मालवा

ब्राह्मण धर्म का विकास

अमितेश कुमार


प्रद्योत मौर्य काल

शुंग- सातवाहन- शक काल

गुप्ता- औलिकर काल

परमार काल

 

प्रद्योत मौर्य काल

प्रद्योत- मौर्य काल में ब्राह्मण पुजारी, जो कई प्रकार के वेद आधारित धार्मिक कृत्य संपन्न कराते है, वैदिक धर्म के संरक्षक माने जाते हैं। वे अपने आप को श्रेष्ठ मानते थे तथा वैदिक मंत्रों के पाठ को अपना एकाधिकार समझते थे। संपन्न व अभिजात वर्ग के लोग इन ब्राह्मणों की मदद से बलि व अन्य वैदिक - कर्म करवाते थे। इसके बदले में ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार की दक्षिणा दी जाती थी। पाली ग्रंथों के अनुसार अश्वमेध, नरमेध, सम्मापास, वाजपेय, निर्गलन आदि मुख्य वैदिक कर्म थे। कुछ ऐसे ब्राह्मण थे, जिनका सिद्धांत उपनिषदों से प्रभावित था। ये जंगलों में तपस्या करते थे तथा सादगी- भरा जीवन बिताते थे। इन लोगों की जीवन शैली ने सामान्य- जनों को प्रभावित किया। उत्खनन से कुछ ऐसे स्पष्ट प्रमाण भी मिले हैं, जिससे यह पता चलता है कि सांकेतिक रुप से मातृदेवी की पूजा का प्रचलन था। अशोक पाषाण अभिलेख -९ से लोगों के धार्मिक मान्यताओं के बारे में पता चलता है। लोग बीमारी की स्थिति में, जन्म, शादी व अंत्येष्ठी जैसे अवसरों पर कई प्रकार के अनुष्ठानों का संपादन करते थे। छठी शताब्दी ई.पू. से अशोक के समय तक कर्म के सिद्धांत पर आधारित कई धार्मिक विचारधारा व संप्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। उनका मानना था कि मोक्ष, कर्म के आधार पर मिल सकता है। उनका मृत्यु के बाद दूसरी दूनिया में जाने के बारे में आस्थावान थे। अशोक ने यज्ञ के विधि- विधान व पशु- बलि को प्रोत्साहन नहीं दिया।

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शैव धर्म

महाकाल की उपासना बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है। कहा जाता है कि प्रद्योतकाल में भी महाकाल मंदिर अस्तित्व में था। सिक्कों से मिले प्रमाण यह बताते हैं कि ३ री सदी ई. पू. उज्जैन में शिव- पूजा प्रचलित थी। उन सिक्कों में शिव दोनों सांकेतिक रुप में तथा मानव रुप में दिखते हैं।

उज्जयिनी शैव धर्म का मुख्य केंद्र बना रहा। महाकाल मंदिर की प्रसिद्धि बढ़ती गई। एक जैन स्रोत के अनुसार विक्रमादित्य के पिता भद्रभिल शैव थे। विक्रमादित्य ने भी उसी का अनुसरण किया, जब तक उसने जैन धर्म नहीं अपनाया। इसी काल में पशुपति संप्रदाय व उसके बाद लकुलीश संप्रदाय सा प्रचार- प्रसार हुआ। पवाया के नाग शासकों का भार शिव वंश भी शिव के ही अनुयायी थे। उस समय के मिले सिक्के इसके स्पष्ट प्रमाण हैं।

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शुंग - सातवाहन- शक काल

शुंग- सातवाहन- शक काल में पुनः वैदिक कर्मकाण्डों व बलि का प्रचलन पुनः एक नये उत्साह के साथ शुरु हो गया। पतंजलि के महाभाष्य में ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र द्वारा किये गये, वैदिक यज्ञों व बलियों की चर्चा है। धनदेव के अयोध्या अभिलेख में भी दो अश्वमेध यज्ञों की चर्चा है। महत्वपूर्ण स्थलों पर "यूप' (बलि आदि के लिए विशेष स्थान) बनाये जाने का कई साहित्यिक तथा पुरातात्विक प्रमाण मिलते हैं। ऐसे धार्मिक कार्य- क्रियाओं का संपादन विदेशी आक्रमणों के प्रति एक जुटता अथवा युद्ध में अपने विजय के उपलक्ष्य में किया जाता था। इन यूपों के साथ मिले अभिलेखों से इस बात का प्रमाण मिलता है। बरनाला अभिलेख (लिखित सन् २२८ ई.) से पता चलता है। एक राजा जिसका अंतिम नाम "वर्द्धन' है, ने सात यूप बनवाये थे। बादवा के मौखरियों को भी वैदिक धर्म में विशेष आस्था थी। भवनाग के अंतर्गत भारसिवों ने करीब दस अश्वमेध यज्ञ किये तथा अपनी शक्ति से गंगा के समतल मैदान तक अपना प्रभुत्व कायम किया, ऐसा वाकाटक ताम्र- अभिलेखों से पता चलता है।

