परिव्राजक की डायरी

साधु


मैं चाय की दूकान पर चाय पी रहा हूँ, ऐसे समय गेरुआवस्र-धारी एक प्रौढ़ साधु ने चुपचाप दुकान में आकर एक कप चाय की फ़रमाइश की । चाय लेकर उन्होंने एक डिबिया से लगभग आधा तोला अफ़ीम बाहर निकाली और खा गये । मैं यह देखकर विस्मित हुआ । हाथ जोड़कर मैंने प्रभु को प्रणाम किया । साधु बाबा ने आँखे बन्द की हुई थीं । मुझे लगा कि सम्भवतः वे मुझे नहीं देख सके हैं । अफ़ीम का नशा तेज़ हो गया, अतः उन्होंने स्वयं ही बात करनी प्रारम्भ की । उन्होंने कहा, "भाई, जो तुम सोच रहे हो वैसा नहीं है । पहले मैं एक बार में एक तोला खाता था । गांधी महात्मा ने व्रत किया है, इसीलिए तो छह आने पर ठहर गया हूँ ।" साधु बाबा के साथ बातचीत जम गई । क्रमशः पता चला कि उनका नाम भवानंद गिरि है । फक्कड़ व्यक्ति हैं । भारतवर्ष में बहुत-से स्थानों पर घूमते हुए उनके शरीर का रंग गहरे ताँबे के समान हो गया है । उनकी सम्पत्ति में कंधे पर झूलते दो-एक फटे कपड़े, सिर पर पगड़ी, तन पर गेरुए रंग का वस्र और हाथ में एक लाठी भर । लाठी उनहें बड़ी प्रिय है । वे इसे जल्दी छोड़ते नहीं हैं । चिकित्सा उनका व्यवसाय है । चाय के अड्डे पर, रास्ते पर, मंदिर पर, जहाँ पर भी वे एक भी शिकार देखते हैं, वहाँ उससे कहते हैं - तुम बीमार हो । संसार के अधिकांश व्यक्ति के मन में होता है कि उसका शरीर थोड़-बहुत व्यथित है । साधु के मुँह से यह बात सुनकर वे सहज ही विश्वास कर लेते हैं । उसके बाद पिस्ता, बादाम, किसमिस आदि मिलाकर एक उपयोगी ओषधि तैयार करके वे उन्हें खाने के लिए देते हैं । रोगी के शरीर पर नि:सन्देह उससे फ़ायदा होता है और साथ ही भवानंद की झोली में भी कुछ आमदनी हो जाती है ।

       ऐसे लोगों का स्वभाव अद्भुत होता है । संध्या होते ही सारे दिन की कमाई को ख़र्च कर देते हैं । गुरु का आदेश था कि रात में हाथ में पैसा न रखें । चिकित्सा विद्या के द्वारा किसी दिन चार आना तो किसी दिन दो रुपया भी कमाई हो जाती थी । उनका यह सारा पैसा दान ध्यान और अफ़ीम के पीछे रात भर में ही समाप्त हो जाता था । फिर सुबह होते ही साधु को कमाई की बात सोचनी पड़ती थी । बहुत दिनों तक ऐसी अवस्था में रहते हुए सांसारिक लोगों पर साधु ने तीक्ष्ण दृष्टि डाली थी, ये सांसारिक लोग सहज ही तो पैसा देंगे नहीं, अतः रोग के विषय में ही बात करके उनसे पैसा कमाना होगा । विविध प्रकार के दु:ख और लांछन से इसी प्रकार का एक विचार साधु के अंतःकरण में तैर गया था ।

       भवानन्द से बातचीत होने के दो-चार दिनों के भीतर ही, एक दिन वह चुपचाप हम लोगों से बोला, भाई, "तुम लोगों से छिपाकर कोई लाभ नहीं है । भाई, तुम लोग कुछ न बोलो । कई जगहों पर घूम आया हूँ, अब कुछ दिनों तक मुझे यहीं रहने दो ।"

       भवानन्द बहुत बोलता था । विशेषकर अफ़ीम का नशा जब गहरा हो जाता था । एक दिन मानसरोवर की बात छिड़ी । भवानन्द ने कहा, "उसकी क्या बात बताऊँ भाई ! वह तो एक आश्चर्य है । बहुत कष्ट से मैं मानसरोवर पहुँचा था । वहाँ बहुत ठंड थी । सर्दी से पैर की अँगुलियाँ फटने को हो गई थीं । परन्तु करता भी क्या, तीर्थ तो करना ही था । मानसरोवर के जल में उतरकर मैंने जैसे ही डुबकी लगाई तो लगा कि किसी ने 'भौ' करके आवाज़ की हो । मेरा सिर चकराने लगा । फिर स्थिर होकर सिर उठाकर मैंने देखा - जय गुरु - कहाँ मानसरोवर में स्नान कर रहा था और एक बार में ही कहाँ काशी दशाश्वमेध घाट पर आ गया ।"

