मालवा

मालवा में प्रशासनिक व्यवस्था

अमितेश कुमार


गुप्तकाल से लेकर हर्षकाल तक मालवा प्राचीन भारतीय साम्राज्य का अभिन्न अंग बना रहा। वैसे तो मालवा की स्थिति प्रशासनिक व्यवस्था में एक प्रांत के रुप में थी, परंतु तत्कालीन राजनीतिक गतिविधियों तथा सामरिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के कारण विवेच्ययुगीन शासकों की इस पर निरंतर विशेष अभिरुचि बनी रही। इन कारणों से केंद्रीय शासकों द्वारा की जाने वाली नियुक्तियों, उनकी नीतियों तथा प्रशासनिक आदर्शों का प्रभाव पूर्ण रुप से मालवा के प्रशासन पर अनवरत बना रहा। 

उस समय के शिलालेखों, साहित्यिक रचनाओं तथा विदेशी विवरण से इस विषय में महत्वपूर्ण सूचनायें हमें मिलती हैं, जिनके द्वारा शासन व्यवस्था की रुपरेखा निर्धारित की जा सकती है। प्राप्त जानकारियों के आधार पर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि आलोच्ययुगीन शासकों ने शासन संचालन के लिए प्राचीन हिंदू राजनीतिक विचारकों द्वारा प्रतिपादित एवं परंपरागत मौलिक सिद्धांतों पर आधारित एक सुदृढ़ तंत्र की स्थापना की। पुष्यभूति वंश के सम्राट हर्ष की शासन प्रणाली भी कुछ सामान्य परिवर्तनों के साथ मूलतः नृपतंत्र की गुप्तयुगीन शासन- पद्धति पर आधारित थी। इस प्रकार गुप्त वंश के पतन के बाद भी एक तरह से गुप्त- राजतंत्र पूर्ववत बना रहा और उनके द्वारा स्थापित राज्य संस्थायें विवेच्यकाल के अन्त तक मालवा की शासन व्यवस्था में जीवित रहीं।


प्रशासन का स्वरुप

""जन- जीवन को व्यवस्थित इकाई का नाम "राज्य' है।'' विवेच्यकाल में दो प्रकार के राज्य थे:-

राज्य दो प्रकार के हो सकते थे

१. गणतंत्रीय राज्य व
२. एकतंत्रीय राज्य

१. गणतंत्रात्मक शासन

गणतंत्रीय राज्य में सर्वोच्च शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में नहीं, अपितु कम या अधिक संख्या वाले व्यक्तियों के एक समूह या संघ में निहित होती थी। इस काल में गणतंत्रीय शासन के स्वरुप की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं प्राप्त होती। प्रयाग प्रशस्ति से मालवा प्रदेश के आभीर, सनकानिक, काक, नामक उन गणराज्यों के अस्तित्व की जानकारी प्राप्त होती है, जिन्होंने समुद्रगुप्त के प्रचण्ड शासन से भयभीत होकर उसकी कृपा- याचना की और उसे सर्वोच्च सम्राट के रुप में मान्यता दी। 

""चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य'" के उदयगिरि गुहा लेख में सनकानिक गणराज्य के प्रमुख सनकानिक महाराज का उल्लेख मिलता है। इस लेख से विदित होता है कि इन गणराज्यों के प्रधान, राजा अथवा महाराज की उपाधि धारण करते थे। ए. एस. अल्टेकर की धारणा है कि सनकानिक गणराज्य में प्रधान का पद इस काल में वंशानुगत हो चुका था। समुद्रगुप्त के शानस- काल के अंत में अथवा चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के काल में इन गणतंत्रीय राज्यों की स्वतंत राजनीतिक सत्ता समाप्त हो गयी और वे गुप्त साम्राज्य के अभिन्न अंग बन गये। इस प्रकार चौथी शताब्दी ई. के उपरांत गणराज्यों की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।


२. राजतंत्रात्मक शासन

प्राचीन भारतीय आचार्यों के अनुसार एकतंत्रीय शासन व्यवस्था में शासन की सर्वोच्च शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित होती थीं। विवेच्य युगीन शासकों के शासन काल में गणतंत्रों के पतन के पश्चात मालवा में एकतंत्रतात्मक शासन की स्थापना हुई। एकतंत्रीय शासन पद्धति मालवा में प्रचलित रही, जिसका विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है:-

