परिव्राजक की डायरी

शिल्पी


पुरी के एक साधारण मुहल्ले में कई कारीगरों का घर है । ये लोग अब जगन्नाथ जी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाते हैं या घर, आँगन में लगाये जाने वाले पत्थर काटकर दिन में बारह-चौदह आना कमा लेते हैं । इन्हीं में एक व्यक्ति का नाम था राम महाराणा ।

       देखने में सुशील व सिर पर लम्बे बाल रखे हुए वह छोटी उम्र का ही था । उसे गीत गाना व यात्रा करना अच्छा लगता था । राम के साथ मेरा परिचय अचानक ही हुआ । कला के शौकीन एक सज्जन कोणार्क के मन्दिर में कुछ मूर्तियों की नक़ल बनाने के लिए राम को साथ लेकर गये थे । वहीं राम से मेरी पहली बातचीत हुई । राम के हाथ की दक्षता को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । छेनी के भाँति कई यन्त्रों से राम थोड़ी ही देर में आश्चर्यजनक शीघ्रता के साथ पत्थर के एक टुकड़े को सजीव रुप दे देता था । वास्तव में इन मूर्तियों का आदर नहीं था । लगता था कि लोग जगन्नाथ की मूर्ति चाहते हैं, परन्तु पुरी के मन्दिर पर नर-नारी के काम-भाव की जो मूर्तियाँ हैं, लोग चुपके-चुपके उसकी प्रतिकृति बनवा लेते थे । इसी से राम को थोड़ा-बहुत पैसा मिल जाता था । शिल्पशास्र की विद्या सीखने में राम के घर प्रायः जाया करता था । बातचीत होने पर पता चला कि वास्तव में राम एक गुणी व्यक्ति है । यद्यपि वह अश्लील मूर्तियाँ बेचकर खाता है तथापि मात्र खाता भर है, यह नहीं कहा जा सकता । वास्तव में उसके प्राण शिल्प के कारण ही कंगाल थे । वह स्वयं एक शिल्पी का पुत्र था । छोटी ही उम्र में वह छेनी और हथौड़ी पकड़ना सीख गया था । जिस प्रकार से उसके पूर्वजों ने पुरी या भुवलेश्वर के मन्दिरों का निर्माण किया था, उसी कौशल से कुछ उसने वंश परम्परानुसार सीखा, परन्तु अन्य देशों के शिल्प वास्तव में जितने सुन्दर थे, उतने ही सहज रुप में उसे आकृष्ट करते थे । एक दिन विदेशियों के पास मूर्तियों के अनेक चित्र देखकर राम खुशी से उछल पड़ा । वह बोला, "भैया, एक बार मुझे कलकत्ता ले चलो । मैं इसी प्रकार की मूर्ति बनाना सीखूँगा ।" मैंने उससे पूछा, "जो शिल्प तुम जानते हो, वही क्या कम है ? तुम क्यों दूसरों का शिल्प सीखोगे ?" राम द:खी होकर बोला, "यह तो कोई नहीं चाहता भैया । देखिए न, विदेशी लोग कितनी ख़राब मुर्तियाँ पाँच रुपया देकर खरीदते हैं और हमारी मूर्ति खरीदते समय दस आना देंगे या नौ आना देंगे, इसी को लेकर झगड़ा करते हैं । कहते हैं, नौ आना ही तो काफ़ी है और इसे बनाने में समय ही कितना लगा है ।"

       राम महाराणा के हृदय में समाज का यह दोहरा भाव हमेशा काँटे की तरह चुभता था। अपना शिल्प बहुत अच्छा है, इस विषय में उसे कोई सन्देह नहीं था, परन्तु औरों का शिल्प ख़राब है, उसके मन में ऐसा कभी नहीं लगा । शहर के सम्पन्न लोग देशी या विदेशी शिल्प के बिन्दु-विसर्ग को बिना समझे धन के अंधकार में मत्त होकर मात्र विदेशी वस्तुओं को घर में टाँगते हैं, वह यही सहन नहीं कर पाता था । इसीलिए बड़े लोगों पर वह एक तरह से कुपित रहता था ।

       वास्तव में मनुष्य के थोड़े प्रेम और थोड़े सम्मान के लिए राम तरसता था । एक दिन अचानक शाम को मेरे घर आकर राम ने एक हारमोनियम माँगा । मेरे पास हारमोनियम कहाँ था ? अंततः एक पड़ोसी के घर से हारमोनियम लाया और तब राम उस अँधेरी रात की निस्तब्धता को तोड़कर कई लोगों को साथ मिलकर विविध प्रकार की दुर्बोध्य तान छेड़ने लगा । बीच-बीच में राम के उत्पात को इसी प्रकार सहन करना पड़ता था ।