       हमने समझ लिया कि आज ये बहुत गप्प मार रहा है । लगता है आज छह आने की अफ़ीम की जगह दस आने का नशा चढ़ा है । भवानन्द नित्य ऐसी बातें बताया करता था । कैसे काबुल के बादशाह ने उनके पंद्रह साधुओं को राजभोग खिलाया, कैसे अमरनाथ में दो सफ़ेद पर्वत आकाश से उड़ते हुए आये और पलक झपकते ही पत्थर बन गये तथा पुनः गलकर जल बन गये - इसी प्रकार की बहुत सी लौकिक-अलौकिक कथाएँ भवानन्द सुनाया करता था ।

       दिन इसी तरह से गुज़र रहे थे । शहर में एक दिन एक प्रसिद्ध साधु आये । विश्व के गुरु न होते हुए भी उनके चेले-चपाटों की संख्या कम नहीं थी । जो भी हो, हमने सोचा कि साधु से मिलना ही अच्छा रहेगा, परन्तु अकेले जाने का साहस नहीं हुआ । क्या पता, कुछ हाथापाई हो जाय । साथ में एक पहलवान की आवश्यकता थी । अब किसको लूँ ? यह समस्या थी, परन्तु भवानन्द को कहते ही वह राजी हो गया ।

       माथे पर एक बड़ी पगड़ी बाँधकर, शाम को जब भवानन्द को अफ़ीम का नशा बहुत चढ़ गया, तब हम लोग झुण्ड बनाकर रवाना हुए । साधु के दर्शन तो हुए परन्तु उन्हें हमारी बात से क्या मिलता ? अतः थोड़ी ही देर बाद वे उठकर चले गये । जब तक हम लोग गुरुदेव से बात कर रहे थे, भवानन्द उतनी देर तक चुपचाप आँखें मूँदे हुए आसन लगाकर बैठा रहा । गुरुदेव के चले जाने के पश्चात् उनके शिष्यों ने हमारे साथ साधन-भजन की बात प्रारम्भ की । हमसे बातचीत करते हुए भी हमने भवानन्द पर उनका विशेष प्रेम देखा । किस सम्प्रदाय के साधु हैं ? कितने दिनों तक इस मार्ग पर चले हैं ? इन सब बातों के पश्चात् उन्होंने भवानन्द को अपनी साधना के इतिहास का वर्णन करने का अनुरोध किया ।

       भवानन्द लगातार आँखें मूँदे लकड़ी की मूर्ति के समान बैठा हुआ था । आप क्या करते थे ? इस प्रश्न के उत्तर में भवानन्द ने कहा, "ऊँट चराता था ।" हम लोग भी इस बात का अर्थ पहले पकड़ नहीं पाये । थोड़े विस्तार से समझाने के लिए कहने पर भवानन्द ने दु:खीभाव से इसकी व्याख्या की । उसने कहा, कानपुर के निकट ही एक आश्रम में वह पहली बार एक अघोरी का शिष्य बना । इसके बाद सेवा-भजन का कोई रास्ता चाहने पर गुरु ने उसे आश्रय का ऊँट चराने के लिए कहा । तब भवानन्द ने सात वर्षों तक केवल ऊँट चराया ।

       सभा में बैठे सभी लोग एक साथ कह उठे, "वाह, क्या गुरुभक्ति है । ऐसा धैर्य न होने पर क्या साधना के पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है ? चाहे वह ऊँट चराना हो या घास काटना ।" थोड़ी और बातचीत के उपरांत भवानन्द सहित हम लोग निकल पड़े । रास्ते में मैंने उससे कहा, "भैया, आपने किया क्या था ? नशे के और बढ़ जाने पर तो वे आपकी बात पकड़ लेते ।" भवानन्द बोला, "ए भाई, ऐसे लोगों को मैंने बहुत देखा है । ये लोग भी लोगों को चराकर ही खाते हैं । और हम और कुछ न मिलने पर ऊँट चराकर ही खाते हैं । इसमें उनका क्या जाता है या फिर मेरा ही क्या जाता है ?"

