छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

जन्त्रारुढ़ वि का जीवन गीत


कबीरीय संगीत

 

छत्तीसगढ़ी बोली में कबीर का भावसाम्य गीत
कबीर के प्रति श्रद्धा एवं उनके गीतों के साथ भावसाम्य
(छत्तीसगढ़ी भाषा में)
सभी वर्ग सम्मिलित (
ST/SC/OBC/OTHERS )

हम तोरे संगवारी कबीरा हो

मोर मन बस गे साहेब कबीर

ये दुनियाँ हे तोरेच खेती, ऊँचहा सरग मचान गा

नर तन ला पाकें संगी, करथस गा उदीयान

चोला रोवत हे राम बिन देखे परान

का राखे हे तन मां गा भैया

जिनगी हा मया के संगवारी

धरले रे कुदारी गा किसान, आज डिपरा ल

मानुष के रुप धरिके खावत हावस मास ला

मोरा हीरा हिराय गयो कचरा मा

१.

हम तोरे संगवारी कबीरा हो.....
हम तोरे संगवारी कबीरा हो....
छोड़ देहन तन सुख के गठरी,
साजे हन दुख बाना।
तन के तारा टोर-टोर के
तूनत हन मन ताना।
फेंक दे हन सब मान बड़ाई
बटोरत हन हम गारी ......... कबीर हो .........
ढाई आखर प्रेम के तोरे, माटी मोल के होगे।
हमर जमाना मा रोटी अउ, ओनहा अमोल होगे।
जिनगानी के धरखन खातिर, बूढिन विद्याधारी।
कबीरा हो ..............
हमूं खड़ै हन बीच बजरिहा
गावत सबो के खैर
ना काहू सो मया हमर हे,
ना काहू सो बैर
तभो ले हमर गुजारा नइ हे,
खावन रोज तुतारी .............. कबीर हो..............
ले के हाथ लुवाटी आपन, कबीरा हो.............
फूके हन घर बारी..............कबीर हो.................

 

टिप्पणी -

इस प्रार्थना में कबीर साहेब से संसार के बदलते रुपों की बात कही गई है यह मूल्यहीन, भोगवादी युग और अर्थवादी युग है। अत: यहां जीवन-मूल्य, भक्ति, सत्य-निष्ठा और नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। आज लोग कबीर के उपदेशों को भुला चुके हैं। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में केवल कबीर की कृपा ही उद्धार कर सकती है।

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२.

मोर मन बस गे साहेब कबीर
काशी में गुरु प्रकट भये है
गुन के गहीर गंभीर
काशी तज मगहर में आये
दोई दिनन के पीर। मोर मन.....

एक दिन साहेब बैन बजायिस
कलिन्द्री के तीर।
सुर नर मुनि सब छकित भये हैं
छके गये जमुना नीर। मोर.....

कौन गाढ़े, कौन अंगिहन जलावे
कोनो ना धरता धीर
चार दाग ले न्यारा साहेब
बिन सत्य ना ही शरीर। मोर....

जगन्नाथ के मंदिर के थापे
हट गए सागर नीर
दास मालुक सालुक कहत है
खोजत खसम कबीर। मोर....

 

टिप्पणी -

इस गीत में कबीर दास की वंदना है। उनके दैवी व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। संसार के कल्याण के लिए उनका आह्मवान किया गया है। और अपने लिए उनकी अनुकंपा मांगी गई है।

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३.