       परन्तु भद्र लोगों से मिलने पर भी तो वे खाने को देते नहीं । इसीलिए राम को पैसा कमाने का प्रयास करना पड़ता था । कलकत्ते में मेरे कई मित्रों ने राम की बनाई मूर्ति को देखकर उन्हें ख़रीदने की इच्छा प्रकट की थी । राम मूर्ति बनाकर मेरे पास रख जाता था । मैं भी समय देखकर उन्हें मित्रों और रिश्तेदारों के गले बाँध देता था । फिर भी इस तरह से अधिक आमदनी नहीं होती थी । इसमें कभी आमदनी होती तो कभी एक पैसा भी नहीं जुटता, परन्तु इससे राम के कार्य करने का उत्साह दोगुना बढ़ गया ।

       भुवनेश्वर के प्राचीन मन्दिरों पर जितनी अपूर्व मूर्तियों, पत्तों व लताओं की सजावट है, वह इसी की नक़ल बनाने लगा । हमारे घरों में थोड़े ही दिनों में एक अजायबघर के समान बहुत-सी वस्तुएँ इकट्ठी हो गई । बीच-बीच में राम कहता, "भैया, जानते हैं हाथ में काम आने पर मन कैसा लगता है ? सारे पुरी शहर में घर-द्वार जहाँ कहीं भी जो कुछ भी हैं, सबके मैं अपने शिल्प से भर सकता हूँ ।" उसके उत्साह को देखकर मुझे अच्छा भी लगता था और दु:ख भी होता था । मुझे लगता कि क्या कोई इनका आदर करेगा या कोई इन्हें बचाकर रखेगा ?

       एक दिन शाम को मैं घर में बैठकर कुछ कर रहा था, तभी राम बाबू हाजिर हुए । उनका मुँह उतरा हुआ था । उनके चेहरे को देखकर कुछ संदिग्ध लगा । बिना और कुछ बोले वह अपनी गढ़ी हुई मूर्तियाँ वापस माँगने लगा । उसके दो-एक दिन पहले राम एक बार पैसे के लिए घर आया था, परन्तु कोई भी मूर्ति न बिक सकने पर मैं उसे कुछ भी नहीं दे सका था । आज उसके चेहरे के भाव को देखकर मुझे कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ । मैंने भीतर की अलमारी से मूर्तियाँ निकालकर राम के हाथ में दे दी । राम ने चुपचाप उन्हें उठाकर दूर कँटीली झाड़ियों मे फेंक आया । उसके इस कार्य को देखकर मैं कुछ नहीं बोल सका । वह भी जैसे आया था, वैसे ही लौट आया । अगले दिन शाम को राम महाराणा मेरे घर आया । मैंने देखा कि वह घर के दरवाजे पर बैठ कर तन्मय होकर एक मूर्ति बना रहा है । मुझे देखकर लज्जावश पहले तो उसने कुछ नहीं कहा, परन्तु उसके बाद जब मैंने पिछली रात वाली घटना की बात उठायी तो वह हिचक-हिचक कर रोने लगा । काफ़ी देर बाद मैं समझ पाया कि किसी ने उसके भाई को किसी काम के लिए कुछ रुपया उधार दिया था और इसीलिए कल उसने उसके भाई को अपमानित किया । इसी घटना से मर्माहत होकर उसने अपनी सारी मूर्तियों को तोड़ दिया । राम दु:खी होकर बोला, "कोई भी हमारा काम पसन्द नहीं करता।" जो सीढ़ी का पत्थर बनाते हैं, वे भी बारह आना पाते हैं और मैं मूर्ति गढ़ने पर भी बारह आना नहीं पाता । इसी दु:ख से राम पागलों की तरह हो गया था । समाज से उसे कोई प्यार या आदर नहीं मिला । उस पर शायद राम को लोभ भी था, परन्तु देश के लोग तो उसे खाने तक को नहीं देते । वह अपनी बात को ठीक प्रकार से नहीं कह पाता, ऐसा कहकर निष्ठुर भान से वे घर आकर अपमान करके चलो जाते हैं । वही राम से मेरी अन्तिम भेंट थी । उसके बाद बहुत दिनों तक इसी तरह मैं देश-विदेश घुमता रहा । बहुत दिनों बाद जब पुनः मैं लौटकर वहाँ आया तो मैंने सुना कि राम महाराणा की मृत्यु हो गई । पाथुरिया मुहल्ले के एक शिल्पी ने बताया कि बहुत दिनों तक लगातार धतूरा खाकर राम ने एक तरह से आत्म-हत्या ही कर ली । राम के घर पर उसकी विधवा स्री सुबह-सुबह दरवाज़े पर गोबर लीप रही थी । मुझे देखकर, घूँघट काढ़कर उसने मुझे प्रणाम किया । परन्तु क्या हुआ था यह पूछने की मेरी और इच्छा नहीं हुई ।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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