मगध

मगध क्षेत्र के पारम्परिक उद्योग

पूनम मिश्र


वस्र उद्योग
मिष्टान्न व नमकीन उद्योग
अगरबत्ती उद्योग
पाषाण एवं काष्ठ उद्योग
बांस आधारित उद्योग
मिट्टी आधारित उद्योग
चर्म एवं बाद्य यंत्र उद्योग
ऊन एवं कंबल उद्योग
कालीन व दरी उद्योग
ताड़ी एवं शराव उद्योग

 

यह "मगध' नामक क्षेत्र मध्य बिहार का एक भौगोलिक क्षेत्र हैं। राजनैतिक एवं प्रशासनिक मानचित्र में यह मुख्यत: मगध प्रमंडल के रुप में है। इस मगध प्रमंडल के जिले हैं- गया, औरंगाबाद, जहानाबाद, नवादा। प्रमंडल का मुख्यालय गया में ही है और यही है मगधांचल का सांस्कृति, राजनैतिक तथा व्यवसायिक केन्द्र।

इस क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की कलाएं प्राचीनकाल से ही है और यही कालांतर में कलाकारों की रोजी-रोटी तथा व्यवसाय का मुख्य साधन बनीं। हालांकि आधुनिक कलाओं, उत्पादों और व्यवसायों से पारंपरिक व्यवसाय प्रभावित जरुर हुआ है, फिर भी इन व्यवसायों एवं पारंपरिक उत्पादों का अपना महत्व एवं बाजार में पूछ भी है। इसलिए यह कहना कि "आज के पारंपरिक उद्योगों पर संकट ही संकट है' पूर्णत: उचित नहीं है।

हम अब मगध क्षेत्र के पारंपरिक उद्योग से परिचित हो लें तथा इनसे जुड़े पारंपरिक व्यवसाय व्यापकता, वायपारिक घाटा लाभ, स्थानीय समस्याएं व उनके समाधान तथा अन्य तकनीकि पक्षों पर भी न डालते चलें। यहां के प्रमुख पारंपरिक उद्योगों में वस्र-उद्योग, मिष्टान्न उद्योग बांस से उत्पादित वस्तु उद्योग, पाषाण एवं काष्ठ मूर्ति उद्योग, वाद्य यंत्र उद्योग, ऊन एवं कंबल उद्योग, हस्तकला के अन्य उद्योग, शराब एवं ताड़ी उद्योग तथा गिट्टी उद्योग मुख्य हैं। उपरोक्त सभी पारंपरिक गुरु चेले वाले परंपरा चक्र से ही चलते आ रहे हैं और इसी परंपरा के तहत इसमें आवश्यक अनावश्यक रुपांतरण होते रहे हैं।

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वस्र उद्योग

मगध क्षेत्र में सूती वस्र उत्पादन काफी होता है और इसका अपना बाजार भी है। मगध क्षेत्र में इसके निम्नांकित केन्द्र हैं - मानपुर (गया), बिहार शरीफ नबीनगर, चाकन्द, बेला, दाउदनगर आदि। खादी ग्रामोद्योग का भी अपना वस्र उत्पादन मगध क्षेत्र में होता है। गया में N.T.C. का अपना सूत मिल है अर्थात् मगध प्रमंडल के चारों जिलों में वस्र उद्योग के केन्द्र हैं। लगभग २०००० आबादी इस उद्योग में लगी है। जुलाहा, तांती, पटवा जिते के लोग तथा खादी ग्रामोद्योग के गांधीवादी कार्यकर्ता इस उद्योग में लगे हैं। सहकारी संस्थाएं इस उद्योग में मृतप्राय है। वस्र उद्योग में इस क्षेत्र की अपनी अलग पहचान है। खादी ग्रामोद्योग को छोड़कर इस उद्योग में कुल ३-४ करोड़ का कारोबार होता है। मानपुर और नवादा में रेशमी वस्रों का उत्पादन भी तेजी से बढ़ा है।

इस उद्योग की स्थानीय एवं अन्य समस्यायें भी हैं, जिससे उत्पादन में गतिरोध होता रहता है। इनमें बिजली की आपूर्ति में कमी, धागे व अन्य कच्चे मालों का अभाव, अन्य कच्चे मालों का अभाव सीमित गुणवत्ता, सरकारी बुनकर संगठनों का अभाव, सरकारी सहयोग व संरक्षण का अभाव आदि प्रमुख हैं। धागे की आपूर्ति के लिए स्थापित एन.टी.सी. का कॉटन मिल खुद बंदी के कगार पर है।

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मिष्टान्न व नमकीन उद्योग

मगध क्षेत्र में मिष्टान्न उद्योग काफी फल-फूल रहा है। इसमें मुख्यत: हलवाई जाति के लोग परम्परागत रुप में लगे हैं।