ये दुनियाँ हे तोरेच खेती, ऊँचहा सरग मचान गा।
देवता मन हे, तोरेच सौजिया, मोटहा हमन किसान गा।
धर्म-कर्म के मेड़ बने हे, महिमा के जलधार हे।
सत्य नाम के नागर बने हे, सत मुठिया सार हे।
भरी भाटा सबो आंगन के, जंगल भाड़ि खार हे।
धर्मराज हे तोर दरोगा, सबसे लेथे लगान गा।
पांच किसम के खातू देथे, ज्ञान के देथे पानी ला।
बेरा बेरा में देखते रइथे, करथे बोही सियानी ला।
जोग जोगनी तोर निंदइया, बाँधे माया मोहनि ला।
अरगा-करगा छांट-छांट के मेटे वही किसानी ला।
सातों पाटीला ये मन नीदे करे, वियासी धान गा।
ओढ़ी-बाढ़ी ले नई खाये, प्रेम के गाड़ी बख्खर हे।
तोर कोढ़ी मे वेद शास्तर, हीरा मोती घर भर हे।
अचरज विचारा गो गोसइंया, तीन लोक बड़हर हे।
चांद सूरज है बैल भैंसा, गोरी सकल जहान गा।
ऊँच नीच बुढिया बाकी, साधू मन सब खफरी ये।
हंस दुबराज, युवराज भक्त ये, होथे जैसे अड़बर लहरी ये।
भाई धन उही ला कइथे, जे माया लो बहरी हे।
परमानंद परखबे मालिक शर्मा के भगवान गा।...

 

टिप्पणी -

कवि ने इसमें एक किसान के रुप में भक्ति की केती करने की बात कही है। इस ज्ञान की खेती से यह विश्व-जीवन तत्व-चिंतन की फसल पाता है। कवि यह कहना चाहता है कि कबीर दास जी ने ज्ञान का पथ इसलिए अपनाया था, क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में यही एक मात्र रास्ता था जो संघर्षरत् उस युग को संभाल सकता था। यद्यपि कबीर दास जी ने सबसे अधिक प्रेम पर बल दिया, भावना पर बल दिया, पर परिस्थितियों ने उन्हें ज्ञान मार्ग का प्रवर्तक बना दिया।

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४.

नर तन ला पाकें संगी, करथस गा उदीयान।
कुकूर सारी हाड़ा चूसे मनखे रे बेइमान।
रंग बिरंगी कपड़ा हरिने, तोपे अपन् तन ला।
पर के काया ला मारके खाये, आगी लगे तोर मन ला।
नशा चढ़ा के ध्यान लगाये, किरा परे तोर अंग ला।
भकुआ गांजा धुवां उड़वे, का पढ़थस रामायण ला
सही विचार करो भई अपना, मत मारो कोई के जान
गीता भागवत हिन्दू पढ़थे, मुस्लीम पढ़े कुरान।
दया रहम ला दोनों छोड़िन, भय बिनु पुछी के श्वान।
ईश्वर अल्ला घर हावे, कस कस मो कृपान।
क्या पूजा निमाज गुजारे? राम मिले ना रहिमान।
अगल असलीयत तुम्ही समझ ले, पीरा के पहिचान
सुन्दर भोजन फल फलिहारी, मेवा अरु मिष्ठान
कोन कमी है ये जग माहीं, बोल रे भाई मितान
तभो ले लाथो मांछ मछरिया, बने हावो इन्सान
धर्म-कर्म के खातिर मरथो, विद्या के अभिमान
सत्य वचन से सजो धजो, अऊजग में तेहा महान।...

 

टिप्पणी -

इसमें कवि ने कबीर दास जी के जीवन दर्शन को उतारा है। कबीर ने सबसे अधिक बल सत्यनिष्ठता पर दिया है। वे चिन्तन, कर्मव्यवहार, संबंध और जीवन रुप सभी में सच्चाई चाहते थे। आडम्बर, दोगला रुप के प्रति कबीर प्रचंड हो उठते थे। कर्म काण्ड के वे सख्त खिलाफ थे। सदाचारी, नैतिक, सत्यनिष्ठ-जीवन, दया, प्रेम, अहिंसा आदि जीव मात्र के प्रति भाव यही कबीर के संदेशों का आदि और अंत है। उस महान आत्मा ने कभी किसी को न तो विनाश की छूट दी और ना ही जीवन विरोधी तत्वों को कभी भी माफ किया। सादगीपूर्ण जीवन और आडम्बर से रहित जीवन कबीर को अभीष्ट था। इन सारी बातों के केन्द्र में कबीर दास ने अपने जन या आम-आदमी को रखा था। किसी भी जीच को स्वीकार या नकारने के लिये कबीर के पास केवल एक ही कसौटी थी। कमजोर वर्ग का हित या अहित?

