मध्य प्रदेश

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मध्यप्रदेशः एक सांस्कृतिक परिचय
डॉ. कैलाश कुमार मिश्र


आइए, मध्यप्रदेश की बात करें। क्या आपने कभी सोचा है कि इस प्रदेश का नाम मध्यप्रदेश क्यों है? मध्य का अर्थ बीच में है, मध्यप्रदेश की भौगोलिक स्थिति भारतवर्ष के मध्य अर्थात् बीच में होने के कारण इस प्रदेश का नाम मध्यप्रदेश दिया गया, जो कभी 'मध्यभारत' के नाम से जाना जाता था। मध्यप्रदेश हृदय की तरह देश के ठीक बीचोंबीच में स्थित है। यह प्रदेश एक तरफ़ से उत्तरप्रदेश, दूसरी तरफ़ से झारखण्ड, तीसरी तरफ़ से महाराष्ट्र, चौथी तरफ़ से राजस्थान, पाँचवी तरफ़ से गुजरात और छठवीं तरफ़ से छत्तीसगढ़ की सीमाओं से घिरा हुआ है।

भारत की संस्कृति में मध्यप्रदेश जगमगाते दीपक के समान है, जिसकी रोशनी की सर्वथा अलग प्रभा और प्रभाव है। विभिन्न संस्कृतियों की अनेकता में एकता का जैसे आकर्षक गुलदस्ता है, मध्यप्रदेश, जिसे प्रकृती ने राष्ट्र की वेदी पर जैसे अपने हाथों से सजाकर रख दिया है, जिसका सतरंगी सौन्दर्य और मनमोहक सुगन्ध चारों ओर फैल रहे हैं। यहाँ के जनपदों की आबोहवा में कला, साहित्य और संस्कृति की मधुमयी सुवास तैरती रहती है। यहाँ के लोक समूहों और जनजाति समूहों में प्रतिदिन नृत्य, संगीत, गीत की रसधारा सहज रुप से फूटती रहती है। यहाँ का हर दिन पर्व की तरह आता है और जीवन में आनन्द रस घोलकर स्मृति के रुप में चला जाता है। इस प्रदेश के तुंग-उतुंग शैल शिखर विन्ध्य-सतपुड़ा, मैकल-कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजते अनेक पौराणिक आख्यान और नर्मदा, सोन, सिन्ध, चम्बल, बेतवा, केन, धसान, तवा, ताप्ती आदि सर-सरिताओं के उद्गम और मिलन की मिथकथाओं से फूटती सहस्त्र धाराएँ यहाँ के जीवन को आप्लावित ही नहीं करतीं, बल्कि परितृप्त भी करती हैं।

मध्यप्रदेश में पाँच लोक संस्कृतियों का समावेशी संसार है। ये पाँच साँस्कृतिक क्षेत्र है-

(क) निमाड़
(ख) मालवा
(ग) बुन्देलखण्ड
(घ) बघेलखण्ड
(च) ग्वालियर


प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र या भू-भाग का एक अलग जीवंत लोकजीवन, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, कला, बोली और परिवेश है। मध्यप्रदेश लोक-संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान श्री वसन्त निरगुणे लिखते हैं- "संस्कृति किसी एक अकेले का दाय नहीं होती, उसमें पूरे समूह का सक्रीय सामूहिक दायित्व होता है। सांस्कृतिक अंचल (या क्षेत्र) की इयत्त्ता इसी भाव भूमि पर खड़ी होती है। जीवन शैली, कला, साहित्य और वाचिक परम्परा मिलकर किसी अंचल की सांस्कृतिक पहचान बनाती है।"

मध्यप्रदेश की संस्कृति विविधवर्णी है। गुजरात, महाराष्ट्र अथवा उड़ीसा की तरह इस प्रदेश को किसी भाषाई संस्कृति में नहीं पहचाना जाता। मध्यप्रदेश विभिन्न लोक और जनजातीय संस्कृतियों का समागम है। यहाँ कोई एक लोक संस्कृति नहीं है। यहाँ एक तरफ़ पाँच लोक संस्कृतियों का समावेशी संसार है, तो दूसरी ओर अनेक जनजातियों की आदिम संस्कृति का विस्तृत फलक पसरा है।

