मालवा

मालवा के इतिहास के स्रोत

पुरातत्व संबंधी प्रमाण

अमितेश कुमार


 

पुरातात्विक खोजबीन व उत्खनन
नर्मदा घाटी के क्षेत्र में हमें प्लीस्टोसीन काल के जीवाश्म मिले है। इसी प्रकार चंबल की घाटी, शिवना घाटी तथा कई अन्य स्थानों पर भी भारी संख्या में कई तरह के पत्थरों के औजार मिले है। उस समय से जुड़े ये सामान पाषाण काल के लोगों की आदतों, वातावरण तथा मौसम में बदलाव की सूचना देते हैं।

पुरातात्विक महत्व के कुछ स्थान जैसे महेश्वर, नवदाटोली, नागदा, मनोती, अवारा, एरान तथा कायथा जैसे स्थानों से मिले भवनों के अवशेष, मिट्टी के बरतन, टेराकोटा तथा धातु निर्मित वस्तुएँ, अनाज के दाने, बीड्स तथा आभूषण वहाँ के ताम्रपाषाण युगीन सभ्यता की सू कहानी कहते हैं। इस काल तक का कोई भी लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

विदिशा, उज्जैन, मंदसौर और पवाया जैसे स्थानों पर किये गये उत्खनन कार्य से मिले सिक्के, टेराकोटा की वस्तुएँ, मूर्तियाँ, बरतन तथा अन्य सामान मालवा के प्राचीन इतिहास की जानकारी देते है।

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अभि लेख
मालवा में बड़ी संख्या में अभिलेख मिले हैं, जिनमें कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण है। ये अभिलेख पत्थरों, स्तंभों, दीवारों, ताम्र- प्रस्तरों व मूर्तियों पर देखे जा सकते हैं। स्थूल रुप से इनका दो भागों में वर्गीकरण किया जा सकता है --

। अधिशासक वर्ग द्वारा लिखित अभिलेख
।। व्यक्ति विशेष द्वारा लिखित (निजी) अभिलेख

दूसरे प्रकार के अभिलेख अधिक संख्या में मिले है। इनमें प्रायः मंदिर निर्माण या पूजा के लिए मूर्ति स्थापना, जैसे धार्मिक कार्य के लिए की गई दान की चर्चा होती है। कुछ अभिलेखों अतिशयोक्ति प्रतीत होती है। अतः उनको पूर्णरुपेण सच भी नहीं माना जा सकता।

अभिलेखों से प्राचीन मालवा के राजनीतिक इतिहास का पता चलता है। इन अभिलेखों में शासकों के नाम, उनके वंश तथा कभी- कभी उस वंश की पूरी पीढ़ी की चर्चा की गई है। कई में शासकों की उपलब्धियाँ वर्णित है। इनसे शासकों के राज्य का विस्तार के साथ- साथ उनके प्रांतीय विभाजन तथा विभिन्न प्रशासनों में अधिकारिक पदों के क्रमबद्धता का पता चलता है। कुछ महत्वपूर्ण अभिलेखों का उल्लेख किया जा रहा है --

साँची में अशोक का स्तंभ अभिलेख मालवा का सबसे प्राचीन अभिलेख माना जाता है। इससे पता चलता है कि कभी मालवा क्षेत्र भी मौर्यों की क्षेत्र सीमा में था।

बेसनगर के अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि युनानी राजा अन्तिलिकित ने हेलिओडोरस को विदिशा के राजा भागभद्र काशीपुत्र के शासनकाल के १४ वें वर्ष में वहाँ का राजदूत नियुक्त किया था।

साँची के स्तुप के दक्षिणी द्वार पर प्राप्त अभिलेख यह सत्यापित करते हैं कि सातवाहनों ने मालवा को अपने अधिपत्य में लिया था।

समुद्रगुप्त का एरण अभिलेख के अनुसार पूर्वी मालवा उसके साम्राज्य का हिस्सा था।

चंद्रगुप्त द्वितीय ( विक्रमादित्य ) के मंत्री वीरसेन द्वारा लिखित उदयगिरी का अभिलेख तथा अमरकार्दव का साँची का अभिलेख पश्चिमी क्षत्रपों पर, उनके आक्रमण तथा पूर्वी मांलवा पर अधिपत्य को सूचित करता है।

