हें जैसे कोई भी परेशानी नहीं थी । शरीर आब और नहीं चलता, तब भी बरसात के मौसम में वे लम्बा सफ़र तय करके रोगी के मुँह में एक बूँद दवा पहुँचा ही आते थे । एक स्री की एकमात्र संतान को जू वे नहीं बचा सके, तब उसे सांत्वना देने के लिए सभी लोगों को लेकर उन्होंने रात के अंधकार में यात्रा की थी । आँसू बहाती और शोक में डूबी उस स्री को कुछ सांत्वना मिली या नहीं, यह मैं नहीं जानता, परन्तु यह सेवा-धर्मचिक्त्सक के मन में, जगत् के समस्त सत्यों के मूल में, महासत्य के रुप में प्रतिभासित हुए दु:ख के अस्तित्व को हम अच्छी तरह से जानते हैं ।

इस दु:ख की गम्भीरता को दूर करने के लिए उन्होंने कितना ही प्रयास किया और बहुत यत्नशील रहे । इधर अपने शरीर की कोई भी दुर्बलता थोड़े समय में भी उभरकर आ सकती है, इस भय से वे सदा शंकित रहते थे । अपने समस्त अहं को तपाकर, गलाकर जीवन को किस प्रकार से कलंक-रहित करके मानव-सेवा के उपादान के रुप में परिणत किया जाता है, यही उनकी सर्वोत्तम साधना थी ।

जेल की एक घटना याद आ रही है । उस समय आशु भाई कोर्ट द्वारा द्वितीय श्रेणी के क़ैदी बवकर कारागार में थे । सोने के लिए उन्हें लोहे के र्जिंस्प्रग वाला खाट दिया गया था । उस पुराने खाट पर सोने के कारण कितने ही दिनों से आशु भाई की पीठ में बहुत दर्द हो रहा था । मालिश और सेंक करके कोई फ़ायदा नहीं हुआ । एक दिन विचार लेने के लिए वे हमसे बोले कि सम्भवत: उनकी रीढ़ की हड्डी में क्षय-रोग हो गया है । उसके थोड़े ही दिन पहले आशु भाई के पुराने मित्र श्रीयुत् सुरेशचन्द्र बन्द्योपाध्याय को हुए इस रोग की सूचना मिल चुकी थी । इससे आशु भाई का मन और विकल हो गया कि उन्होंने अपने सामान्य रोग को भारी रोग का लक्षण समझ लिया है । परन्तु बाद में हम लोगों ने बिस्तर को र्जिंस्प्रग वाले खाट से नीचे लगा दिया । देखते-ही-देखते कुछ दिनों सें आशु भाई का भारी रोग पूरी तरह ठाक हो गया । आशु भाई के क्षय रोग की बात उपहास का विषय बनकर रह गई और उनके सामने इसका उल्लेख करने पर वे हमारे साथ ही प्रसन्न होकर हँसते ।

जेल में थोड़े दिन के इस रोग के कारण हम लोग मानों आशु भाई से और अधिक खुल गए । मन में हुआ कि अंतत: अपने को समाप्त कर देने के लिए इस साधक के प्रयास का अंत नहीं है । उसी जीवन के बीच हमारी तरह का दुरबल व्यक्ति बचा हुआ है । यदि रास्ते में अचानक उनसे भंट हो जाय तो वे हमारी तरह ही हैं, यह पहचानने में देरी नहीं लगती । परन्तु आशु भाई हमेशा अन्दर से ऐसे व्यक्तियों के प्रति चिन्तित रहते थे । बाद में सुविधा मिलने पर वह उनहें जीवन-व्रत से विलग न कर दे, इस भय से वे हमेशा उसे कठोर नियमों से बाँधकर रखते थे ।

हमारा दुर्भाग्य है कि देश आज भी पराधीनत् की ज़ंजीरों से बँधा है । आज भी रोग की अज्ञानता व अंधकार में गरीब मुहल्ले के निवासी वैसे ही पंगु बने जी रहे हैं ।

