वाराणसी वैभव या काशी वैभव

क्षेत्र विस्तार


कृत्यकल्पतरु के तीर्थ-विवेचन में भी वाराणसी के संबंध में अनेक उद्धरण मिलते हैं। ब्रह्म पुराण में शिव पार्वती से कहते हैं कि- हे सुरवल्लभे, वरणा और असि इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है, उसके बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए। मत्स्य पुराण के अनुसार यह क्षेत्र पश्चिम की ओर ढाई योजन तक फैला था और दक्षिण में यह क्षेत्र वरणा से गंगा तक आधा योजन फैला हुआ था। मत्स्य पुराण में ही अन्यत्र नगर का विस्तार बतलाते हुए कहा गया है- पूर्व से पश्चिम तक इस क्षेत्र का विस्तार दो योजन है और दक्षिण में आधा योजन नगर भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक फैला हुआ था। ब्रह्मपुराण के अनुसार इस क्षेत्र का प्रमाण पांच कोस का था उसमें उत्तरमुखी गंगा है जिससे क्षेत्र का महात्म्य बढ़ गया। उत्तर की ओर गंगा दो योजन तक शहर के साथ-साथ बहती थी। स्कंद पुराण के अनुसार उस क्षेत्र का विस्तार चारों ओर चार कोस था।

लिंग पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार कुछ और बढ़ाकर कहा गया है। इसके अनुसार कृतिवास से आरंभ होकर यह क्षेत्र एक-एक कोस चारों ओर फैला हुआ है। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है। यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है। यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है। उसके बाहर विहार न करना चाहिए।

अग्नि पुराण (३५२०) के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच बसी हुई वाराणसी का विस्तार पूर्व में दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन है। मत्स्य पुराण की मुद्रित प्रति (१८४/५१) में इसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिक स्पष्ट रुप से वर्णित है। पूर्व-पश्चिम ढ़ाई (२ १/२) योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक, उत्तर-दक्षिण आधा (१/२) योजन, शेष भाग वरुणा और अस्सी के बीच।

ऊपर के उद्धरणों से यह पता चलता है कि प्राचीन वाराणसी का विस्तार काफी दूर तक था। बरना के पश्चिम में राजघाट का किला जहां निस्संदेह प्राचीन वाराणसी बसी थी एक मील लंबा और ४०० गज चौड़ा है। गंगा नदी उसके दक्षिण-पूर्व मुख की रक्षा करती है, और बरना नदी उत्तर और उत्तर-पूर्व मुखों की रक्षा एक छिछली खाई के रुप में करती है, पश्चिम की ओर एक खाली नाला है जिसमें से होकर किसी समय बरना नदी बहती थी। रक्षा के इस प्राकृतिक साधनों को देखते हुए ही शायद प्राचीन काल में वाराणसी नगर के लिए यह स्थान चुना गया। सन् १८५७ ई. की बगावत के समय अंग्रेजों ने भी नगर रस्का के लिए बरना के पीछे ऊंची जमीन पर कच्ची मिट्टी की दीवारें उठाकर किलेबन्दी की थी। पर पुराणों में आयी वाराणसी की सीमा राजघाट की उक्त लम्बाई-चौड़ाई से कहीं अधिक है। ऐसा जान पड़ता है कि उन प्रसंगों में केवल नगर की सीमा ही नहीं वर्णित है, वरन् समूचे क्षेत्र को सम्मिलित कर लिया गया है। यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि बरना के उस पार तक प्राचीन बस्ती के अवशेष काफी दूर तक चले गए हैं। हो सकता है पुराणों द्वारा वर्णित इस क्षेत्र में वे सब भाग भी आ गये हों। अगर यह ठीक है तो पुराणों में वर्णित नगर की लम्बाई-चौड़ाई एक तरह से ठीक ही उतरती है।