राजा (सम्राट)

राज्य के सप्तांगों में महत्व की दृष्टि से स्वामी या राजा का स्थान सर्वप्रथम था। वैदिक युग में राजपद निर्वाचनजन्य था। किंतु विवेच्यकाल में राजा के दैवी सिद्धांत के पालन की प्रथा चल पड़ी ओर राजा ईश्वर का अवतार माना जाने लगा। राजा की दैवी उत्पत्ति का उल्लेख हमें धर्मशास्रों से भी प्राप्त होता है।

आलोच्यकालीन प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर निवास के लिए अवतीर्ण देवता तथा कुबेर, वरुण, इंद्र तथा यम के समान कहा गया है। बाण ने भी सम्राट हर्ष को सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार कहा है।

इस विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, ""विविध देवताओं और लोकपालों के अंशों से राजा शक्ति'' प्राप्त करता है, का देवी सिद्धांत इस काल में अधिक लोकप्रिय हो गया। जनमानस में राजा का देवत्व अंकित होकर अमिट हो गया और प्रजा ने उसे मनुष्य रुप में देवता समझकर उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया।

इस काल में सम्राटों ने ""राजन'' जैसी साधारण उपाधि के स्थान पर अनेक उच्च उपाधियाँ धारण की। मालवा से प्राप्त उदयगिरि गुहा लेख में चंद्रगुप्त द्वितीय की ""महाराजाधिराज'' परमभट्टारक की, दुर्जनपुर (विदिशा) जैन प्रतिमा अभिलेख में रामगुप्त की ""महाराजाधिराज'' तथा मन्दसोर प्रशस्ति (मालव सम्वत ५७९) में औलिकर वंशीय यशोधर्मन की ""राजाधिराज'', ""परमेश्वर'' जैसी उपाधियाँ मिलती हैं। 

गुप्त सम्राटों की भांति हर्ष के ताम्रपत्रों में उसकी परममाहेश्वर, परमभट्टारक, महाराजाधिराज तथा बाण के ""हर्षचरित'' में चक्रवर्ती महाराजाधिराज तथा परमेश्वर की उपाधियाँ मिलती हैं। अल्टेकर का मत है कि महाराजाधिराज की उपाधि शकों और कुषाणों के राजाधिराज उपाधि की अनुकरण थी।

सम्राटों की बड़ी- बड़ी उपाधियाँ उनकी देवतुल्य गुणों एवं कर्मों का द्योतक हैं। आलोच्ययुगीन मालवा के शासक विश्ववर्मन के गंगधार अभिलेख में शास्रों अध्ययन द्वारा परिवर्धित शुद्ध- बुद्धि वाले राजा को आदर्श राजा कहा गया है। जिससे ज्ञात होता है कि इस युग में राज की महिमा उसके देवत्व पर नहीं शासन- सम्मत होने से ही स्तुत्य मानी गयी थी। अभिमानी, अनाचारी और अत्याचारी राजाओं को कभी भी दैवीय नहीं समझा गया, न ही उनके प्रजा- पीड़न के अधिकार को कभी स्वीकार किया गया। पाणिक्कर ने हर्ष के राजकीय स्वरुप का वर्णन करते हुए लिखा है कि हर्ष की सत्ता यद्यपि एक अर्थ में निजी अथवा एकतंत्रीय थी, लेकिन वह निरंकुश नहीं था।

राजा के कर्तव्य

एक आदर्श राजा जनता के हित के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हुआ करता था। राज्य के सर्वोच्च अधिकारी के रुप में राजा के विस्तृत कर्तव्य होते थे। कौटिल्य के अनुसार प्रजा का उत्थान अथवा उत्कर्ष के प्रयत्न, यज्ञ, राजकीय कार्यों का सम्पादन, दान, कर्मचारियों की वृत्ति एवं कार्य- कुशल तथा दीक्षित राजकुमार का अभिषेक करना राजा के कर्तव्य थे। मौर्यकाल की भाँति विवेच्यकालीन स्मृतियों तथा अभिलेखों के अनुसार सभी प्राणियों की रक्षा करना तथा पथ भ्रष्ट लोगों को संमार्ग दिखाना ही राजा का परम कर्तव्य था। हर्ष के मधुवन तथा बॉसखेड़ा अभिलेखों में कहा गया है कि राजा का सबसे उत्तम अथवा परम धर्म यही है कि मन से, वचन से और कर्म से प्राणिमात्र का हित सम्पादित करें। 