गया के हलवाई जाड़े में तिलकुट, गर्मी में खुंभी की लाई तथा बरसात में अनरसा लम्बे समय से बनाते आ रहे हैं। रमना मुहल्ले का चीनी का तिलकुट तो बिहार भर में मशहूर है। गुड के तिलकुट के लिए टिकारी व डंगरा मशहूर हैं। गया जिले का शेरघाटी और औरंगाबाद का मदनपुर "प्याव' अथवा "टिकरी' के लिए प्रसिद्ध है। उसी प्रकार नवादा जिले के पकरी बरावां व कौआकोल का बारा भी बिहार भर में मशहूर है। नबीनगर (औरंगाबाद) के "जिलेबा' अथवा इमरती की भी काफी प्रसिद्धि है।

नमकीन उद्योग में दालमोट व मिक्सचर मुख्यत: गया में ही बनाया जाता है। इसकी बिक्री भी दूर-दूर तक होती है।

इस उद्योग में छ: सात हजार लोग लगे हुए हैं तथा कुल वार्षिक कारोबार १० करोड़ रुपये से अधिक का होता है। आकर्षक पैकिंग, विज्ञापन, बैंक द्वारा सुलभ ॠण तथा कच्चे मालों व इंधन की कम कीमत पर आपूर्ति कारोबार को कई गुणा बढ़ा सकती है।

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अगरबत्ती उद्योग

अगरबत्ती उद्योग अभी मगध प्रमण्डल के परम्परागत उद्योंगो में प्रमुखत: पर है। इसका मुख्य केन्द्र गया है। गया के विभिन्न मुहल्लों व आस-पास के देहात की २०-२५ हजार आबादी, खासकर मुस्लिम व दलित औरतें बच्चे इस उद्योग से संबंद्ध है तथा सालाना कारोबार दसियों करोड़ों रुपयों का हैऽ

समीपवर्ती जंगलों के उजड़ने के कारण बांस की तीली, मसालों व सुगन्ध दृव्यों के लिए यह उद्योग अभी बाहरी सामग्रियों पर निर्भर है। अपने ब्रांडों की विश्वसनीयता के अभाव में अधिकांश माल कलकत्ता, दिल्ली व अन्य बड़े केन्द्रों में चला जाता है। इस कारण अधिकांश मुनाफा भी उन्हें ही मिलता है। सरकारी सहयोग-सहायता भी नाम मात्र की है है। संगठनों व समितियों के अभाव में भी कारीगरों की स्थिति दयनीय है।

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पाषाण एवं काष्ठ उद्योग

पत्थर की मूर्तियों, खरल व अन्य उपयोगी वस्तुओं के निर्माण के मामलें में भी मगध प्रसिद्ध है। गया शहर का विष्णुपद मुहल्ला तथा इसी जिले के पत्थर कही (अतीर प्रखण्ड) तथा बोधगया इस उद्योग के मुख्य केन्द्र है। पत्थरकट्टी में तो स्थानीय तौर पर अच्छे कि का पत्थर भी उपलब्ध है। गौड़ व मूर्तिकार समुदाय के लोग इस धन्धे से प्रमुखतया जुड़े हैं।

लकड़ी के फर्नीचर, मूर्तियां, खिलौना, सिन्होरा आदि के निर्माण के लिए भी यह क्षेत्र ख्यात है। गया शहर इनका भी मुक्य केन्द्र है। पाषाण उद्योग के विकाक से लिए क्षेत्रों में काफी गुंजाइश है। परन्तु सरकारी उपेक्षा के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। पत्थरकट्टी का मूर्तिकला प्रशिक्षण केन्द्र मृतप्राय है। यातायात तक की भी असुविधा है। अपराधी समूह का भी उन पर काफी दवाब है। संगमरमर की जगह क्वार्ट्् जाइट तथा पलामू मार्बल तक नाम से मशहूर डोलोमाइट के उपयोग से भी धन्धे में काफी विकास संभव है।

हाथ से पत्थर की छरीं तोड़ना भी क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों में गरीब लोगों का परंपरागत धंधा रहा है। सैकड़ों शक्तिचालित क्रशर मशीनें लगाए जाने के बावजूद इसके जरिए आज भी हजारों परिवार इससे परवरिश पा रहे हैं। कानूनी अधिकार मिल जाने पर इसका काफी विकास संभव है।

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बांस आधारित उद्योग

बांस से सूप - दौरी, टोकरी, पंखा, झाडू, चटाई, खिलौने आदि बनाना, इस क्षेत्र में एक पारंपरिक उद्योग है। गया जिले के इमामगंज, डुमरिया व बाराचट्टी प्रखंड सहित क्षेत्र के तमाम जंगली इलाके इसके प्रमुख केन्द्र है। डोम-बंसफोर व तूरी जातियां इससे मुख्यत: जुडी हुई हैं। इनकी संख्या क्षेत्र में १०-१५ हजार से अधिक है। कुल कारोबार ५० लाख से एक करोड़ के बीच है।