वाराणसी के चारों ओर शहरपनाह का वर्णन जातकों में आया है (जा. १/१२)। यहां नगर के चारों ओर की शहरपनाह का विस्तार १२ योजन और नगर और उसके उपनगरों की शहरपनाह का विस्तार ३०० योजन कहा गया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि शहरपनाह का यह आयाम अतिश्योक्तिपूर्ण है, अत: इससे हम केवल यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वाराणसी के चारों ओर शहरपनाह थी। युद्ध में इस शहरपनाह का क्या उपयोग होता था इसका सुन्दर वर्णन एक जातक में आया है (जा. २/६४-६५)। एक समय एक बड़ी सेना के साथ, हाथी पर सवार होकर एक राजा ने धावा बोल दिया और नगर के चारों ओर घेरा डालकर उसने एक पत्र द्वारा काशिराज को आत्मसमपंण करने अथवा लड़ने के लिए ललकारा। बनारस के राजा ने लड़ने की ठानी। वह नगर के रक्षार्थ प्राकार, द्वार, अट्टालिका और गोपुरों पर यौद्धाओं को नियुक्त करके शत्रुओं का सामना करने लगा। इस पर आक्रमणशील राजा ने अपने हाथी को पाखर पहना दिया और स्वयं जिरह बख्तर पहन कर और हाथ में अंकुश लेकर हाथ को शहर की ओर बढ़ा दिया। नगर रक्षक सेना को खौलती मिट्टी, गुलेलों से पत्थर (यन्तपासाण) आदि भाँति-भाँति से शस्रास्रों को साथ चलता देखकर हाथी डरा लेकिन पीलवान ने उसे आगे बढ़ाया। एक भारी बल्ली को सूंढ़ में लपेटकर उसने नगर द्वार (तोरण) पर धक्के मार कर द्वार के व्योड़े (पलिघं) तो तोड़ दिया और इस तरह वह शहर में घुस गया।

यह उल्लेखनीय है कि वाराणसी की प्राचीन शहरपनाह के चिन्ह अब भी बच गए हैं। सेकिंरग ने इस बात की जांच की और उन्हें बरना संगम से आदमपुर मुहल्ले तक लगातार ऊंचे टीले इस प्राचीन शहरपनाह के भग्नावशेष प्रतीत हुए। बाढ़ के दिनों में बरना का जल शहरपनाह अथवा टीलों की इस श्रृंखला तक पहुंच जाता है। सूखे दिनों में इन टीलों और बरना के बीच में एक खोल पड़ा जाती है। प्रिंसेप का मत था कि इस शहरपनाह को मुसलमानों ने शत्रु से नगर की रक्षा करने के लिए बनवाया, पर अपने मत के पक्ष में उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। शहर-पनाह का दक्षिण-पश्चिमी छोर अब गंगा से एक-तिहाई मील पर है लेकिन यह मानने का पर्याप्त कारण है कि मुसलमानी आक्रमण के बहुत पहले यह शहरपनाह गंगा से मिली हुई थी। इस सब बातों के साक्ष्य से ऐसा जान पड़ता है कि यह लंबी शहरपनाह प्राचीन काल में दक्षिण ओर से नगर की सीमा निश्चित करती थी और बाद में जब नगर दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम की ओर बढ़ गया, और नगरवासियों ने आत्मरक्षार्थ इस साधन को छोड़ दिया तब मुसलमानों ने इन टीलों का उपयोग आक्रमण के लिए किया । यह शहरपनाह आरंभ में शायद वर्तमान टीलों की सीध में गंगा तक चली गयी थी अथवा दूरी कम करने के लिए यह गंगा तक वर्तमान तेलिया नाला होकर पहुंची हो। ऐसी अवस्था में इसका कुछ भाग बाद में नहर बनाने के लिए तोड़ दिया गया होगा क्योंकि इस बात के काफी प्रमाण है कि गंगा के किनारे शहर एक संकरी पट्टी के रुप में बसा। अगर यह विचार सही है तो इससे यह नतीजा निकलता है कि बनारस शहर की सबसे पुरानी बस्ती बरना से गंगा तक फैली थी तथा इन दोनों नदियों के संगम तक एक लम्बा अंतरीप छोड़ती हुई वह राजघाट के पठार को घेरती हुई इस शहरपनाह के अन्दर आ जाती थी। ऐसा होने पर आधुनिक शहर की तुलना में प्राचीन वाराणसी काफी छोटा रहा होगा। लेकिन वाराणसी क्षेत्र की सीमा जैसा हमें पुराणकार बतलाते है काफी लम्बी-चौड़ी थी और वह इस लिए कि शहरपनाह के बाहर का भी नगर की सीमा में ले लिया गया था।