निष्कर्षत: मध्यप्रदेश पाँच सांस्कृतिक क्षेत्र निमाड़, मालवा, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड और ग्वालियर और धार-झाबुआ, मंडला-बालाघाट, छिन्दवाड़ा, होसंगाबाद, खण्डवा-बुरहानपुर, बैतूल, रीवा-सीधी, शहडोल आदि जनजातीय क्षेत्रों में विभक्त है।

(क) निमाड़

निमाड़ मध्यप्रदेश के पश्चिमी अंचल में अवस्थित है। अगर इसके भौगोलिक सीमाओं पर एक दृष्टि डालें तो यह पता चला है कि निमाड़ के एक तरफ़ विन्ध्य की उतुंग शैल श्रृंखला और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं, जबकि मध्य में है नर्मदा की अजस्त्र जलधारा। पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था। बाद में इसे निमाड़ की संज्ञा दी गयी। फिर इसे पूर्वी और पश्चिमी निमाड़ के रुप में जाना जाने लगा।

निमाड़ की धरती हज़ारों वर्षों की उष्म जलवायु को वहन और सहन करने वाली रही है। तपती धरती पर हल चलाता किसान जब अपने हृदय के गीत गाता है, तब उसमें निमाड़ की संस्कृति की धड़कने सुनाई देती हैं। जब किसान खेतों में फसल को लहलहाते हुए देखता है, तब वह खुशी से झूम उठता है और खुशी का इज़हार करने के लिए नाच उठता है।

निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास अत्यन्त समृद्ध और गौरवशाली है। विश्व की प्राचीनतम नदियों में एक नदी नर्मदा का उद्भव और विकास निमाड़ में ही हुआ। नर्मदा-घाटी-सभ्यता का समय महेश्वर नावड़ाटौली में मिले पुरा साक्ष्यों के आधार पर लगभग ढ़ाई लाख वर्ष माना गया है। विन्ध्य और सतपुड़ा अति प्राचीन पर्वत हैं। प्रागैतिहासिक काल के आदि मानव की शरणस्थली सतपुड़ा और विन्ध्य की उपत्यिकाएं रही हैं। आज भी विन्ध्य और सतपुड़ा के वन-प्रान्तों में आदिवासी समूह निवास करते है। नर्मदा तट पर आदि अरण्यवासियों का निवास पुराणों में वर्णित है। उनमें गौण्ड, बैगा, कोरकू, भील, शबर आदि प्रमुख हैं।

निमाड़ का जनजीवन कला और संस्कृति से सम्पन्न रहा है, जहाँ जीवन का एक दिन भी ऐसा नहीं जाता, जब गीत न गाये जाते हों, या व्रत-उपवास कथावार्ता न कही-सुनी जाती हो।

निमाड़ की पौराणिक संस्कृति के केन्द्र में ओंकारेश्वर, मांधाता और महिष्मती है। वर्तमान महेश्वर प्राचीन महिष्मती ही है। कालीदास ने नर्मदा और महेश्वर का वर्णन किया है। निमाड़ की अस्मिता के बारे में पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय लिखते है- "जब मैं निमाड़ की बात सोचता हूँ तो मेरी आँखों में ऊँची-नीची घाटियों के बीच बसे छोटे-छोटे गाँव से लगा जुवार और तूअर के खेतों की मस्तानी खुशबू और उन सबके बीच घुटने तक धोती पर महज कुरता और अंगरखा लटकाकर भोले-भाले किसान का चेहरा तैरने लगता है। कठोर दिखने वाले ये जनपद जन अपने हृदय में लोक साहित्य की अक्षय परम्परा को जीवित रखे हुए हैं।"

