छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

स्वप्नदर्शी जन - नायक कबीर


भूमिका

प्रोजेक्ट रिपोर्ट का निष्कर्ष

 

अंध भया सब डोलै, कोई न करै विचार।
कहा हमार मानै नहीं, कैसे छूटै भ्रम जार।।

- कबीर

 

 

भूमिका

मध्ययुग के नीलगगन में, झलमलाते संतों की आकाशगंगा में सबसे अधिक तेजोदीप्त संत कबीर का अन्यतम स्थान है। कालजयी कबीर के संदेश मानवता की चिरन्तन निधि हैं। अर्थयुग और जन्त्रारुढ़ वि के संदर्भ में कबीर के मूल्यान्वेषण, मूल्यासंस्थापन व मानववाद का विशेष महत्व है। आज सांस्कृतिक शून्यता है। कबीर का मूल्यवादी और मानववादी दृष्टिकोण आज के संकट का उत्तर है। मानव समाज अपने इतिहास सफर में आज सबसे अधिक कठिन दौर से गु रहा है। ""पैसा, बाजार और मशीन'' जो उपभोगवाद और उपयोगितावाद के प्रतीक हैं, ये तीनों आज मनुष्य के जीवन मूल्यों, आदर्शों और मानवबोध को बड़ी तेजी से क्षरण की ओर ले जा रहे हैं। वे जीवनादर्श और भावनादर्श जो मनुष्यता की सुंगंध से सुवासित थे न जाने कहां बिला गये हैं। मानव के सुकुमार संबंध, उसके रागमय जीवन के तुहीन कण, उसके नन्हे-नन्हें सुख-दुख की अनेक कणिकायें आदि बातें व्यापारिक युग के बाजार में विक्रय की वस्तु बन गयी हैं। मानवीय संबंधों के प्रति एक पाषाणी तटस्थता मिलती है। रागात्मक और मूल्यवादी जीवन के लिए गहन उदासीनता। समाज में अकल्पनीय असमानता हैं। अति-केन्द्रीत-शक्ति-संरचना में राज्य और बाजार दोनों ने मिलकर मानव को कृतदास बना लिया है।

हां सब कुछ अमानवयी है। सब कुछ मानव और उसकी स्वतंत्रता के खिलाफ हो रहा है। स्थिति बहुत उत्साहजन नहीं है, पर हम यह न भूलें कि मानवयी चेतना सदा ही दासत्व के खिलाफ बगावत करती रही है। जीवन के गंभीरतम उतार-चढ़ाव के बीच अपने को ढ़ालती रही है। क्रांति का स्वरुप भिन्न हो सकता है पर उसका जो मर्म है वह एक है। कबीर उस क्रांति के प्रतीक हैं। कबीर का विद्रोह सामाजिक अन्याय, विषमता अतिचार तथा व्यवस्था के हताश और धूरीहीन चरित्र  के खिलाफ है। कबीर ने सामाजिक विषमता के सभी रुपों का बहिष्कार किया है। साथी ही उन स्रोतों को जा विषमता की रचना करते हैं उन्हें तिरष्कृत किया है। उसने आर्थिक विषमता को चुनौती दी है। धर्म के नाम पर जो धोखाधड़ी चल रही है कबीर ने सीधे-सीधे उन पर आक्रमण किया है। समाज का वह अधिकारी वर्ग जो अपने को सुरक्षित रखने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रहे हैं, कबीर का सीधा आघात उन्हीं पर है। कबीर उग्र प्रखर यहीं होते हैं।