विदिशा में द्वितीय व तीसरी शताब्दी के यज्ञकुण्ड मिले है, जो इसे वैदिक धर्म का मुख्य केंद्र साबित करता है। कुण्ड के समीप ही ईंट से निर्मित विशाल कक्ष मिले हैं, जो संभवतः वैदिक कार्य- कलापों के दौरान लोगों के बड़ी संख्या में उपस्थिति का प्रमाण है। इन कक्षों में सामुहिक भोज व शास्रार्थ भी होते होंगे। ये क्रिया विधान कुछ महीने या वर्षों के हो सकते थे। इन स्थानों से कुछ मुहरें भी मिली हैं, जिनमें "होता', "पोता' व "मत्रा' जैसे वैदिक कर्मकांड से जुड़े शब्द उकेड़े हुए हैं।

विदिशा में मिले यक्ष की मूर्तियाँ यक्ष- पूजा की प्रथा का संकेत देती है। पहली या दूसरी शताब्दी के यक्ष महीभद्र की मूर्ति मिलती है। यहाँ नाग- पूजा की भी प्रथा थी। नागवंशियों ने इस प्रथा को प्रश्रय दिया था। विदिशा में पहली से तीसरी सदी के बीच में बनी नाग व नागिन की कई रुपों में प्रतिमा मिलती है। कुछ नाग- मंदिर भी बने थे।

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शैव धर्म

उज्जयिनी शैव धर्म का मुख्य केंद्र बना रहा। महाकाल मंदिर की प्रसिद्धि बढ़ती गई। एक जैन स्रोत के अनुसार विक्रमादित्य के पिता भद्रभिल शैव थे। विक्रमादित्य ने भी उसी का अनुसरण किया, जब तक उसने जैन धर्म नहीं अपनाया। इसी काल में पशुपति संप्रदाय व उसके बाद लकुलीश संप्रदाय का प्रचार- प्रसार हुआ। पवाया के नाग शासकों का भार शिव वंश भी शिव के ही अनुयायी थे। उस समय के मिले सिक्के इसके स्पष्ट प्रमाण हैं।

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वैष्णव धर्म

दूसरी शताब्दी ई. पू. के अंतिम चरण में विदिशा में वैष्णव धर्म को प्रसिद्धि मिली। बेसनगर के गरुड़ अभिलेख से पता चलता है कि इसे राजा भागभद्र के शासनकाल के १४ वें वर्ष में तक्षशिला का युनानी शासक आन्तिकलस का राजदूत हेलियोडोरस ने स्थापित किया था। इस अभिलेख में उसने अपने आप को भागवत (विष्णु का उपासक) कहा है। बेसनगर का ही एक अन्य अभिलेख एक विष्णु- अनुयायी गौतमीपुत्र द्वारा प्रसादोत्तम (एक मंदिर) में गरुड़ स्तंभ स्थापित होने की बात कहता है। इसी तरह मंदसौर के निकट अनगला व चित्तौड़ के निकट नागरी से भी अभिलेखों के प्रमाण मिले हैं। इसी प्रकार मूर्तिकला के अध्ययन से पता चलता है कि ३ री सदी ई. में पवाया में भी वैष्णव धर्म अस्तित्व में था।

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गुप्ता- औलिकर काल

गुप्ता- औलिकर काल के धार्मिक इतिहास में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। पुराने वैदिक संहिता व ब्राह्मण का स्थान पुराणों ने ले लिया। पुरानी वैदिक आस्था व बलि प्रथा धीरे- धीरे लुप्त होती गई। वैष्णव धर्म व शैव धर्म का प्रभाव समाज में बढ़ गया, जिससे कई देवी- देवताओं की मूर्तियाँ बननी शुरु हो गयी। अन्य देवताओं का महत्व कम हो गया।