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(ख) मालवा

मालवा महाकवि कालीदास की धरती है। यहाँ की धरती हरी-भरी, धन-धान्य से भरपूर रही है। यहाँ के लोगों ने कभी भी अकाल को नहीं देखा। विन्ध्याचल के पठार पर प्रसरित मालवा की भूमि सस्य, श्यामल, सुन्दर और उर्वर तो है ही, यहाँ की धरती पश्चिम भारत की सबसे अधिक स्वर्णमयी और गौरवमयी भूमि रही है।

मालवा मध्यप्रदेश के पश्चिम की ओर राजस्थान और गुजरात से घिरा है। मालवा की सीमा के सम्बन्ध में यदुनाथ सरकार लिखते हैं- "स्थूल रुप से दक्षिण में नर्मदा नदी, पूरब में बेतवा एवं उत्तर-पश्चिम में चम्बल नदी इस प्रान्त की सीमा निर्धारित करती थीं। पश्चिम में बांगड़ प्रदेश मालवा को राजपूताना तथा गुजरात से पृथक करते थे और उत्तर-पश्चिम में इसकी सीमा हाड़ोती प्रदेश तक पहुँचती थी। मालवा के पूर्व एवं उत्तर-दक्षिण में बुन्देलखण्ड और गोण्डवाना के प्रान्त फैले हुए थे।

मालवा की सीमा सम्बन्धी एक लोकप्रिय कहावत युगों के प्रचलित है- 

इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान।
दक्षिण दिसि है नर्मदा, यह पूरी पहिचान।।

मालवा की संस्कृति को मालवी संस्कृति कहते हैं। मालवी संस्कृति के सम्बन्ध में लोकविद्या के मर्मज्ञ विद्धान डॉ. श्याम परमार लिखते हैं-
"यहाँ का जन उपजाऊ भूमि का स्वामी होकर सदैव निर्जिंश्चत रहा है, उसमें उतावलापन नहीं है। मालवा की परम्पराएँ, विश्वास और धारणाओं से बँधी होकर भी धर्मभीरुता लक्षीय हैं। चूंकि सम्पूर्ण भू-भाग जीवन संघर्ष से कम जूझा हैं, इसलिए शांतिप्रियता समा गई है। इसलिए मालवी लोकगीतों में वीर रस एवं कठोरता के भाव का अभाव पाया जाता है। स्रियोचित विश्वासों का प्राधान्य गुजराती के सम्पर्क में मालवा में विकसित हुआ। वहाँ के लोगों की उदार मनोवृति और उनके नैतिक आदर्शों की छाप मालवी गीतों में सहज व्यक्त होती है। स्वभाविकता और खरापन उसकी जड़ों में है। इसकी काली उपजाऊ मिट्टी ने सुदूर प्रान्तों को समय-समय पर आकर्षित किया है।"
ंची
मैं डॉ. मौली कौशल के साथ मालवा के लोक चित्रों- सांझी और माण्डना- पर कार्य कर रहा था। मालवा के शहरों के गलियों एवं गाँवों में चिंत्रांकन करती युवतियां कालीदास के द्वारा वर्णित मालवा की सुन्दर-कजरारे आँखों वाली नारी का आभास आज भी देती हैं। जब हमने उनके लोकगीतों का संकलन किया तो पता चला कि इन लोकगीतों में सुख, सौन्दर्य और शान्ति, लोक कथाओं में व्यापक समृद्धि, लोक नाट्यों में उदात्त चरित्र को सौष्ठव, लोक चित्रों में विशाल पौराणिक मिथकीय चित्रों का समावेशी संसार सहज ही दिखाई देता है। मालवा की प्रत्येक लोक विद्या में समृद्ध परिवार के चित्र, लिपे पुते आंगन की शोभा, अटारी का सौन्दर्य रहे मूंगे और भात का भोजन, मोतियों से मांग का पूरा जाना, चंदन के किवाड़ और सोने की थालियों का बजना गीतों में महज ही चित्रित नहीं हुए हैं, बल्कि उनके मूल भौगोलिक साधनों का प्रभाव रहा है।