       इसी तरह कई महीने बीत गये । सर्दी के बाद धीरे-धीरे गर्मी का महीना आ गया । बीच-बीच में भवानन्द से भेंट होती रहती थी । वह कभी किसी मिर्गी के रोगी का उपचार करता तो कभी किसी गठिया के मरीज़ का । जो भी हो, चैत्र के समाप्त होने पर मैंने जैसे ही बद्रिकाश्रम जाने का निश्चय किया, भवानन्द तो ख़ुशी से उछल पड़ा । वह बोला, "भाई, यह सब मुझे और अच्छा नहीं लगता । बहुत हो गया । लोगों के ठगकर मैं और नहीं खा सकती । चलो इस बार महादेव के श्री चरणों के एक बार दर्शन कर आउँ । जय गुरु ।"

       उसने जैसा कहा, वैसा किया । उसके संग तो कुछ था नहीं, अतः साधु हमारे साथ निकल पड़ा । उसके बाद हम बद्रिकाश्रम पहँचे । वहाँ से हम लोग गंगोत्री और यमुनोत्री भी गये । साथियों ने एक-एक करके साथ छोड़ दिया । कोई दो या तीन महीने में ही थक गये । अब मात्र भवानन्द सन्यासी बच गये थे । कपड़ा गंदा हो जाने की वजह से तब मैंने भी गेरुआ वस्र पहन लिया था । इससे थोड़े से कपड़ों में ही काम चल जाता था । उस पर से एक लाभ यह भी था कि यहाँ-वहाँ भोजन भी जुट जाता था । सोने के स्थान के विषय में पता नहीं रहता था । आज इस अखाड़े में सोते तो कल उस गाँव में । किसी दिन पहाड़ पर भेड़ चराने वालों के साथ तो किसी दिन नदी के किनारे हनुमान जी के मन्दिर में रात कट जाती थी ।

       इस प्रकार एक वर्ष से अधिक बीत गया, परन्तु वह बहुत ही अच्छा कटा । रास्ते में हमें छह नागा सन्यासी मिल गये । वे भी तीर्थाटन करने निकले थे और हम दो बंगाली भी । इधर वर्षा होने लगी । रास्ते पर चलना क्रमशः दुष्कर होता गया । उस बार वर्षा होने पर भी हम लोग ज्वालामुखी तीर्थ की ओर जा रहे थे, ऐसे में एक विपत्तिपूर्ण घटना घटी । चारों ओर तेज़ी से बहते झरनों से पहाड़ पर छोटे-छोटे झाड़ वाले जंगल यहाँ-वहाँ उग गये थे । उस पर सारे पत्थर हरे शैवाल से ढ्ँके हुए थे । ऐसे ही एक मार्ग पर चलते हुए एक दिन अचानक मैं फिसल गया और लगभग पंद्रह हाथ गहरे खड्डे में गिर पड़ा ।

       पहले तो कुछ समझ में नहीं आया । सोचने की सारी शक्ति मानों दब गई थी । मात्र यही अच्छी तरह से समझ रहा था कि मैं पहाड़ के नीचे आ गया हूँ । ऊपर से आवाज़ लगाते हुए लोग मुझे देख रहे थे फिर पगड़ी की सहायता से उतरकर वे मुझे ले गये । मैं सभी को देख रहा था और समझ रहा था, परन्तु वास्तव में जो घटना घटी थी, मुझे वही समझ में नहीं आ रही थी ।

       उसके बाद के बहुत दिनों तक की बात मुझे याद नहीं है । जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि मैं नूरपुर के अस्पताल में पड़ा हुआ हूँ और निकट ही वे कई नागा सन्यासी और साधु भवानन्द गिरि खड़े थे । भवानन्द से मैंने सारी बातें सुनी कि किस प्रकार पहाड़ी लोग चोट वाले स्थान को एक पत्ते से बाँधकर पंद्रह दिनों के लम्बे समय के बाद सबेरे ही मुझे हाथों हाथ यहाँ लाए हैं । किस प्रकार भीषण सर्दी में नागा सन्यासियों ने अपने कम्बल देकर मेरी सेवा की और स्वयं उस सर्दी से कुकड़ गये । यही सब बातें थी । इस प्रकार अंततः उन लोगों ने मुझे अस्पताल में भर्ती करवा दिया । अस्पताल के डॉक्टरों के साथ भवानन्द कि झड़प हो गई थी । नागा लोग जब-तब आये थे । यह देखकर डॉक्टर आपत्ति करते थे । इस पर नागाओं ने डॉक्टरों की चिमटे से ख़ूब पिटाई की । परिणामस्वरुप यह व्यवस्था की गई कि रोगी को बरामदे में रखा जायेगा, जिससे नागा लोग जब तब आ-जा सकेंगे ।

