कबीरदास

तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति


  कबीर मध्यकाल के क्रांतिपुरुष थे, जिन्होंने तत्कालीन समाज में हलचल पैदा करती थी। जर्जर हो चले समाज में कबीर का कार्य एक ऐसे चतुर एवं कुशल सर्जन का काम था, जिसके सामने समाज के हृदय के आपरेशन का प्रश्न था। उस आपरेशन के लिए कबीर साहब ने पूरी तैयार की थी।

उस समय पूरे देश में एक उद्धम लू चल रही थी, जिसका दाह भयंकर एवं व्यापक था। उस दाह से सारी जनता, अमीर, गरीब सब पीड़ित थे। कड़ी मेहनत करने के बावजूद साधारण जनता का जीवन असुरक्षित था और वे नृशंसता का शिकार बन रहे थे। विभिन्न प्रकार के करों ने सामाजिक एकता को विशुद्ध करके रख दिया था। महात्मा कबीर साहब भी इसी पीड़ित समाज के एक अंग थे। पीड़ा ने उन्हें सचेत किया था और दलितों की कराहों ने उन्हें बल दिया था। उनकी भत्सनाओं में समाज का क्षोभ था।

चलती चक्की देख के कबीर दिया रोय।
दो पाटन के बीच में साबूत बचा न कोय।।

जैसे चक्की के भीतर चना टूट जाता है, उसी तरह सांसारिक चक्र में घिसते- टूटते जनता के दुख- दर्द को देख कर कबीर को काफी दुख होता था। एक पद :-

जी तू वामन वामनी जाया,
तो आन बाट हे काहे न आया,
जे तू तुरक तुरकनी जाया,
तो भीतरी खतरा क्यूँ न कराया।

तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति का स्पष्टीकरण उपरोक्त पद से अच्छी तरह हो जाता है। एक स्थान पर उन्होंने इस पर भीषण प्रहार किया है।

सो ब्राह्मण जो कहे ब्रहमगियान,
काजी से जाने रहमान
कहा कबीर कछु आन न कीजै,
राम नाम जपि लाहा लीजै।

उनके कथानुरुप वैश्य जाति होने का तात्पर्य यह नहीं है कि इसका स्थान समाज में बहुत ऊँचा है। असल चरित्र ज्ञान है, विवेक है, जिससे मनुष्य की पहचान बनती है। आडंबरपूर्ण व्यवहार से छपा तिलक लगाकर लोगों को ठगने से मूर्ख बनाने से अपना अहित होता है।

 

 

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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'


Content Prepared by Mehmood Ul Rehman

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