मालवा अपने अन्तरवर्ती कलेवर में विक्रमादित्य की प्राचीन प्रतिकल्पा, महाकाल ज्योतिर्किंलग शिव की नगरी उज्जैन, अमृत मंथन के समय अमृत कलश से छलकी एक बून्द से स्वागर्ं पवित्र हुई क्षिप्र रुप से बहने वाली क्षिप्रा नदी, कवि और योगीराज भर्तृहरि की साधना-स्थली, विश्व के महानतम कवि तथा नाटककार कालिदास की कर्म-स्थली, संगीत योग साधक पातंजलि की पावन भूमि, राजा भोजराज की धारा नगरी, रुपमती-बांजबहादुर की माण्डू की उपत्यिकाओं में गूँजती स्वर लहरियां, तथा गाँव-शहर-शहर में मालवा के महान संगीतज्ञ कुमार गंधर्व की कबीरवाणी और संझा गीत हमें कहीं न कहीं अनुप्राणित करते हैं। भोज और मुंज जैसे कला और साहित्यप्रेमी राजाओं के कारण मालवा की धरती और अधिक कला उर्वर बनी। इसका प्रभाव मालवी लोक कलाओं पर आज भी देखा जा सकता है।

मालवा की समृद्धि इतिहास के पन्नों में समय के नायकों और महानायकों को आकर्षित करती रही है, जिनके आने-जाने से मालवा संस्कृति में अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव और प्रभाव निरन्तर आते रहे हैं। मालवा भूमि पुराण प्रसिद्ध विक्रमादित्य, भोज, मुंज आदि राजाओं के साथ अनेक शक-हूण, राजपूत, पंवार-परमार, मुगल, मराठा, होलकर, सिन्धिया आदि शासकों ने शासन किया। इसलिए मालवा भूमि पर पनपने वाली संस्कृति में अनेक संस्कृतियों के महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय तत्त्व शामिल होते चले गए। इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों का प्रभाव मालवा की कला और साहित्य पर पड़ा है। यह इसका ही परिणाम है कि हम आज मालवी संस्कृति को बहुरंगी चुनरी के रुप में देखते हैं।
 

 

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(ग) बुन्देलखण्ड

एक प्रचलित अवधारणा के अनुसार "वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विन्ध्य प्लेटों की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिण पूर्व में पन्ना, अजमगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्तर प्रदेश के चार जिले- जालौन, झाँसी, हमीरपुर और बाँदा तथा मध्यप्रेदश के चार जिले- दतिया, टीकमगढ़, छत्तरपुर और पन्ना के अलावा उत्तर-पश्चिम में चम्बल नदी तक प्रसरित विस्तृत प्रदेश का नाम था।" कनिंघम ने "बुन्देलखण्ड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चन्देरी और सागर के जिलों सहित विन्ध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था", माना है।

शौर्य, साहस और श्रृंगार के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध कोई अंचल है तो वह बुन्देलखण्ड है। भारत के मध्य भाग में होने के कारण यहाँ की भूमि पर अनेक जातियों- जनजातियों का आवागमन हमेशा से रहा है। यहाँ अनेक संस्कृतियों का आवाजाही हुई, इसके कारण बुन्देलखण्ड की संस्कृति में कई जातियों की संस्कृति के बहुत से तत्त्व मिलते चले गये, जिनमे योद्धा जातियों- जनजातियों के लोगों की संस्कृतियों का आवागमन अधिक हुआ। इसके कारण यहाँ के लोगों में शौर्य और साहस जैसी प्रवृत्तियों का विकास हुआ। अनेक इतिहास पुरुषों और आल्हा की बाबन लड़ाईयां इसका प्रमाण हैं। यहाँ के वीर योद्धा बुन्देला कहलाए, यहाँ की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना की बोली बुन्देली रही है। बुन्देली बोली बोलने के कारण ही यहाँ के लोग बुन्देला कहलाए। महाराजा छत्रसाल के महत्त्वपूर्ण स्थान जेजामुक्ति से बुन्देलखण्ड के रुपायन का गहरा सम्बन्ध है।

