परिव्राजक की डायरी

अध्यापक


उस बार घुमने के लिए बम्बई की ओर गया था । फिर उसके दक्षिण में कन्नड़ा ज़िला भी गया था । जहाँ भी सम्भव था पोशाक पहने बंगालियों से अलग व्यवहार करने पर भी चैन नहीं मिला । खद्दर पहने देखकर एक पुलिस का कर्मचारी साथ हो लिया । क्या करता हूँ ? क्यों आया हूँ ? कितने दिन रहूँगा ? इन सब प्रश्नों का उत्तर देते-देते मैं थक चुका था, परन्तु इस बार कन्नड़ा आकर कुछ लाभ भी हुआ । कन्नड़ा को बाज़ार में सामान्यतः खाने के लिए जो कुछ भी मिलता है, वह हमारे तरफ़ के भोजन से अलग था । उस पर भाषा इतनी अलग थी कि जिसे जो चाहिए, वह सामने न दिखने पर बोलकर उसे समझाना बहुत कठिन था । ऐसी स्थिति में मैं अपने चौकीदार के पास गया । लगता है वह बहुत धर्म-भीरु था, उसने सहसा मेरा अपकार नहीं किया और दुकानदार को वह सब बता दिया जो मुझे चाहिए था ।

       मैं जिस गाँव में गया था, उससे लगभग चार कोस दूर कई मन्दिर और गुफाएँ थीं । वहाँ दो-तीन दिन अकेले रहने की बात सोचकर मैं चिन्तित हुआ । परन्तु मन्दिर पहँचकर एक बंगाली को देखकर मैं बहुत खुश हुआ । परिचय होने पर पता चला कि वे बंगाली कॉलेज में इतिहास पढ़ते है । समाचार-पत्रों में उनका नाम तो अवश्य देखा था, परन्तु उनसे किसी स्थान पर ऐसे भेंट हो जायेगी, ऐसा कभी सोचा नहीं था ।

       सारा दिन इधर-उधर मन्दिरों और बौद्ध स्तूपों को देखने के बाद शाम को मैं डाक बंगला में अध्यापक महोदय का अतिथि बना । रात में खाने-पीने के बाद मैंने उनसे स्थानीय इतिहास के सम्बन्ध में बहुत-सी बातें सुनीं । बातों-ही-बातों में यह भी बात खुली कि अध्यापक महोदय मात्र इतिहास की गवेषणा करने भर के लिए यहाँ नहीं आये, बल्कि पास के ही एक स्थान पर एक नयी बिजली कंपनी खुली थी, अतः शेयर खरीदने के पहले लाभ-हानि की सम्भावना पता लगाने के लिए ही वे यहाँ आये थे । इधर आने का यही मुख्य कारण होने के अतिरिक्त व्यक्तिगत रुप से ऐतिहासिक विश्लेषण करने की भी उनकी पूरी इच्छा थी और इसीलिए उन्होंने कालेज-कमेटी के समक्ष यातायात खर्च के बावत डेढ़ सौ रुपया मंजूर करवा लिया था । उनके साथ एक चपरासी भी था । वह एक तरह से नौकर का तथा खाना पकाने का काम करता था । उसका ख़र्च भी कमेटी ही वहन करती थी ।

       दूसरे दिन मैं अपने काम से निकला । मुझे अनेक प्रकार की तस्वीरें लेनी थीं । अध्यापक महोदय भी साथ चले । तब तक भी उनसे जान पहचान कम ही थी । शरीर के भारी होने के कारण वे अधिक उठना-बैठना पसन्द नहीं करते थे । वास्तव में ऐतिहासिक वस्तुएँ कभी पहाड़ के ऊपर तो कभी मन्दिर के गुम्बद पर अंकित रहती हैं, इसीलिए वे दूर से ही दूरबीन लेकर सारी वस्तुओं को देखने लगे ।