सम्राटों ने पूर्ववर्ती सिद्धांतों पर अपनी शासन व्यवस्था स्थापित करके प्राचीन प्रशासनिक संस्थाओं को मान्यता प्रदान ही। राजा शाश्वत- मान्य धर्म, स्मृतियों तथा राजशास्र संबंधित ग्रंथों में प्रदत्त निर्देशों तथा समाज से मान्यता प्राप्त देश- जाति, कुल- धर्म की अवहेलना नहीं कर सकता था। इस प्रकार राजा कानूनों का विधायक नहीं, अपितु श्रुतिशास्र, लोकाचार, सम्मत विधियों का पालनकर्ता मात्र था। इस काल में राजसत्ता किसी भी दशा में अनियंत्रित नहीं थी, अपितु महत्वपूर्ण निर्णयों में राजा अपने मंत्रियों, उच्चाधिकारियों एवं वयोवृद्ध व्यक्तियों के परामर्श का यथोचित सम्मान करते हुए उसके अनुकूल अपने धर्म का पालन करता था।

 

युवराज

सम्राट के बाद ""युवराज'' का स्थान होता था। सामान्य परिस्थितियों में वयस्क होने पर तथा शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात ज्येष्ठ पुत्र को समान्यतया ""युवराज'' के पद पर अधिष्ठित किया जाता था। किंतु विवेच्यकाल में ज्येष्ठता के सिद्धांत का दृढ़ता से पालन नहीं किया गया था। गुप्त सम्राटों में ""अर्थशास्र'' के सिद्धांत के अनुरुप युवराज पद को जन्मजात ज्येष्ठता पर नहीं योग्यता की श्रेष्ठता पर नियुक्ति का आधार बनाया। कनिष्ठ पुत्र होते हुए भी महान गुणों तथा चारित्रिक श्रेष्ठता के आधार पर ही समुद्रगुप्त तथा चंद्रगुप्त द्वितीय को अपने पिता द्वारा उत्तराधिकारी मनोनीत किया गया था। 

कालांतर में आचार्य शुक्र ने भी जहाँ एक ओर ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकार के लिए वैधता प्रदान की है, वहीं दूसरी और विशेष परिस्थितियों में उसे उत्तराधिकार के लिए वैधता प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर विशेष परिस्थितियों में उसे उत्तराधिकार से वंचित भी किया है। 

""युवराज'' के छोटे भाइयों को प्रायः प्रांतीय शासकों के पद पर नियुक्त किया जाता था। प्रभाकर के मन्दसोर प्रस्तर अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम का भाई गोविंदगुप्त अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समय में उज्जयिनी का अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाकर पश्चिमी मालवा में प्रांतीय शासक के पद पर शासन किया। उसी प्रमार तुमेन (तुम्बवन) के लेख से विदित होता है कि घटोत्कच गुप्त तुम्बवन सहित ऐरिकिण (पूर्वी मालवा) में प्रांतीय शासक के पद पर शासन किया, जो कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र अथवा भाई था।

सामंत

ईसा की पूर्ववर्ती शताब्दियों में प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारधारा में विद्यमान सामंतवादी अंकुर ने शक- कुषाण काल में मूर्तरुप धारण कर विवेच्ययुगीन शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था। डी. पी. सिंह के अनुसार, ""प्राचीन भारत में केंद्रीय अथवा विजिगोषु सत्ता की संप्रभुता को स्वीकार करने वाले अधीनस्थ स्थानीय शासक, जो आंतरिक प्रशासन में स्वायत्ता का उपभोग करने वाले अधीनस्थ स्थानीय शासक, जो आंतरिक प्रशासन में स्वायत्ता का उपभोग करते हुए, सैन्य, कोष आदि रखने के अधिकार से युक्त होते हैं, सामंत कहे जाते थे।''