सन् ४६७- ६८ ई. में लिखित प्रभाकर का मंदसौर अभिलेख तथा सन् ४२५ ई. में लिखित तुमेन अभिलेख के अनुसार पूर्वी मालवा राजकुमार गोविंदगुप्ता तथा घटोत्कचगुप्त के अधीन था।

सन् ४१५ ई. का मंदसौर अभिलेख सन् ४१७- १८ ई. का बिहार कोटरा अभिलेख, सन् ४२३- २४ ई. का गंगधारा अभिलेख एवं सन् ४७२ ई. का मंदसौर अभिलेख हमें मंदसौर के आरंभिक औलिकार शासकों की सूचना देते हैं, जिन्होंने पश्चिमी मालवा पर शासन किया।

सन् ४८४- ४८५ ई. के एरण अभिलेख से पता चलता है कि उस समय बुद्धगुप्त का प्रभाव व अधिपत्य पूरे पूर्वी मालवा में था।

पूर्वी मालवा पर हुणों के कब्जे की जानकारी हमें तोरमान के शासनकाल के प्रथम वर्ष में लिखित एरण अभिलेख तथा मिहिरकुल के शासनकाल के १५ वें वर्ष में लिखित ग्वालियर अभिलेख से मिलती है।

यशोधर्मन के दो अभिलेखों ( एक सन् ५३२ ई. का तथा दूसरे की तिथि का पता नहीं चलता ) से यशोधर्मन के सैन्य विजयों का पता चलता है।

मंदसौर अभिलेख तथा गौरी के छोटी सादड़ी अभिलेख से हमें पता चलता है कि मानवायनी लाभ औलिकरों पर सामंतों की तरह शासन करते थे। नान्नपा का इंद्रगढ़ प्रस्तर अभिलेख एक नये राष्ट्रकूट वंश की चर्चा करता है, जिसने इंद्रगढ़ तथा उसके आस- पास के क्षेत्रों पर शासन किया था।

८ वीं शताब्दी का महुआ अभिलेख वत्सराज के पूरे वंशावली को दर्शाता था।

सिकाया - ।।, वाकपति -।।, भोज, जयसिंहा, नरवर्मन तथा अन्य कई लोगों के ताम्र पत्र मिले हैं, जिसमें उनके द्वारा किये गये भूदान का उल्लेख है। ये अभिलेख इस दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है कि इनमें राज्य के क्षेत्रीय सीमाओं का पता चलता है तथा साथ- साथ विभिन्न स्तर के राज्याधिकारियों के पदों का भी उल्लेख मिलता है।

नीलकंठेश्वर मंदिर के प्रयुक्त एक पत्थर पर "उदयपुर प्रशस्ति' खुदी हुई है, जो मालवा में परमारों के शुरुआती इतिहास की स्पष्ट जानकारी देती है। वर्तमान में सिर्फ यही उपलब्ध रिकॉर्ड है, जिसमें राजा उपेंद्र से राजा भोज तक के पूरे पीढ़ी की वंशावली खुदी हुई है। वैसे इसमें खुदाई की तिथि की चर्चा नहीं की गई है। विद्धानों का मानना है कि यह उदयादित्य के शासनकाल के प्रारंभिक काल का होगा।

झालरापाटन में मिले सन् १०८६ ई. ( वि. सं. ११४३ ) के प्रस्तर अभिलेख से विदित होता है कि यह क्षेत्र राजा उदयादित्य के सीमा क्षेत्र में था।

सन् १०६४ ई. ( वि. सं. ११६१ ) में लिखित नागपुर प्रस्तर अभिलेख राजा लक्ष्मणदेव के शासनकाल में किये गये सैनिक- कार्यवाहियों की विस्तृत जानकारी देता है।

सन् ११३३ ई. ( वि. सं. ११९० ) का विजयपालदेव का इंदोगा अभिलेख नरवर्मन के शासनकाल के अंतिम दौर में परमार- साम्राज्य के विघटन की जानकारी देता है।

चालुक्य शासक जयसिंह का उज्जैन में मिला प्रस्तर अभिलेख ( लिखित वि. सं. ११३८ ) से पता चलता है कि उसने यशोवर्मन को पराजित कर दिया था। अवन्ति- मंडल पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया था तथा महादेव को वहाँ का प्रशासन नियुक्त कर दिया था।

यशोवर्मादेव, जयवर्मादेव, लक्ष्मीवर्मादेव, हरिश्चंद्रदेव, उदयवर्मादेव तथा देवपाल के ताम्रपत्र पर लिखे दान- अभिलेख "महाकुमार परिवार' के इतिहास की जानकारी देते हैं।