कबीर जन था, जन रहा और जन रहेगा। उसका सब कुछ यही जन है। कबीर ने इतनी बड़ी क्रांति जन बनकर की। क्रांति के दौरान जन से अभिन्न रहा। एक सामान्य कामगर की तरह जीवन जीया। उनके संदेश सरल और जनभाषा में है जो सीधे जनता के दिल को छूते हैं। अत: कबीर का यह ऐतिहासिक प्रयास एक दुर्लभ वस्तु है। जिस वर्ग से कामगर के रुप में उसने अपनी आजीविका पाई उसी वर्ग के खिलाफ उसने जेहाद का ऐलान किया। कबीर की क्रांतिकारी विचारणा केवल सिद्धांत निरुपण नहीं है। वरन् अपने जनों के साथ अनुभव की साझेदारी है। जिस प्रकार एक दिये से असंख्य दिये प्रज्वलित हो उठते हैं, ठीक उसी प्रकार जो एक में प्रकट हुई उससे असंख्य दीप मालिकाएं जगमगाने लगीं। जनता ने अपने उद्धारकर्ता के आशय को आत्मसात् कर लिया।

यह महान परम्परा आज भी उस सरल जन समाज में लिप्त है जो खासकर प्रकृति के निकट है। जो शिक्षा के नाम पर सूचनाओं के विस्फोट से भ्रमित नहीं हैं। वस्तुत: यह सूचनाओं का विस्फोट मनुष्य के खिलाफ एक साजिश है और मनुष्य की आत्मचेतना को खण्डित करने के लिए है। अब समय आ गया है कि इस मिथक का पर्दाफाश हो तथा इस प्रलंयकारी परिवर्तन के सभी पहलुओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये जायें और एक नया मार्गदर्शन ढूंढ़ा जाये।

पर यह काम तथाकथित आधुनिक युग के पूर्व निर्धारित संरचना के अंतर्गत नहीं हो सकता। यह खोज इन जीवंत प्रथाओं में करनी होगी जो आदिवासी या वनवासियों में पायी जाती है। ये गिरीजन इस चीज से अनजान हैं कि वे एक परम्परा को सरक्षित रखे हुये हैं। वे यह नहीं जानते कि वे इतना बड़ा काम कर रहे हैं। वे यह भी नहीं जानते कि इस एकीकृत या सम्मिलित राशि के विभिन्न घटक कौन-कौन से हैं और उसका स्रोत क्या है? कबीर मात्र एक नाम है या एक अज्ञात व्यक्ति हो सकता है? पर वह ठीक उसी प्रकार उसके प्राणों को छूता है जिस प्रकार चांद-सूरज या मीठी हवा। जैसे प्रकृति के इन उपादानों में उसके प्राणों का आशय अभिव्यक्त होता है, ठीक उसी प्रकार कबीर की वाणी में उसका अंत:स्वर मुखरित है। कबीर का "करघा' अपने ताने-बाने में न जाने किस अतिन्द्रीय लोक के लिए एक बड़ा ही महीन चादर बुन रहा है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के ताने-बाने पर वह चिरन्तन मानवता के लिए एकजीवनगीत, एक जीवनलय की सृष्टि कर रहा है। और रोबट बने आज के मानव में प्राण फूंक रहा है। तथा वह उस हरितिमा की सृष्टि कर रहा है जिससे यह लौह युग हरितिमा में बदल जाये।

आज जबकि व्यापक विश्व-जीवन के स्तर पर जीवन मूल्यों की स्थिति अत्यन्त मलीन है, वहां कम विकसित या अविकसित दोंने में यह दृश्य बदल जाता है। वहां अब भी मूल्यवादी समाज-दर्शन दिखाई पड़ता है। जो दूरक्ष आदिवासी क्षेत्र हैं और अविकसित हैं, वहां सामूहिक जीवन के पारस्परिक बंधन आज भी मजबूत हैं। इनमें सामूहिक जीवन और रागात्मक जीवन में इतना लय-विलय है कि ये आदिवासी जातियां व्यक्तिगत जीवन के स्पर्श से अछूती नहीं है पर उनमें वंश, जाति, परम्परा आदि को लेकर कोई कृत्रिम विभाजन नहीं है। जो घटक दिखाई पड़ते हैं वह केवल पहचान के लिए हैं। उनका वास्तविक रुप से कोई महत्व नहीं है।