समुद्रगुप्त द्वारा अनेक पराजित राजाओं के राज्यों को अपने साम्राज्य में विलीन न करने की नीति और विजित राजवंशों की पुनः प्रतिष्ठापना की नीति ने अनेक सामंत राजवंशों को पोषित किया। समुद्रगुप्त की प्रयाग- प्रशस्ति में उसके सामंतों को सम्राट को प्रणाम करने, उसकी आज्ञा मानने और अपने- अपने राज्यों पर शासनाधिकार के कला गुप्त सम्राट की गरुड़ाकृति के लिए नये अधिकार- पत्र प्राप्त करने के लिए उपस्थित होने हो कहा गया है। कालिदास ने भी लिखा है कि सामंतगण अपने सिर झुकाकर उसी प्रकार शिरोधार्य करते थे, जैसे देवता लोग इंद्र की आज्ञा शिरोधार्य करते थे। बाण ने हर्षचरित में हर्षकालीन सामंतीय व्यवस्था का वर्णन किया है। इस काल में ""सामंतों का सम्राट के साथ यह समझौता था कि वे 
समय समय पर दरबार में और राजभवन में उपस्थित होकर अपनी सेवायें अर्पित करें। बाण ने सामंत, महासामंत, अनुरक्त सामंत, आप्त- सामंत, प्रधानसामंत, प्रतिसामंत, करदीकृत सामंत आदि सामंत के प्रकारों का उल्लेख किया है। 

संभवतः विजयी सम्राटों ने यह अनुभव किया होगा कि विजित राजाओं का समूल विनाश करके एकाधिपत्य बनाये रखना व्यवहारिक रुप से संभव नहीं है। अतः उन्होंने पराजितों को अपनी अधीनता स्वीकार करवाकर, उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक शासन करने दिया। और इसी परिस्थिति में उस ""सामंत पद्धति'' का विकास हुआ, जो गुप्त काल से प्रारंभ होकर न केवल हर्ष के काल तक अपितु संपूर्ण मध्यकालीन इतिहास में भी विधिवत बनी रहीं। 

विवेच्ययुगीन मालवा के अनेक ऐसे सामंत राजाओं का उल्लेख मिलते हैं, जो अपने राज्य के आंतरिक शासन में पूर्ण स्वतंत्र थे। उदयगिरि गुहा लेख के अनुसार चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के अधीन सनकानिक महाराज भिलसा (पूर्वी मालवा) का सामंत शासक था। मन्दसोर प्रस्तर अभिलेख से ज्ञात होता है कि दशपुर पश्चिमी मालवा में बंधुवर्मा, कुमारगुप्त का सामंत था। प्रभाकर के मंदसोर प्रस्तर अभिलेख से विदित होता है कि प्रभाकर मालवा में स्कंदगुप्त का एक स्वामिभक्त सामंत था। बुधगुप्त के समय में मातृविष्णु ऐरिकिण (पूर्वी मालवा) में सामंत शासक था। तारमाण में धान्यविष्णु को पूर्वी मालवा में अपना सामंत शासक नियुक्त करके, केवल प्रांतीय व्यवस्था को बनाये रखा, अपितु आधिकारिक प्राचीन सामंत वंश की प्रतिष्ठा को भी कायम रखा।

गुप्तकालीन सामंत विशेषाधिकारों से युक्त वर्ग था। ये सामंत अपने अधीन राज्यों में परंपरागत आधार पर एक नरेश की तरह शासन करते थे। उन्हें सेना रखने, तथा निजी भू- भाग में कर आदि वसूल करने का अधिकार प्राप्त था। इसके बदले में वे सम्राटों को पूर्व निर्धारित वार्षिक कर की धनराशि भेंट स्वरुप देते थे तथा युद्ध के अवसर पर सैनिक- सहायता भी प्रदान करते थे।