राजनीतिक इतिहास की जानकारी के साथ- साथ कई अभिलेख धार्मिक जीवन, सामाजिक व्यवस्था तथा आर्थिक इतिहास की भी जानकारी देते हैं।

साँची में मिले कई ऐसे अभिलेख, जो व्यक्ति अपनी श्रद्धा से या किसी इच्छापूर्ति के बाद लिखवाते थे, से पता चलता है कि इस समय पूरे मालवा में बौद्धधर्म का विशेष प्रसार- प्रचार था।

बौद्ध संयासी, सेविकाओं, अधिकारियों तथा जन- साधारण व विभिन्न संगठनों ने भी स्तुप- निर्माण- कार्य के लिए दान दिया है। चूँकि इन अभिलेखों से मंदिर व उसकी प्रतिमाओं की स्थापना के निश्चित तिथि का पता चलता है, अतः उस समय की कला तथा धर्म की जानकारी मिलती है।

बेसनगर स्तंभ अभिलेख से पता चलता है कि युनान के राजा अन्तिलिकित का राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत धर्म स्वीकार कर लिया तथा श्रद्धा के साथ गरुड़- स्तंभ की स्थापना की, जो वहाँ के निवासियों के बीच "खम बाबा' के नाम से प्रसिद्ध हैं।

सन् २२५ ई. के नान्दसा अभिलेख तथा सन् २३९ ई. का बदवा अभिलेख से वैदिक धर्म के पुनउत्र्थान की जानकारी मिलती है।

सन् ४२५-२६ ई. के उदयगिरि गुफा के अभिलेख से जैन धर्म के अस्तित्व का प्रथम प्रमाण मिलता है, जिसमें शंकर द्वारा तीथर्ंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा- स्थापना की चर्चा की गई है।

विदिशा में मिले जैन अभिलेख से यह स्पष्ट होता है कि इसे रामगुप्त ने लिखवाया था।

मंदसौर अभिलेख से पता चलता है कि रेशम बुनकरों के समुह ने सन् ४३७- ३८ ई. में एक सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया। सन् ४७३-७४ ई. में पुनः इसकी मरम्मत की गई।

सन् ८७८ई. ( वि. सं. ९३५ ) का भिलसा अभिलेख अभी तक ज्ञात अभिलेखों में प्रथम है, जिसमें भैलास्वामिन मंदिर की चर्चा की गई है।

पतंगशम्भू का ग्वालियर संग्रहालय प्रस्तर अभिलेख, जिसे संभवतः रानोड से लाया गया है तथा रानोड का ही एक अन्य प्रस्तर अभिलेख शैवों के मत्तमयुर संप्रदाय के संतों की आध्यात्मिक वंशावली तथा विभिन्न स्थानों पर उनके कार्यकलाप की व्याख्या करता है।

सन् ५१०- ११ ई. में लिखित एरण अभिलेख के द्वारा अभिलेखों के माध्यम से पहली बार सती प्रथा की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख के कथनानुसर गोपालराजा, जब घमासान युद्ध के दौरान मारा गया, तब उसकी पत्नी, उसके चिता के साथ सती हो गयी।

कुछ अभिलेखों के माध्यम से हमें किसी व्यक्ति- विशेष द्वारा उल्लेखित जाति व गोत्र के संबद्ध में जानकारी मिलती है। इस तरह की जानकारियाँ सामाजिक इतिहास की जानकारी को समृद्ध करती है।

देवपाल तथा जयसिंहा जयवर्मन के मंघाता अभिलेखों में वैसे ब्राम्हणों के जाति, गोत्र व प्रवरों की चर्चा की गई है, जिन्हें दान दिया गया था।

परमार कालीन ताम्रपत्रों से पता चलता है कि परमार राजाओं ने देश के विभिन्न भागों के विद्वान ब्राम्हणों को अपने राज्य में शरण दिया तथा दान में भूमि भी दी।

कुछ अभिलेख हमें बतलाते हैं कि कैसे व्यापार तथा उद्योग व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए श्रेणी के रुप में संगठित हुए। उदाहरण के रुप में इन अभिलेखों का उल्लेख किया जा सकता है।