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५.

चोला रोवत हे राम बिन देखे परान।
दादर झांवर झोढ़ी ढूंढ़ौ डोंगर बीच न मंझाय।
सबै पतैरन तोला ढूंढ़ी कहाँ लुके है जाय
चोरा रोवत हे राम बिन देखे परान।

चार पैसा के साबून लेले मल-मल धो के काया।
अंगी कपट के दागी न छूटे, वैसे निरमल हो हे काया।....

 

टिप्पणी -

मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा।
आसन मारि मंदिर मे बैठे
आतम छांड़ि पूजन लागे पथरा
कनवा फड़ाये जोगी जटवा बढ़ौले
दाढ़ी बढ़ाय जोगी होई गैले बकरा।

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६.

का राखे हे तन मां गा भैया
तोर नाम अमर कर लेगा भैया, का राखे....
चार गौटिया चलिंन बरतिया
आंसू भरे नैनन मां
देखत रहिगे दुनियां संगी
होरी जरे सावन मां, तोरे नाम...
मोर-मोर तैं कहिके मरगे
प्राण बसे तो धन मां
नशा ये जिनगी भर के संगी
छूट जाही छिन-छिन मां
तोर नाम अमर कर लेगा....

 

टिप्पणी -

इसमें जीवन की निस्सारता क्षण भंगुरता और संबंधों की अर्थहीनता आदि बातों को दर्शाय गया है। साधक, को सतर्क किया गया है कि जिन दुनियादारी की चीजों में वह अनमोल जीवन को व्यर्थ गंवाता है, वे चीजें उसके साथ बहुत दूर तक नहीं चलेंगी। सारे संबेधों के पीछे स्वार्थ होता है। अत: यह अनमोल मानव जीवन सदा के लिए खत्म होने से पहले उसका सार्थक उपयोग कर ले। और इसी मानव योनी में ही आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाय।

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७.

जिनगी हा मया के संगवारी
चांदी की मुन्दरी हा चिन्हारी ये
फिरथस गली-गली तैं काबर
पारा भर हा नेवता गेहे।
ये तो फलदाल के तैयारी हे जिनगी हा.....
पोथी पढ़बो हम काबर
पढ़त पढ़लेन ढाई अक्षर
जादा गोठियायी हा लबारी ये जिनगी....
नई चाहे बर्तन भड़वा
नई खोजे ये मऊर मड़वा
टूरी पिरीत के चुवारीं हे
जिनगी हा......

 

टिप्पणी -

प्रेम स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है
प्रेम रुप भगवान
प्रेम वि का संस्थापक है।
प्रेम अभेद अरुप।

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८.

धरले रे कुदारी गा किसान, आज डिपरा ल
खनके डबरा पाट देबो रे.....
ऊंच नीच के भेद ल मिटाएच ला परही
चलो चली बड़े बड़े ओद राबो खरही।
जूरमिल गरीबहा मन, संगे मां होके मगन
करपा के भारा भारा बांट लेबो रे.....
चल गा पंडित चल गा साहू, चल गा दिल्ली वार
चल गा दाऊ चलौ, ठाकुर चल ना गा कुम्हार
हरिजन मन घलौ चलौ, दाई दीदी मन निकलौ
भेद भाव गड़िया के पाट देवो रे....
जांगर पेरईया हम हवन गा किसान
भोंभरा अउ भादों के हवन गा किसान
ये पईत पथरा बन, हितवा ला अपन हमन
गांव के सियानी बर छांट लेबो रे......

 

टिप्पणी -

एक समानता मूलक समाज की कल्पना है। गांव की उन्नति के लिए सभी वर्गों का समान रुप से विकसित होना जरुरी है। सभी का सहयोग परम आवश्यक है। बिना सतर्क प्रयास से ग्राम का विकास नहीं हो सकता। बिना ग्राम-विकास के व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता। अत: सामूहिक विकास से ग्राम का सर्वांगीण विकास होना चाहिए।

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९.