बुन्देली संस्कृति के रंग अत्यधिक समृद्ध और विविधवर्णी है। डॉ. नर्मदाप्रसाद गुप्त लिखते हैं- "यहाँ की लोक संस्कृति पुलिंद, निषाद शबर, रामठ, दाँगी आदि आर्येतर संस्कृतियों से प्रभावित थी। रामायण काल में आर्य ॠषियों की आश्रमी संस्कृति फली-फूली। महाभारत काल में भी वन्य संस्कृति बनी रही, पर चेदि का राजा शिशुपाल और नरवर गढ़राज्य राजा नल, दोनों काफी विख्यात थे। महाजनपद काल में चेदि और दशार्ण दोनों जनपद प्रसिद्ध थे। मौर्य-शुंग काल में त्रिपुरी, एरण और विदिशा प्रसिद्ध नगर थे। नाग वाकाटक काल में बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति की सुदृढ़ नींव रखी गई। इस काल में लोक संस्कृति और लोक कलाओं को जितना निखार और उत्कर्ष मिला है, उतना इन सात-आठ सौ वर्षों में कभी नहीं दिखाई पड़ा। इन समस्त परिवर्तनों और परिवर्द्धनों में भी बुन्देली लोक संस्कृति और लोक कलाओं की धारा अजस्त्र रुप से बहती रही है।"

खजुराहो के कला मन्दिर बुन्देलखण्ड की ही नहीं, विश्व की अप्रतिम धरोहर है। खजुराहो के मन्दिर में एक तरफ़ नृत्य, संगीत और उत्सव आयोजन के दृश्य 
उत्कीर्ण किये गए हैं तो दूसरी तरफ़ आखेट, हस्ति युद्ध आदि के।राजशेखर ने काव्य मीमांसा में बुन्देलखण्ड के नर्तक, गायक, वादक, चारण, चितेरे, विट, वेश्या, इन्द्रजालिक के अतिरिक्त हाथ के तालों पर नाचनेवाले, तैराक, रस्सों पर नाचनेवाले, दाँतों से खेल दिखानेवाले, पहलवान, पटेबाज और मदारियों का उल्लेख किया है। समस्त बुन्देलखण्ड में उत्सव-महोत्सव मनाने की परिपाटी रही है। इसका उल्लेख अलबरुनी ने किया है- "चैत की एकादशी को झूले का दिन, पूर्णिमा को वसन्तोत्सव, आश्विन पूर्णिमा को पशुओं का त्यौहार और कुश्तियों का आयोजन, कार्तिक प्रतिपदा को दीपावली का उत्सव तथा फाल्गुन पूर्णिमा में स्रियों का दोलोत्सव एवं होली, आदि।" यह सब बुन्देलखण्ड की भूमि पर आज भी सहज उपलब्ध है।

 

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(घ) बघेलखण्ड

बघेलखण्ड की धरती का सम्बन्ध अति प्राचीन भारतीय संस्कृति से रहा है। यह भू-भाग रामायणकाल में कोसल प्रान्त के अन्तर्गत था। महाभारत के काल में विराटनगर बघेलखण्ड की भूमि पर था, जो आजकल सोहागपुर के नाम से जाना जाता है। भगवान राम की वनगमन यात्रा इसी क्षेत्र से हुई थी। यहाँ के लोगों में शिव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा विद्यमान है। यहाँ नाथपंथी योगियो का खासा प्रभाव है। कबीर पंथ का प्रभाव भी सर्वाधिक है। महात्मा कबीरदास के अनुयायी धर्मदास बाँदवगढ़ के निवासी थी।