सन् ४३७- ३८ ई. तथा सन् ४७३- ७४ ई. का मंदसौर अभिलेख हमें बतलाता है कि कैसे रेशम बुनकरों की श्रेणी ( संगठन ) अच्छे अवसर को देखते हुए लात से दशापुर में जाकर बस गये।

शेरगढ़ अभिलेख ( लिखित सन् १०१७ ई.) में इस बात की चर्चा की गई है कि तैयक नामक व्यक्ति उस समय के एक व्यवसायिक संगठन का मुखिया था।

कुछ अभिलेखों में समकालीन सिक्कों का भी उल्लेख किया गया है। उदाहरण के लिए सन् ४१२- १३ ई. के साँची अभिलेख में एक बौद्ध संघ को २४ दीनार दिये जाने की चर्चा की गई है।

कुछ अभिलेख समकालीन योग्य रचनाकारों द्वारा रचित है। कुछ लेखकों की कृतियों के बारे में सिर्फ अभिलेखों से पता चल पाता है, उनकी रचनाएँ भी उपलब्ध नहीं है।

सन् ४७३ ई. का मंदसौर अभिलेख रचनाकार वत्सभट्टी की चर्चा करता है।

सन् ५३२ ई. के मंदसौर अभिलेख में वासुला सन् १०५० ई. के भिलसा अभिलेख में यशोधर्मन एवं चितपा की चर्चा की गई है।

कुछ अभिलेखों में काव्य या लघुनाटिका भी लिखी गई है। उदाहरण के लिए, मदना का परिजात मंजरी तथा भोज की कोदंदकाव्य धार की भोजशाला के पत्थर पर खुदी हुई है।

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सिक्के
अभिलेखों के बाद सिक्के प्राचीन मालवा की ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से बहुत ही महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं। वहाँ के अलग- अलग स्थानों से कई तरह के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उनके संकेत, चित्र, लेख, धातु- प्रकृति तथा उसकी मात्रा का अध्ययन कर उस समय के इतिहास के राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक पहलूओं को जान पाये हैं।

मालवा से प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन आहत सिक्के ढलुआ सिक्कों के साथ- ही झालरापाटन, सारंगपुर, उज्जैन, एरण व महेश्वर जैसे स्थानों से प्राप्त हुए हैं। सिक्कों का उपरोक्त स्थानों में पाया जाना इनकी प्राचीनता की ओर संकेत करता है। जमीन के अंदर उत्खनन का स्तर तथा इनके ऊपर बने संकेत से पता चलता है कि ये मौर्यकाल से संबद्ध हैं। उज्जयिनी तथा एरण में भारी संख्या में मिले सिक्के तीसरी व दूसरी शताब्दी ई. पू. के है, जब यह क्षेत्र मौर्यों के अधीन था। उज्जैन, एरण, महिष्मती व विदिशा जैसे शहरों में स्वतंत्र सिक्कों का प्रचलन इन स्थानों की महत्ता को सिद्ध करता है।

चूँकि शकों के काल के अभिलेख व ग्रंथ मालवा में बहुत कम मिले हैं। शकों के इतिहास की जानकारी में सिक्के बहुत सहायक हुए हैं। शकों द्वारा निर्गत सिक्कों में समकालीन राजा का नाम तथा उसके पिता का नाम अंकित है। ज्यादातर सिक्कों में तिथियाँ (शक संवत् में) भी खुदी हुई है। इन सिक्कों से वहाँ के इन पश्चिमी क्षत्रपों की ३०० साल से अधिक के इतिहास की जानकारी मिल जाती है। गोंडरमान व सर्वानिया समूह के सिक्कों में महाक्षत्रप स्वामी रुद्रसेन- ।।। सबसे बाद का है। सिक्कों से ऐसा मालूम पड़ता है कि उसके शासनकाल की स्थिति बहुत सामान्य नहीं थी। गौतमपुत्र शतकर्णी द्वारा दुबारा जारी किये गये सिक्कों से पता चलता है कि उसने नहपाना को हराकर उसके साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था।

मालवा पर सतवाहनों द्वारा एक विशेष प्रकार का स्थानीय सिक्का जारी करना, मालवा पर उनके प्रभुत्व की ओर स्पष्ट संकेत देता है। पवाया व कुटवार में बड़ी संख्या में मिले सिक्के नागों के इतिहास की जानकारी उपलब्ध कराते हैं।