       इस प्रकार तीन महीने का लम्बा समय मैंने अस्पताल में ही काटा । नागा सन्यासी भी नित्य आते थे । भवानन्द तो आता था ही । उसकी गप्पों में कोई कमी नहीं आई थी । हिमालय के विषय में न जाने कितनी ही लौकिक-अलौकिक कथाएँ सुना चुका है, उसका अंत नहीं । अंततः स्वस्थ होने पर मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गई । अब भवानन्द और नागाओं ने कहीं से पैसे की व्यवस्था करके मुझे कलकत्ते का एक टिकट खरीद दिया और साथ में पाँच रुपया नक़द भी दिया । वही नागाओं से मेरी अंतिम भेंट थी । रास्ते में उनसे बातें तो होती थीं, परन्तु किसी भी दिन उन्होंने घनिष्ठ भाव से आत्मीय होकर व्यवहार नहीं किया था । अंततः विपत्ति में ही जान पाया कि किस प्रकार इन्होंने मुझ अनजान को परम आत्मीय बना लिया । वे मुझसे मित्र के समान मिले । गर्मी के पश्चात् वर्षा की स्निग्ध बूँदों के समान ही मुझे शीतल करके चले गये ।

       भवानन्द भी वैसा ही था । उसके सिवा मैंने किसी को भी वैसा नहीं देखा । वह तो बोलते हुए ही चलता है । वह भी सम्भवतः संसार के अन्य लोगों के समान ही इतने दिनों में मुझे भूल गया है । ऐसी बात नहीं कि मैं उससे एक ही बार मिला । बहुत सालों के बाद एक बार मैं बोलपुर में रवीन्द्रनाथ का शांति निकेतन देखने गया था । वैशाख के मध्य का समय था । बोलपुर शहर में बनियाहन की दूकान पर मैंने देखा कि भवानन्द के समान ही एक व्यक्ति कुछ ख़रीद रहा है । पहले तो मैं उसे अच्छी तरह पहचान नहीं सका । मैं उसे आश्चर्यचकित होकर देख रहा था । अब वह जैसे और भी बूढ़ा हो गया है, परन्तु लाठी बदल गई है । मैं देख रहा हूँ, यह देखकर वह बोला, "हाँ, मैं भवानन्द ही हूँ । अरे भाई कहाँ से आ रहे हो ?" मैं साइकिल से उतर पड़ा । पूछने पर पता चला कि उस रात शांति निकेतन मार्ग पर स्थित मंदिर में नागा सन्यासियों का अड्डा जमा हुआ है । फिर शाम को आने का वचन देकर मैं बाज़ार चला गया ।

       परन्तु संध्या से पहले ही भीषण दुर्योग आरम्भ हो गया । घनघोर वर्षा के साथ तेज़ी से बिजली कड़कने लगी और भीषण ओला पड़ने लगा । देखते-ही-देखते ज़मीन सफ़ेद हो गई । इतना ओला पड़ना मैंने कभी नहीं देखा था । फिर उस शाम को मैं भवानन्द से नहीं मिल पाया । दूसरे दिन वहाँ जाने पर पता चला कि साधु लोग रात में ही चले गये । कहीं भी कोई उनके विषय में नहीं बता सका । उसके बाद भी एक दिन हावड़ा जाते समय पुल पर मुझे लगा कि भवानन्द जा रहा है । परन्तु यह ठीक था या नहीं, कह नहीं सकता । बीच-बीच में मेरे मन में आता कि साधु तो हृदय के कई भागों से जुड़ा रहता है क्या उसके हृदय में भी हमारा कोई स्थान नहीं ? उनके मन पर मैं कुछ स्थायी चिन्ह छोड़ दूँ, ऐसा तो मैंने कुछ नहीं किया था । बहुत दिनों से व्याप्त दारिद्रय-दु:ख से उनके मन में संसार के प्रति प्रेम के सारे रस सुखकर समाप्त हो चुके थे । वास्तव में पहले भी भवानन्द बेगार करते हुए कभी कमाता नहीं था, परन्तु उपकार वह सभी का करता था । रेल की मालगाड़ी जिस प्रकार माल ढोकर ले जाती हैं, समय आने पर वह वैसा कार्य भी करता था । बाद में उसे कितना ही लाभ क्यों न हो, परन्तु भवानन्द को इससे कोई खुशी नहीं थी और कोई दु:ख भी नहीं था ।

पिछला पृष्ठ   ::  अनुक्रम   ::  अगला पृष्ठ


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

All rights reserved. No part of this book may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopy, recording or by any information storage and retrieval system, without prior permission in writing.