एक वास्तविकता है, जिसे इस क्षेत्र में अनुभव किया जा सकता है। वह यह है कि सभी प्रकार की धार्मिक विचारणायें एक प्रमुख धर्म (मानव धर्म) में आकर लीन हो जाती हैं। इसमें सबसे अधिक विलक्षण है, कबीर व उनके उपदेश। जो यहां के चेतना के क्षितिज पर छाये हुए हैं। एक महान गुरु की तरह जो सत्यपथ से अलग हो जाने वाले व्यक्ति को राह पर लाते हैं।

कहहिं कबीरसोई जन मेरा, जो घर की रारि निबेरे।
नीर क्षीर का करे निबेरा, कहहिं कबीर सोई जन मेरा।।

- कबीर

कबीर अपने अनुयायियों से कहते हैं -

सोई हित बन्धु मोहि भावे, जात-कुमारग मारग लावें।

- कबीर

 

कबीर की विचारणायें इस प्रदेश में विभिन्न रुपों में फैली हुई हैं। आदिवासी जीवनमूल्यों और कबीरीय आदर्शों के बीच आंतरिक रुप से आदान-प्रदान है। उच्च स्तर पर यह अनुभव किया जा सकता है।

यह आंतरिक क्रिया-प्रतिक्रिया आज एक नये रुप में प्रचलित हो गई है। क्योंकि आज आदिवासियों के सामने एक अकल्पनीय चुनौती खड़ी है। जो उनकी आज तक की समस्त उपलब्धियों और जीवन परिचय को खत्म करने पर तुल गयी है। इस अध्ययन के दौरान यह देखने की कोशिश की गई है कि इस नवीन चुनौती का सामना करने के लिए कबीर की दृष्टि और विचारों से अनजाने में उन्होंने कितना लिया है? साथ ही कबीर के संदेशों का आज के उनके जीवन संघर्ष में क्या प्रदेय रहा है? इस अर्थ युग में (पैसा, बाजार और मशीन) इन तीनों के खिलाफ संघर्ष में कबीर कहां तक उनके साथ हैं यह समझने की चेष्टा की गई है।

कबीर के संदेश वि जनीन होते हैं। कबीर की सुदृढ़ मान्यतायें, भावात्मक सौन्दर्य, आर्थी व्यंजना आदि बातें जाने अनजाने क्या कुछ कहती और करती हैं, समझना मुश्किल है। कबीर की रचनायें सरल सम्वेदना की बेहद जटिल रचना हैं। अत: जीवन में इनकी परिव्याप्ति को आंकलित कर पाना बेहद पेचीदा कार्य है। परंतु इतना कहा जा सकता है कि जनमानस पर कबीर का प्रभाव है। कहीं यह प्रभाव मूर्त है तो कहीं अमूर्त। कहीं ज्ञात है तो कहीं अज्ञात। कबीर ने जिस एकता, धार्मिक सहिष्णुता और जन चेतना की बात कही वह भारतीय समाज की पुरानी व्यवस्था है। भारतीय समावेशी संस्कृति कबीर की समाहारी जीवन दृष्टि में अभिव्यक्त हो रही है। सांस्कृतिक धार्मिक सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता है। उन्मुक्त जीवन चेतना और विराट् मानववाद आरण्यक संस्कृति की पहचान है। और यही कबीरीय चेतना का भी परिचय है। इन्हीं तत्वों को हम आदिवासी सामाजिक जीवन में प्रतिफलित पाते हैं। सदियों से एक ही आकाश के नीचे और एक ही भू-खण्ड पर रहते हुये जीवन की ये विभिन्न धारायें आपस में कितनी लेन-देन करती रहीं, इसका आंकलन कैसे हो? केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कबीर ने भारतीय संस्कृति के प्राणाशय को अपनी वाणी का विषय बनाया। इसलिए सभी के साथ उसका गहरा रागात्मक संबंध है। राष्ट्रीय जीवन से लेकर प्रादेशिक जीवन तक, वि जीवन से लेकर आंचलिक जीवन तक, कबीर की वाणी का प्रसार है।

