परिव्राजक की डायरी

मशरुर का साधु


गुल के कांगड़ा जिले में नामज़ादा नामक एक गाँव है । यह स्थान बहुत प्राचीन है । यहाँ से लगभग तीन कोस की दूरी पर मशरुर नामक एक स्थान है । वहाँ लगभग हज़ार वर्ष पुराने तीन मन्दिर हैं । मन्दिर-निर्माण में विशिष्ट दक्षता को स्पष्ट देखा जा करता हैं । ये सभी एक पहाड़ की चोटी पर निर्मित हैं । वैसे मन्दिर पत्थरों का बना है, परन्तु इसे पत्थर जोड़कर नहीं बनाया गया है, बल्कि पहाड़ की चोटी को ही काटा गया है और बचे हुए पत्थरों के ढेर को शिल्पी ने वहाँ से हटा दिया है ।

गुल स्टेशन से दो छोटे पहाड़ों को पार करके मशरुर जाया जाता है । प्राय: चार वर्ष पहले जब मैं पहली बार मशरुर गया था, तब शाम के लगभग चार बज चुके थे । जाड़े की सुबह थी । मशरुर जाने की तैयारी करने में आधे घंटे की देर हो गई । एक पथ-प्रदर्शक को लेकर मैं सीधा ऊपर की ओर रवाना हुआ । पहले तो एक छोटी पहाड़ी मिली, जिस पर पेड़-पौधे कुछ भी नहीं थे, यह कहने से भी चलेगा । इधर-उधर बिखरे टूटे पत्थरों से होकर जाने से रास्ते टेढ़े-मेढ़े हो गए हैं । थोड़ी दूर चलने के बाद फिर एक चढ़ाई शुरु हुई । अब जंगल भी कुछ घना होने लगा । बीच-बीच में कहीं-कहीं अधिक पेड़ थे तो कहीं-कहीं अपेक्षाकृत कम । झाड़ियाँ अधिक नहीं थीं । हमारा रास्ता सँकरा था और बीच-बीच में उससे आस-पास के गाँवों के रास्ते आकर मिलते थे । किसी भी अनजान व्यक्ति के लिए रास्ता पहचान लेना कठिन होता, परन्तु चूँकि स्थानीय व्यक्ति साथ था, अत: हम लोग तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे ।

वृक्ष-बहुत पर्वत को पार करके सूर्य अस्ताचंल की ओर चला गया था । पक्षियों के कलरव को छोड़कर वन में और कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था । कदाचित् वन के बीच में रास्ते से दूर छोटे-छोटे हरे-भरे खेत दिखाई दे रहे थे । मैंने सुना कि यहाँ दो-चार घर किसान जाट रहते हैं । वे हिन्दू या मुसलमान धर्मों को मानते हैं । ये वनों की विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों से लगातार संघर्ष करते हुए वहाँ रह रहे हैं और कोई अन्य यहाँ नहीं टिक पाते ।

जाट बस्ती पार करने के कुछ देर बाद हम लोग दूसरे पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए । पर्वत के पूरब की ओर एक घाटी दिखाई दे रही थी और धौलाधार की शुभ्र चोटी सूर्य की प्रभा से रंजित हो रहा थी । वहाँ से मशरुर और कोस भर दूर था । हम लोगों को मशरुर पहुँचते-पहुँचते शाम ढल गई ।

मशरुर गाँव पहाड़ के नीचे है । वहाँ बहुत-से घर ग्वालों के हैं । मैंने सुना कि उस पर मन्दिर है और समीप ही एक छोटे मठ में एक वैष्णव रहते हैं । मैं उस प्राचीन मन्दिर के प्रांगण में ही बैठा रहा । मेरे मित्र उस वैष्णव साधु को खोजकर, बुलाकर ले आये । वैष्णव की उम्र अधिक नहीं थी, परन्तु मुझे लगा कि ये बड़े शांत प्रकृति के हैं । उनके माथे पर तिलक को देखकर आश्चर्यचकित हुआ; क्यों नहीं होऊँगा, ये तिलक तो मात्र गौड़ीय सम्प्रदाय के वैष्णवजन ही लगाते हैं । पता चला मेरा अन्दाज़ गलत नहीं है । वे गौड़ीय सम्प्रदाय में ही दीक्षित थे । अमृतसर में उनका मुख्य अखाड़ा है । मैं बंगाली हूँ, यह सुनकर साधु बहुत प्रसन्न हुए और फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने नवद्वीप जैसे स्थानों का दर्शन किया है या नहीं । काफ़ी देर तक बातचीत करने के बाद साधु महाराज हम लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करने उठो । जाते समय वे बोले, "असमय आये हैं । घर में साधारण जो भी है, उसी से तृप्त होना पड़ेगा ।" मशरुर के उस प्राचीन मन्दिर के पूर्वी प्रांगण में एक पुष्करिणी खुदी हुई है; उसी के किनारे छोटे खुले मंडप में अग्नि प्रज्वलित थी, मैं वहीं सो गया । कुछ देर तक मोने के पश्चात् साधु ने हम लोगों को भोजन के लिए बुलाया । उनके घर जाकर देखा तो बड़ा आश्चर्य लगा कि उन्होंने रोटी और एक सब्जी बनाई है । अल्पाहारी होने पर भी उन्होंने इस तरह से भोजन परोसा था कि हम वास्तव में तृप्त हो गए ।

