परिव्राजक की डायरी

स्वास्तिक


एक दिन दुर्गा पूजा के समय मैं घूमने के लिए बाँकुरा शहर गया था । बाँकुरा के पश्चिम भाग में 'नया चट्टी' नामक एक मुहल्ला है । अपेक्षाकृत ख़ाली और स्वास्थ्यकर स्थान होने के कारण उस समय इधर अनेक मकान बनाने की तैयारी चल रही थी । अध्यापक योगेशचन्द्र राय बंगाल के एक ¸ोष्ठ पंडित एवं वैज्ञानिक थे । अध्यापन-कार्य से अवकाश मिलने के पश्चात् वे नया चट्टी में बैठक करते थे । उनके घर का नाम था 'स्वस्तिक' । वे बाँकुरा में ही हैं, यह सूचना पाकर एक दिन शाम को मैं उनसे मिलने गया ।

कटक में जिस समय योगेश बाबू अध्यापक के रुप में नियुक्त थे, तब मैंने अपने सहपाठियों से उनकी वैज्ञानिक शिक्षा-पद्धति के विषय में अनेक बातें सुनी थीं । जो छात्र योगेश बाबू से वनस्पति शास्र पढ़ते थे, उनकी पर्यवेक्षण शक्ति को बढ़ाने के लिए वे अद्भुत-अद्भुत प्रश्न करते थे-कॉलेज में ऊपर आने के लिए कितनी सीढियाँ चढ़नी पड़ती हैं ? इन सारे प्रश्नों को सहसा पूछने पर वे लोग भी ठीक तरह से नहीं बता पाते जो रोज़ पढ़ने के लिए कॉलेज आते हैं या जो महानदी के किनारे प्राय: ही घूमने जाते हैं । तब योगेश बाबू उन्हें उपदेश देते हुए कहते, "अपनी दृष्टि को हमेशा सतर्क रखना विज्ञान की सबसे मूल्यवान सीख है । परीक्षा में उतीर्ण होने के लिए आज भी हमें विभिन्न पेड़ के पत्तों की आकृति का पर्यवेक्षण करना पड़ता है । फिर भी आने वाले
युगों में इन सब ज्ञान का बिन्दु मात्र प्रयोजन नहीं होगा । किन्तु वनस्पति शास्र का सूत्र ग्रहण करके हमारा मन जिन सारे वैज्ञानिक परीक्षणों और चिन्तन प्रणालियों से अभ्यस्त हो जाता है, उसी को वे सबसे बड़ा लाभ कहकर विवेचना करना सिखाते हैं ।

यद्यपि योगेश बाबू ने मुझे कभी पढ़ाया नहीं था, फिर भी विद्यार्थी जीवन में कई बार उनसे भेंट करने का सौभाग्य मिला । तब भी उनके प्रश्नों के वाण से समय-समय पर आहत होते हुए भी उनके मन का जीवन और यौवन सुलभ भाव हमारे मन में उनके प्रति श्रद्धा जगाता था । इसी कारण बाँकुरा जाने का सुयोग पाकर मैंने सबसे पहले उन्हीं से भेंट करने का प्रयास किया ।

नया चट्टी पहुँचकर 'स्वस्तिक' ढूँढ़ने में देरी नहीं हुई । वहाँ आकर मैंने देखा कि अध्यापक योगेशचन्द्र पश्चिम की ओर एक खुले बरामदे में कुर्सी पर चुपचाप बैठे हैं । पहले की अपेक्षा वे अब वृद्ध दिख रहे थे । उनकी लम्बी दाढ़ी उनके मुखमंडल को सौन्दर्य और गम्भीरता से मंडित कर रही थी । उनकी आँखों में एक स्थिर और शांत दृष्टि विराजमान थी ।

अध्यापक योगेशचन्द्र को प्रणाम करके बैठने के बाद मैंने उनकी कुशलक्षेम पूछी और बातें आरम्भ कीं । अंत में शिल्प-शास्र के प्रसंग में अपने घर की कहानी लाकर उन्होंने मुझसे पूछा, "अच्छा बताओं तो मैंने इस घर का नाम 'स्वस्तिक' क्यों रखा ?" आते समय मैंने घर के ऊपर स्वस्तिक का एक बड़ा चिन्ह देखा था । उसका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, "वह तो एक कारण है परन्तु उसके अतिरिक्त दो और भी कारण हैं ।" यह कह कर वे शिल्प-शास्र का एक श्लोक दोहराकर उसकी व्याख्या करने लगे, "जिसके घर के पूरब की ओर बरामदा रहता है, उसे स्वस्तिक कहते हैं ।" परन्तु उसके बाद वे बोले, "और भी एक विशेष कारण क्या है, जानते हो ? सामान्यत: लोग शान्ति चाहते है, मैं तो भाई शांति नहीं चाहता, स्वस्ति चाहता हूँ । मनुष्य का मन जब युद्ध से हार मान जाता है, तभी वे शांति चाहते हैं । परन्तु मेरा संग्राम तो अविराम चलता है, बीच-बीच में दो एक पल स्वस्ति पाना ही यथेष्ट होता है । यह हुआ घर का नाम स्वस्तिक रखने का असल कारण ।"

मैंने पूछा, "परन्तु यदि चारों ओर परेशानियाँ ही रहें तो मन स्वस्ति कैसे पायेगा ?" आगे की ओर बाँहें फैलाकर उन्होंने आकाश की ओर संकेत किया फिर सिर उठाकर देखा । सूर्य बहुत पहले डूब चुका था, परन्तु तब भी आकाश सूर्यास्त की लालिमा और पीले रंग के मेघ से सुसज्जित था । ऊपर से संध्या का अंधकार उतरकर आ रहा था, परन्तु पश्चिम का रंग तब भी माने छुटाए नहीं छूटता था । कुछ देर शांत रहने के बाद अध्यापक योगेशचन्द्र बोले, "तुमने देखा ! क्या यही हमारे लिए यथेष्ट नहीं है ? बस, अब तो हमें इसी में खुश रहना चाहिए ।"

मैं समझ गया कि वृद्ध वैज्ञानिक का मन आज भी पहले की तरह ही प्रकाशित है । वार्द्धक्य ने उन्हें बिन्दुमात्र स्पर्श नहीं किया, मानो उन्होंने अमृत पिया हो ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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