छत्तीसगढ़ की संस्कृति कबीर पंथ से प्रभावित रही है। जन श्रुति है कि कबीर यहां आये, रुके और यहां के जन जीवन के साथ घुलमिल गये। मान्यता है कि यहीं पर उनका नानक देव जी से साक्षात्कार हुआ था। कबीर पंथ और सतनाम पंथ यहां के दो उल्लेखनीय आंदोलन हैं; जो समानता और वर्गविहिन समाज और सह-अस्तित्व और प्रेम आदि की शिक्षा जनता को देते हैं। कबीर के संदेशों के इस क्षेत्र में प्रचार प्रसार का श्रेय गुरु धर्मदास जी को जाता है। दामाखेड़ा छत्तीसगढ़ के कबीर पंथ का प्रधान स्थान है।

इस आदिवासी क्षेत्र में प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में सभी विचारधाराएं स्वछंद रुप से विहार करती हैं। अत: आदिवासी जीवन मूल्यों के साथ उनका आदान-प्रदान स्वाभाविक है। कहीं पर ज्यादा तो कहीं पर कम। पर इनके बीच आदान-प्रदान न हुआ हो यह युक्ति-संगत नहीं है। अत: इस समय जबकि मनुष्य और उसकी मनुष्यता आज नगण्य हो उठी है, कबीरीय भूमिका की सामयिक महत्ता असंदिग्ध है।

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प्रोजेक्ट रिपोर्ट का निष्कर्ष

अन्यत्र भी कबीर पंथ की भूमिका है और उसके महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। इन क्षेत्र को चुनने के पीछे शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि मेरी दृष्टि में यह क्षेत्र अन्य प्रदेशों की तुलना में आधुनिक तकनीकी जीवन के लिए कम खुला है। अन्य अनेक प्रकार के तत्व जो आधुनिक तकनीकी जीवन की देन है, इस क्षेत्र में उस सीमा तक प्रभाव नहीं डाल सकी है जिस सीमा पर पहुंचकर कोई अपना निजी व्यक्तित्व खो दे। तथा साथ ही आधुनिक प्रभाव से अछूता न रहते हुए भी अपना निजी व्यक्तित्व बनाये रख सके। इस अध्ययन के द्वारा जिस मूल्यवादी चेतना और मानवीय तत्व तक पहुंचने की चेष्टा की गयी है वे यहां सुरक्षित हैं।

आज के जटिल वि जीवन में जिस प्रकार के समावेशी और समाहारी तत्व होना चाहिए वह छत्तीसगढ़ी-मिश्रित-जटिल-संस्कृति में है। सम्पूर्ण भारतीय जीवन, संस्कृति और उसके विकास का यह लघु रुप है। साथ ही आदिवासी क्षेत्र होने के कारण कबीर के उपदेशों का उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? कैसा ग्रहण हुआ? कैसी अभिव्यक्ति मिली? आदि बातें जानने और समझने की कोशिश की गई है। इसी छोटे से प्रयास की कोई बहुत बड़ी उपलब्धि होगी यह नहीं कहा जा सकता। यह तो महासमुद्र में एक शंख पानी का डालना है। फिर भी अध्ययन के दौरान कुछ बातें सामने आयी हैं -

१.

आज के सम्पूर्ण यांत्रिक, आर्थिक, प्रतिस्पर्धामय जीवन स्थितियों में यहां के लोक जीवन में एक मानवीय रागात्मक तत्व विद्यमान हैं। एक संतोष है और बहुत अधिक होड़ा-होड़ी की स्थिति नहीं है।

२.

इनमें पारस्परिक, धार्मिक सहिष्णुता और सद्भावना हैं। वे सहज रुप से एक दूसरे के साथ जुड़े हैं और सब में एक भावनात्मक बंधन व्याप्त है।

३.

इसका इतिहास बहुत प्रकार की धाराओं, शक्तियों और जातियों के मिश्रण की कथा है। अत: यहां पर सह-अस्तित्व का एक सुंदर रुप दिखाई पड़ता है।

४.