इस काल में मालवा के कुछ हिस्सों में सूर्य पूजा बहुत लोकप्रिय थी। मंदसौर अभिलेख से पता चलता है कि रेशम बुनकरों की श्रेणी, जो लता से आकर वहाँ बस गयी थी, ने वि. सं. ४९३ (सन् ४३७- ३८ ई.) में एक सूर्य मंदिर का निर्माण किया। इसी प्रकार कायपा में भी वराहमिहिर के काल का एक मंदिर होने का प्रमाण मिला है।

उदयगिरि तथा युमरा से दुर्गा का ही एक रुप महिषासुरमर्दिनी के मिलने का प्रमाण मिलता है। सन् ४२३- २४ ई. में लिखित औलिकर नरेश विश्ववर्मन का गंगाधार अभिलेख विश्ववर्मन के मंत्री के मयुराक्षा द्वारा एक दिव्य माता के मंदिर के निर्माण की जानकारी देता है। इससे धर्म पर तंत्रवाद के प्रभाव का संकेत मिलता है। ५वीं शताब्दी ई. में पाठरी में सप्तमातृका की पूजा का भी प्रचलन था। उज्जैन में हरासिद्धिदेवी का मंदिर प्रसिद्ध था।

नाग व यक्ष पूजा का प्रचलन इस काल में भी चलता रहा। ग्वालियर के निकट पद्मावती में एक यक्ष का मंदिर था।

"मृच्छकटिका' से भी लोगों के धार्मिक विश्वास का पता चलता है। लोग हर दिन अपने गृह- देवता ही पूजा करते थे। समृद्ध परिवारों में इसके लिए पुरोहित नियुक्त किये गये थे। सुबह में उगते सुरज को अघ्र्य दिया जाता था। लोगों का सिद्धों की भविष्यवाणी पर विश्वास था।

परमार काल के भी धार्मिक आदर्श व व्यवहार पिछले समय से प्रभावित थे, लेकिन उनका आपेक्षिक महत्व बदल गया था। मूर्तिपूजा दिनोदिन प्रसिद्ध होती जा रही थी। कई विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ। एक ही मंदिर में कई तरह के देवी- देवताओं की प्रतिमाओं की स्थापना धार्मिक सौहार्दता को दर्शाता है। शासकों ने भी विभिन्न धर्मों के प्रति उदारता दिखाई। जैन तथा बौद्धों ने भी वैदिक धर्म से प्रभावित होकर, उनके वैदिक संस्कार को कई रुपों से ग्रहण किया। वैदिक धर्म भी जैनों की अहिंसा नीति से प्रभावित हुई।

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शैव धर्म

वैष्णव धर्म की अपेक्षा शैव धर्म अधिक प्रचलित था। कालिदास के अनुसार उज्जयिनी के महाकाल के ज्योतिलिंग की लोग प्रत्येक दिन सायंकाल में सामूहिक रुप से पूजा करते थे। उन्होंने तीनों लोकों के देव "चंदेश्वर' की भी चर्चा की है। इसके अलावा मत्स्यपुराण, नरसिंहापुराण, शिवपुराण एवं स्कंदपुराण में भी उज्जैन के महाकाल की मूर्ति के बारे में कई मान्यताएँ हैं। स्कंदगुप्त के अनुसार इस काल में शैव धर्म इतना प्रचलित था कि संपूर्ण उज्जैन ही शिव- लिंगों से पटा पड़ा था। ८४ लिंग मुख्य लिंग माने जाते थे, जिन्हें सिद्ध लिंग और योग लिंग भी कहा जाता था। प्रत्येक लिंग "ईश्वर' कहलाता था। अवन्ति में इन ईश्वरों के अलावा यहाँ ८ भैरव, ११ रुद्र, १२ आदित्य, ६ विनायक तथा २४ मात्रियाँ थे। प्रत्येक दिशा एक प्रधान देव के अंतर्गत था -- पुरब पिंगलेश्वर के लिए, दक्षिण कायावरोहणेश्वर के लिए, पश्चिम विल्वेश्वर के लिए, उत्तर दूर्दरेश्वर तथा सर्वप्रमुख देवता (क्षेत्राधिपति) के रुप में महाकालेश्वर मध्य के लिए।

