ग्वालियर के मृणशिल्प

चकरेटिया कुम्हार

- मुश्ताक खान


पत्थर के चाक पर काम करते हुए चकरेटिया कुम्हार




मिट्टी का घड़ा बनाते हुए हथरेटिया कुम्हार


मिट्टी का बर्तन बनाते हुए हथरेटिया कुम्हार


अबा मे पक कर तैयार मिट्टी के बर्तन


परम्परागत मिट्टी के खिलौनों की दुकान

मिट्टी कही मिली भी तो वह काम की ही हो यह जरुरी नहीं है। आजकल सबसे अच्छी मिटटी नौलक्खा परेड पर ही मिलती है वहां किसी से मिल मिलाकर या थोड़े पैसे देकर मिटटी ले आते है,ै पर कोई भरोसा नहीं रहता कभी भी कोई सरकारी आदमी पकड़ लेता है गाली सुनाता है मारता है और पैसे मांगता है यदि ज्यादा कुछ कहो तो गधो को कांजी हाउस में बन्द करवा देते है। सरकार ने इस सम्बन्ध में अब तक कोई नीति नहीं बनाई वर्ना सरकार अगर चाहे तो हमें कोई पहाड़ या जगह निश्चित कर दे और हमसे साल भर का पैसा ले लिया करे। 

पहले तो इतने मकान बने ही नही थे चारों ओर खेत थे इस लिये किसी भी खेत मालिक से पूछकर मिटटी ले लेते थे और बदले में साल भर के दस या पन्द्रह रुपये खेत मालिक ले लता था।

लालचन्द कुम्हार बताते है कि इनकी ग्वालियर में पांच छः पीढियां गु गई हैं। आज कल तो ज्यादातर लोग मिटटी के बर्तनों के बदले पैसा ही दे देते हैं परन्तु पहले अनाज और पैसा दोनों ही मिल जाता था कुछ प्रचलित रुढ़ प्रथाओं का ही प्रभाव है जो आज भी गांवो से कुछ अनाज मिल जाता है जैसे गर्मियों में जब चैत माह में गेंहू की फसल कटती है तब कुम्हार खलिहान में मिटटी के बर्तन देने जाते हैंै, मिटटी के बर्तनों के एक सैट को एक जहल कहते है और एक जहल में एक मथनियां और एक ढिल्ला होता है। तो उसके बदले तीन पूला अनाज मिलता है।

वे कहते है यहां बनाये जाने वाले मटको के आकार के आधार पर कई नाम होते है, जैसे मथनिया, ढिल्ला, गागर, मठोला, सबसे बड़ा मटका, गोरा कहलाता है यह इतना बड़ा होता है कि इसमें दो तीन टंकी पानी आ जाता है। गोरा बनाना हर कुम्हार के बस की बात नहीं है इसे बनाने के लिये कौशल के साथ साथ लम्बे हाथ पैरों का होना भी आवश्यक है क्योंकि छोटे हाथों वाला ज्यादा बड़ा मटका नहीं बना सकता। नाद और गोरा में फर्क यह होता है कि नाद तो शंकु आकार की चौड़े मुंह वाली होती है पर गोरा का मुंह किनारदार मटके जैसा होता है। इसका मुंह तो चाक पर बनाया जाता है पर निचला भाग, थापा-पिण्डी से ठोक ठोक कर बनाया जाता है मठोला का मुंह चौड़ा होता है और गागर सकरे मुंह की होती है। मौन का मुंह भी छोटा होता है। एक टीरा होता है, यह बनता तो ढिल्लासाज ही है पर इसके पेट पर एक धार बना दी जाती है यानी तला तो गोल ही होता है पर बीच की धार से गर्दन तक एक ढाल बनाया जाता है। टीरा बनाना कुम्हार की दक्षता का परिचायक माना जाता है। टीरा और मठोला की बनावट एक सी होती है परन्तु मठोला बड़े मुंह का होता है। मठोला और टिरा मही मथने के काम आते है। मौन और गागर की बनावट एक सी होती है परन्तु मौन की गर्दन थोड़ी ऊंची होती है। सुराही, गमला, कूढाँ आदि सभी चाक पर ही बनाये जाते है पर इनके लिये प्रयोग की जाने वाली मिट्टी की मुलामीयत में अन्तर होता है। जो वस्तुऐं नीचे संकरी रहकर ऊपर की और फैलती है उनके लिये थोड़ी कर्री मिटटी लेते है क्योंकि पतली मिटटी के ऊपर फैलने पर पसर जाने का खतरा होता है। यही कारण है कि कूढाँ, गमला या सुराही के लिये एक दिन पुरानी तैयार मिटटी प्रयोग में लाई जाती है।

मिटटी कंकड़ और रेत रहित होना चाहिये उसमें लोच होना आवश्यक है। कुम्हार को इसका पता मिटटी खोदते समय ही लग जाता है, जैसे ही मिटटी खोदने के लिये गैंती जमीन पर मारते है तब यह जमीन रेवडी सी खिल जाय तो यह मिटटी बहुत अच्छी होगी। इस मिटटी का डिल्ला फोड़ने पर छार छार हो जायेगा। मिटटी को घर लाकर पहले उसे फोड़ा जाता है, फिर उसे निबेर कर उसके कंकड पत्थर अलग किये जाते है, फिर उसे सुखा लिया जाता है मिटटी को भिगोने से पहले उसे सुखाना जरुरी है नहीं तो मिटटी पूरी तरह से फूलती नहीं है। उसमें मिंगी रह जाती है, साथ ही सूखी मिटटी फुलाने पर बहुत जानदार बनती है। मिटटी फुलाने के लिये एक विशेष गढढा बनाया जाता है इस गढढे का अस्तर बनाने के लिए चारों ओर पत्थर लगा दिये जाते हैं, इसे मिठार कहते हैं। अच्छी मिटटी जल्दी गल जाती है। मिटटी गल जाने पर उसे तैयार करते हैं इसके लिये मिटटी में गोबर और थोड़ा राख मिलाते हैं। यदि चार तस्सल मिटटी हो तो एक तस्सल घोड़े के लीद जरुर हो और आधा तस्सल कण्डे की राख मिलाते है और मिटटी की खुंदाई करते हैं। खुंदाई करने से ही मिटटी में लोच पैदा की जाती है। लीद को मीसन कहते हैं। इससे बर्तन फटते नहीं हैं और राख बिछा कर मिटटी खूदने से मिटटी में दूसरी मिटटी नहीं मिल पाती। मीसन मिलाने से बर्तन अच्छा पकता है। मिटटी तैयार हो जाने पर उसके गोंदे बना लिये जाते है। गोंदे इतने ही बड़े बनाए जाते हैं, जितने चाक पर काम करने के लिये उपयुक्त हों। बड़े काम के लिये बड़े गोंदे बनाये जाते है क्योंकि मिटटी ज्यादा लगती है जबकि दिये या डबूले बनाने के लिये छोटे गोंदे बनाए जाते है क्योंकि एक ही गोंदे में बहुत काम हो जाता है।

 

  

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