मानुष के रुप धरिके खावत हावस मास ला
नी बांचस तैं नरक में जाबे, कारइथस उपासला।
मांसला मढ़ा के खाथस, बुजा अन्न के सथरा में।
कई सन उपसहा हावस, बूड़े पानी पथरा में।
नई मानस तै देख संगी, लिखे हे पोथी पतरा में।
ॠषि मुनि मन गावे हावे, सत्संग के जतरा में।
रासिया घट ही बिराजे, कइथे तुलसीदास गा। ।।१।।
दान पुन अड़बढ़ करथस, मांस के खवैया ला।
उही  ला तैं गुरु बनाये, कुंदरु तुमा छोड़इया ला।।
पल्ला पकड़ कि ले लब, जीव दया के करइया ला।।
बन जाही जगा परलोक में, संगी काहत हावँव खासगा।
ये ही ढंग के रास्ता ला, सद्गुरु कबीर बतावत हे।
लोक परलोक गति मुक्ति ला, वो देखावत हे।।
जोन-जोन शरण जाये, बंधन ला छुड़ावत हे।
जग में सद्गुरु कबीर हा, पारखी कहावत हे।।
अरजी विनती पचकौड़ी करथे, छोड़ देहु मांसला।
नई बाचत तैं नरक में जाबे, का रइथस उपासला।....

 

टिप्पणी -

लोक कवि ने संसार के मिथ्याचर का संकेत करते हुए कबीर की शरण में जाने का उपदेश दिया है। सच्चे पारखी सही और गलत का निर्णय करते हुए अपने लिए रास्ता चुनते हैं। और वे सत्यनिष्ठ, सत्यानुवेशी और सत्यव्रती कबीर की आराधना में अपना जीवन बितातें हैं। जो भ्रमित होते हैं, वे दूसरे की शरण में जाकर केवल अपना ही नाश करते हैं।

जाका गुर भी अंधला, चेला, खरा निरंध।
अंधा अंधा ठेलिया, दुन्यूँ कूप पड़ंत।।
नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव।
दुन्यूँ बूड़े धार में, चढि पाथर की नाव।।

- कबीर

 

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१०.

मोरा हीरा हिराय गयो कचरा मा
कोई पूर्व कोई पश्चिम बतावै, कोई पानी कोई पथरा मा।
पंडित वेद पुरान बतावै, उरझ रहा जग झगरा मा।
पांच पच्चीस तीन के भीतर, लागि रहे बहु फिकरे मा।
सुर नर मुनि यति पीर औलिया, भूल भुलाय सब नखरा मा।
कहैं कबीर परख जिन पाया, बांध लिए निज अचरा मा।... १०

 

टिप्पणी

इस गीत में लोक कवि ने दुनियां के बाह्याचारों की ओर हमारा ध्यान खींचा है और इनके जाल में फंस कर किस प्रकार व्यक्ति का आत्मधन को जाता है और वह पछताता ही रहता है, इसका स्पष्ट रुप से उल्लेख किया है। इसलिए कबीर की शरण में जाना चाहिए और संसार के भंवर से अपने को बचा लेना चाहिए।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़त।
कहैं कबीर गुर ग्यानथैं, एक आध उबरंत।।

- कबीर

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१.

संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : १

२.

गबेल, श्रीमति सरोजनी : सुरति योग त्रैमासिक पत्रिका : रायपुर : मार्च २००१

३.

संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : ९२

४.

संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : ९३

५.

तिवारी, श्रीमति भारती : छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की परंपरा-वैविध्य के संदर्भ में गौरा-गीतों का सांस्कृतिक अनुशीलन : अप्रकाशित ग्रंथ : पृष्ठ : १७४

६.

संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : ९

७.

संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : ११

८.

संकलन : यादव, राजेन्द्र कुमार : छत्तीसगढ़ी लोकगीत : पृष्ठ : १३

९. संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : ९४
१०.

संकलन : दास, मनोहर : भजन मुक्तावली : वही पृष्ठ : १००

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