उदयगिरि का एक गुफा- अभिलेख से शिव का शंभु के नाम से एक गुफा- मंदिर का प्रमाण मिलता है। कुछ विद्वान इसे चंद्रगुप्त ।। के मंत्रियों में से एक शोभा से संबद्ध मानते हैं। यशोधर्मन के मंदसौर अभिलेख से पता चलता है कि वह भी शैव था। मंदसौर में भी इस काल की कई शिव- प्रतिमाएँ मिली है। इसके अलावा हुण राजा मिहिरकुल भी शैव था। उसके सिक्कों में त्रिशुल तथा नंदी देखे जा सकते हैं।

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वैष्णव धर्म

इस धर्म को गुप्त शासकों का प्रश्रय मिला, जो अपने आपको "परमभागवत' कहते थे। इसी काल से विष्णु के विभिन्न अवतारों के पूजन का भी प्रमाण मिलता है। उनकी मूर्तियाँ विभिन्न मंदिरों में स्थापित की गई।

समुद्रगुप्त के ऐरण अभिलेख में भी संभवतः चौथी शताब्दी में एक वैष्णव मंदिर या मूर्ति की स्थापना का उल्लेख मिलता है। उदयगिरि की भी एक गुफा विष्णु को समर्पित है। औलिकर शासक विश्ववर्मन के मंत्री मयुराक्षक ने भी एक विष्णु मंदिर स्थापित किया था। बुद्धगुप्त के शासन में एरण में "जनार्दन' नाम से एक ध्वज स्तंभ स्थापित किया गया। तुमैन में भी एक पुराना भवन मिला है, जो वास्तव में एक वैष्णव मंदिर था। इसमें बलराम की मूर्ति मिली है। पद्मप्रभितकम् व पादतादितकम से पता चलता है कि उज्जयिनी में विष्णु- उपासकों को "चौक्षा' कहा जाता था। इसे "इकायन' के नाम से भी जानते थे। वैष्णवों के लिए "अंकपाद' पवित्र माना जाता था। वे इसे श्रीकृष्ण व बलराम के बालरुप से जोड़ते थे।

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परमार काल

शैव धर्म

परमारों के समय में शैव धर्म को सर्वाधिक स्वीकृति मिली। उनकी पूजा विभिन्न कृत्यों या स्थान- विशेष के आधार पर रखे गये नामों से होने लगी। उनके सभी अभिलेख प्रायः "ऊँ नमः शिवाय' से ही प्रारंभ होते हैं। बारह ज्योतिर्किंलगों में दो, एक उज्जैन का महाकाल तथा दूसरा नर्मदा के किनारे स्थित ओंकारमानधाता इन्हीं की क्षेत्र- सीमा में पड़ता था। १० वीं से १२ वीं सदी के बीच इस धर्म का बहुत तेजी से प्रचार- प्रसार हुआ। उदयपुर, मंधाता, नेमावर, शेरगढ़, उज्जैन, भोजपुर आदि स्थानों में शिव मंदिर व मूर्तियों के व्यापक प्रमाण मिलते हैं। इंद्रगढ़ से ११ कि. मी. दूर मोदी में लकुलीश का ८ वीं सदी में बना मंदिर यह साबित करता है कि यह शैव धर्म का ही एक केंद्र था।

मंदिरों के अलावा कुछ स्थानों, जैसे कदवाह, तेराही, उपेंद्रपुर, मत्यमयुरपुर, उज्जैन, रानोड जैसे स्थानों पर मात्यमयुर संप्रदाय भी प्रचलन में आया। इसका नामांकरण अवन्तिवर्मन की राजधानी मात्यमयुरपुर के नाम पर ही मात्यमयुर पड़ा। कलचूरि शासकों के राजगुरु इस संप्रदाय के प्रधान माने जाते थे।

शैव धर्म चार संप्रदायों में विभक्त था-- शैव, पाशुपत, कालदमन व कापालिक। ७ वीं सदी के बाद पाशुपत संप्रदाय को बहुत प्रसिद्धि मिली। इस संप्रदाय के संत भस्त, छाल व जटा युक्त केश रखते थे। इनके मंदिर इन्हीं के संतों के अधीन होता था। दूसरी तरफ कापालिक जन, अपने आपको औलोकिक शक्तियों वाला मानते थे। वे शराब व विशेष प्रकार के खाद्य का प्रयोग करते थे। वे नग्न होते थे। मानव हाथ में खोपड़ी लिये होते थे तथा हड्डियों का आभुषण पहनते थे। उनको जाति- व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं था। इनकी उत्पत्ति उज्जैन से ही मानी जाती है।