साधु की बड़ी इच्छा थी कि वे एक बार नवद्वीप तीर्थ का दर्शन करें, परंतु तब भी मुख्य मन्दिर नहीं टूटा था । उसमें भगवान् रामचन्द्र और सीता की मूर्ति बची हुई थी । वे यथासाध्य उनकी सेवा करते रहते हैं । दूसरे दिन मैंने उनकी पूजा देखी । तैयारी सामान्य थी और वैसी ही निष्ठा और अनुराग के साथ वे पूजा कर रहे थे । मुझे उनके पास बहुत अच्छा लगा ।

पूजा समाप्ति के बाद मैं मन्दिर में इधर-उधर घूमने लगा । एक बार समीप आकर साधु ने मुझे खुले मंडप में बैठने के लिए कहा । मैं रात में वहीं सोया था, परन्तु अंधकार में कुछ भी नहीं देख पाया । फिर सुबह के प्रकाश में पूर्व दिशा की ओर देखकर लगा कि शिल्पी ने मन्दिर का निर्माण पूजा के लिए बिल्कुल उपयुक्त स्थान पर किया है । नीचे फैली हुई तलहटी में इधर-उधर कुछ गाँव थे और दूर में धरता पर कुहासे के आवरण को भेदकर धौलाधार की गगन-स्पर्शी श्रृंगमाला आकाश में सिर उठाये खड़ी थी ।

तब वैष्णव साधु ने अपने मन की एक इच्छा हमें बतलायी । उनके गुरु एक महान् साधु थे । कई वर्षों तक वे अपने गुरुदेव की सेवा करते रहे । अब गुरुदेव का एक चित्र भर रामजी के मन्दिर में रखा हुआ था । वैष्णव मित्र की इच्छा थी कि मैं उनके गुरुदेव के चित्र के साथ उनका भी एक चित्र खींच दूँ । मैंने इस सामान्य अनुरोध को तुरन्त मान लिया और उसके बाद बंगाल लौटकर यथासमय मशरुर के मित्र का चित्र भी भोज दिया । वही हमारा उनके साथ अन्तिम सम्पर्क था ।

वैष्णव साधु के सरल हृदय की बात मुझे अब भी बार-बार याद आती है । एक साधारण गाँव में ग्वालों के अनेक घरों के बीच वे रामजी की सेवा करते हुए परम तृप्त होकर दिन काट रहे थे । तीर्थयात्रा की इच्छा बीच-बीच में उमड़ती है, परन्तु उसके पूरा न होने का कारण है कि उनके कर्तव्य मार्ग में कुछ और आ जाता है । वर्तमान की सेवा में ही उनका सारा समय लगा रहता है ।

परन्तु हमारे कोलाहलपूर्ण जीवन के मार्ग ने हमारे स्वभाव को ऐसी दिशा दी है कि हम मित्र के कठिन रास्ते का अनुसरण करके दूसरी तरह से परितृप्त होने नहीं चाहते । हिमालय की गोद में हों अथवा अन्य किसी स्थान पर, हम परिपूर्ण शान्ति के बीच मानों दिन नहीं काटना चाहते । चारों ओर के पीड़ित नर-नारियों के दु:ख और जीवन के दैन्य ने हम लोगों को घेर लिया है । वैष्णव साधुओं के समान शांतचित्त स्वभाव को धारण करने की क्षमता भी हमसे मानों उन्होंने ही कर ली है ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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