मंदसोर प्रशस्ति में मालवा के सामंत शासक विश्वकर्मा एवं बंधुवर्मा की शक्ति का जिस प्रकार से वर्णन मिलता है, उससे यह सिद्ध होता है कि गुप्तकालीन मालवा के सामंत विशेष राजनीतिक अधिकारों से युक्त थे। गुप्तों के महान सामंत शासकों ने अपने अधीन सहायक सामंतों की एक नयी प्रशासनिक व्यवस्था भी विकसित की। जिससे सामंतवादी व्यवस्था की जड़ें ओर भी अधिक गहरी हो गयीं। सामंतों को दी गयी विशेष सुविधायें एवं छूट मुख्य रुप से स्थायी सेना रखने एवं परंपरागत आधार पर राज्य करने का विशेषाधिकार कालांतर में गुप्त साम्राज्य के अस्तित्व के लिए घातक सिद्ध हुई। गुप्त शक्ति के कमजोर होने के साथ ही अनेक सामंत राजवंश स्वतंत्र होकर गुप्त- साम्रात्य के विघटन के कारण बन गये। पश्चिमी मालवा के औलिकर सामंत यशोधर्मा ने अपने- आप को स्वतंत्र घोषित कर विशाल साम्राज्य की स्थापना की।

मंत्री- परिषद

प्राचीन हिंदू धर्मशास्रों के अनुसार तथा विद्वानों ने भी राजा को हमेशा अपने मंत्रियों के परामर्श से काम करने की सलाह दी है। प्रशासन में राजा की सहायता करने वाले मंत्री- मण्डल का साक्षणिक नाम अमाप्य- परिषद या मंत्री- परिषद था। मंत्री- परिषद के सदस्यों को अमात्य, सचिव या मंत्री कहा गया है। किंतु कभी- कभी इन तीनों में कुछ अंतर भी परिलक्षित होता है। राज्य के विविध पदाधिकारियों के लिए अमात्य शब्द प्रयुक्त होता है और देश- काल तथा कर्म को दृष्टि में रखकर विविध अमात्यों की नियुक्ति की जाती है।

मंत्री परिषद में कई प्रकार के सदस्य होते थे। इनमें सामंत, सेनानायक, महाप्रतीहार, महापुरोहित, धर्मस्तंभ, मंत्रपाल, बलाधिकृत, दण्डनायक आदि प्रमुख हैं। ये अधिकारी मालवा शासन- व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न विभागों के अधिकारी होते थे। सब अमात्य मंत्री नहीं होते थे। जो अमात्य ""सर्वोपधाशुद्ध'' (धर्मोपधा, अर्थोपधा,कामोपधा ओर भपोपधा) शुद्ध हों, विविध परखों द्वारा, जिनको निर्दोष पाया जाए, उन्हीं को मंत्री के पद के योग्य माना जाता था। मंत्री- परिषद के मंत्रियों की संख्या के संबंध में विद्धानों में भिन्न- भिन्न संख्या निर्धारित की है। किंतु मनु और कौटिल्य ने इस बात का उल्लेख किया है कि हर एक राज्य की आवश्यकतानुसार मंत्रियों की संख्या निश्चित की जानी चाहिए। 

ए. एस. अल्टेकर का मत है कि प्रायः ""७ या ८ मंत्रियों के मंत्री- मंडल के अतिरिक्त आजकल कीप्रिवी कौंसिल की भांति एक बड़ी परामशदात्री संस्था भी होती थी, जिसके सदस्य अमात्य कहे जाते थे। वैसे ऐतिहासिक साक्ष्यों से हमें मंत्रिमण्डल की प्रकृति, गठन उसकी शक्तियों तथा कार्यों की विस्तृत जानकारी नहीं प्राप्त होती। इस काल के उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजा अपने प्रशासनिक कार्यों में सहायता हेतु मंत्रियों की नियुक्त अवश्य करता था। उदयगिरि गुहा लेख से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने वीरसेन को अपना सचिव या मंत्री नियुक्त किया था, जो शांति और युद्ध मंत्री के पद पर कार्य करता था। इस लेख से यह भी पता चलता है कि मंत्रियों का पद वंशानुगत होता था, क्योंकि चंद्रगुप्त द्वितीय के मंत्री वीरसेन के लिए कहा गया है कि उसने क्रमागत मंत्री के पद को प्राप्त किया था। गुप्तयुगीन गंगधार पाषाण अभिलेख में कौटिल्य की भावना के अनुरुप मंत्री को राजा का तृतीयनेय कहा गया है।

 

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