बुद्ध पूर्व महाजनपद युग में वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। यह कहना कठिन है कि प्राचीन काशी जनपद का विस्तार कहां तक था। जातकों में (जा. ३/१८१, ५/४१, ३/३०४, ३६१) काशी का विस्तार ३०० योजन दिया गया है। काशी जनपद के उत्तर में कोसल पूर्व में मगध और पश्चिम में वत्स था। डॉ. आल्टेकर के मतानुसार काशी जनपद का विस्तार उत्तर-पश्चिम की ओर २५० मील तक था, क्योंकि इसका पूर्व का पड़ोसी जनपद मगध और उत्तर-पश्चिम का पड़ोसी जनपद उत्तर पंचाल था। एक जातक (१५१) के अनुसार काशी और कोसल की सीमाएं मिली हुई थी। काशी की दक्षिण सीमा का पता नहीं है- पर वह शायद विंध्य श्रृंखला से घिरी थी। जातकों के आधार पर डॉ. आल्टेकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि काशी का विस्तार बलिया से कानपुर तक शायद रहा हो। पर श्री राहुल सांकृत्यायन का मत है कि आधुनिक बनारस कमिश्नरी ही प्राचीन काशी जनपद की द्योतक है। संभव है कि आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में शामिल रहा हो।

प्राचीन युग में वाराणसी का क्या रुप था और काशी जनपद की क्या स्थिति थी इसके संबंध में ऊपर कहा जा चुका है पर काशी के इतिहास के लिए आधुनिक बनारस जिले की भौगोलिक स्थिति के बारे में भी कुछ बातों का जानना जरुरी है। प्राचीन साहित्य के आधार पर हम तत्कालीन वाराणसी की प्राकृतिक स्थिति का अध्ययन यदि कर सकते तो वह बड़ा ही उपयोगी होता पर इसके लिए सामग्री का अभाव है। इसमें संदेह नहीं कि आजकल के वाराणसी से प्राचीन वाराणसी बहुत भिन्न रहा होगा क्योंकि आज जिले के जिन भागों में घनी बस्ती है उन भागों में गहड़वाल युग तक जंगल थे। शहर के अनगिनत तालाबों और पुष्करिणियों का भी जिनमें बहुत सी तो १९वीं सदी तक बच गयी थी, मगर अब लगभग सभी नष्ट प्राय: हो गयी है। वे नाले भी अब पट चुके हैं जो एक समय वाराणसी की भूमि को काटते रहते थे। ब्रह्मनाल पर जो एक समय चौक तक पहुंचती थी, अब शहर की घनी आबादी है और नालों के तो अब केवल नाम ही बच गए हैं।

जिले की आबादी आज बहुत घनी है, पर जातकों से हमें पता चलता है कि बनारस के आसपास घने जंगल थे। काशी जनपद के जिन ग्रामों इत्यादि के वर्णन हमें मिलते हैं उनमें अधिकतर आधुनिक बनारस तहसील के अथवा जोनपुर के थे जो प्राचीन काशी-जनपद का अंग था। मृगदाव और इसिपत्तन जिसे आज हम सारनाथ कहते हैं बनारस तहसील में है तथा मच्छिकाखण्ड (आधुनिक मछली शहर) और कीटगिरी (केराकत) जौनपुर में है। संभवत: चंदौली तहसील मध्यकाल में आबाद हुई। कम-से-कम इस तहसील में अभी तक गुप्तकाल या उसके पहले के भग्नावशेष नहीं मिले हैं पर गहड़वाल युग (११-१२वीं शताब्दी) में चन्दौली तहसील पूरी तरह से बस चुकी थी जैसा कि हमें उस युग के ताम्रलेखों से से पता चलता है।

बनारस जिला, जिसमें रामनगर की भूतपूर्व देशी रियासत भी सम्मिलित है- गंगा के दोनों किनारों पर २५ ८०' और २५ ३५' उत्तरी अक्षांश तथा ७८ ५६'  और ७९ ५२' पूर्वीदेशांतर तक फैला है। सारा जिला गंगा की घाटी में स्थित है और इसके भू-गर्भिक स्तरों से मिट्टी के सिवा और कुछ नहीं निकलता, क्योंकि विंध्याचल की पहाड़ियां मिर्जापुर जिले में समाप्त हो जाती है। जिले में मिट्टी की गहराई का ठीक-ठीक पता नहीं है। पर गहरे कुओं की खुदाई से ३५ फुट तक लोम, उसके बाद २७ फुट जमी मिट्टी और उसके नीचे पानी के श्रोतों वाली लाल बालू मिलती है। प्राकृतिक बनावट की दृष्टि से बनारस को दो भागों में बांटा जा सकता है, एक उपरवार और दूसरी तरी । ये दोनों भाग गंगा के ऊंचे-नीचे करारों से विभाजित है। इन करारों की भिन्नता जमीन प्रकृति और नदी के बहाव पर भी अवलंबित हैं। बनारस के दोनों भाग मुख्यत: जमीन का तला और ढ़ाल में एक-दूसरे से भिन्न हैं।