       हम जिस गाँव में गये थे, वहाँ से पास ही एक स्थान पर एक प्राचीन शिलालेख निकला था । अध्यापक महेदय शिलालेखों के विषय में इससे पहले ही ग्रंथ लिख चुके थे और उस दिन वे ज़िद कर बैठे कि शिलालेख के साथ उनका एक फोटो खींच दूँ । बहुत से लोग कहते थे कि वे बिना गये ही इतिहास लिखते हैं, इसी अपवाद को दूर करने के लिए उन्हें फ़ोटो खिंचवाने की इच्छा हुई । वास्तव में मेरे पास आपत्ति का कोई कारण नहीं था । तब उन्होंने चपरासी को डाकबंगला से धुले कपड़े और सिल्क का कुर्ता लाने को कहा । तत्पश्चात् बेंत के जंगल में तैयार होकर वे शिलालेख के समीप उपस्थि हुए । मैंने शिलालेख के साथ अध्यापक महोदय का एक फ़ोटो खींच लिया ।

       अगले दिन हम लोगों को लौटना था । अध्यापक महोदय का सामान इत्यादि ठीक-ठाक करने में ही सारा दिन कट गया । उनके पास अपने आराम के लिए बहुत तरह की वस्तुएँ थीं, मानों वे किसी युद्ध-यात्रा पर चले हों ।

       जो भी हो, दो दिनों के कार्य से ही अध्यापक महोदय अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे । डोढ़ सौ रुपयों का निश्चित रुप से सद्व्यय हुआ, इस विषय में उन्हें कोई सन्देह नहीं था । उन्हें दु:ख केवल इसी बात का था कि कमेटी ने अनुसंधान के लिए चार सौ रुपये के स्थान पर डेढ़ सौ रुपया ही क्यों मंज़ूर किया । वैसा होने पर वे सेतुबंध रामेश्वर पर्यन्त घूमकर आ सकते थे।

       रेलवे स्टेशन से हमारा डाकबंगला चार कोस दूर था । सारा सामान समेट कर गाड़ी भेज दी गई । मैं अपना सामान और बेडिंग वNौरह बैलगाड़ी पर रखकर स्वयं अध्यापक महोदय की गाड़ी के साथ चलने लगा । पहाड़ी रास्ते से आठ मील बैलगाड़ी पर जाने का दु:साहस मुझमें नहीं था ।

       हमारे कुछ दूर चलने के उपरान्त ही सूर्य अस्त हो गया और संध्या का अंधकार धीरे-धीरे घना होता गया । अध्यापक महोदय को भी लगा कि यह कैसी उदासी छा गई है । वे ठविफल जन्म विफल जीवन' गीत गाने लगे । उनका कंठ स्वर बहुत मधुर था, उन्होंने गीत सीखा भी था । संध्या होने के कारण वह गीत और भी मधुर लग रहा था, परन्तु स्टेशन पहुँचकर मुझे अचानक एक मज़ाक सूझा । मैंने पूछा, "भैया, यह गाना क्या आपको शोभा देता है ?" वे बोले, "क्यों हम लोगों को क्या तुमने बहुत बड़ा आदमी समझ लिया है ? विश्वविद्यालय के बारे में तो जानते ही हो । वहाँ हज़ार रुपया महीना देते हैं । हम लोग तो उसका आधा भी नहीं पाते हैं ।" मैंने फिर पूछा, "तो आपने वह बिजली कम्पनी कैसी देखी ?" वे बोले, "कुछ नहीं भाई, कागज पर ही उनकी कम्पनी है । मैंने जाकर देखा, कुछ भी काम नहीं होता वहाँ । स्वदेशी है, यही सोचकर मैंने पैसा लगाने का निश्चय किया था, परन्तु देने में भरोसा नहीं हुआ । स्वदेशी की होड़ में कितनी ही कम्पनियों ने ठगकर देश का सर्वनाश किया है इसका ठिकाना नहीं है ।"

       इतने दिनों में कम्पनियों का सर्वनाश हुआ है या नहीं, यह मैं नहीं जानता परन्तु बाद में पता चला कि अध्यापक महोदय अभी भी अपने स्वस्थ शरीर से नौकरी कर रहे हैं और इतना सब होते हुए भी देश में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ होने पर भी किसी तरह देश को बचाकर रखे हुए हैं ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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