बंगाल के एक छोटे-से मुहल्ले के कोने से इस तमस को भगाने के लिए वीर साधक अपने जीवन की आहुति देकर पूजा के जिस दीप को जला रहे थे, दु:ख के दिवता ने एकांतभाव से उस पूजा को ग्रहण कर लिया है । किन्तु सर्वग्रासी महाकाल की तृप्ति होति और भी कितने लोगों के जीवन को इसी प्रकार समाप्त करके अन्तर्धान कर देने होगा, यह कौन बता सकता है ?

सतीशचन्द्र सेनगुप्त के साथ जब हमारा परिचय हुआ, तब तक असहयोग आंदोलन समाप्त हो चिका था और कोई व्यक्ति काउंसिल तो कोई इसके गठन-कार्य पर ध्यान दे रहे थे । थोड़े ही दिनों के परिचय के पश्चात् एक विगत आंदोलन की ओर संकेत करके सतीश भाई ने कहा, "गांधी जी पर विश्वास करके ही हम लोग मुख्य रास्ते पर छाती फुलाकर यह बोल रहे हैं कि हमें स्वाधीनता चाहिए । इससे पहले सभी के सामने यह बात नहीं कही जा सकती थी । रास्ते पर चलते-चलते छाते के ओट से चेहरा छिपाकर मैं पार हे गया हूँ, पीछे से कोई भी परिचित व्यक्ति अप्रत्याशित स्थान में हम लोगों को देख सकता है । यह मुक्ति भी कितनी बड़ी चीज है यह तुम ठीक से सोच नहीं पाओगे ।" यह सारी बातें वे एक ही साँस में कह गए थे ।

वास्तव में सतीश भाई बहुत भावुक व्यक्ति थे और सन् १९३० के प्रथम स्वाधीनता दिवस के उत्सव के समय उनकी भावना का चरम प्रकाश देख गया । कांग्रेस कार्यालय से निर्देश आया कि २६ जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराकर स्वाधीनता-संकल्प के वाक्य की शपथ लेनी होगी । कलकत्ते के प्रत्येक मार्ग व प्रत्येक घर पर तिरंगा झंडा फहराया गया, परन्तु सतीश भाई ने शक्ति प्रेस के ऊपर किसी भी तरह से झंड़ा फहराने नहीं दिया । दूसरे दिन रात को उनसे भेंट होने पर मैंने इसका कारण पूछा । सबसे पहले तो सतीश भाई के चेहरे पर मैंने एक भाव देखा । वे मात्र यही बोले, "चढ़ना नहीं चाहता, क्योंकि चढ़ने पर और उतर नहीं पाऊँगा ।" और भी दो-चार बातें कहने का प्रयास करके मैंने देखा कि जैसे वे और बातों के लिए एक घर देखने की बात थी । उसी के लिए जब मैं शक्ति प्रेस पहुँचा तो मैंने सुना कि सतीश भाई कल रात ही किसी रोग से मृत्यु को प्राप्त हो गये । तब भी दो तले वाले उस घर में छापेख़ाने की आवाज़ सुनाई दे रही थी । तब मैं सतीश भाई के मुख्य सहपाठी श्रीयुत् विपिन गांगुली को यह सूचना देने बाहर निकला । विपिन भाई ने यह समाचार सुनकर कहा,"वास्तव मैं, आज हमने एक बहुत बड़े आदमी को खो दिया है ।"

बाद में उनके घर जाने पर पता चला कि झंडोत्तोलन को लेकर हमारे बीच जो तर्क-वितर्क हुआ था, उसी उत्तेजना में सतीश भाई पिछली रात को ठीक से सो नहीं सके । बाद में भाभी को जब तक पता चला तो सब कुछ समाप्त हो चुका था ।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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