आदिवासी संस्कृति के साथ लंबे साहचर्य के कारण विभिन्न धारायें परस्पर से कई रुपों में प्रभावित हैं। हर स्तर पर यह मेल-मिलाप गहराई से अनुभव तो किया जा सकता है, पर तारों को अलग नहीं किया जा सकता। सामाजिक जीवन, धर्म, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास आदि में समाजों का यह मेल-मिलाप देखा जा सकता है, जैसे छेरछेरा और गौरा-गौरी पूजन में देखते हैं।

५.

इस मिश्रण से एक मूल्यवादी-मानवीय-रागात्मक-जीवन-दृष्टि विकसित हुई है, जो सह-अस्तित्व और सहजीवन पर आधारित है।

६.

"विविधता में एकता' इस प्रकार की जीवनधारा की स्वाभाविक परिणति होती है। यहां भी है। पर जो बात मन को छूती है, वह यह है कि विविधता केवल बाह्याचार तक सीमित है। इससे सामाजिक जीवन की रागात्मक एकात्मकता खण्डित नहीं हुई है। सारे धार्मिक अनुष्ठान आदि में लोगों का भाव केवल इतना ही है कि अपने-अपने मत व रीति-रिवाज के अनुसार सभी अपनी आनुष्ठानिक बातें पूरी कर रहे हैं, पर संबंध तो अपनी जगह पर है। बाहरी भिन्नता से इस भीतरी एक प्राणता को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए सभी खुलेमन से एक दूसरे के सामाजिक व धार्मिक पूजा-अर्चनाओं में भाग लेते हैं।

७.

आदिवासी देवी देवता, छत्तीसगढ़ के देवी-देवता सभी इतना घुल मिल गये हैं कि उनको अलग-अलग समाज की विशेषताएं मानना शायद समीचीन न हो। यह भी देखने को मिलता है कि कबीर जी से मुसलमान और ईसाई दोनों प्रभावित है। खासकर उनके संत और महात्मा रुप से। वे लोग कबीर के भजन तथा कबीर पंथ के अनेक कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।

८.

जिन आदिवासियों ने इसाई धर्म स्वीकार कर लिया है, उन पर कबीर का प्रभाव यथावत रहा है। वे कबीर से संबंधित सारे कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।

९.

अपने स्वल्प संसाधनों एवं आर्थिक दृष्टि से कमजोर स्थिति में भी जीवन संघर्ष के लिए इनमें जो सकारात्मक भाव है वह प्रशंसनीय है। अपने दुर्दान्त कठिन जीवन में भी वे खुश रहते हैं और दुख-सुख अपने रीति-रिवाज, अपनी परम्परा तथा अपने संबंध को भरपूर निभाने और जीने की कोशिश करते हैं।

असंतोष, सम्पन्न लोगों के प्रति अन्यथा भाव या गला काट प्रतियोगिता आदि बातें अपना प्रभाव नहीं दिखा पायी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि (अर्थवाद, पदार्थवाद, व्यापार, बाजार, पैसा, यंत्र आदि का) यहां इतना प्रभाव नहीं पड़ा है कि मानवीय संबंध और जीवन चेतना और रागात्मक कोमल तत्व खत्म हो जाये।

१०.

विकास के संबंध में यहां के लोगों की जो दृष्टि मिलती है, वह उतनी आर्थिक नहीं है। बाहरी विकास को आवश्यकता मानते हुये भी अधिकांशत: लोग वैचारिक, मूल्यगत और मानवीय विकास को सच्चा विकास मानते हैं।

११.

छत्तीसगढ़ ने कबीर के इस सिद्धांत को - ""धर्म के नाम पर लड़ना अधर्म है।'' प्राचीनकाल से लेकर आज तक अपने जीवन में मूर्त करता रहा है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव यहां रह कर ही हो सकता है। अत: कबीर के जीवन भर के संदःशों का सार (धार्मिक संघर्ष का अंत) छत्तीसगढ़ ने अपने प्राणों में बसा लिया है। उससे ज्यादा कबीर वाणी का पालन और क्या हो सकता है।

१२.