मालवा में चंद्रगुप्त -।। (विक्रमादित्य) द्वारा शकों की नकल में सिक्के जारी करना, यह प्रमाणित करता है कि उसने शकों को पराजित कर दिया था। गुप्त सिक्कों को बभनाला संग्रह में कुमारगुप्त -। तक के समय के सिक्के है। साथ में सोने की लंबी दंड भी मिली है। ऐसा मालुम पड़ता है कि पुष्यमित्रों के समय में किसी जातियों के आपसी संघर्ष के समय खजाने को छुपा दिया गया होगा। सिक्कों का अध्ययन यह भी इशारा करते हैं कि झिष्णु व रामगुप्त दोनों स्थानीय शासक थे।

सिक्कों से मालवा के लोगों की धार्मिक आस्था का भी पता चलता है। आहट- सिक्कों में मिले सूर्य, साढ़ व हाथी के चित्र उसके धर्म व विश्वास- संबंधी बातों का संकेत देते हैं। उज्जयिनी के सिक्कों में उत्कीर्ण शिव सांकेतिक रुप से वहाँ के "महाकाल' से संबद्ध है। नाग शासकों के सिक्कों पर अंकित सांढ़, त्रिशूल व मयूर का चिंह यह बतलाता है कि वे शिव के उपासक थे। जिष्णु के सिक्कों में चक्र व शंख का होना, उसके वैष्णव धर्म की ओर झुकाव को बतलाता है। कुछ गाधिया सिक्के, जिनमें "श्री ओंकार' का लिखा होना, यह संकेत देते हैं कि वहाँ का स्थानीय शासक, ओंकार नामक देवी का उपासक था।

धातु की प्रकृति तथा मात्रा मालवा के आर्थिक इतिहास की जानकारी देते हैं। वहाँ मिले आहत सिक्के प्रायः तांबा के है, जबकि अन्य क्षेत्रों के समकालीन सिक्के प्रायः चाँदी के हैं। उज्जैयिनी व एरण के स्थानीय सिक्कें भी तांबा के हैं। सिक्कों पर मिला गुणा व गेंद का चिंह, जो उज्जैन चिंह के रुप में जाना जाता है। व्यापार में उज्जैन के महत्व का संकेत देता है। शक तथा सातवाहनों ने भी तांबा व पोटीन के सिक्के ही जारी किये। जिष्णु व रामगुप्त के सिक्के तांबे के बने हैं तथा आकार में बहुत छोटे है। नागवंशी शासकों ने सिक्कों को काकनी, आधा काकनी तथा चौथाई काकनी के रुप में जारी किया था। उज्जैन, विदिशा व एरण जैसे स्थानों से भिन्न- भिन्न समय में भारी संख्या में जारी किये गये, सिक्के प्राचीन काल में उपरोक्त स्थानों के वाणिज्य तथा व्यापार में महत्व को इंगित करता है।

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स्मारक
मालवा में विभिन्न कालों के बने प्राचीन स्तुप, बौद्ध प्रार्थना- गृह, मंदिर, मूर्ति व चित्रकारी वहाँ के लोगों की आस्था, आर्थिक जीवन व कला की उन्नति की जानकारी देती है। इन कलात्मक भवनों व वस्तुओं से उस समय के लोगों के पहनावे, अस्र- शस्र, वाद्य- यंत्र व मान्यताओं का पता चल जाता है।

साँची तथा उसके आस- पास के ३ री सदी ई. पू. से १२ वीं सदी तक के ऐतिहासिक महत्व के स्मारक स्थानीय कला के उद्भव व विकास को स्पष्ट करते हैं। बाग में बने भवन व चित्रकारियाँ कलात्मक रुप से बहुत ही महत्वपूर्ण है। विदिशा में मिले स्मारक, वहाँ वैष्णव धर्म के व्यापक प्रभाव का संकेत देते हैं। ग्यारसपुर, भोजपुर, बड़ोह व ऊँन में मिले पुरातात्विक अवशेषों से यह पता चलता है कि वहाँ बौद्धधर्म व जैनधर्म का भी प्रसार होने लगा था। परमार कालीन कला- समृद्धि की जानकारी ऊन, बदोह, ग्यारसपुर, उदयपुर, धार व उज्जैन जैसे प्राचीन स्थानों के स्मारक अवशेषों के अध्ययन से मिलता है। उदयपुर का नीलकंठेश्वर या उदयेश्वर (शिव) मंदिर व भेमावर का सिध्देश्वर मंदिर भी महत्वपूर्ण है।

 

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