मध्यप्रदेश के इस सांस्कृतिक अंचल बघेलखण्ड की नींव संवत् १२४५ विक्रमी में व्याघ्रदेव के पुत्र कर्णदेव ने डाली और उसका नाम बघेलखण्ड रखा, तब से यह अंचल (या सांस्कृतिक क्षेत्र) बघेलखण्ड के नाम से जाना जाता है। कर्णदेव बघेलों के प्रथम वंशज है। इस सांस्कृतिक क्षेत्र के दक्षिणी भाग को 'बघेलान' के नाम से जाना जाता था। इसी अंचल में व्याघ्रदेव और कर्णदेव ने अपना राज्य कायम किया था, तब उसे 'बघेलारी' कहा गया, जो बाद में बघेलखण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। चालुक्य वंशीय क्षत्रिय ही बाद में बघेल, कहलाये, जिनकी अतीत में गौरवशाली इतिहास और संस्कृति रही है।

बघेलखण्ड के एक तरफ़ उत्तर भाग में पुराणों में वर्णित तमस नदी का मंथर प्रवाह यहाँ के कण्ठों को प्लवित करता है तो दूसरी तरफ़ पुण्यसलिला नर्मदा और सोन के उद्गम तीर्थ हैं। एक तरफ़ कैमोर और दूसरी तरफ़ से मैकल पर्वत बघेलखण्ड की धरती को आरक्षित किये हैं। मैकल का दूसरा नाम विन्ध्य के पुत्र अमरकंटक हैं, जहाँ देवताओं, ॠषि-मुनियों और आदिम जातियों का निरन्तर निवास रहा है। यहाँ के घनी चट्टानों के बीच प्राचीन प्रागैतिहासिक माड़ो की गुहाएँ हैं, जहाँ कभी आदिम मानव का निवास था। यहाँ देश के सुंदर प्राकृतिक चचाई और बीहर जल प्रपात हैं। यहीं नर्मदा रव से रेवा कहलाती है। रेवा से रीवा शहर की नींव इसी कारण से पड़ी है।

बघेलखण्ड में जनजातियों की बहुलता है। इसमें कोल और गोण्ड जनजाति समूचे बघेलखण्ड में निवास करती हैं। कोल और गोण्ड भारतवर्ष की प्राचीनतम आदिम जातियों में से है। आदिम और लोक संस्कृति का जिस तरह का समागम बघेलखण्ड की भूमि पर मिलता है, उस तरह का दृश्य किसी और अंचल में नहीं दिखाई देता। तेरह हज़ार वर्ग किलोमीटर में प्रसरित बघेलखण्ड की धरती और प्रकृति में वहाँ के लोगों की एक विशिष्ट जीवनशैली और संस्कृति समा गयी है, जिनका प्रभाव यहाँ के लोक नृत्य गीत-संगीत परम्परा में बहुत गहरे से स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है।

बघेलखण्ड की भूमि में प्रागैतिहासिक काल के सांस्कृतिक साहित्यिक जीवन से साक्ष्य भी मिलते हैं। कभी 'करुष' जनपद के नाम से ख्यात बघेलखण्ड कभी 'वरुणांचल' की संज्ञा से भी अभिहित था। वैदिक काल में विन्ध्य भूमि जीवन्त थी। वेदों में वर्णित भृगु श्रृंग भी यही हैं। वाकाटक, कलचुरि संस्कृति से गुजरता हुआ बघेलखण्ड का यह भू-भाग तेरहवीं शताब्दी से बघेलों के नियंत्रण में रहा है। इन सब तत्त्वों का समावेश बघेलखण्ड की कला एवं परम्परा में कहीं-न-कहीं देखा जा सकता है।

 

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(च) ग्वालियर

मध्यप्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र भारत का वह मध्य भाग है जहाँ भारतीय इतिहास की अनेक महत्त्वपूर्ण गतिविधियां घटित हुई हैं। सांस्कृतिक रुप से भी यहाँ अनेक संस्कृतियों का आवागमन और संगम हुआ है। राजनीतिक घटनाओं का भी यह क्षेत्र हर समय केन्द्र रहा है। १८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम झाँसी की वीरांगना रानी महारानी लक्ष्मीबाई ने इसी भूमि पर लड़ा था। सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र ग्वालियर अंचल संगीत, नृत्य, मूर्तिकला, चित्रकला अथवा लोकचित्र कला हो या फिर साहित्य, लोक साहित्य की कोई विधा हो, ग्वालियर अंचल में एक विशिष्ट संस्कृति के साथ नवजीवन पाती रही है। ग्वालियर क्षेत्र की यही सांस्कृतिक हलचल उसकी पहचान और प्रतिष्ठा बनाने में सक्षम रही है।