आज के अमानवीयकरण की प्रक्रिया (Deण्द्वेथ्रठ्ठेदःत्sठ्ठेद्यत्दृद - घ्द्धदृड़ess) में यह मानवयी और मूल्यवादी दृष्टि तथा व्यापक विश्वजीवन के लिए स्वागत का भाव इस प्रदेश की वि जीवन को अनुपम भेंट है। ये दुर्लभ तत्व किसकी देन हैं?

छत्तीसगढ़ी संस्कृति की -
आदिवासी दिनचर्या की -
या कबीर के संदेशों की -

-  नहीं कह सकते। सभी तद्रूप हो चुके हैं। सभी एकात्म हैं। आधुनिक अध्ययन पद्धति, विश्लेषण, विवेचन, विभेदक और संयोजक रेखा आदि तत्व यहां के रागभरे जीवन में लोल-लहर की तरह घुल मिल गये हैं।

१३.

यह मान्यता भी काफी उत्साहवर्धक है कि शिक्षा, आधुनिकीकरण, विकास, सह-अस्तित्व आदि के कारण सोच पर प्रभाव अवश्य पड़ता है, पर मूलभूत परम्परागत जीवन रुपों और संबंधों में कोई फर्क नहीं आता। आज जब एक-एक पल में पुरानी पहचान को जमाना भुला रहा है तब हर स्थिति में अपनी पहचान बनाये रखने की जिद्द प्रेरणादायक है।

१४.

आधुनिक शहरी जीवन की बातें धीरे-धीरे अधिकाधिक घुसपैठ करती जा रही है। आगे इनका जो भी रुप दिखाई पड़े पर अभी तक संबंधों का आर्थीकीकरण व उपयोगिता आदि बातें यहां दिखाई नहीं पड़ रही हैं।

१५.

अपनी सीमा में भी इस व्यापारिक विश्व और आर्थिक युग को जनजातियों और छत्तीसगढ़ के लोगों का यह मानवीय दृष्टिकोण - एक जीवनदायी उपहार है।

१६.

पर बाहरी तत्वों का प्रभाव नहीं बढ़ रहा है या नहीं बढ़ेगा यह भी नहीं कहा जा सकता। आधुनिक प्रभाव से ये अपने को बचा पायेंगे - तथा इसमें इनकी मूल्यवादी मानवीय जीवनदृष्टि कितनी मदद दे पायेगी तथा रागात्मक संबंध कितना बांध सकेगा, यह तो समय ही बता पायेगा। पर इस प्रदेश की परम्परागत दृष्टि और कबीरीय चेतना यदि सक्रीय रही तो कुछ अनुकूल प्रभाव की आशा की जा सकती है।

कर्रूँ बहियाँ बल अपनी. छाँड़ बिरानी आस।
जाके आँगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।

- कबीर

""सद्गुरु कबीर की महिमा बहुमुखी है। उनकी वाणी भई बहुमुखी है। उसमें सबको आश्रय मिल जाता है। कबीर देव आत्मनिष्ठ अंतर्मुख पारशी तो हैं ही, ब्रह्मवादियों के ख्याल से ब्रह्मवादी हैं, आर्य सामाजियों के विचार से आर्य समाजी, सूफियों के ख्याल से सूफी, वैष्णवों के ख्याल से वैष्णव यहां तक कि अवतारावाद तक के समर्थक। योगियों की दृष्टि में महान योगी। कवि, समाज-सुधारक एवं मानव एकता के शंखनाद करने वाले तो हैं ही, समाजवादियों के ख्याल से वे समाजवादी एवं शुद्ध कम्युनिस्ट हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक बार कबीर साहेब की विशालता पर हंसते हुए कहा था "हाथी के पांव में सबके पांव' कबीर साहेब में सब समा जाते हैं।''...

 

१.

दास अभिलाष : कबीर दर्शन : पृष्ठ : ९६

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