बांस की कमी व मंहगाई तथा प्लास्टिक उत्पादों के बढ़ते उपयोग व कारण यह क्रमश: समाप्त होता जा रहा है।

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मिट्टी आधारित उद्योग

जिले के प्राय: सभी भागों में मिट्टी निर्मित वस्तुएं बनायी जा रही है मुख्यत: कुम्हार जाति इस धंधे में संलग्न है। खपड़ा, घड़ा, सुराही, गमला, दिया, ढकना, खिलौने आदि मुख्य उत्पाद है।  २० हजार से अधिक लोग इसमें संलग्न है तथा कारोबार लगभग एक करोड़ रुपये का है।

सैकड़ों चिमनी भट्ठों के निर्माम के बावजूद परंपरागत ढंग की बनी ईंटों का उत्पादन भई पूरे क्षेत्र में होता है। संलग्न लोगों की संख्या २०-२५ हजार से अधिक है तथा कारोबार २-३ करोड़ रुपये का संभावित है।

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चर्म एवं बाद्य यंत्र उद्योग

चर्म एवं वाद्य यंत्र उद्योग भी मगध क्षेत्र के परंपरागत उद्योग हैं। जूते-चप्पलों के निर्माण का तमाम शहरों व कस्बों में होता है। ढोल, ढोलक, तबला, मांदर (मादल), नाल आदि के सिरे मढने का काम भी इन जगहों पर होता है। सितार, सारंगी, हारमोनियम, बेंजो आदि तार व रीड पर आधारित वाद्ययंत्रों का निर्माम मुख्यत: गया शहर में होता है।

मुख्यत: चमार व चीक जाति के पांच-छ: हजार लोग इन कामों से जुड़े हैं। कुल सालाना कारोबार एक करोड़ से अधिक का है। प्लास्टिक व एलेक्ट्रोनिक सामग्रियों से प्रतियोगिता इस उद्योग की मुख्य समस्या है। जूता-चप्पल में बड़े उद्यमों से भी हमारी प्रतिद्वेंदिता है।

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ऊन एवं कंबल उद्योग

मगध प्रमंडल में जाति द्वारा भेड़ पालन एक परंपारागत काम है। उन से प्राप्त ऊन से कंबल, चादर, मफलर, आसनी इत्यादि चीजें परंपरागत रुप से बनायी जाती रही हैं। खादी ग्रामोद्योग भी इस काम में लगा है। ३-४ हजार की आबादी इस काम में लगी है। कुल सालाना कारोबार लगभग एक करोड़ का है। गया, ओबरा व टंडवा (नबीनगर) इसके मुख्य केन्द्र हैं।

लोगों की बदलती रुचि तथा सस्ते सिंथेटिक सामानों से प्रतिद्वेंद्विता के कारण यह उद्योग लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है।

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कालीन व दरी उद्योग

औरंगाबाद जिले का ओबरा कसबा इस मामले में भारत भर में प्रसिद्ध है। यहां का कालीन राष्ट्रपति भवन तक में मौजूद है। गया जिले के करमा भदया (बाराचट्टी) में भी इसकी शुरुआत हुई है। कुल वार्षिक कारोबार एक करोड़ से अधिक है।

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ताड़ी एवं शराव उद्योग

पूरे प्रमण्डल में पासी जाति द्वारा ताड़ एवं खजूर के पेड़ों से ताड़ी चुयाना काफी पहले से प्रचलित है। महुआ से शराब बनाना भी इसी प्रकार प्रचलित है। दोनों का उपयोग नशे के रुप में किया जाता है। परन्तु ताड़ी चुआने को जहां कानूनी स्वीकृति प्राप्त है वहीं शराब गैर कानूनी है। कुल कारोबार करोड़ो में हैं।

औरंगाबाद जिले के पीरु हसपुरा तथा देवकुण्ड क्षेत्र में विशाल ताल वन मौजूद है। ताडी से गुड़ बनाने पर इससे कहीं अधिक सामाजिक लाभ संभव है। महुए का भी खाद्य पदार्थ व पशु चारे के रुप में ज्यादा अच्छा उपयोग संभव है।

उक्त उद्योगों के अलावा सैकड़ो अन्य छोटे-मोटे उद्योग क्षेत्र में स्थानीय तौर पर प्रचलित है। इनमें से कुछ स्वतंत्र है और कुछ कृषि के सहायक। इनमें लाखों की आबादी संलग्न है। मजबूत संगठन व सरकारी सहायता की स्थिति में इनमें काफी बड़ी आबादी की खुशहाली संभव है।

 

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