कई परमार शासक, जैसे सियाका, वाकपति- ।।, सिंधुराज, भोज, जयसिम्हा, उदयादित्या महाकुमारजन आदि परम शिवभक्त थे। राजा सियाका के आध्यात्मिक गुरु मत्मथुर संप्रदाय के लांबाकर्ण थे। पुराणों में उन्हें अवन्ति का भैरव कहा गया है। भोज के समय शैव धर्म का मालवा में व्यापक प्रसार हुआ। उसने शैव धर्म पर आधारित एक पुस्तक "तत्वप्रकाश' लिखा। भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर तथा चित्तौड़ का समाधिश्वर मंदिर राजा भोज ने ही बनवाये थे। इसके उत्तराधिकारी जयसिंहा ने पामशुलखेतक (पानाहेरा) के मंडलेश्वर मंदिर की स्थापना की। अर्थुना के परमार राजा धनिका ने उज्जैन के महाकाल मंदिर के समीप ही धनेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।

राजा उदयादित्य का शासनकाल मालवा में शैव धर्म के इतिहास का स्वर्णिम काल माना जा सकता है। उसने उदयपुर शहर की स्थापना की, जहाँ सन् १०५९ ई. से सन् १०८० ई. के बीच नीलकंठेश्वर मंदिर बनवाया। संबद्ध मंदिरों के अभिलेखों से पता चलता है कि उनके महाकालेश्वर मंदिर, नीलकंठेश्वर मंदिर व वल्लेश्वर मंदिर का निर्माण उदयादित्य के ही शासनकाल में हुआ। शासकों के अलावा साधारण जनता ने भी कई शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। कई शैव मठ शिक्षण संस्थान के रुप में कार्य करने लगे, जहाँ धार्मिक शिक्षाएँ दी जाती थी। चालुक्यों के मालवा पर अधिपत्य के बाद भी शैव धर्म का विकास अनवरुद्ध गति से होता रहा।

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वैष्णव धर्म

वैसे तो परमार- शासक शिव के उपासक थे, फिर भी परमार- साम्राज्य में विष्णु की पूजा का अच्छा- खासा प्रचलन था। उनकी पूजा विभिन्न अवतारों के रुप में होती रही। यहाँ तक की परमार राजाओं ने अपना राज- चिन्ह भी गरुड़ रखा, जिसे विष्णु का वाहन माना जाता है। इस काल में कई स्थलों, जैसे पथारी, हिंडोला (ग्यारसपुर), उदयगिरि, धमनार, ग्वालियर आदि में हमें वैष्णव मंदिर या उसके होने का प्रमाण देते कई अभिलेख मिले हैं, जो उन स्थानों पर लोगों के वैष्णव धर्म के प्रति आस्था को स्पष्ट करता है। सन् ८६१ ई. (वि. सं. ९१७)में लिखित एक विशाल पत्थर पर उत्कीर्ण अभिलेख राष्ट्रकुट राजा पर बाला द्वारा निर्मित विष्णु- मंदिर के होने की पुष्टि करता है। उसी प्रकार हिंडोला में किये गये उत्खनन से वहाँ १० वीं सदी के एक विष्णु मंदिर का प्रमाण मिला है। धमनार में ८ वीं या ९ वीं सदी में बना धमनेशनाथ का वैष्णव मंदिर है। ग्वालियर में गुर्जर- प्रतिहार वंश के राजा रामदेव के शासनकाल में, सन् ८७५ ई. में अल्ला नामक व्यक्ति ने चतुर्भुज मंदिर का निर्माण करवाया। ८ वीं सदी से १० वीं सदी के मध्य यहाँ बना तेली का मंदिर भी विष्णु को समर्पित है। वैष्णव राजा नरवर्मन "निर्वाण- नारायण' की उपाधि से सम्मानित हुआ था। इसके अलावा राजा अर्जुनवर्मन, सुभतवर्मन आदि भी विष्णु के उपासक थे।

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सूर्योपासना

परमार काल में भिलसा, सुर्य- उपासकों का सबसे बड़ा केन्द्र था। जहाँ भैलस्वामी का विशाल मंदिर था। मंदिर की स्थापना सन् ८७६ ई. (वि. सं. ९३५) में हुई थी। भोज के दरबारी कवि "महाकवि चक्रवर्ती छित्तपा' ने यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख में सूर्य- देव की स्तुति की है। जगद्देव के जैनाद अभिलेख में जगद्देव के मंत्री लोलारक की पत्नी द्वारा निम्बादित्य के मंदिर बनाने की चर्चा है। इसमें भी सुर्य की स्तुति की गई है।