ग्वालियर क्षेत्र एक समय में पद्मावती के नाम से जाना जाता था। पद्मावती राज्य उस समय संस्कृति के केन्द्र में था। श्री लक्ष्मण भांज लिखते हैं-

"मेरे विचार में मध्यप्रदेश में उस समय पद्मावती ही एक मात्र ऐसा कैन्द्र था, जिसमें सांस्कृतिक उत्थान चरमसीमा पर था। साहित्य, नृत्य, संगीत, मूर्तिकला के क्षेत्र में इसका योगदान अतुलनीय है।"

इतिहास के पन्नों से ज्ञात होता है कि एक समय रानी पद्मावती अपनी दूरदृष्टि, कल्पनाशीलता और कलाओं के लगाव से वे संस्कृति, साहित्य, कला के उत्थान के केन्द्र में थी ही, साथ ही आसपास के क्षेत्र मालवा का माण्डू, उत्तरप्रदेश का जौनपुर और मध्यप्रदेश का ग्वालियर अंचल भी संस्कृति के मुख्यालय थे। ग्वालियर अंचल संगीत का घर रहा है। विशेष तौर पर शास्रीय संगीत तो उसकी मिट्टी के कण-कण में समाया हुआ है। यहाँ हरिदास, तानसेन, बैजूबावरा जैसे महान संगीतकार हुए, जिनके शास्रीय संगीत से पूरे भारतीय संगीत को प्राण-प्रतिष्ठा मिली है। जितनी सशक्त यहाँ की शास्रीय संगीत परम्परा है, उतनी ही सशक्त और व्यापक यहाँ की लोक संगीत परम्परा भी है। ग्वालियर क्षेत्र अपने मूल स्वभाव में बुन्देली और ब्रज संस्कृति का संगम स्थल है। दोनों संस्कृतियाँ यहाँ जब मिल जाती हैं तो यहाँ एक अलग रंग में दिखाई देने लगती है। यहाँ की बोली को ग्वालियरी कहा गया है। ग्वालियरी की अपनी विस्तृत वाचिक परम्परा और कला परम्परा है। पं. हरिहर प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि, "ग्वालियरी भाषा ही मध्यकाल की काव्य भाषा थी, जो साम्प्रदायिक क्षेत्र में ब्रज भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई है, और बाद में काव्य के क्षेत्र में ब्रज भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई है, और बाद में काव्य के क्षेत्र में भी उसका यही नाम प्रचलित हो गया।" इस कथन के साक्ष्य में उन्होंने ग्वालियर की संगीत परम्परा एवं संगीतज्ञों द्वारा रचित पद-परम्परा के आविर्भाव का इतिहास दिया है, जिसके अनुसार ग्वालियर की यह संगीत और पद-परम्परा ही मथुरा-वृन्दावन में जाकर फली-फूली, क्योंकि हरिदास जैसे गुणी संगीतज्ञ वृन्दावन में बस गये थे। तोमर काल में ग्वालियर कला के उत्कर्ष का प्रमुख केन्द्र था, जबकि मथुरा-वृन्दावन भक्ति और धार्मिक भावना का स्फूर्ति केन्द्र रहा।

ग्वालियर में इस्लाम, मुगल, अंग्रेजों और सिन्धियाओं का समागम दिखाई देता है। सिन्धिया यहाँ के सबसे प्रभावकारी शासक रहे, इसलिए संस्कृति, साहित्य, नृत्य-संगीत, कला और लोककला और स्थापत्य तक में उनका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

इस तरह से भारतवर्ष के मध्य अर्थात् हृदय में अवस्थित मध्यप्रदेश उत्तम सभ्यता एवं संस्कृति का जीवंत उदाहरण है।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र