जिले का पश्चिमी भाग जिसमें बनारस तहसील और गंगापुर तथा भदोही सम्मिलित हैं पूर्व की चंदौली तहसील की उपेक्षा ऊंचे हैं। बनारस तहसील में जमीन की सतह पूर्व और दक्षिण-पूर्व की तरफ ढ़लुई है। तालों का बहाव गंगा की तरफ है इसी लिए जिले का पश्चिमी भाग नीचा-ऊंचा पठार है। जौनपुर आजमगढ़ की सड़कें जहां उत्तर से बनारस पार करती हैं वहां उनकी ऊंचाई क्रमश: २३८ और २५० फुट है। बनारस की ऊंचाई समुद्री सतह से २५२ फुट है और यह गंगा की सबसे कम ऊंचाई १९७ फुट है। उत्तर-पूर्व अर्थात् परगना जाल्हूपुर में यह सतह क्रमश: ढ़लती हुई नदी के उस पार बालुओं में आकर २३८ फुट रह जाता है।

सतह की इस ऊंचाई-निचाई का प्रभाव सतह की बनावट पर भी काफी पड़ा है। जिले के पश्चिमी भाग की समतल जमीन अच्छी है। जल विभाजकों के पास यह मूर सबई कहलाती है, बाद में यह मूर अर्थात् बलुई हो जाती है। जिले की निचली जमीन मटियार कहलाती है और उसमें झीलों और तालाबों की सिचाई से धान खूब होता है।

बनारस तहसील की प्राकृतिक बनावट के उपर्युक्त विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आर्यों ने अपना केन्द्र पहले क्यों बनाया। अच्छी जमीन, पानी की सुलभता तथा आयात-निर्यात के साधन इसके मुख्य कारण थे।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्राचीन युग का राजपथ भी वाराणसी से गाजीपुर होकर बिहार की ओर जाता था और वह शायद इसलिए कि ग्रेंड ट्रंक रोड़ के आधुनिक रास्तें पर उस समय घनघोर वन थे। गंगा पार चंदौली तहसील में जमीन नीची होने से बरसाती पानी छोटी नदियों में बाढ़ लाकर काफी नुकसान पहुंचता है और पानी के बहाव का ठीक रास्ता न होने से सिचाई का प्रबंध भी ठीक से नहीं हो सकता। जमीन नीची होने से शायद यहां मलेरिया का भी अधिक प्रकोप रहा हो। जो भी हो अर्थवेद की पैप्पलाद शाखा में वाराणसी में बसे अनार्यों से अप्रसन्न होकर सूक्तकाल काशी जनपद पर तक्मा का धावा करने को कहता है। संभवत: प्राचीन काल में तक्मा अर्थात् मलेरिया से लोग बहुत डरते थे और उनका डरना स्वाभाविक भी था क्योंकि कुनैन के अविष्कार के पहले मलेरिया भारी प्राण संहारक होता था। (पैप्पलाद शाखा में काशी लिखा है पर शौनकादि सब शाखाओं में काशीम्यां की जगह अंगेभ्यों लिखा है, इससे प्रतीत होता है कि इस बीच आर्य काशी आ गए थे।)

 

१. के.वी. रंगस्वामी अय्यंगर, कृत्यकल्पतरु के तीर्थ विवेचन काण्ड संपादित, बड़ौदा, १९४२, पृ. ३९-४०
२. के.वी. रंगस्वामी अय्यंगर, कृत्यकल्पतरु, पृ. ३९, पंक्ति ४ से ९ तक।
३. शेकिंरग, दि सेक्रिड सिटी आॅफ बनारस, लंडन, १८६८, पृ. २९९
४. शेकिंरग, दि सेक्रिड सिटी आॅफ बनारस, लंडन, १८६८, पृ. ३००
५. केंब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया, भा. ६, पृ. १४
६. ए.एस. अल्टेकर, हिस्ट्री आॅफ बनारस, बनारस १९३९, कुल पृ. १२
७. बी.सी. लाहा, इंडिया एज डिस्क्राइब्ड इस अर्ली टेक्सट्स आॅफ बुधिज्म एण्ड जैनिज्म, पृ. ४२

वाराणसी वैभव


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