कहा जाता है कि उदयपुर में उदयेश्वर मंदिर के निकट स्थित बीजामंडल या धदलियलन का मकान भी पहले एक सूर्य मंदिर ही था। इसकी जानकारी हमें भवन में ही मिले एक अधुरे- अभिलेख से प्राप्त होता है।

भिलसा के निकट ग्यारसपुर में "वज्रमठ' नाम के एक मंदिर का अवशेष मिलता है, जिसमें सूर्य को अपने सात घोड़ों के वाहन पर दिखाया गये हैं।

शिवपुरी से १३ कि. मी. की दूरी पर स्थित तोंगरा में १० वीं- ११ वीं सदी में बनी छः मंदिरों में दो सूर्य को समर्पित हैं।

उपरोक्त स्थानों पर सूर्य मंदिर व प्रतिमाओं का होना यह सिद्ध करता है कि उस समय समाज में सूर्य- पूजा भी प्रचलन में था।

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शक्ति की उपासना

देवी ( शक्ति ) को विभिन्न देवताओं की शक्ति का स्रोत माना जाता था। कई परमार अभिलेखों में शिव के साथ देवी- स्तुति की चर्चा मिलती है, जिससे समाज में उनके अस्तित्व व विश्वास का प्रमाण है। स्कंदपुराण के अनुसार विध्यवासिनि (दुर्गा) का वास अवन्ति था, अतः उज्जैन एक प्रमुख शक्तिपीठ बन गया।

इस काल में देवी के अनेक मंदिर व मूर्तियाँ मिली हैं। वि. सं. १३३१ में लिखित मंधाता के अभिलेख में शाकपुरा में परमार शासक अभयसिंह द्वारा अम्बिका देवी के मंदिर बनाने की चर्चा है। धार में सन् १०८१ ई. पार्वती की मूर्ति मिली है। माण्डु में कालकादेवी का मंदिर इसी काल से संबद्ध है। बीजामंडल मस्जिद, जो एक पुराने हिंदु मंदिर से बना है, पहले यह संभवतः नरवर्मन द्वारा निर्मित चर्चिका देवी का मंदिर था। इन्हें "विजया' के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि देवी चर्चिका ने अपने भक्तों को आकाश में उड़ने की शक्ति दी थी। ग्यारसपुर का मालादेवी मंदिर के दरवाजे के ऊपर देवी मूर्ति मिलने से प्रतीत होता है कि यह मंदिर भी मूल रुप से देवी मंदिर था। बडोह का गधरमल मंदिर भी देवी को समर्पित है। तराही में १० वीं- ११ वीं सदी में निर्मित मोहिजमाता का एक मंदिर है। सुहानिया में बना अम्बिका मंदिर भी इसका समकालीन है। इसके अलावा नरेसर से १२ वीं सदी की मातृदेवियों की कई प्रस्तर प्रतिमाएँ मिली हैं, जिन पर विग्रा, भामवती, माघवती आदि कई नाम खुदे हैं। कागपुर में भी देवी के एक मंदिर का अवशेष हैं।

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अन्य देवी- देवता की उपासना

परमार काल में पहले से पूजित कुछ प्रधान देवताओं के अलावा, कई नये देवी- देवताओं के उपासकों की संख्या भी बढ़ने लगी थी। समय के साथ साहित्य के विकास के कारण विद्या की देवी सरस्वती की प्रसिद्धि बढ़ गई। इसकी चर्चा कई परमार अभिलेखों में मिल जाता है। राजा भोज सरस्वती के महान उपासक थे। धाम में स्थित भोजशाला में देवी सरस्वती प्रधान देवी के रुप में स्थापित थी। सरस्वती को "वाग्देवी भारती' के रुप में भी जाना जाता था।

इच्छित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए गणपति की पूजा की जाने लगी। इसके अलावा कार्तिकेय, मदन, सोम, अग्नि, हनुमान, नवग्रह आदि कई देवताओं की पूजा की जाने लगी। भोज ने समरांगन- सुत्रधार में कई देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, बलभद्र, शिव, कार्तिकेय, लोकपालों, अश्विन, श्रीदेवी, कौशिकी आदि का उल्लेख किया है।

 

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